प्रश्नकर्ता: कहते हैं कि जैसे ही इंसान भक्ति की तरफ़ बढ़ता है, तो प्रकृति उसमें बहुत अड़चनें डालती है, माया बहुत अड़चनें डालती है। हमारे इधर बिरादरी में एक महात्मा जी रहे थे, महात्मा मंगतराम जी, उन्नीस-सौ-तिरपन में उनका देहांत हो गया था, तो उन्होंने भी बहुत - मतलब जैसे आप बताते हो सारी चीज़े - उन्होंने भी बहुत सारे ग्रंथ लिखे, उन ग्रंथों में भी बहुत सारी ऐसी चीज़े हैं, जैसी आपकी तरफ़ से हमें सुनने को मिलती हैं। तो उनके अंत में जब उन्होंने देह को त्यागा, अमृतसर में उन्होंने देह-त्याग की थी। तो अमृतसर से उनकी कोई देह को यहाँ खिजरेवाला यमुनानगर के पास लाया। तो बोलते हैं कि जब उन्होंने देह त्याग की तो उस समय बहुत बारिश हुई, प्रकृति मतलब बहुत रोई, जब तक कि उनका देह-संस्कार नहीं हुआ। तो क्या ऐसा संभव है कि प्रकृति हमें अड़चनें ही डाले या हमारा साथ भी दे, अगर हम भक्ति के मार्ग पर चलते हैं तो?
आचार्य प्रशांत: वो जो अड़चनें डालती है वो बहुत सूक्ष्म होती हैं, वो इतनी स्थूल अड़चनें नहीं डालेगी। उसका काम इतना प्रकट नहीं होता कि आपको तत्काल दिखाई ही दे जाए कि "देखो प्रकृति रो रही है", या जैसे कहते हैं कि किसी को निर्वाण हुआ तो पुष्प-वर्षा हो रही है, ऐसा होता नहीं है। ये सब काव्यों की बातें हैं, प्रतीकों की बातें हैं। हाँ, प्रकृति अड़चन डालती है, पर वो अड़चन झीनी अड़चन होती है, मोटी अड़चन नहीं होती। आपको ऐसे थोड़े ही पता चलेगी कि, "मैं जा रहा था सत्संग में, तो प्रकृति ने अड़चन डाली", कैसे? "दो-चार पेड़ मेरे ऊपर गिर पड़े"। पेड़ तो प्रकृति होते हैं न? "तो प्रकृति नहीं चाहती थी कि मैं मुक्ति कि ओर बढ़ूँ, तो जैसे ही मैं सत्संग की ओर बढ़ता हूँ, पेड़ मेरे ऊपर गिरने लग जाते हैं।" ऐसा कभी नहीं होने वाला, कभी नहीं होने वाला!
प्रकृति आपके भीतर से अड़चन डालती है, बाहर से नहीं डालती। वो बादल-बारिश नहीं कर देगी, पेड़ नहीं गिरा देगी, भूकंप नहीं लाएगी। प्रकृति बाहर आप देख रहे हैं, प्रकृति बाहर से ज़्यादा कहाँ है? भीतर। ये शरीर क्या है? प्रकृति। तो वो अड़चन भीतर से डालती है, झीनी अड़चन। आपका मन बदलेगी, विचार बदलेगी, देह में झुरझुरी करेगी, ये सब होगा। ये झीनी बातें हैं। आपके भीतर तर्क उठने लगेंगे, विचित्र किस्म के तर्क उठने लगेंगे, संदेह उठने लगेंगे। अकस्मात् और दूसरे ज़रूरी काम याद आने लगेंगे। ये सब होता है। ऐसा नहीं कि काम नए-नए पैदा हो गए हो, काम हैं पुराने ही पर याद आने लगेंगे और महत्त्वपूर्ण लगने लगेंगे, कि "अरे, वो काम तो अभी रह ही गया, पहले वो निपटा लो फिर जाना भजन करने, मंदिर करने, जो भी जा रहे हो।" प्रकृति बाहर से न समर्थन करती है न विरोध करती है, भीतर-भीतर वाला खेल खेलती है। भूलिएगा नहीं, माया लुटेरी नहीं है, ठगिनी है। वो हाथ नहीं मरोड़ती, वो उल्लू बनाती है।
होता क्या है न कि हम बाह्य-संकेतों को देखने में इतने लिप्त हो जाते हैं कि आतंरिक घटनाओं की ओर से नज़र हट जाती है, और वैसी ही सब हमने कहानियाँ भी पढ़ी हैं, और बड़ा अच्छा लगता है इस तरह बताने में। कितने ही महापुरुषों के साथ ऐसी कहानियाँ सम्बंधित हैं, कि वो रोए तो घटा घिर आई, उनकी मृत्यु हुई तो नदियों में बाढ़ आ गई, या उनकी मृत्यु हुई तो आकाश में तारे टूटते हुए दिखाई दिए। खूब पढ़ी हैं न ये सब? ऐसा कुछ भी नहीं होता। जो होता है वो इससे ज़्यादा गहरा और गंभीर है। ये सब तो बच्चों वाली बातें हैं, परी-कथाएँ हैं।
तुम्हें क्या लग रहा है? महात्मा बुद्ध पर वास्तव में देवताओं ने पुष्प-वर्षा करी थी? वास्तव में आसमान से फूल गिरे होंगे उनके ऊपर? नहीं। वो बात झीनी है जिसको मोटे तरीके से बताया जा रहा है, सूक्ष्म है जिसको स्थूल तरीके से बताया जा रहा है। क्यों बताया जा रहा है? क्योंकि जो सुनने वाले हैं वो ज़्यादातर मोटी खोपड़ी के हैं, उनको झीनी बात बताई गई तो उनको समझ में ही नहीं आएगी, तो उनको झीनी बात भी मोटी करके बताई जाती है। और उनकी मोटी बुद्धि में फिर ये आता है कि "लगता है सही में ऊपर से फूल गिरे थे", और सोचो फूल कितनी ऊपर से गिर रहा है, उसकी गति कितनी हो जाएगी? और बहुत ऊपर से अगर गिर रहा है तो ऊपर तो हवा भी नहीं होती। ये जो आपका वायु-मंडल है, ये आप जैसे-जैसे ऊपर जाते हैं, झीना होता जाता है, तभी तो हवाई-जहाज इतनी ऊँचाई पर उड़ते हैं।
बहुत ऊपर से अगर फूल गिरेगा तो पहली बात तो उसमें गति ज़बरदस्त आ जाएगी, सॉफ्ट-लैंडिंग (संयत रूप से भूमि पर उतरना) तो उसकी होगी नहीं, क्योंकि हवा का घर्षण भी नहीं मिल रहा है उसको, तो वो तो सीधे गुरुत्वाकर्षण के वेग से गिरेगा, कोई एयर रेजिस्टेंस (हवा का घर्षण) भी नहीं है वहाँ, और वो गिर रहा है दमदमाती हुई गति से, और फिर वायु-मंडल में प्रवेश करेगा, वहाँ हवा का घर्षण होगा तो फूल क्या करेगा? जल जाएगा एकदम, पर इतनी भी हम अक्ल नहीं लगाते कि आसमान से फूल थोड़ी ही गिरे होंगे। हम सोचते हैं सही में फूल गिरे, एकदम पट-पट-पट फूल गिर ही रहे हैं उनके ऊपर। अगर गिरेंगे फूल ऊपर से तो फिर वो जलते हुए अंगार बनकर गिरेंगे। तो ये सब नहीं होने वाला है कि बारिश, बाढ़, भूकंप, या सूर्यग्रहण लग गया, चंद्रग्रहण लग गया, या तूफ़ान आ गए या भविष्यवाणियाँ हो गईं, आकाश से कोई कुछ बोलने लग गया। इन चक्करों में उलझेंगे अगर तो जो असली खेल खेल रही है प्रकृति, जो असली आपको धोखा दिया जा रहा है, उसको देखने, समझने, पकड़ने से वंचित रह जाएँगे।
असली धोखा कहाँ दिया जा रहा है, बाहर या भीतर? वो भीतर दिया जा रहा है, आपकी ही बुद्धि पलट कर धोखा दिया जा रहा है आपको, बाहर कुछ नहीं बदलेगा। एक-से-एक महापुरुष इस दुनिया से विदा हुए हैं, क्या उस दिन, अगले दिन सूरज नहीं ऊगा? बोलो। कौन था जिसकी विदाई के बाद सूरज ही नहीं ऊगा? तो प्रकृति अपने बाहरी नियमों को किसी के लिए नहीं बदलती।
अवतारों की भी विदाई हुई है। चाँद-तारों का चलना तो नहीं रुक गया न? जैसे चलते थे वैसे ही चलते रहे। हाँ, तुम्हारी कहानियाँ कुछ बता दें तो वो झूठी बात, पर चाँद-तारों का, सूरज का चलना न रुक गया न बदल गया। प्रकृति किसी के लिए नहीं बदलती। इस तरह की बातें कि फलाने महात्मा को नदी पार करनी थी तो नदी थम गई, बीच में रास्ता बना दिया, अजी छोड़िए! ये सांकेतिक बात है। जो नदी उनको पार करनी है, वो नदी भवसागर है। बताया आपको ये जा रहा है कि उन्होंने भवसागर पार कर लिया, लेकिन अगर मोटी बुद्धि से इन सब बातों को सुनेंगे तो ऐसा लगेगा कि सही में कोई नदी थी और महात्मा जी निकल रहे थे, तो नदी के बीच में से रास्ता बन गया। किसी के लिए नहीं बनने वाला। कोशिश भी मत कर लीजिएगा, कि कभी लगे कि, "मैं ही महात्मा हो गया हूँ", तो गए नदी पार करने की कोशिश करने लगे।
चमत्कारों का कोई अस्तित्व नहीं है। बाहर की दुनिया में, भौतिक-जगत में, बाह्य-जगत में, स्थूल-जगत में कोई चमत्कार नहीं होते, पर चमत्कार होते ज़रूर हैं, वो कहाँ होते हैं? आतंरिक जगत में, सूक्ष्म-जगत में, वहाँ चमत्कार होते हैं। एक आदमी की बुद्धि भ्रष्ट है, अचानक उसे कोई बात समझ में आ गई, ये है चमत्कार। जिसको कुछ सूझ ही ना रहा हो उसे सूझना शुरु हो जाए, ये चमत्कार है। चमत्कार ये नहीं है कि मुर्दे पेड़ में हरी पत्तियाँ आ गई, क्यों? क्योंकि महात्मा जी ने मंत्र मारा था। नहीं हो सकता, पेड़ मर गया तो मर गया। आदमी भी मर गया तो मर गया, कोई उसे जिला नहीं सकता। तो बाहर इस तरह के मोटे और स्थूल चमत्कारों की आशा मत कर लेना और इस तरह के चमत्कार कहीं होते देखो तो समझ लेना कि धोखा, फ़रेब, षड्यंत्र है, हाथ की सफाई है, सर्कस का जादू है, पर चमत्कार होते ज़रूर हैं। कृष्ण का अर्जुन को गीता का उपदेश देना चमत्कार है, और अर्जुन का उस उपदेश को समझ जाना और बड़ा चमत्कार है। ये होते हैं चमत्कार।
अंगुलिमाल का बुद्ध के प्रेम में पड़ जाना चमत्कार है। एक हिंस्र डाकू जिसका काम ही था मारना-पीटना, और जिनको मारा-पीटा, काटा-कूटा, उनकी यातना से मज़े लेना। वो गले में क्या पहनता था? उँगलियों की माला। सोचो फ़ितरत कैसी रही होगी बन्दे की, कैसी रही होगी? हिंसा की नहीं है, उसे हिंसा में रस आता है। ऐसा जीव बुद्ध के प्रेम में पड़ गया, अनायास, ये चमत्कार है। चमत्कार ये नहीं है कि कोई आकाशवाणी हुई जिसने अंगुलिमाल को समझाया कि, "बेटा, सामने बड़े साहब खड़े हैं, सलाम मारो।" ऐसा नहीं होता। ना ऐसा होता है कि आकाश से कोई अप्सरा उतरी, और उसने बड़े लच्छेदार-मीठे तरीके से अंगुलिमाल को बिलकुल चटनी चटा दी, कि, "ये सामने जो बुद्ध देव हैं ये मेरे पिता समान हैं, मुझसे अगर प्रेम करते हो तो जाओ उनके भी चरण-स्पर्श करो।" ऐसा नहीं होता, कोई अप्सरा नहीं उतरने वाली आकाश से। सब चमत्कार भीतर होते हैं, चेतना में होते हैं। आतंरिक प्रकृति में चमत्कार होते हैं, बाह्य-प्रकृति में नहीं होते। सूरज को जैसे उगना है उगेगा, नदी को जैसे बहना है बहेगी, सागर में जैसे लहरे उठनी हैं उठेंगी। वो सब जो आपने कहानियाँ पढ़ी हैं, वो सब मैं कह रहा हूँ, सांकेतिक हैं, प्रतीकात्मक हैं। उनको आप जस-का-तस मत मान लीजिएगा, उनके पीछे के संकेत की खोज करिए।