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लेख
भारत में इतने अध्यात्म के बावजूद इतनी दुर्दशा क्यों? || (2019)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
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प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, भारत अध्यात्म की राजधानी है और वहाँ इतने सारे आध्यात्मिक गुरु हैं। फिर भी भारत में इतनी परेशानियाँ क्यों हैं?

आचार्य प्रशांत: दो-तीन बातें हैं। पहली बात तो अध्यात्म संख्या का खेल नहीं है कि सौ या पाँच-सौ गुरु हो गए तो ज़्यादा संतोषजनक स्थिति हो जाएगी। यहाँ पर " इनपुट इज़ प्रपोर्शनल टू आउटपुट (इनपुट आउटपुट के लिए आनुपातिक है)" नहीं चलता। फैक्ट्रियों में ऐसा होता है कि पाँच मशीनें और लगा दीं तो आउटपुट बढ़ जाता है। अध्यात्म में ऐसा नहीं होता कि पाँच गुरु और लगा दिए तो आनंद बढ़ जाएगा या मुक्तजनों की तादाद और बढ़ जाएगी। ऐसा नहीं है।

एक काफ़ी होता है।

मानवता के इतिहास को अगर आप देखेंगे, तो आप नहीं पाएँगे कि कभी-भी ऐसा हुआ हो कि एक ही समय में और एक ही जगह पर १00-२00 ज्ञानी गुरु घूम रहे हों। कितने गुरु हैं, यहाँ मत गिनिऐ।

गुरु की गुरुता अगर जानना हो, तो उसका उसके शिष्यों पर प्रभाव क्या पड़ रहा है, यह देखिए। गुरु का परिचय उसकी पहचान, उसका प्रभाव है; गुरु कोई पदवी या तमगा नहीं है। गुरु वो जिसके होने से शांति आती हो, समझ आती हो, रोशनी आती हो।

अगर आप कह रहे हैं कि गुरु तो इतने हैं लेकिन शांति नहीं है, समझ नहीं है, रोशनी नहीं है, तो इसका मतलब वो गुरु है ही नहीं। बात ख़त्म! यह ऐसी ही बात है जैसे आप कहें कि इस भवन में इतने सारे बल्ब लगे हुए हैं फिर भी रोशनी बिलकुल नहीं है, इसका अर्थ यह हुआ कि जो कुछ लगा हुआ है, वह सब व्यर्थ है। उसको फिर आप रोशनी देने वाले उपकरण का नाम ही मत दीजिए।

गुरु रोशनी देने वाला उपकरण है। वह 'गुरु' कहलाएगा ही तब जब वह रोशनी देता हो। रोशनी नहीं दे रहा, तो गुरु कैसा?

कबीर साहब से आप पूछेंगे तो वह कहेंगे, 'गु अँधियारी जानिये, रु कहिये परकास।' जो अंधेरे से प्रकाश की ओर ले जाए, वह गुरु है। अंधेरा-ही-अंधेरा अगर समाज में दिख रहा हो, तो कहीं कोई गुरु है ही नहीं। हटाइए बात को ही।

दूसरी बात - जब आप कहते हैं भारत की स्थिति ख़राब है, तो उससे आपका आशय क्या है? क्या आप आर्थिक स्थिति की बात कर रहे हैं? नैतिक स्थिति की बात कर रहे हैं? राजनीतिक स्थिति की बात कर रहे हैं? किस स्थिति की बात कर रहे हैं? बहुत मायनों में भारत की स्थिति अभी-भी दुनिया के अधिकांश क्षेत्रों से कई बेहतर है, और वह इसीलिए हो पाया है क्योंकि भारत अध्यात्म का देश रहा है।

हम कुछ भी कह लें कि धर्म धोखा है, पाखंड है, पर हमें भूलना नहीं होगा कि भारत का जीवन धर्म ही है, अध्यात्म ही है। उसी की वजह से भारत की विशिष्टता कायम है। उसी की वजह से भारत मिटने नहीं पाया है। सत्य में नित्यता होती है न, एक स्थायित्व होता है न? तो भारत दुनिया का सबसे पुराना जीवित राष्ट्र इसीलिए है क्योंकि उस राष्ट्र के केंद्र में धर्म बैठा है, नहीं तो सब मिट जाते हैं—मिस्र मिट गया, ग्रीस मिट गया, चीन पूरी तरह बदल गया। भारत है, जहाँ पर एक धार है जो ना जाने कब से चली थी, और वह आज भी बह रही है—दूषित हो गई, पर बह अभी भी रही है।

प्र: अध्यात्म से जुड़ने के लिए आजकल बहुत सारे विकल्प उपलब्ध हैं, और सभी अच्छे और सच्चे लगते हैं। मुझे दुविधा यह है कि कहाँ जुड़ें? मेरे लिए क्या सही होगा, यह कैसे पता करें?

आचार्य: प्रयोग करना पड़ेगा, कोई और तरीका नहीं है। सुनी-सुनाई पर यक़ीन करने की कोई वजह नहीं है, प्रयोग करके देख लो। कसौटी बस एक है - कहाँ जाकर तुम्हारी समझ खुल रही है? जो बातें पहले नहीं समझ में आती थी, वह समझ आने लगीं? जो चीज़ें पहले उलझी-उलझी थीं, वह सुलझ गईं? गाँठें खुल गईं? तो यह तो तुम्हें आज़माना ही पड़ेगा। आज़माए बिना कोई तरीका नहीं है। और जब आज़माता है व्यक्ति, तो किसी एक जगह पर तुरंत समर्पित नहीं हो जाता। गुरुजन कितना भी बोलें कि "आओ बेटा और तत्काल समर्पित हो जाओ, हमारे चरणों पर ही लोट जाओ", कितना भी तुमसे कहें कि - "वह शिष्य बड़ा पापी है जो गुरु को समर्पित नहीं होता", मैं कह रहा हूँ समर्पण जल्दी से कर मत देना।

जीवन की कुछ कीमत है। वह इतना सस्ता नहीं कि जल्दी से उसको लाकर कहीं भी अर्पित कर दिया, समर्पित करके छोड़ आए। तो अपना मूल्य समझो और अपने आप को देख, समझकर, आश्वस्त होकर ही कहीं पर स्थापित करो। बल्कि जहाँ तुम पर यह दबाव पड़ता हो कि अब सोचना-समझना बंद करो, बस जल्दी से विश्वास कर लो, वहाँ समझ जाना कि दाल में कुछ काला है।

बुद्धि का भरपूर प्रयोग करो। अध्यात्म बुद्धि के ख़िलाफ़ तो नहीं ही है, अध्यात्म बुद्धि को जागृत करता है। बुद्धि कोई बेकार की बात है क्या? बुद्धि का भरपूर प्रयोग करो, और गहरे-से-गहरे सवाल पूछो‌। किसी भी बात को बस आँख मूँदकर, हाथ जोड़कर स्वीकार मत कर लो कि, "गुरु जी कह रहे हैं तो ठीक ही होगी।" खासतौर पर उन जगहों से बचना जहाँ विज्ञान-विरुद्ध और अंधविश्वास से भरी हुई बातें की जाती हों। जिस भी जगह पर, जिस भी पुस्तक में, जिस भी आश्रम में, या जिस भी गुरु के यहाँ तुम पाओ कि अंधविश्वास ज़रा भी मौजूद है, वहाँ से तुरंत हट जाना, उस किताब को तुरंत बंद कर देना।

भौतिक जगत में विज्ञान से ऊपर कोई सत्ता नहीं है, अध्यात्म अहंकार को गलाने का शास्त्र है। अध्यात्म तुम्हें नहीं बता देगा कि परमाणु के अंदर क्या है और ना ही तुम्हें अध्यात्म बता देगा कि ब्रह्मांड की लंबाई-चौड़ाई कितनी है। तुम कितना भी ध्यान कर लो आँख बंद करके, तुम्हें बिलकुल नहीं पता चलेगा कि पृथ्वी से सूर्य के मध्य दूरी कितनी है।

जो गुरुदेव कहते हों कि वो आँख बंद करते हैं और उन्हें जगत के सारे रहस्य पता चल जाते हैं, उनका समझ लेना कि, जगत के तो छोड़ दो, उन्हें आदमी के भी कोई रहस्य पता नहीं हैं। जगत के रहस्यों का पता तो विज्ञान की  किसी प्रयोगशाला में ही चलेगा।

अध्यात्म अहंकार को देखता है, उसको समझता है। अध्यात्म भीतर की मूल बेचैनी को मिटाने की दिशा में काम करता है। इधर-उधर की बातें करने में अध्यात्म की कोई रुचि नहीं है।

इन सब बातों से परख लेना कि कौन-सी जगह तुम्हारे लिए उपयुक्त नहीं है। कौन-सी जगह उपयुक्त है, वह तो तुम स्वयं ही बता सकते हो, मैं भी नहीं बता सकता।

जहाँ आँखों के आगे रोशनी आ जाए, जहाँ पर मन की गाँठें मिटने लगें, जहाँ डर हटने लगे, जहाँ मन से ईर्ष्या, संदेह, तमाम तरह की बेचैनियाँ  हटने लगें, वह जगह समझ लेना तुम्हारे लिए ठीक है।

प्र: आचार्य जी, हमारे देश में हर गली में मंदिर, मस्जिद और गिरजाघर हैं, फिर भी अध्यात्म का अभाव क्यों है?

आचार्य: मंदिर तो इंसान ने बनाया है। आप ग़ौर से देखो अगर तो इंसान मंदिर बनाकर क्या कर रहा है? इंसान कह रहा है कि, "मैंने जैसे अपने लिए घर बनाया है, वैसे ही मैं समझता हूँ कि जो अनंत है, वह भी किसी घर में रह सकता है।" तो अनंत के लिए भी घर बनाकर आप अनंत का नहीं, घर का सम्मान कर रहे हैं। आप कह रहे हैं कि घर इतनी बड़ी चीज़ है कि उसमें आनंद भी समा जाएगा। घर को इतनी बड़ी चीज़ बनाकर आप वास्तव में क्या कह रहे हैं? - कि, "घर का निर्माता बहुत बड़ा है", क्योंकि घर अपने आप तो आ नहीं गया। जब आप कहते हैं कि, "घर इतनी बड़ी चीज़ है कि उसमें आनंद भी समझ आएगा", तो वास्तव में आप कह रहे हैं कि, "मैं इतना बड़ा हूँ कि मैंने कुछ ऐसा बना दिया कि उसमें परमात्मा भी आकर बैठेगा।"

तो मंदिर काम नहीं आते।

मंदिर भी काम सिर्फ़ तब आते हैं जब मंदिर बोध का केंद्र हों, मंदिर के भीतर जीवित प्रकाश हो, नहीं तो मंदिर माने तो ईंट-पत्थर।

मंदिर हो, मस्जिद हो, गिरिजा हो, कुछ हो—सीधे-सीधे देखें तो ईंट-पत्थर ही तो हैं। कैसे काम आ जाएगा? वह भी काम तब आएँगे जब वहाँ कोई ऐसा बैठा हो जो मंदिर में प्राण भर दे। दक्षिणेश्वर के काली मंदिर में बैठते थे रामकृष्ण परमहंस, वह मंदिर काम आता। तिरुवन्नामलाई में बैठते थे रमण महर्षि, वह मंदिर काम आता। नहीं तो मंदिर फिर हमारा ही निर्माण है, हमारे ही जैसा है।

आपने ग़ौर किया होगा कि आजकल जो नए मंदिर बन रहे हैं, धृष्टता के लिए क्षमा चाहूँगा, पर वह नए-नए  मॉल्स जैसे ही हैं—बड़े भव्य हैं, बड़े चमकदार हैं। पुराने मंदिरों को आप देखें, और पिछले बीस-तीस साल में जिन महामंदिरों का निर्माण हुआ है, उनको देखें, तो आपको गुणवत्ता में सीधा फ़र्क़ नज़र आएगा।

आदमी जैसा होता है वैसा मंदिर बना देता है। आज आदमी के पास पैसा बहुत बढ़ गया है, तो मंदिर भी मॉल जैसा बना देता है। यह मंदिर कैसे काम आएगा? यहाँ जाकर किसको, कैसे शांति मिलेगी?

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