आचार्य प्रशांत आपके बेहतर भविष्य की लड़ाई लड़ रहे हैं
लेख
भक्ति बड़ी कि ज्ञान? || आचार्य प्रशांत (2023)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
8 मिनट
88 बार पढ़ा गया

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी नमस्कार। २०१८ का आपका एक वीडियो देखा था जिसमें आप अहम् की बात कर रहे थे और आपने बोला था कि अहम् से छुटकारा पाने के लिए कुछ विधियाँ हैं और साधना करनी होती है।

और एक टाइम में जब आप उसके लिए होता है कि आपको उससे निकलना है तो आपको वो सत्य ही बता देता है, आपको वो सत्य ही बता देता है कि तेरे को क्या करना हैआगे वो ख़ुद ही एक आपको रास्ता दिखा देता है।

तो क्या ये भक्तियोग में भी होता है। (प्रश्नकर्ता बहुत भावुक हो जाते हैं।) क्योंकि मैं बीस साल से भक्तियोग में हूँ मैंने अभी नारायण की पूजा की है। मुझे उनसे ज़्यादा प्रिय और कोई नहीं है। न अपने पेरेंट्स से। मैं ये नहीं कह रही कि मेरे पेरेंट्स(अभिभावक), मेरे इनलॉज(ससुराल), मेरे हस्बैंड(पति), मेरा बच्चा एवरीवन इज सपोर्टिव(मेरा बच्चा, पति सभी सहायक हैं)। आई गॉट एवरीथिंग इन लाइफ़(मैंने अपनी ज़िंदगी में सबकुछ पाया)। बट स्टिल(लेकिन फिर भी) मैं उससे प्रेम करती हूँ जो कि मेरा अभी तक है।

बट वो भक्तियोग में कुछ सालों में मुझे ऐसा एक्स्पीरीअन्स(अनुभव) हुआ पाँच-छह सालों में कि व्हाटएवर आई आस्क हिम आई गेट दी आंसर(जो कुछ भी मैंने उनसे पूछा मुझे उत्तर मिला)। और ये मेरी लाइफ में बड़े-बड़े इवेंट(घटना) हुए हैं मुझे नहीं पता कोई बिलीव(विश्वास) करेगा इस बात में नहीं करेगा। बट(पर) मुझे पहले ही पता चल गया था कि मेरी बेटी कब हो जाएगी

उन्होंने मुझे मतलब आई डोंट नो(मैं नहीं जानती)। मैं मेडिटेशन(ध्यान) करती हूँ या मैं सुबह पूजा में बैठ जाती हूँ क्या है। बट मुझे वो लाइफ के सारे इवेंट मुझे पहले ही पता चलने लगे गए थे पाँच-छह साल में ही हुआ है जब मैं बीस साल कि थी तब से मैंने भक्तियोग में आ गई थी। तो मेरा कहने का मतलब ये है कि अभी मैं भक्तियोग में हूँ और भक्तियोग से अब क्या हुआ कि मैं द्वैत सिद्धांत में विश्वास करती थी और अभी भी करती हूँ।

लेकिन जैसे-जैसे आपके कांटैक्ट(संपर्क) में आयी मैं अद्वैत को सुनने लग गयी। मेरे साथ लाइफ में ऐसा होने लग गया था एक टाइम(समय) में कि मैं ओवरथिंक(बहुत ज़्यादा सोचना) करने लग गई थी तो मैंने ही नारायण को बोला कि ऐसा कैसे हो सकता है मैं भक्तियोग में हूँ या तो मेरा समर्पण पूरा नहीं है, मेरा समर्पण नहीं है इसलिए मुझे ये ओवरथिंकिंग क्यों हो रही है ये तो नहीं होना चाहिए यानी कि कहीं न कहीं मेरे अंदर कुछ कमी है या मेरी भक्ति में कमी है या मेरे समर्पण में कमी है। तो आप मुझे बताओ कि मुझे क्या करना है नहीं तो मुझे किसी गुरु का बताओ। दैट सेम डे(उसी दिन) आपका वीडियो पॉप-अप(अचानक नज़र आना) हो गया और मैंने अद्वैत सुनना शुरू कर दिया। दो(यद्यपि) कि द्वैत इतने सालों से फ़ॉलो(अनुसरण करना) कर रहा था।

तो आपने बोला था 'वो सत्य ही बता देता है आपको रास्ता।' तो क्या ये भक्तियोग में जो मैंने मेरे साथ हो रहा है कि वो भी सही है या आप इसको कहोगे कि ये तुम्हारा अहम् ही तुम्हें मूर्ख बना रहा है?

आचार्य प्रशांत: देखिए, सारे हिसाब-किताब के अंत में न ये भी मात्र शब्द ही हैं द्वैत-अद्वैत। अंततः जब सब आप लिख डालते हो कर डालते हो और कहते हो, ‘पूरा निपट गया’ तो बस एक चीज़ मायने रखती है नीयत, इरादा, कामना जिसके लिए विशुद्ध शब्द है प्रेम।

नहीं तो फिर द्वैत-अद्वैत ही क्यों बोलना है फिर उसमें विशिष्ट अद्वैत भी ले आइए और फिर आप सिर्फ़ जो वेदांत कि धाराएँ हैं उनका नाम क्यों लेंगे फिर उसमें न्याय वैशेषिक भी ले आइए सांख्य और योग भी ले आइए फिर उसमें आप बस भारतीय दर्शन तक भी क्यों सीमित रहें और भारतीय दर्शन में भी अभी हमने जिनकी बात करी वो सब आस्तिक दर्शन हैं फिर पहले तो भारतीय में ही नास्तिक दर्शन लेकर आइए जैन, बौद्ध, चार्वाक ये सब लेकर आइए।

फिर आप बाहर जाइए पश्चिम में तो वहाँ भी एक से एक दर्शन रहे हैं। ये कोई कोई अंत ही नहीं है फिर मैं आपको बस द्वैत-अद्वैत कि क्या तुलना बताऊँगा।

प्र: क्योंकि आचार्यजी मैं भक्ति से अब ज्ञानयोग कि तरफ़ आ रही हूँ, मुझे लगता है अब मुझे जानना है मैंने मान तो लिया?

आचार्य: मुझे कभी समझ में ही नहीं आया कि एक से दूसरी तरफ़ जाने का अर्थ क्या होता है प्रेम तो प्रेम होता है न।

प्र: हांजी वो अभी भी है।

आचार्य: तो बस ख़त्म बात। इसमें कोई ऐसा नहीं है मैं, मुझे ये बात शुरू से ही समझ में नहीं आयी थी जब समझ में नहीं आयी तो मैंने एक-एक शास्त्र को कई-कई-कई-कई बार पढ़ा ये समझने के लिए कि ठीक-ठीक बताओ कहाँ पर तुम कहते हो कि मार्ग सारे अलग हो जाते हैं।

तो ये बात मुझे आज से बीस-तीस साल पहले भी समझ में नहीं आती थी मेरी बुद्धि को आज भी समझ में नहीं आती कि आप सारे मार्गों को अलग कहाँ दिखा रहे हो। मैं तो गीता देखता हूँ लोग कहते हैं, ‘इसमें अठारह अध्याय अठारह योग हैं मुझे तो एक कृष्ण दिखाई देते हैं।‘ कहाँ से तुम अठारह तरह के योग ले आओगे तुम्हारे बुद्धि की बात है तुम जानो। उन अठारहों में मुझे तो बस एक ही चीज़ दिखाई देती है। और आप श्रीकृष्ण से पूछते हैं तो वो भी यही बोलते हैं कि तुम कहाँ से ले आओगे कर्मयोग बिना ज्ञानयोग के। कौनसा ज्ञान है जो बिना भक्ति के पूरा हो पाएगा कौन सी भक्ति है जो ज्ञान के बिना अपने लक्ष्य तक पहुँच जाएगी।

तो ये सब एक ही होते हैं मनुष्य का मन अलग-अलग तरीक़े का होता है, है न। तो वो क्या करता है कि जब उसे प्रेम उठता है तो अपनी दशा के अनुसार वो जितना समझ पाता है उसके अनुसार वो एक क़दम बढ़ाता है। उसको बहुत महत्व नहीं देना चाहिए कि क़दम उसने कैसे रखा क्या बोलकर रखा।

महत्त्व बस इस बात को देना चाहिए कि क़दम उसने खरे प्रेम में रखा कि नहीं रखा। जब आप कहती हैं, 'नारायण हैं आपके लिए' तो आप कुल मिलाकर के यही कह रही हैं कि आपके लिए आपसे आगे आप से बड़ा कुछ है। आप कह रही हैं कि आपने जाना है कि आपकी सीमित हस्ती ही आख़िरी सत्य नहीं है। कि कोई नारायण हैं जो बढ़े हैं आपसे आगे के हैं इतने सुंदर हैं कि आप उन्हें प्रेम कर सकती हैं इतने सच्चे हैं कि आप उन पर विश्वास कर सकती हैं, ठीक है न।

तो जिन्हें आप नारायण कह रही हैं उन्हीं को आप अगर आत्मा बोलने लगेंगी तो ज्ञानयोग हो जाएगा तो हम शब्दों के फेर में काहे को पढ़े।

जिन्हें आप नारायण कह रही हैं और जिनका चिंतन आप सगुण तौर पर कर रहीं हैं, है न, उन्हीं को अगर आप आत्मा बोल देंगी तो आपको कोई कह देगा अरे! ये तो ज्ञान मार्गी हैं। तो हम क्यों खिलवाड़ करें शब्दों के साथ कुल मिलाकर बात ये है कि आप अपनी ही हस्ती को आख़िरी मानते हो या किसी को अपने से बड़ा भी मानते हो।

आध्यात्मिक आदमी वो है जो जान गया है कि अपनी हस्ती को वो जितना जानता है उसकी सच्चाई उससे कहीं ज़्यादा बड़ी है, बस ये परिभाषा है। वो जो बड़ी सच्चाई है उसको तुम मुक्ति बोल दो, उसको सत्य बोल दो, उसको ब्रह्म बोल दो, उसको ईश्वर बोलो, नारायण बोलो, हरि बोलो, विष्णु बोलो, शिव बोलो वो तुम्हारी मर्ज़ी है; जो बोलना बोलो, गॉड (भगवान) बोल दो, ठीक है; जो बोलना है बोलो, मर्ज़ी है।

जो नास्तिक बोलते हैं अपनेआप को एथीइस्ट(नास्तिक) वो भी फ्रीडम (आज़ादी) में यक़ीन रखते हैं कम से कम तो तुम उस बड़ी चीज़ को फ्रीडम भी बोल सकते हो कि फ्रीडम वो कहते हैं, ' फ्रीडम इज सच ऐन इम्पॉर्टन्ट वैल्यू दैट टू अपहोल्ड इट, आई एम प्रिपेयर्ड टू ले डाउन माई लाइफ।'(स्वतंत्रता इतना महत्वपूर्ण मूल्य है कि इसे बनाए रखने के लिए मैं अपनी जान देने के लिए तैयार हूँ।) तो यही तो कह रहे हैं कि मेरे जीवन से भी बड़ा कुछ है। वो कहते हैं, ' फ्रीडम इतनी बड़ी चीज़ है कि हम उसके लिए जान दे देंगे।'

बस तो आस्तिक वही है, आध्यात्मिक आदमी वही है जिसके पास कुछ अपने से बड़ा हो जिसके लिए जान भी दी जा सकती है जान देना माने देह से बड़ा कुछ, देह के प्राण जाते हैं न। कुछ ऐसा होना चाहिए आपके पास जो आपके लिए आपके देह से, आपके जीवन, आपके प्राण से बड़ा है उसका नाम चाहे हरी हो, विष्णु हो, नारायण हो, शिव हो, चाहे आत्मा हो, गॉड हो, अल्लाह हो या चाहे उसका नाम सिर्फ़ फ्रीडम हो कोई फ़र्क नहीं पड़ता।

आपके लिए आप से बड़ा कोई है न! बस हो गया।

क्या आपको आचार्य प्रशांत की शिक्षाओं से लाभ हुआ है?
आपके योगदान से ही यह मिशन आगे बढ़ेगा।
योगदान दें
सभी लेख देखें