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लेख
बल हमारी सच्चाई है, कमज़ोरी हमारा ढोंग (25 साल का छोटू!) || आचार्य प्रशांत (2022)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
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प्रश्नकर्ता: नमस्ते आचार्य जी। निष्काम कर्म कर पाने के लिए क्या योग्यता होती है और इसमें अनुग्रह या अनुकम्पा का क्या स्थान है?

आचार्य प्रशांत: योग्यता नहीं होती है, स्थिति होती है। इसमें तुमको पात्रता नहीं चाहिए, तुम्हारी स्थिति ही काफ़ी होती है तुम्हें निष्कामता की ओर भेजने के लिए।

प्र: मतलब पूर्णता की स्थिति?

आचार्य: नहीं, पूर्णता नहीं अपूर्णता की स्थिति। तुम जब अपूर्ण हो तो तुम्हें पूर्णता चाहिए न? तुम्हें दुनिया से क्या काम? यही निष्कामता है। निष्कामता के लिए तुम्हें कोई पात्रता नहीं चाहिए, तुम्हें ये अभिस्वीकृति चाहिए, ये समझ चाहिए कि यहाँ ठोकरों के अलावा कुछ नहीं मिलना है।

नहीं समझ में आया हो तो बोलो।

और अनुग्रह वगैरह की कोई बात नहीं है इसमें, चुनाव की बात है। अनुग्रह बोलकर के तो टाल दिया, किसी और पर डाल दिया कि उसका अनुग्रह होगा तो हमें फिर निष्कामता होगी, नहीं तो नहीं होगी। कोई अनुग्रह वगैरह की बात नहीं है।

देखो, ले-देकर जानते तो सभी हैं कि कटोरा खाली है, मिला तो कुछ है नहीं। और ये जानने के लिए किसी धर्मग्रन्थ की भी ज़रूरत नहीं। आइने के सामने खड़े हो जाओ, अपना मुँह बता देता है कि ज़िन्दगी में क्या मिला है, आँखें बता देती हैं कि कितनी रिक्तता है। पता तो सबको है ही कि मामला यहाँ बन तो रहा नहीं कुछ। बात अटकती है चुनाव पर।

कुछ लोग होते हैं जिनमें ये साहस ही नहीं होता जैसे, कि वो मान लें कि चोट-ही-चोट खा रहे हैं और दुत्कार पा रहे हैं और बदलाव ज़रूरी है, वो लगे ही रहते हैं अपने ढर्रों पर। और एक दूसरा मन होता है जो चयन करता है, चयन। अनुग्रह की बात नहीं है, तुम्हारे अपने चुनाव की बात है। वो चयन करता है कि अपनेआप को और धोखा अब नहीं दे सकता।

और इसमें कोई बाहरी शक्ति सहायक नहीं होने वाली, ये तो देखो तुम्हें ही करना है चुनाव। ठीक है? या तुम दूसरे शब्दों में सुनना चाहते हो तो कह सकते हो कि बाहर से जितनी सहायता मिल सकती है, वो मिल ही रही है। वो सहायता भी तुम्हें लेनी है कि नहीं लेनी है, ये तुम्हारे चुनाव की बात है।

तो अनुग्रह कुछ नहीं होता, चुनाव ही सबकुछ होता है। अनुग्रह इतना सर्वव्यापक है, इतना बेशर्त है कि उसकी बात करना ही व्यर्थ है। कुछ ऐसा हो जो कभी-कभार होता हो तो उसको हम कुछ मूल्य भी दें। अनुग्रह अमूल्य है क्योंकि अनुग्रह निर्विशेष है। वो सदा है, वो प्रतिपल है। वो हवा की तरह है, वो हर जगह है, चुनाव तुम्हें करना है कि तुम कब साँस लोगे।

तुम साँस नहीं ले रहे, तुम कहो, ‘जब हवा का अनुग्रह होगा तो साँस लूँगा।’ ये कोई बात है! तुम कहो, ‘जब हवा की अनुकम्पा होगी, तब हम साँस ले लेंगे।’ ये तर्क है कोई! और तुमने जबरन अपनेआप को रोक रखा है, नाक पर क्लिप लगा रखा है कि साँस मैं लूँगा नहीं, फिर कह रहे हो, ‘अभी हवा की अनुकम्पा नहीं हो रही, साँस कैसे लें?’ मर रहे हैं दम घुटने से — ‘अनुग्रह नहीं है न!’ ये कोई बात है! हम सब यही कहते हैं लेकिन।

आप अक्सर भाग्य वगैरह की जो बात करते हैं, उसका सम्बन्ध इसी अनुग्रह से है। कहते हैं न, ‘अभी क़िस्मत ठीक नहीं चल रही है।’ वो हमेशा ठीक होती है, या ऐसे कह लो कि वो हमेशा एक जैसी होती है। क़िस्मत नहीं बदलती, आदमी का मन बदलता है। जिस दिन तुम्हारा मन बदल जाता है, उस दिन क़िस्मत बदल जाती है।

देनेवाले ने लगातार दे रखा है तुमको। जैसे सूरज की रोशनी बरस रही हो, तुम छाते के नीचे छुपे हो, तुम गुफा में घुसे हो, फिर तुम कहो, ‘अभी अनुग्रह नहीं हो रहा सूरज का।’ सूरज क्या करेगा, तुम्हारी गुफा में घुसेगा वो? ये चुनाव तुम्हें करना है न बाहर आने का। तुम बाहर आओगे, अनुग्रह पाओगे।

तो इसलिए हम जिन अर्थों में भाग्य और अनुग्रह और प्रार्थना आदि शब्दों का प्रयोग करते हैं — कृपा भी उसमें सम्मिलित है — कृपा, प्रार्थना, अनुग्रह, प्रारब्ध, भाग्य इन सब में झूठ छुपा रहता है हमारा। इन सब में हम इस बात को छुपाने को लालायित रहते हैं कि हम सही चुनाव कर नहीं रहे। ये लगभग किसी दूसरे पर दोष डालने वाली बात है — भाग्य ठीक नहीं था न, हमारा तो प्रारब्ध ही ऐसा है, या अभी स्थितियाँ प्रतिकूल हैं। बात स्थितियों की भी नहीं है, किसी की भी कोई बात नहीं है। तुम मालिक हो, सबकुछ तुम्हारे हाथ में है। तुम बच क्या रहे हो?

अब देखो, जैसे ही बोल दो कि सबकुछ तुम्हारे हाथ में है वैसे ही घबरा जाते हैं। जैसे ही कहा, ‘तुम मालिक हो’, हम घबरा गये। अब समझ रहे हो हम सबसे ज़्यादा किस बात से घबराते हैं? अपनी मालकियत से। उसी मालकियत का क्या नाम है? आत्मा। हम आत्मा से सबसे ज़्यादा घबराते हैं। जैसे ही बोला, ‘तुम मालिक हो’ एकदम घबरा गये। ‘अच्छा! इसका मतलब सारी ज़िम्मेदारी मेरे ऊपर आ गयी, इतनी ज़िम्मेदारी लेने को मैं तो तैयार भी नहीं हूँ।’

अगर मैं मालिक हूँ तो सारी ज़िम्मेदारी किसकी है? मेरी है। हमारी उसी मालकियत, हमारे उसी स्वामित्व का नाम है आत्मा, सत्य। और हम उसको लेने को तैयार नहीं हैं। जैसे कि कोई बिलकुल वयस्क हो गया हो, पच्चीस साल का हो गया हो लेकिन वयस्क होने के साथ जो ज़िम्मेदारियाँ आती हैं, उनको लेने को वो तैयार न हो। तो हर जगह वो अपनी उम्र बताता फिरता हो बारह साल। ‘बारह साल के हैं अभी।’

और जैसे ही उसका राज़ खोल दो कि पच्चीस के हो, एकदम घबरा जाता है वो। अब पच्चीस का होने से ज़िम्मेदारी भर ही नहीं होती न, जीवन में एक उत्सव भी आता है उससे। जवान होना कोई छोटी बात तो नहीं, लेकिन हम घबरा जाते हैं क्योंकि उसमें ज़िम्मेदारी आएगी साथ में। ‘नहीं, तो हम तो छोटू हैं अभी।’

कुछ बुरा हो गया तुम्हारे साथ, क्यों बुरा हो गया? क्यों?

‘क्योंकि हम तो छोटू हैं न, किसी और ने बुरा कर दिया।’

और एक बड़े-से-बड़ा राज़ है जो हमने छुपा रखा है, क्या? हम छोटू हैं ही नहीं, हम छोटू बने हुए हैं।

आत्मा हमारा सत्य है, अहंकार हमारा पाखण्ड। बल हमारी सच्चाई है, कमज़ोरी हमारा ढोंग।

कितना ढोंग करोगे? कब तक ढोंग करोगे?

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