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लेख
बदलो नहीं, समझो || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2013)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
7 मिनट
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वक्ता: तुम्हें कुछ पसंद नहीं आ रहा ना? उस बिंदु पर प्रतिक्रिया करने के दो तरीके होते हैं। समझना इस बात को। आमतौर पर हमें ये सिखाया जाता है कि अगर कुछ पसंद ना आए तो उसे बदलने की कोशिश करनी चाहिए और इस बात को बड़े विद्वान लोग भी बोल गए गये हैं कि इसको बदलो। ‘अगर कुछ ठीक नहीं लग रहा है तो हाथ पर हाथ रख कर मत बैठो, उसे बदल डालो’- ये बात नासमझी की है। कुछ पसंद ना आ रहा हो तो इसका मतलब सिर्फ ये है कि तुम उसको समझते नहीं हो, क्योंकि अस्तित्व में नापसंद करने लायक कोई चीज़ होती नहीं है।

पसंद और नापसंद नहीं होती, सिर्फ समझ और नासमझी होती है।

अगर उसका अस्तित्व है, तो वो दिव्य है। वो एक स्वप्न भी हो सकता है, एक कल्पना, पर उसमें कोई बुराई नहीं होती। कुछ भी घृणित नहीं होता। आपको उसे सिर्फ़ समझना होता है।

यहाँ तक की मृत्यु – शारीर की मृत्यु भी कोई शोक मनाने वाली बात नहीं है। आमतौर पर मृत्यु को सभी नापसंद करते हैं। किसी की मौत हो जाए तो सभी को बुरा लगता है। मृत्यु में भी, कुछ भी शोक करने जैसा नहीं है। मृत्यु भी एक उत्सव हो सकती है, अगर आप उसे ठीक-ठीक समझें।

इसीलिये कुछ भी बदलने की चेष्टा मत कीजिये करो। कुछ भी बदलने की चेष्टा करना बेवकूफ़ी है। केवल समझिये और अगर उस समझ से कुछ बदलाव आना होगा , तो अपने आप आ जाएगा।

श्रोता २ : अगर सब कुछ दिव्य और पवित्र है, तो क्या धूम्रपान जैसे व्यसन भी पवित्र हैं?

वक्ता : हाँ, बिल्कुल। तुम्हें बस उसे समझना होगा। तुम जब धूम्रपान की पूरी प्रक्रिया को समझोगे, तब तुम्हें पता चलेगा कि ये वास्तव में तुम्हारी प्रभु प्रेम की लालसा है। पर क्योंकि तुम्हें वो समझ आती नहीं, तो इसी कारण तुम धूम्रपान में उसका विकल्प खोजने लगते हो।

श्रोता २ : धूम्रपान और प्रभु प्रेम की लालसा में क्या संबंध है?

वक्ता : होंठ। एक शब्द होता है, ‘ओरल फिक्सेशन’. जब तुम पैदा होते हो तो तुम्हारे होंठ तुम्हें अपने स्त्रोत, तुम्हारे शारीरिक स्त्रोत,तुम्हारी माँ से जोड़ने का एकमात्र साधन होते हैं। तो ये जो ‘ओरल फिक्सेशन’ है, ये व्यस्क होने पर भी बना रहता है। अपने स्त्रोत से जुड़े रहने की लालसा।

तुम्हारी और कोई इच्छा होती ही नहीं है, बस एक ही इच्छा होती है, कालातीत तक पहुँचने की। वही इच्छा कई रूप ले लेती है। कोई हत्या भी करे तो इसीलिए कर रहा है क्योंकि उस कालातीत तक पहुँचना चाहता है। कोई चिल्ला रहा है, कोई पागल हो गया है, कोई संभोग कर रहा है। ये सब घूम फिर कर एक ही इच्छा है कि मुझे उस कालातीत तक पहुँचना है। इसीलिये कोई भी इच्छा खराब नहीं होती। तुम्हारी हर इच्छा, हर वस्तु, तुम्हारी हर राह, तुम्हारी हर कोशिश सिर्फ़ अपने स्त्रोत तक पहुँचने के प्रयास हैं।

श्रोता : सर लेकिन शरीर तो ख़राब कर ही रही है सिगरेट ।

वक्ता : शरीर ख़राब कर रही है क्योंकि तुम समझ नहीं रहे हो। तुम एक परोक्ष रास्ता ले रहे हो। तुम्हें ‘सेल्फ’(आत्मा) चाहिए पर ‘सेल्फ’ के विकल्प के तौर पे तुमने सिगरेट पकड़ली है। जब तुम इस बात को समझ जाओगे तो तुम सिगरेट को छोड़ दोगे और सेल्फ को पकड़ लोगे। परोक्ष रास्ता छोड़ के सीधे पर आ जाओगे। पर सिगरेट भी इसीलिए है क्योंकि तुम भी कहीं ना कहीं अपना स्वभाव जानते हो और तुम वैसे ही हो जाना चाहते हो। तुमको उसी कालातीत तक पहुंचना है इसलिए तुमने सिगरेट को पकड़ रखा है।

श्रोता : सिगरेट तो हमे नियंत्रित करती है ।

वक्ता : अभी जो कह रहा हूँ, उसको समझो। नियंत्रण वगैरह हटाओ। नहीं समझ रहे हो। तुम्हें कुछ चाहिए। कोई चीज़ है जो तुमको बेचैन किये हुए है। पर तुमको ठीक-ठीक पता नहीं कि तुम्हें क्या चाहिए तो उसके लिए तुम किसी दूसरी चीज़ को प्रयोग कर रहे हो ।

श्रोता : पहुँचने के लिए ।

वक्ता :तुम्हें नहीं पता कि कहीं पहुँचना भी है कि नहीं। एक सिगरेट पीने वाले से पूछो कि तू कहाँ पहुँचना चाहता है तो कहेगा कि कहीं भी नहीं। मैं तो सिगरेट पी रहा हूँ। उसको पता भी नहीं कि वो कहीं पहुँचना चाहता है। पर एक गहरी उत्तेजना है भीतर जो कह रही है कि कुछ ग़लत है। इसकी वजह से वो सिगरेट पीता है ।

श्रोता : और जो रोज़ पीते हैं ?

वक्ता : गहरी इच्छा है

श्रोता : कि

वक्ता : कि कालातीत के साथ हो लूँ । शायद उसे लगता है की शरीर को कर्क रोग देकर वह कालातीत तक पहुँच जायेगा।

तो कोई भी काम जैसे हमने कहा ना कि ये काग़ज़ भी वही है, वो कलम भी वही है, वो मेज़ भी वही है, इसी तरीके से हमारी एक एक इच्छा भी वही है। उसी कालातीत, उसी निराकार तक जाने की।

श्रोता : वो तो अप्राप्य है। हम सभी उसी में से निकले हैं ।

वक्ता :तुम निकले नहीं हो। तुम प्रकट हो। निकलने से ऐसा लगता है अलग हो गया। निकलने से पृथकता का भाव आता है। पृथक नहीं हो, तुम प्रकट हो। एक नर्तक नृत्य प्रकट करता है। पर नर्तक से नृत्य पृथक थोड़े ही है। प्रकट है ना, पृथक नहीं है ।

तुम वही हो, तुम प्रकट हो। बस

सब कुछ दैवीय है । सब कुछ असली है । ऐसा कुछ नहीं जो नकली है।

कोई कितना भी फालतू से फालतू काम भी कर रहा हो। काम हो सकता है कि अव्यवस्थित हो, पर है वही सत्य । इसलिए बोध के फलस्वरूप करुना आती है।

तुम किसी पर क्रोधित नहीं हो सकते, तुम्हें पता है कि वह खून कर रहा है परन्तु तुम्हें यह भी पता है कि उसे कालातीत कि इच्छा है। जो एक पेड़ को भी चाहिए, जो एक चॉक को भी चाहिए, नदी को भी चाहिए, मुझे भी चाहिए। सबको वही चाहिए। लेकिन कुछ प्रभाव हैं जीवन के, जो विकृत हैं, जिनके कारण हत्या कर रहा है। चाहिए तो इसको भी वही है ।

श्रोता : आप हर बार हमें समझाते हैं, समझ भी आता है लेकिन…..

वक्ता : लेकिन तुम तो ढीठ हो। मैं कुछ भी करूँ, तुम फिर वैसे हो जाते हो कल तक ।

श्रोता : ऐसा होता कि आप रोज़ आते, पर बाकी जगहों पर जाते हैं !

वक्ता : तो क्या होता?

श्रोता : तो एक हफ्ते तक, दो महीने तक, ठीक हो जाते ।

वक्ता : जब मेरा ही कुछ नहीं हुआ तो तुम्हारा क्या होता ?

श्रोता : सर जब दरवाज़ा जो ठक-ठक कर के याद दिलाएगा तो आसान हो जाएगा ।

वक्ता :दो सूफ़ी संत होते हैं। एक राबिया, एक हसन। तो इन की बड़ी कहानियाँ है। हसन की आदत थी कि खूब जोर-ज़ोर से खुदा को याद करता था, “ऐ खुदा, मैं तुझसे मिल नहीं पा रहा, तू अपना दरवाज़ा मेरे लिए कब खोलेगा? तेरा रहम कब होगा? वो ऐसे ही उठ के सुबह-सुबह चिल्ला रहा है कि तेरे दरवाज़े कब खुलेंगे मेरे लिए?राबिया पीछे से आती है। कहती है बकवास बन्द कर।

दरवाज़ा कब का खुला हुआ है, तुझे जाना होता तो चला जाता अन्दर। वो कहती है दरवाज़ा बंद है ही नहीं तू क्या ठक-ठक कर रहा है। कोई दरवाज़ा ही नहीं है। तू क्या बोल रहा है दरवाज़ा कब खुलेगा। सिर्फ तू बहाने मार रहा है कि जाना ना पड़े।

-‘संवाद’ पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।

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