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लेख
भगवान में विश्वास क्यों? || आचार्य प्रशांत (2017)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
16 मिनट
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प्रश्नकर्ता: नमस्ते आचार्य जी, मेरा प्रश्न है कि हम आदमी की सत्ता से बड़े किसी सिद्धांत में विश्वास क्यों करें? कोई परम् सत्ता, परमात्मा, भगवत्ता इत्यादि है, इसमें यकीन ही क्यों करें?

आचार्य प्रशांत: किसी और की ख़ातिर आप नहीं यकीन करेंगे, अपनी ख़ातिर करना पड़ेगा। क्योंकि अगर आप ही आप हैं तो दुख ही दुख है। आप यदि अपने होने से, अपने अस्तित्व से, अपनी सत्ता और अपनी बीइंग (हस्ती) से संतुष्ट हों तो कोई फिर ज़रूरत ही नहीं है किसी परमात्मा में, अपने बाहर से, अपने बियोंड (परे) की किसी सत्ता में निष्ठा रखने की। किसी गुरु की कोई ज़रूरत नहीं, किसी पथ-प्रदर्शक की, किसी ग्रंथ की कोई ज़रूरत नहीं, क्योंकि तब आप स्वयं ही परमात्मा हैं।

जो अपने में पूरा हो गया, जो अपने में स्थापित और संतुष्ट है, उसका संतुष्ट होना ही बताता है कि उसे परमात्मा के सिद्धांत की ज़रूरत नहीं है। क्योंकि परमात्मा अब उसके लिए सिद्धांत रहा ही नहीं। परमात्मा अब उसके लिए उसके हृदय की जीती-जागती हक़ीक़त बन चुका है। मात्र ऐसा व्यक्ति कह सकता है कि मुझे किसी परमात्मा की ज़रूरत नहीं।

जो अपनेआप में पूरा हो गया हो, जिसे ज़िंदगी से कोई शिकवा-शिकायत न बची हो, जिसकी कोई अतृप्त कामना न हो, जो चोट न खाता हो, जो डर न जाता हो, जो असुरक्षा और अविश्वास में न जीता हो, सिर्फ़ वो कहे कि उसे परमात्मा की ज़रूरत नहीं क्योंकि वो अपने में पूरा हो गया। उस पूर्णता का ही नाम परमात्मा है।

लेकिन जैसा जीवन एक आम आदमी जीता है जिसमें दर्द है, चोट है, आँसू हैं, तमाम तरह की कुंठाएँ और क्लेश हैं, उनमें उस आदमी को ही ये उत्तर देना होगा कि क्या वो ऐसे ही जीना चाहता है। कोई है यहाँ पर ऐसा जिसे कोई अतृप्ति न हो? और यदि है यहाँ पर ऐसा तो मैं स्वागत करूँगा कि वो यदि कह दे कि कोई परमात्मा नहीं, क्योंकि वो बिलकुल ठीक कह रहा है, कोई परमात्मा नहीं।

परमात्मा पूर्ण है, उसके अलावा कुछ नहीं। जब उसके अलावा कुछ नहीं तो वो अपनी पहचान कर ही नहीं सकता। पहचान करने के लिए दो चाहिए। मात्र परमात्मा को ही हक़ है ये कहने का कि कोई परमात्मा नहीं। मात्र सत्य को ही हक़ है ये कहने का कि कोई सत्य नहीं।

"जो बिछड़े हैं पियारे से, भटकते दर-ब-दर फिरते।" एक तरफ़ तो तुम दर-ब-दर भटकते फिरते हो, दूसरी ओर तुम ये भी कहते हो कि नहीं, पिया हमारे पास ही हैं। क्यों झूठ बोलते हो? किसको धोखा देते हो? सिर्फ़ एक कबीर कह सकता है, "हमारा यार है हममें, हमन को इंतज़ारी क्या, हमन को बेक़रारी क्या!" कबीर मात्र को हक़ है कहने का कि हमन को कोई इंतज़ारी नहीं, हमन को कोई बेक़रारी नहीं। आप अगर बोलोगे तो झूठ हो जाएगा, आत्म-प्रवंचना। ख़ुद ही धोखा खाओगे, चोटिल होओगे, आँसू बहाओगे।

ईश्वर पर विश्वास कर रहे हो तो — अपनी प्रथम पंक्ति को दोहराता हूँ — ईश्वर पर एहसान नहीं कर रहे। और मैं ईश्वर कहूँ, परमात्मा कहूँ, सत्य कहूँ — सब एक जानना; मैं तुमसे आगे की किसी इकाई की बात कर रहा हूँ। उस पर यकीन करके उसका भला नहीं कर रहे, अपना भला कर रहे हो। क्योंकि अगर ईश्वर नहीं है तो, मैं दोहरा रहा हूँ, कौन है — तुम ही तुम हो। और अगर तुम ही तुम हो तो फिर तुम जानते हो कि कैसे हो तुम। जैसे हो अगर ऐसा ही बना रहना है तो कह दो कि कोई परमात्मा नहीं।

हाँ, अगर अपने से ऊपर उठने की ख़्वाहिश है, अगर इस दुख, दर्द, पीड़ा, संताप, इस क्षुद्रता से ऊपर उठना चाहते हो तो तुम्हें मानना पड़ेगा न कि तुमसे ऊपर कुछ है। बात क्या ज़ाहिर नहीं है? अगर तुमसे ऊपर कुछ है ही नहीं तो तुम ऊपर उठोगे कहाँ? और अगर तुम ऊपर उठ नहीं सकते तो तुम्हें कैसा रहना पड़ेगा — जैसे तुम हो। और जैसे तुम हो वैसा बना रहने को तुम ही राज़ी नहीं हो। किसी ईश्वर ने आकर के तुममें असंतोष नहीं भर दिया है। तुम तो स्वयं ही नहीं राज़ी हो न वैसा रहने को जैसे हो? उसका प्रमाण हैं इच्छाएँ। कोई है यहाँ पर जिसको कोई इच्छा न हो?

इच्छा का क्या अर्थ होता है? इच्छा का अर्थ होता है ‘मैं जैसा हूँ वैसा नहीं रहना चाहिए; मुझे कुछ और बदलना है, कुछ और होना है, कुछ और चाहिए मुझे’। इच्छा की यही तो परिभाषा है न। तो इच्छा ही क्या बताती है? कि तुम अपनेआप से सहमत नहीं हो। और होना चाहिए भी नहीं। भली चीज़ है इच्छा।

तो ये व्यर्थ का विषय है। ये अंधा विवाद है — ईश्वर है कि नहीं। और ये विवाद सदियों से चला आ रहा है। कोई कहता आस्तिक, कोई कहता है नास्तिक; मूर्खतापूर्ण बात है। तुम तो ये पूछो तुम हो कि नहीं। कोई है यहाँ पर जो अपनी हस्ती से इनकार करता हो? तुम कह दो ये दीवार भी नहीं है, तो 'ये दीवार भी नहीं है' ये कहने वाला कौन है? तुम। और आगे बढ़ जाओ, कह दो मैं ही नहीं हूँ। तुम भी नहीं हो तो ये कहने वाला कौन है? तुम। ‘नहीं मानते हम ईश्वर को’, अपनेआप को मानते हो? कुछ आपको जवाब देना पड़ेगा।

प्र: जी।

आचार्य: ईश्वर को मत मानो। मेरा कोई आग्रह नहीं है कि सब विश्वासी हों। अपनेआप को मानते हो कि नहीं मानते हो? तुम हो? 'नहीं साहब, हम भी नहीं हैं।' अच्छा, तुम भी नहीं हो तो रोता कौन है? तुम भी नहीं हो तो चोट लगने पर हाय-हाय कौन करता है? तुम भी नहीं हो अगर, तो लाओ ये शर्ट (कमीज़) उतारे लेते हैं। बहुत ग़रीब हैं दान कर आएँगे। तुम तो हो ही नहीं, तो ये शर्ट फिर किसकी?

तो ये व्यर्थ की बात मत करना कि ईश्वर भी नहीं है और हम भी नहीं हैं, ‘ आइ एम नॉट , मैं तो हूँ ही नहीं।’ तुम नहीं हो तो ये शर्ट हमें दे दो। तुम नहीं हो तो हम तो हवा में हाथ चला रहे हैं न। ये जिस चीज़ पर लगा, ये तुम्हारा गाल तो नहीं हो सकता और ये जो लाल-लाल उभर आये हैं ये मेरी उँगलियों के निशान नहीं हो सकते। तो ये व्यर्थ की बात मत करना कि नहीं, हम भी नहीं हैं, इत्यादि-इत्यादि। तुम हो। ठीक है?

इतने पर सहमत हैं? तुम हो। तुम हो तो तुम्हारी दो अवस्थाएँ हैं। साथ-साथ चलो, तुम हो तो तुम्हारी दो अवस्थाएँ हैं। एक अवस्था वो जिसमें तुम छोटे हो, कुंठित हो, परेशान हो, द्रवित हो। इस अवस्था को किसने-किसने अनुभव करा है, हाथ खड़ा करें। और तुम्हारी एक दूसरी अवस्था भी है जिसका हो नहीं सकता कि तुम्हें कभी-न-कभी दर्शन हुआ ही न हो। कभी भी तुम्हें उसका दर्शन न हुआ होता तो तुम पागल हो जाते, तुम अपना सिर दीवार पर दे मारते। वो दूसरी अवस्था है जब तुम मौज में होते हो, हल्के होते हो। जब तुम्हारे चेहरे पर एक अकारण स्मिता होती है। जब तुम्हें पता भी नहीं होता कि तुम कितने भारमुक्त हो। कोई चिंता नहीं, कोई निराशा नहीं।

कोई है ऐसा जिसने कभी भी उस अवस्था को अनुभव न करा हो? सबने करा है न? हाथ फिर से खड़ा करिए। हाँ, हम सबने उस अवस्था को भी जाना। तो तुम एक हुए कि दो?

प्र: दो।

आचार्य: तुम दो हो। दो कौन-कौन?

प्र: एक कटा हुआ और एक हल्का और मुक्त।

आचार्य: एक वो जो रोता कलपता रहता है, सुख-दुख का झूला झूलता रहता है। कभी आशा में गिर जाता है, कभी निराशा में गिर जाता है। एक वो हो तुम। और दूसरे कौन हो तुम?

प्र: जो अभी मौजूद है।

आचार्य: हाँ, जिसका नाम है मौजूदगी, जिसका नाम है मस्ती। जिसे मौज कह दो चाहे मौजूदगी कह दो, बात एक ही है। इन दो में ये जो दूसरा है इसको कहते हैं परमात्मा। तो हम परमात्मा को नहीं मान रहे, हमारे ही भीतर वो जो दूसरा बैठा हुआ है उसका नाम परमात्मा है। मत मानो परमात्मा को। अपनी ही निर्मल अवस्था को कह दो, ‘इसी को कहते हैं परमात्मा।’ तुम्हारी ही जो शुद्धतम हालत है उसको कहते हैं परमात्मा।

किसी और ईश्वर में विश्वास करने की ज़रूरत भी नहीं है, नहीं करो तुम्हारा मन करता तो। भूल जाओ कोई राम, कृष्ण, शिव; जीसस को, अल्लाह को भूल जाओ, सारे नामों को भूल जाओ। तुम्हें किसी नाम से एतराज़ हो तो मैं कहता हूँ भूल ही जाओ उसको। अपनेआप को याद कर लो। मन संभला तो आत्मा। मन स्थिर हुआ तो आत्मा। मन निर्दोष, मन निर्मल तो आत्मा। ठीक?

परमात्मा को सिद्धांत बना भी मत लेना। हर सिद्धांत मन का बोझ और मल ही होता है और हम दूसरी ओर कह रहे हैं ‘मन का निर्मल होना आत्मा है।’ तो जब परमात्मा के भी सिद्धांत से मन मुक्त हो जाए तब जानो कि परमात्मा उतरा। ठीक?

प्र२: मैंने किताब पढ़ी है 'फियर', उसका जो दूसरा अध्याय है वो प्लानिंग (योजना) के ऊपर है। तो उस किताब को पढ़ने के बाद प्रश्न उठा है कि इफ़ प्लानिंग इज़ ड्यू टु फियर, देन हाउ आर वी सपोज्ड टू लीड आवर लाइफ़ ? अगर योजनाएँ उठती ही डर से हैं तो जियें कैसे?

आचार्य: अनायोजित जीवन क्या होता है? बता दिया कि अनायोजित जीवन क्या होता है तो उसकी योजना बना लोगे। अनायोजित जीवन ऐसा ही होता है कि तुमने ये सवाल पूछा और मुझे नहीं पता था कि तुम ये सवाल पूछोगे पर मुझे किसी पर भरोसा है कि जो भी सवाल आएँगे सामने ज़िंदगी के, उसका उत्तर वो दे देगा। तो मैं जब यहाँ बैठता हूँ तो मेरे सामने प्रश्न आते हैं। जब सामने प्रश्न आते हैं तो उत्तर भी उठ जाते हैं। इसी को कहते हैं अनायोजित जीवन।

ये भेद स्पष्ट होना चाहिए कि क्या है जो आयोजित हो सकता है और क्या नहीं।

तुम यहाँ आये हो, एक वक़्त निर्धारित किया गया, तुमने योजना बनायी होगी कि यहाँ पर साढ़े दस या ग्यारह बजे तक तुम्हें पहुँच जाना है। उसकी योजना बनाना ठीक है लेकिन अभी अगर बैठे हुए हो और मन में योजनाएँ ही चल रही हैं तो खेल ख़राब हो जाएगा।

जीवन जीने की कला इसी में है कि जानो कि क्या है जिसका पहले से ही अनुमान लगा लिया जा सकता है और क्या है कि जिसका कोई अनुमान नहीं हो सकता, जिसकी कोई प्रत्याशा नहीं हो सकती। क्या है जो आदमी के हाथ का है तो आदमी उसको गढ़ सकता है, उसका निर्माण कर सकता है, उसका मालिक हो सकता है और क्या है जो आदमी के हाथ का बिलकुल नहीं है; तो वहाँ पर आदमी को मालकियत छोड़ देनी चाहिए।

हम दोनों तरह की ग़लतियाँ करते हैं। जो हमारे हाथ में होता है, हम कई बार आलस के कारण उसको करते नहीं और कहते हैं कि हम क्या करें, ये तो भगवान की मर्ज़ी है। नहीं, वो भगवान की मर्ज़ी नहीं है। भगवान ने कमान तुम्हारे हाथ में सौंप दी थी। भगवान ने स्वामित्व तुम्हें दे दिया था। तुमने आलस के कारण, तुमने वृत्तियों और प्रमाद के कारण खेल ख़राब करा और अब तुम कह रहे हो, ‘ये तो लिखा हुआ था, ये तो होनी को मंज़ूर था।’ नहीं, ये झूठी बात है। लिखा हुआ नहीं था, खेल तुमने ख़राब किया। ये पहली तरह की ग़लती है।

पहली तरह की ग़लती वो होती है कि जहाँ हम उसको भी आयोजित न करें जिसको आयोजित किया जाना ज़रूरी है। और दूसरी ग़लती वो होती है जहाँ आप उसको आयोजित करने की चेष्टा करें जो आयोजित किया ही नहीं जा सकता।

समझ में आ रही है बात?

एक ग़लती ये हो सकती है कि तुम यहाँ वक़्त पर पहुँचो ही नहीं और दूसरी ग़लती ये हो सकती है कि तुम यहाँ वक़्त पर तो पहुँच गये लेकिन यहाँ पहुँचने के बाद भी तुम्हारे भीतर वक़्त चालू ही रहा। दोनों ग़लतियों से बचना। जानना कि किसका दर्ज़ा क्या है।

अभी थोड़ी देर पहले मैं नित्य और अनित्य की बातें कर रहा था। यही समझा रहा था, पता होना चाहिए आदमी को कि क्या है जो समय का है। जो समय का है उससे वही बर्ताव करो जो समय को मिलना चाहिए। तुम समय हो, समय तुम्हारा है, एक ही तल पर हो। तुम उसके साथ खेल सकते हो, तुम उस पर हाथ रख सकते हो। वो तुम्हारी पहुँच और पकड़ का है। और तुम्हें ये पता होना चाहिए कि क्या है जो समय से बाहर का है, उसके सामने बस सिर को झुका देना। वहाँ पर गुस्ताख़ी मत कर बैठना।

न तो ये ग़लती करना कि जो कुछ संसार का है उसको कहने लग जाओ कि न, ये कहीं और का है, हम इसको नहीं समझ सकते, हम इसको नहीं जान सकते। संसार को लेकर के बड़ा वैज्ञानिक मन रहे तुम्हारा, बड़ा तार्किक मन रहे और जिज्ञासु रहे। बात-बात में सवाल पूछो। कहीं रुको मत। पदार्थ के भीतर घुस जाओ। अणु-परमाणु पर भी मत रुको, और आगे जाओ, बिलकुल पता करो ये चीज़ क्या है। अंतरिक्ष को भेद जाओ, आकाशगंगाओं के पार चले जाओ, कहीं रुको मत, सब संसार है। तुम्हें किसी ने नहीं कह दिया कि तुम ब्रह्मांड के छोर तक नहीं जा सकते, बिलकुल जा सकते हो।

संसार है और इस पर तुम्हारा हाथ रखा जा सकता है। सब तुम्हारी पकड़ के भीतर का है। जानो, उत्सुकता करो, प्रयत्न करो, पुरुषार्थ करो, आगे बढ़ो। वहाँ रुकना नहीं। और जो संसार के बाहर का है वहाँ चले मत जाना। वहाँ बिलकुल स्थिर खड़े रहना, सिर झुकाये हुए। वहाँ तुम्हारा सिर उठ न जाए। मैं कह रहा हूँ संसार के सामने सिर झुक न जाए और परमात्मा के सामने सिर उठ न जाए। दोनों में से कोई भी भूल मत कर बैठना। संसार जाना जा सकता है। संसार में कुछ भी अज्ञेय नहीं। वहाँ बुद्धि चलाओ, वहाँ प्रयास करो, वहाँ गणित बिठाओ, प्रयोग करो। और परमात्मा के सामने अपनी बुद्धि से कहो — हथियार डाल दे, चुप हो जा, घुटनों पर बैठ जा।

पहली बात आज यही करी न कि दो हैं हम। तो चूँकि ये दो अलग-अलग हैं इसीलिए इनके साथ अलग-अलग बर्ताव होना चाहिए। कुछ है तुम्हारे भीतर जिसको पूरे अनुशासन की ज़रूरत है। उसको तुमने अनुशासन नहीं दिया तो बात गड़बड़ हो जाएगी। और कुछ है तुम्हारे भीतर जिसको तुम सिर्फ़ प्रेम और समर्पण दे सकते हो। तुम्हारे भीतर दोनों हैं।

तुम्हारे भीतर वो जिसको अनुशासित किया जाना चाहिए, उसे यदि तुमने अनुशासित नहीं किया तो वो तुम पर सवार हो जाएगा, तुम पर हावी हो जाएगा। जैसे तुम्हारा पालतू बंदर तुम्हारा मालिक बन बैठा हो। उसको अनुशासित करने की ज़रूरत है। और तुम्हारे ही भीतर कोई ऐसा बैठा हुआ है जिसके ऊपर अपनी योजनाएँ मत चलाना, जिसकी इच्छा को माथे पर रखना, शिरोधार्य करना।

सुबह सोकर नहीं उठ पा रहे हो, ये कौन है जो इनकार कर रहा है सुबह सोकर उठने से, इसको अनुशासन दो। इसके सामने मत झुक जाना, इसकी इच्छा मत मान लेना। और तुम्हारे ही भीतर कोई है जिसे मौन बहुत रुचता है, जो सच से नीचे राज़ी ही नहीं होता, जिसे जटिलताएँ सुहाती नहीं, जो सीधा और सरल है, उसके ऊपर तुम सवार होने की कोशिश मत करना। वो तुम्हारे अनुशासन में नहीं चलेगा, तुम्हें उसके अनुशासन में चलना पड़ेगा। तुम उसके मालिक नहीं हो पाओगे, तुम्हें उसकी मालकियत स्वीकार करनी पड़ेगी। वो जो बोले, उसको सुनो, उसके आगे सिर झुका दो।

कोई बात इसमें?

प्र: सर, जैसे अभी ये दो हैं तो ऐसे लग रहा है कि द्वैत है, फिर अद्वैत क्या है?

आचार्य: ये जो दो हैं इनमें से जो पहला है उसके भीतर हज़ारों द्वैत हैं, वो एक नहीं है। ये जो दो हैं — एक मन है, एक आत्मा है; मन में द्वैत ही द्वैत हैं, आत्मा अद्वैत है। ये जितने द्वैत हैं वो आत्मा में समाने के लिए व्याकुल हैं। सारे द्वैतों की ख़्वाहिश ही यही है कि अद्वैत मिल जाए। द्वैत है और अद्वैत है — इसको एक नया द्वैत मत बना लेना कि ये भी दो हो गये तो ये भी तो द्वैत हैं, नहीं। द्वैत में जो दो होते हैं वो एक ही तल पर होते हैं, एक-दूसरे की छाया होते हैं, बराबरी के होते हैं। द्वैत-अद्वैत बराबरी के नहीं हैं।

जागृति और मूर्च्छा, द्वैत के दो छोर नहीं हैं। हाँ, मूर्च्छा में तमाम तरह के भ्रम रहते हैं, विपर्यय स्वप्न रहते हैं, वो द्वैत के हैं। सारी मूर्च्छाएँ जागृति में समाहित हो जाती हैं, घुल जाती हैं। द्वैत के दो छोरों में से कोई भी छोर दूसरे में घुल नहीं सकता। काला सफेद में घुल नहीं जाएगा, रात दिन में घुल नहीं जाएगी, दोनों का पृथक अस्तित्व हमेशा रहेगा। दोनों अपनी-अपनी जगह विराजमान रहेंगे और जहाँ एक होगा वहाँ दूसरा नहीं होगा। यहाँ काला है आप नहीं कहोगे कि काले के समानांतर सफेद भी बैठा हुआ है, काला और सफेद एक हैं। आप ये नहीं कहोगे कि अभी रात भी है और दिन भी है।

हाँ, जहाँ अद्वैत है वहाँ हज़ार क़िस्म के द्वैत हो सकते हैं। अद्वैत एक जड़ है, एक मूल है और द्वैत है उसकी हज़ारों फूल-पत्तियाँ, वो एकसाथ हो सकते हैं।

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