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लेख
आत्मज्ञान माने क्या? || योगवासिष्ठ सार पर (2018)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
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स्वज्ञान (आत्मज्ञान) वो आग है जो इच्छारूपी सूखी घास को जला देती है। —योगवासिष्ठ सार

आचार्य प्रशांत: इच्छा को सूखी घास क्यों कहा है, समझेंगे। इच्छाओं का एक पूरा अन्तर्सम्बन्धित जाल होता है, *नेटवर्क*। कोई इच्छा अकेली नहीं खड़ी होती, वो अपने पीछे भी दस इच्छाएँ लेकर आई होती है, उसके आगे भी इच्छाएँ होती हैं, उसके अगल-बगल में भी—पूरा एक कुनबा होता है जिसमें सब रिश्तेदार हैं।

सूखी घास कैसे जलती है? तृण का एक तिनका ईंधन बनता है अन्य तिनकों को जलाने के लिए। थोड़ी सी जलती हुई घास बहुत सारी सूखी घास को जला देगी, जैसे वो स्वयं आत्मघाती हो, जैसे वो स्वयं न सिर्फ खुद को नष्ट करने के लिए बल्कि अगल-बगल वालों को, अपने कुनबे-कुटुंबियों को भी नष्ट करने के लिए तैयार ही बैठी हो। घास जलती है तो खुद ही नहीं जलती है, अपने साथ और घास को भी लेकर जलती है—और जो और जलेगी, वो क्या करेगी? वो और को लेकर जलेगी।

तो इच्छा का भी ऐसा ही है। या तो आप उससे हारते हैं तो पूरी तरीके से हारते हैं। आप एक इच्छा के वश में नहीं होते, आप इच्छाओं के वश में होते हैं। आप एक के पीछे एक इच्छा की तरंग-दर-तरंग दबते चले जाते हैं। और यदि आपने एक इच्छा पर भी पूर्ण विजय प्राप्त कर ली—पूर्ण विजय से अर्थ है पूर्ण ज्ञान, ऋषि कह रहे हैं आत्मज्ञान—यदि किसी एक इच्छा को भी किसी एक पल में पूर्णतया देख लिया, उसके मूल तक पहुँच गए, तो आप पाएँगे कि सारी इच्छाओं के भस्म होने का मार्ग प्रशस्त हो गया; क्योंकि मूल सबका एक ही था।

एक इच्छा का मूल देख लिया तो सारी इच्छाओं का मूल देख लिया। मूल सबका एक है और मूल सबका झूठा है। एक इच्छा का झूठ पकड़ में आ गया, एक इच्छा का भ्रम दिख गया तो आपकी विजय पूरी है। बस आपको बने वही रहना है जो विजयी हुआ था। विजय तो विजयी के लिए है, जो विजय हुआ था, वही बने रहो, कदम पीछे मत खींच लेना।

एक बात दिख गई तो दिख गया सब कुछ; एक पल को बिजली कौंध गई तो भी दिख गया सब कुछ। आगे का अंधेरा उसको मिटा नहीं पाएगा जो तुमने देख लिया।

इसी बात को बहुत संतजनों ने कहा है कि त्वरित ज्ञान होता है, जैसे दिया जल उठा। तत्क्षण होता है, जैसे शक्तिपात हो गया हो। जाना तो जाना। जैसे किसी की भूख मर गई हो। अब ऐसा नहीं है कि उसे किसी एक प्रकार के खाद्य पदार्थ से अरुचि है, उसे कुछ नहीं खाना, “मुझे कोई इच्छा नहीं है।” बात यह नहीं है कि मुझे रोटी नहीं चाहिए, मुझे सब्जी नहीं चाहिए, दूध दही नहीं चाहिए—मुझे कुछ नहीं खाना।

बात वस्तु की नहीं है; बात मेरी है। मैं जान गया हूँ, उपरति इधर हुई है। ‘नहीं चाहिए’, ये भावना इधर उदित हुई है। ‘नहीं चाहिए’ की भावना का कोई विषय नहीं है, कोई विशेष इशारा नहीं है, किसी पदार्थ की ओर इंगित नहीं है; बस नहीं चाहिए। सवाल यह नहीं है कि तुम मुझे क्या दिखा रहे हो? सवाल यह है कि किसे दिखा रहे हो? जिसे दिखा रहे हो, उसे नहीं चाहिए।

एक-से-एक आकर्षक वस्तुएँ हैं, विचार हैं। जिसको आकर्षण हो सकता था ,उसे कुछ हो गया है। उसमें गीलापन आ गया है, उसे अब आँच दिखाओ तो वो जलता ही नहीं। कृष्ण कहते हैं: ‘विगत ज्वर’, अब तुम उसे जला नहीं पाओगे, अब तुम उसमें ताप का संचार नहीं कर पाओगे। उसमें आर्द्रता आ गई है, जैसे उसके रेशे-रेशे में अब परमात्मा बह रहा हो, कोई ऐसा तरल पदार्थ जो ज्वलनशील नहीं है, आग जिसे भस्म नहीं कर सकती।

प्रश्नकर्ता: अगर एक भी इच्छा है तो अभी इच्छाओं का जाल बना हुआ है।

आचार्य: बिल्ली मत पालना! सुना है? एक छोटी सी इच्छा थी और उसके पीछे-पीछे पूरी रेलगाड़ी। कोई यह न कहे कि बाकी सारी इच्छाएँ तो हम पीछे छोड़ आए हैं, बस इतना सा ख़्वाब है। बस इतना सा ख़्वाब होता है, और वो बहुत कुछ करा देता है।

आदमी का और इच्छाओं का यह सम्बन्ध समझने काबिल है। इच्छाएँ उस तल की चीज़ ही नहीं है जिस तल के वास्तव में आप हैं। तो उनसे सम्बन्ध कुछ ऐसा बनेगा जैसा किसी विदेशी चीज़ से बनता है, जैसा किसी सुदूर चीज़ से बनता है, जैसा किसी विजातीय चीज़ से बनता है। आप कुछ और हैं और इच्छाओं का पूरा खेल कहीं और है। आपका उस खेल से इतना भी सम्बन्ध नहीं हो सकता कि आप उसे रोकने की कोशिश करें या आप उसे बाधित करें।

आप उस खेल से दूर हैं। उसे रोकने के लिए भी करीब गए तो आप उस खेल में शामिल हो गए, और अगर उस खेल को उद्वेलित करने के लिए करीब गए तब तो फ़िर कहना ही क्या? फ़िर तो आपने अपने आपको डाल ही दिया कीचड़ में। आपकी और कीचड़ की जाति एक तो नहीं है न? पर कीचड़ में आप अपने-आप को डाल सकते हैं। डाल सकते हैं कि नहीं डाल सकते हैं? हाँ, डालने के बाद भी कीचड़ आपकी आत्मा नहीं बन जाएगा; कीचड़ आपको गंदा भी करेगा तो बाहर-बाहर से करेगा। लेकिन कीचड़ में सनने से क्या फ़ायदा? और क्या शान है कीचड़ की? क्या गत बनती है आपकी कीचड़ में?

इच्छाओं और आपका सम्बन्ध ऐसा ही है—कीचड़ है और आप हैं—जब तक दूर हैं, तब तक ठीक है, जब सन गए तो फ़िर पूछिए मत। कीचड़ को अपना काम करने दीजिए। इच्छाओं का अपना तंत्र है, अपनी गति है, वो अपना काम करती रहती हैं। आप उनके साथ छेड़खानी न करें तो इच्छाएँ कभी बहुत प्रबल होती ही नहीं हैं। आप यदि इच्छाओं के साथ छेड़खानी न करें तो आपकी इच्छाएँ करीब-करीब उसी तल पर रह जाएँगी जिस तल पर पशुओं की रहती हैं।

किस स्तर की होती हैं पशुओं की इच्छाएँ? उनकी एक प्रकृति-निर्धारित सीमा होती है, उसके आगे वो जाती ही नहीं। शेर का पेट भरा हो, उसके आगे आप और भोजन रख दीजिए, वो नहीं खाएगा। शांत शेर को देखिए। छोटे-मोटे बहुत सारे जानवर जिन्हें शेर खा सकता है, खा ही जाएगा अगर भूखा हो। वो शेर के निकट आ सकते हैं जब शेर का पेट भरा हो। होता ही है ऐसा, शेर ने शिकार किया हो, शेर उसमें से उतना ही खाएगा जितनी शेर की भूख है, बाकी वो छोड़ देता है। उसे कौन खाता है? यही लोमड़ी-वोमड़ी।

अब शेर ने उसको छोड़ दिया है। शेर ज़रा दूर जाकर बैठ गया है और शेर के शिकार को छुटके-मुटके जानवर आकर खा रहे हैं और शेर देख रहा है, “मेरे शिकार को छोटू-मोटू आकर खा रहे हैं।” उन छोटू-मोटू की क्या हैसियत है? शेर मारने पर आए, हिंसा पर आए तो एक पंजे लायक है वो बस।

इच्छा स्वयं रुक जाती है। न उसे खाने की इच्छा है, न उसे मारने की इच्छा है। तो ऐसा भी नहीं है कि इच्छाएँ इतनी दुष्पूर होती हैं, ऐसी अनंत होती हैं कि वो आपको बाँध ही लेंगी।

आप दत्तात्रेय से पूछिए ‘अवधूत’ के बारे में, कि अष्टावक्र से पूछिए, कृष्ण से पूछिए 'स्थितप्रज्ञ' के बारे में, वो आपसे कहेंगे कि उसका जीवन कुछ ऐसा होता है कि बड़ा मकान मिल गया, रह लेगा, उसे कोई दिक्कत नहीं है, छोटा मिल गया, उसमें भी रह लेगा। कभी नहीं मिला, उसमें भी रह लेगा। भूख लग आएगी तो खाने की तलाश कर लेगा। इतनी सी वो इच्छा रखता है, इससे आगे कि नहीं। और इतनी सी जो इच्छा उसकी बची होती है, उसे मारने का भी उसका कोई इरादा नहीं होता, न उसे लेकर उसके मन में कोई ग्लानि होती है कि मुझे भूख क्यों लगी? ये तो बात सहज है कि भूख लगी तो लगी, वो ग्लानि नहीं करता इसमें।

जो जीवन के साधारण संवेग होते हैं, प्रकृतिजन्य तरंगे होती हैं, उनको ले करके उसके मन में न तो आत्मीयता होती है, न दुराव। वो निरपेक्ष होता है। उसे नींद आएगी, वो सो जाएगा। करीब-करीब पशुवत उसका व्यवहार होता है।

तो ऐसी होती हैं इच्छाएँ, अगर आप उनके ऊपर चढ़ न बैठें, अगर आप उनके साथ साझा-साझा न करने लगें—नींद आई, सो गए, भूख लगी, खा लिया, और उसमें आपका हस्तक्षेप नहीं है। हस्तक्षेप कब होता है? जब आप भूख का भी आकार-प्रकार निर्धारित कर दें, “मुझे भूख लगी है तो चाँदी का बर्तन चाहिए। मुझे भूख लगी है तो फलाना व्यंजन चाहिए। मुझे ठीक इतने बजे ही भूख लगनी चाहिए और मुझे भूख लगेगी तो मैं ठीक इतनी मात्रा में खाऊँगा।”

ये अब समाज चढ़ बैठा है प्रकृति के ऊपर। अब गड़बड़ हो गयी। अब इच्छा का फैलाव अनंत है। शेर की भूख मिट जाएगी अब, आपकी नहीं मिटेगी, क्योंकि अब आपको चाँदी से सोने पर जाना होगा और सोने के आगे भी पता नहीं क्या-क्या है? और जो कुछ है, वो भी कोई सीमित मात्रा में नहीं है। संख्याएँ तो बढ़ती ही जाती हैं, बढ़ती ही जाती हैं—किसी भी संख्या मैं आप एक और जोड़ सकते हैं।

दो प्रकार की इच्छाओं में आप अंतर समझ रहे हैं न? हर इच्छा अनंत नहीं होती। प्रकृति ने भी आपको इच्छाएँ दी हैं पर वो इच्छाएँ मात्र दैहिक सातत्य बनाए रखने के लिए हैं। प्रकृति इससे ज़्यादा नहीं चाहती। शरीर बना रहे, इसके लिए आपमें इच्छाएँ रहती हैं। काम भी उठेगा, क्रोध भी उठेगा। जानवरों में भी बड़ी ममता होती है अपने बच्चों के प्रति—वो भी इच्छा है। भूख तो है ही, प्यास तो है ही, डर तो है ही पर अब वो सब बड़े कालबद्ध हैं।

कामी कुत्ता तीस दिन, अंतर रहे उदास —कबीर साहब

कालबद्ध है—साल में एक माह आता है जब कुत्ता वासना से दहक उठता है, उसके बाद उदासीन है वासना के प्रति, उसके बाद उसे वासना से कोई लेना-देना नहीं। वासना उसके लिए परमात्मा की परिपूरक नहीं है। वो भूल जाता है वासना को, उसे क्या करना है? जैसे खाना खाने के बाद फ़िर शेर खाने को भूल गया, वैसे ही अपनी ऋतु के बाद जीव वासना को भूल जाता है।

तो हम जब बात करते हैं अहंकार का फैलाव असीम है, अनंत है, और हम कहते हैं कि आदमी की खोपड़ी में इतने छेद हैं कि उसमें कुछ भी डालते रहो, भरती ही नहीं। याद है न, ये सब कहानियाँ हमने कहीं हैं? तो हम प्रकृतिगत इच्छाओं की बात नहीं कर रहे होते हैं, हम किन इच्छाओं की बात कर रहे हैं? हम वहाँ पर पढ़ी-लिखी इच्छाओं की बात कर रहे हैं, शिक्षित इच्छाओं की बात कर रहे हैं। वो इच्छाएँ जो स्कूल गई हुई हैं, जो कॉलेज से निकली हैं, जो समाज से निकली हैं, जो मोहल्लों से निकली हैं, जो ग्रंथों से निकली हैं, टीवी से निकली हैं, दफ्तर से निकली हैं। हम उन इच्छाओं की बात कर रहे हैं—वो नहीं कभी पूरी होती; सामाजिक इच्छाएँ कभी नहीं पूरी होती।

प्राकृतिक इच्छाएँ बार-बार आती हैं, चक्रवत होती हैं लेकिन अनंत नहीं होती। भूख आपको बार-बार लगेगी पर किसी की भूख अनंत देखी है क्या? कि खाने बैठा और अनंत खाता जाए, अनंत नहीं होती। अनंत क्या होता है? अभिमान! वो नहीं पूरा होता। वो कितना भी मिल जाए, आपको लगेगा कि अभी थोड़ा और, अभी थोड़ा और, अभी थोड़ा और।

तो जब इच्छा का मूल देखने की बात हो रही है तो आप भूख का मूल्य देखने मत बैठ जाइएगा, कि भूख कहाँ से आ रही है और अभी भूख की भी इच्छा बाकी है तो इसका अर्थ है कि तमाम इच्छाएँ बाकी होंगी। तो जब तक मैं भूख को भी नहीं त्याग देती तब तक तो मैंने कुछ त्यागा नहीं। तो आपने फ़िर आमरण अनशन को अध्यात्म बनाया कि जब तक सुखा ही न दें देह को तब तक कहाँ वृत्तियों से निजात है?

प्र१: यहाँ पर जो इच्छाओं के लिए सूखी घास का प्रयोग है, यह ऐसा प्रतीत हो रहा है कि जैसे कह रहे हैं कि स्वज्ञान वो आग है जो इच्छाओं को खत्म कर देता है।

आचार्य: सामाजिक इच्छाओं को।

प्र१: हमारी इच्छा तो खत्म ही नहीं होती बिलकुल गीली घाँस की तरह, सूखी घास तो है ही नहीं। वो ख़त्म ही नहीं होती है; बार-बार सर उठाती ही रहती है।

आचार्य: वो जो खत्म नहीं होता, उसका नाम परमात्मा है। उसको आड़े-तिरछे तरीके से ढूँढने का नाम इच्छा है। जब भी कुछ खत्म न हो रहा हो, अनंत हो, तब जान लीजिएगा कि तू है तो परमात्मा, क्योंकि सिर्फ वही है जो खत्म हो नहीं सकता। बाकी सबको तो खत्म होना है—अनंत तो एक ही है।

तो इच्छा कभी खत्म होने को न आए तो जान लीजिएगा वो इच्छा नहीं है, वो परमात्मा का छद्म रूप है। बस आप उसे देख नहीं पा रहे, स्वीकार नहीं कर रहे कि परमात्मा है, सिर नहीं झुका रहे हो उसके सामने तो वो क्या बनकर आ गया है? इच्छा।

आप कह रहे हो. “मुझे सोना चाहिए, और सोना चाहिए, गहने चाहिए, जवाहरात चाहिए।” और आपका पेट ही नहीं भर रहा—इतना आ गया है तो भी नहीं, और एक पेटी आ गया है तो भी नहीं, अलमारी भर गई तो भी नहीं—तो जान लीजिएगा कि आपको सोना-चाँदी चाहिए ही नहीं, आपको परमात्मा चाहिए। पर इतनी आप में चेतना नहीं है कि जान पाएँ कि वास्तव में चाह क्या रहे हैं? तो परमात्मा की जगह परमात्मा के परिपूरक के रूप में, परमात्मा को सप्लान्ट करते हुए आप किस ओर दौड़ रहे हैं? इच्छाओं की ओर।

जैसे कोई प्यासा हो और मिट्टी का तेल पिए जाए कि कभी तो प्यास बुझेगी। प्यासे हैं आप तो समुद्र का पानी भी नहीं चलेगा। वही चाहिए आपको फ़िर जो विशुद्ध है, बिलकुल निर्मल, तभी प्यास बुझेगी।

साधारण आदमी में और जिसे ज्ञानी कहा गया है, उसमें विशेष अंतर थोड़े ही होता है। दोनों ही अपने-आपको पूरा करना चाहते हैं, दोनों ही जो कुछ कर रहे हैं, वो उनकी पूर्णता की ही दिशा में है। ज्ञानी का बस इतना है कि वो सीधी राह चलता है। संसारी टेढ़ी राह चलता है—उसको जाना दाएँ हैं, वो जाएगा बाएँ, और तर्क उसका यही होता है कि इधर से घूम-फ़िर कर पहुँचेंगे। सीधा रास्ता जो है, वो जरा दुरूह है, खतरनाक है। सीधा रास्ता ज़्यादा लंबा है। घूम-फ़िर करके आएँगे तो छोटा पड़ेगा—ये संसारी का तर्क है।

मंज़िल दोनों की एक है, दोनों एक ही चीज़ चाह रहे हैं। सीधा-साधा नाम है उसका संतुष्टि। ज्ञानी सीधे ही उधर को पहुँच जाता है जहाँ संतुष्टि है। संसारी क्या करता है? वो कहता है, “टहलकर आते हैं। पृथ्वी गोल है, दाएँ को भी चलेंगे तो बाएँ पहुँच ही जाएँगे।” संसारी को दो मीटर दाएँ जाना हो तो वो बाएँ की तरफ चलेगा और पृथ्वी की पूरी परिधि नापकर आएगा। पहुँच तो वो भी जाएगा, बात तो उसकी ठीक है। “पहुँचना तो है ही, जल्दी क्या है?” और वो तर्क बहुत लोगों का है और वह तर्क चल रहा है, वर्तमान है।

प्र२: आचार्य जी, क्या माँस, मदिरा, तंबाकू आदि का यदा-कदा सेवन करना गलत है? मैंने सुना है कि रामकृष्ण, विवेकानंद, जीसस आदि माँसाहारी थे, और बुद्ध ने भी प्राकृतिक मौत से मरे हुए जानवरों का माँस खाने के प्रति आपत्ति नहीं की है। तो क्या माँसाहार अध्यात्म में बाधक है? यदि बाधक है तो मुक्ति का उपाय बताएँ।

आचार्य: कल मैं पुलेला गोपीचंद के बैडमिंटन अकादमी के बारे में पढ़ रहा था। तो जो लेख था, उसने कहा कि कई अच्छे खिलाड़ी सायना नेहवाल, पुरुषों में पी. कश्यप आदि जब गोपीचंद के पास आए थे, तब वे शाकाहारी थे। गोपीचंद ने उनको तर्क देकर, समझाकर, आदेश देकर माँस खिलाया। और गोपीचंद के पास तर्क है, शायद साक्ष्य भी हो, प्रमाण भी हो कि माँस खाने से लाभ होता है।

उन्होंने कहा कि लोहे की पूर्ति होती है, प्रोटीन तो मिलता ही मिलता है। आप जितनी तैयारी कर रहे हो, उसमें जो भीतर की माँसपेशियाँ फटती हैं तो जल्दी से उनकी मरम्मत हो जाए—इसके लिए आपको माँस चाहिए। वह सब बातें ठीक होंगी क्योंकि उनका लाभ शायद खिलाड़ियों को मिला है।

तो पहली बात, यह तो हमें स्वीकार करनी होगी कि यह जो शरीर है, इसे माँस से कोई आपत्ति नहीं। जो अक्सर यह तर्क दिया जाता है कि माँसाहार शरीर के लिए ही बुरा है, ऐसी कोई बात वास्तव में है नहीं।

आप उन देशों की ओर देखें, उन समुदायों की ओर देखें जो करीब-करीब शत-प्रतिशत माँसाहारी हैं। आप पाएँगे कि वहाँ के लोगों के शरीर लंबे हैं, चौड़े हैं, सुदृढ़ हैं, चमकती हुई उनकी त्वचा है, दमकते हुए उनके चेहरे हैं और वे रोज़ ही माँस खाते हैं, माँस ही उनके लिए रोटी-सब्जी है। तो शरीर को तो कोई आपत्ति होती नहीं, बल्कि शरीर तो हर्ष मनाता है कि माँस मिला। माँस मिला, अंडा मिला, शरीर तो मस्त हो जाता है। तो यह हुई शरीर की बात। शरीर तो माँस के साथ प्रसन्न है; शरीर नहीं कुछ कह रहा।

जो अक्सर यह तर्क दिया जाता है कि माँस नहीं खाओगे तो शरीर में यह समस्या आएगी, वह समस्या आएगी, उस तर्क में बहुत जान है नहीं ।अगर माँस खाने वाले और शाकाहारियों का औसत जीवनकाल देखा जाए तो हो सकता है जो माँस खाते हैं, उन्हीं लोगों का औसत जीवनकाल ज़्यादा मिले। उसमें और भी कई बातें शुमार होंगी, कई कारण शामिल होंगे। लेकिन फ़िर भी यह बात ज़ोर देकर कह पाना कि माँस खाओगे तो शारीरिक समस्याएँ आ जाएँगी, ज़रा मुश्किल है। ऐसा कोई साक्ष्य उपलब्ध नहीं है।

अब आते हैं बुद्धि पर। आज तक सात-आठ सौ से ज़्यादा नोबेल प्राइज़ दिए जा चुके हैं, और नोबेल पुरस्कार जिन लोगों को मिलता है, अगर आप उनकी गणना करेंगे तो पाएँगे कि उनमें से लगभग ९०% लोग क्या हैं? माँसाहारी ही हैं। तो ऐसा लगता है कि बुद्धि को भी आपत्ति नहीं है माँसाहार से। गणितज्ञ, वैज्ञानिक, लेखक, राजनीतिज्ञ, अनुसंधानकर्ता—सब माँस खा रहे हैं और सब की बुद्धि भरपूर चल रही है। तो माँस ऐसा भी नहीं है कि बुद्धि पर छा जाता है और बुद्धि को कुंद कर देता है।

बड़ी-से-बड़ी वैज्ञानिक उपलब्धियाँ भी उन जगहों पर हुई हैं जहाँ माँस खाया जाता है। तो बुद्धि को भी कोई आपत्ति नहीं है। तो बुद्धि भी नहीं कहती कि माँस मत खाओ। तो शरीर भी खुश है ,बुद्धि भी खुश है, अब कोई तर्क बचता है क्या आपके पास माँसाहार के विरुद्ध? तर्क कहाँ है कोई?

मैंने दूध पीना छोड़ा, मेरे शरीर में विटामिन बी १२ का स्तर गिरने लग गया, गिरने लग गया, खतरे के निशान तक पहुँचने लग गया। फ़िर गोलियाँ दी गईं। ख़ैर, मैंने उसे किसी तरह संभाल रखा है। तो शरीर तो दूध माँग ही रहा था। शरीर को कोई प्रसन्नता नहीं हुई कि मैंने दूध छोड़ दिया। शरीर के तल पर कोई तर्क नहीं है माँसाहार के खिलाफ या दूध पीने के खिलाफ। आप किसी की हत्या करके उसका खून पियो, शरीर तो खुश ही होगा।

और भूल जाओ दकियानूसी बातें कि पाप लगता है, कर्मफल चढ़ता है, कुछ नहीं। तुम जीवन भर जानवरों को मारते रहो, खाते रहो। तुम मिट गए, जानवर मिट गए, तुम्हारी हँसते-खेलते अस्सी-नब्बे की उम्र में मौत हो गई, तुम्हें और क्या चाहिए?

जो कुछ तुम हो, जो कुछ तुम अपने-आप को समझते हो, वह तो मौत के साथ मिट्टी ही हो जाना है—खेल खत्म! और खेल में तुम मस्त रहे, तुम्हारा खेल हँसते-खेलते बीता। विजयी रहे तुम खेल में। आप जानवरों का ही नहीं, इंसानों का भी कत्ल कर-करके खाएँ, आप पाएँगे आपका शरीर और भी तंदरुस्त होता जा रहा है।

तो तर्क तो कोई नहीं है, क्योंकि तर्क जहाँ से आना है, वह खुद माँस से पोषण पाती है। कौन? बुद्धि। माँसाहार के खिलाफ कोई तर्क नहीं। जो लोग तर्क के आधार पर शाकाहारी होना चाहते हो, मैं उनसे कहूँगा उनसे कि जिन तर्कों के आधार पर आप यह जीवनशैली अपना रहे हैं, वह तर्क बहुत दिन चलेंगे नहीं।

हाँ, बिना तर्क के अगर तुम्हें माँस से ग्लानि उठती हो, तो वह दूसरी बात है। तर्क कोई नहीं है, कारण कोई नहीं है। बिना तर्क के छोड़ना चाहो, बिना कारण के छोड़ना चाहो तो बात दूसरी है। मारने के कारण बहुत हैं, न मारने का कोई कारण नहीं है। बिना कारण के भी लगे कि मारना नहीं है, भले ही अपना नुकसान हो जाए—और मेरा नुकसान है, मुझे यह दिख रहा है। दूध नहीं पी रहा हूँ, है मेरा नुकसान, लेकिन नहीं पियूँगा। बिना कारण के न पीना चाहो तो बात दूसरी है। बिना कारण के जब तुम दूसरे का शोषण नहीं करना चाहते, तो उसे करुणा कहते हैं। और कारणबद्ध होकर जब तुम किसी का शोषण नहीं करते, तो वह सिर्फ व्यापार है।

वहाँ सिर्फ तुमने हिंसा को स्थगित कर दिया है, छुपा दिया है। तुम कह रहे हो, “अगर हिंसा करी तो कुछ नुकसान हो जाएगा, इस कारण हिंसा नहीं कर रहा हूँ।”

करुणा दूसरी चीज़ है। करुणा जान रही है कि हिंसा कर भी लें तो नुकसान नहीं होना है, फायदा ही होना है। शरीर पुष्ट होगा, बुद्धि भी बलवती होगी और कहीं कोई चित्रगुप्त बैठकर हिसाब नहीं लिख रहा है कि तुमने कितने मुर्गे खाए, तुमने कितने बकरे काटे, कि कितने जीवों को परेशान किया।

हर तरीके से लाभ है, नुकसान कोई नहीं। जो नुकसान बताया जाता है, वह काल्पनिक हैं। कोई पाप-वाप सिर नहीं चढ़ता। पाप सिर चढ़ता होता तो दुनिया में रोज़ करोड़ों-अरबों जानवर कट रहे हैं, कितना बड़ा है पाप का घड़ा जो भर ही नहीं रहा? कोई पाप नहीं चढ़ता, किसी को नहीं चढ़ता। माँस खाने वाले मस्त हैं—मस्त हैं, फल-फूल रहे हैं, उन्हीं की दुनिया है, उन्हीं का राज है।

बिना कारण के तुम पाओ कि तुम असहाय हो, तुमसे खाया जाता ही नहीं—इसलिए नहीं कि तुम संस्कारित हो, इसलिए नहीं कि तुम्हें माँस से बदबू आती है, इसलिए नहीं कि घिना जाते हो—इसलिए कि तुम बर्दाश्त ही नहीं कर पाते कि तुम्हारी ज़बान के लिए, तुम्हारी सेहत के लिए, तुम्हारे स्वाद के लिए किसी का गला कटे, तुम नहीं बर्दाश्त कर पाते। तुम्हें यह बात जँचती ही नहीं कि कोई जीव चल रहा था, फिर रहा था, और तुमने पकड़कर उसकी गर्दन मरोड़ दी। तुम उसकी आँखों में देखते हो, तुम कहते हो कि तुम्हारा शरीर दूसरा है लेकिन तुम्हारी आँखें बिलकुल मेरे जैसी हैं। कुछ है तेरी आँखों के पीछे जो बिलकुल वही है, जो मेरी आँखों के पीछे है।

फ़िर तुम कहते हो, “यार, भूख तो बहुत लगी है और मुझे पता है इसका माँस सेहतमंद भी है, स्वास्थ्यवर्धक भी होगा अगर मैं इसको अभी मार कर खा जाऊँ। पर खा पाऊँगा नहीं, चाहूँ तो भी नहीं खा पाऊँगा।” तब तुम माँस छोड़ना, अन्यथा नहीं। और तब माँस छोड़ने के लिए तुम्हें मेरी सलाह की ज़रूरत नहीं, क्योंकि तब माँस छोड़ना तुम्हारी आत्मिक विवशता बन जाएगी। कोई होगा तुम्हारे भीतर जो तुम्हें खाने ही नहीं देगा। बात खाने की नहीं है, बात मारने की है।

भारत में बहुत समय तक माँस को गंदा बोला गया—म्लेच्छों का भोजन है, निम्नवर्ग का भोजन है, इत्यादि-इत्यादि। कुत्ता खाता है माँस, ऐसा बोला गया। यह कोई तर्क नहीं है। गंदा तो सब कुछ है। मिट्टी के नीचे से तुम कितनी सब्जियाँ निकालते हो, वह गंदी नहीं हैं क्या? माँस गंदा है—यह तर्क नहीं चलेगा। गंदा है तो साफ कर दिया जाएगा। आज साफ करने की बहुत वैज्ञानिक विधियाँ मौजूद हैं।

माँस न खाने के लिए तो दिल चाहिए। ऐसा दिल जो हत्या स्वीकार ही न करता हो। जो देखे मुर्गे की तरफ और कहे, “यार! तू जी। मैं नहीं मार सकता तुझे, तू जी। ऐसा नहीं तुझे मार पाने की ताकत नहीं। तेरी बिसात क्या है? एक नन्हा सा जीव है। मुझे एक पल नहीं लगेगा तेरा काम तमाम करने में। पर नहीं, नहीं मारुँगा तुझे! भूखा हूँ लेकिन नहीं मारूँगा तुझे।” बस ऐसा दिल हो आपके पास तो दूसरी बात है, अन्यथा कोई तर्क नहीं है।

आप मारे जाओ जीवों को, सेहत बढ़ती रहेगी। कितने लोगों का उपचार है माँस! ठीक है, माँस खाने से कई रोग होते भी हैं पर कई रोग जाते भी। अब यह बात तो फ़िर दाल-सब्जी सब के साथ लागू होती है। अगर आप यह तर्क देते हो कि माँस खाने से ये-ये रोग होते हैं, तो वैसे तो आलू खाने से भी कई रोग होते हैं। और माँस का प्रयोग तो प्राचीन किताबों में औषधि के रूप में भी है। तो वो सारी बातें व्यर्थ हैं।

बस जब दिल न करे मारने का, तब जान लेना कि माँस मेरे लिए नहीं है। जब चेतना इतनी सजग हो जाए कि देखे माँस के टुकड़े को और ज़हन में कौंध जाए कि यह जीव है; खाद्य पदार्थ नहीं है, वस्तु नहीं है, चीज़ नहीं है। थोड़ी देर पहले इसमें लहर थी, उत्कंठा थी, प्राण थे, यह चहक रहा था, यह जीना चाहता था, इसे घास पर कूदना था, खेलना था, इसे साँस लेनी थी, इसे आसमान की ओर देखना था। जैसे बच्चे खेलते हैं, वैसे यह खेल रहा था और मैंने इसके गले पर छुरी चलाई है।

छुरी चलाने का क्षण समझते हो? किसी को भी मरते हुए देखा है? किसी की गर्दन काटी गई, उसे मरते हुए देखा है? कैसे धीरे-धीरे आँखों से ज्योति बुझती है। इधर गले से लहू की धार बह रही है, दिल अभी धड़क रहा है। खून बहुत ज़ोर से बहता है और उधर आँखें धीरे-धीरे निष्प्राण हो रही हैं, रोशनी बुझ रही है। और वह कह रहा है: ‘मुझे अभी जीना है! मुझे अभी जीना है!’

यह बात भावनाओं की नहीं है, भावनाएँ तो बदल जाती हैं। यह ‘कुछ और’ है, और यह ‘कुछ और’ अगर है तुम्हारे पास तो माँस तुम्हारा खुद ही छूटेगा। और अगर तुम सिर्फ शरीर और बुद्धि हो, तो माँस के पक्ष में तर्क बहुत हैं। मैं उन तर्कों को काट नहीं सकता। तुम खाए जाओ।

शरीर हो तुम? तो खाए जाओ माँस, शरीर को भला लगेगा। मन हो तुम? तो खाए जाओ माँस, बुद्धि तीव्र होगी। हाँ, अगर कुछ और हो तुम, तो बात करने की ज़रूरत भी नहीं है क्योंकि तुम फ़िर जान जाओगे कि जो तुम हो, वही वह है जिसकी हत्या करना चाहते हो, तुमसे की नहीं जाएगी।

पर बड़ी आफ़त है। उस स्थिति में ऐसा नहीं है कि तुम जानवर को ही नहीं मार पाओगे, तुम्हें पत्ती तोड़ते हुए भी बुरा लगेगा। हाँ, वही है फ़िर, प्रकृतिगत इच्छाओं के लिए उतना करोगे बस कि यह जो जीव है (अपने शरीर की ओर इशारा करते हुए) , यह जो शरीर है, यह चलता भर रहे। तब तुम यह भी नहीं चाहोगे कि कोई पौधा उखाड़ कर खा जाओ। तुम कहोगे, “इससे कुछ स्वतः मिलता हो फल इत्यादि तो बढ़िया है। नहीं तो हमारा पौधों का भी जान लेने का मन नहीं करता।”

उस स्थिति में आफ़त ही आ जाती है। व्रत इत्यादि मत उठा लेना कि करुणा से ओतप्रोत होना है। वह बड़ी ख़तरना चीज़ है, फँसा देती है। जिसमें उठती है, उसी में उठती है। वह वरदान भी है, अभिशाप भी!

देखो, अभी इन्हीं की बात कर रहे थे। तुम जैसे-जैसे संतों को देखोगे, वैसे-वैसे पाओगे कि वे तो इस पक्ष में भी नहीं थे कि खाने के उद्देश्य से कोई पौधा लगाया जाए। चाहे चावल हो, चाहे गेहूँ हो कि उसको लगाया ही इसीलिए गया है, रोपा ही इसीलिए गया है कि वह बड़ा हो, उसमें दाने लगें, हम उनसे दाने तोड़ लें और फ़िर उनको उखाड़ कर फेंक दें। यही करते हो न तुम चावल-गेहूँ, ज्वार-बाजरा के साथ? इसको रोपते ही उस उद्देश्य से हो।

तो वो यह कर लेते थे कि वृक्षों से फल ले लेते थे, फल ले लिए, तरकारी ले ली। बहुत तरह की सब्जियाँ आती हैं जिनमें वृक्षों को कोई नुकसान नहीं होता, बल्कि उनके लिए अच्छा रहता है। तुम खाते हो तो उनके बीज फैल जाते हैं, वृक्षों का भला हो जाता है। वो कहते हैं कि चलो, हमारे बीज फैले, अब एक नया पौधा वहाँ उग जाएगा।

तुम नहीं पाओगे कि उपनिषदों के ऋषि खेती कर रहे हैं, कि “चलो भाई, दाल की फसल खड़ी करनी है, कि गन्ना खड़ा करना है।” यह नहीं पाओगे। आश्रमों में वृक्ष होते थे, जंगल होते थे, जहाँ जंगलों से जो चाहिए, ले लो। जंगल उनकी आवश्यकताओं की पूर्ति कर देते थे।

तो जिन्हें नहीं मारना, वे नहीं मारेंगे। वे जानवर क्या, पौधे को भी नहीं मारेंगे। और अस्तित्व उनके निर्वाह के लिए जितना चाहिए, उतना दे देता है। पर फ़िर कह रहा हूँ, ये बातें नकल करने की नहीं हैं। तुममें जितनी संवेदना होगी, उसके अनुसार स्वतः तुम्हारा जीवन हो जाना है। जानते रहो बस, आँख खोलकर जियो।

सारी आध्यात्मिकता की शुरुआत होती है जीवन के सहज अवलोकन से।

सब कुछ जाना जाता है। पता होना चाहिए कि तुम कुछ पहन रहे हो तो वह कहाँ से आता है? देखते नहीं है कि कई उत्पादों पर प्रतिबंध लग जाता है? और वह उत्पाद बड़ा बढ़िया है, पर प्रतिबंध क्यों लग जाता है? क्योंकि कंपनी अमेरिकन है और उसका कारखाना बांग्लादेश में है, और बांग्लादेश में बाल-श्रम से उस उत्पाद का निर्माण होता था। जूते का ब्रांड यूरोपियन है पर उसकी फैक्ट्री कहाँ थी? इंडोनेशिया में। और फैक्टरी में क्या चल रहा था? बाल श्रम, *चाइल्ड लेबर*। तो उस उत्पाद पर प्रतिबंध लग जाता है। तो आपने यह क्या किया? आपने कहा कि मैं यह जानना चाहता हूँ कि यह जूता कहाँ से आता है? किस प्रक्रिया से होकर आता है?

ठीक वैसे ही अपने खाने को भी देखो कि आपकी मेज पर जो रखा है, आपकी थाली में जो रखा है, वह कहाँ से आ रहा है? वह चीज़ क्या है? आप तो चिकन ऐसे बोलते हो जैसे फैक्ट्री से निकलता हो। जीव है, भाई। वो पक्षी है, मुर्गा है, तुम उससे बात कर सकते हो, तुम उससे दोस्ती कर सकते हो, उसकी आँखें हैं, उसकी चेतना है। उसे अच्छा लगता है, उसे बुरा लगता है। वह कभी बच्चा होता है और सब बच्चों की तरह वह भी क्रीड़ा करता है, फ़िर वह बड़ा होता है। उसे भी गुस्सा आता है, वह भी कभी थककर शांत होता है, वह भी कभी दौड़ा लेता है, वह भी बुरा मानता है, वह भी ठिठोली करता है।

अजीब बेवकूफ़ी है! तुमने केएफसी का वो लोगो देखा है, मुर्गा अपना माँस देने आ रहा है और कितना खुश लग रहा है? अरे, होश में आओ, भाई। देखो कि कैसे कटता है मुर्गा। खुश नहीं होता है वो। उसकी आँखों को देखो जब उसके प्राण जा रहे होते हैं।

अभी एक दुकान के आगे से गुजरता था तो वहाँ एक खिलौना रखा हुआ था। खिलौना था कि गाय एक ट्रॉली लेकर चली आ रही है और उस ट्रॉली में दूध की बोतलें भरी हुई हैं। गाय ने अपने अगले दो पाँव उठा रखे हैं और उनसे वह ट्रॉली लेकर आ रही है, और ट्रॉली में क्या भरी हुई हैं? गाय के ही दूध की बोतलें।

गाय बड़ी राज़ी-खुशी आपको अपना दूध देने आ रही है। तुम चाहते हो कि अब बच्चे दूध की बोतल देंखें तो वे ईमानदारी से पूछे नहीं कि ये दूध की बोतलें किस प्रक्रिया से आती हैं? तुम यह खिलौना दिखाकर बच्चों को भ्रमित करना चाहते हो ताकि बच्चे जब दूध की बोतल देखें तो उन्हें लगे कि गाय तो स्वतः ही, स्वेच्छा से अपना दूध तुम्हें दान करती है। क्यों झूठ बोलते हो?

जैसे देखते हो कि जूता कहाँ से आ रहा है, उसके पीछे बाल श्रम तो नहीं है? वैसे ही बच्चों को देखना सिखाओ, पूछे वह कि यह दूध कहाँ से आता है? हम समझना चाहते हैं, हम अपनी आँखों से देखना चाहते हैं, हमें जाँच-पड़ताल करना है, हमें पता करना है कि गाय को कैसा लग रहा है जब यह दूध निकाला जा रहा है? गाय के बछड़े का क्या हो रहा है? हम पूरी प्रक्रिया समझेंगे। यह गौ-पालन चीज़ क्या है?

तुम्हारे हाथ में तो बनी-बनाई चीज़ आ जाती है, बना-बनाया उत्पाद। “ये लीजिए, साहब, चिकन बिरयानी, ये कढ़ाई चिकन।” उसके पीछे का तुम्हें कुछ दिखाई नहीं देता। इतने मूर्ख हो, ऐसे अंधे? और ठीक है, शरीर कब कह रहा है कि तुम मूर्ख न रहो, अंधे न रहो? तुम्हें कुछ नहीं दिखाई देगा तो भी शरीर तो चौड़ा होता ही जाएगा, और वही आज का उच्चतम आदर्श है, एक चौड़ा शरीर। वो हो जाएगा।

ऐसा नहीं है की माँस नहीं खाओगे तो शरीर बनेगा नहीं। हज़ारों उदाहरण हैं विपरीत भी। वो तुम्हें दिखा देंगे की बिना माँस के, बिना दूध के, बिना हिंसा के और शोषण के भी पहलवानी भी की जा सकती है। लेकिन ज़रा मुश्किल पड़ती है, ये हमें मानना पड़ेगा। माँस के साथ ज़रा आसानी हो जाती है।

प्र१: तर्क के तल पर तो हर प्रकार के तर्क बन जाएँगे।

आचार्य: तर्क ज़्यादा हिंसा के पक्ष में ही मिलेंगे, और वो तर्क ठीक भी हैं, उन तर्कों में कोई खोट नहीं है। आप डॉक्टरों के पास जाइए और आपको कोई भी कमज़ोरी हो, वो पहली चीज़ कहेंगे, "लीजिए, साहब, आप व्हाइट मीट तो बिलकुल ठीक है, कोई दिक्कत ही नहीं है। अभी लीजिए।" वो डॉक्टर है, उसको पढ़ाया क्या गया है ज़िन्दगीभर? शरीर। तो अपनी ओर से वो ठीक ही राय दे रहा है। उसने जीवनभर माँस का ही तो कारोबार देखा है।

डॉक्टर और कसाई दोनों में एक समानता होती है। क्या? दोनों ने जीवनभर क्या देखा है? माँस। एक ज़िंदा माँस को मुर्दा माँस बनाता है, दूसरा मुर्दा हो रहे माँस को चैतन्य रखता है, लेकिन दोनों हैं तो क्षेत्र में माँस के ही।

तो चिकित्सक आपसे बोले कि, "चलो, अब कल से अंडा खाना शुरू करो।" तो इसमें हैरत की क्या बात है? वो ठीक ही कह रहा है। आपको उस पर क्रोधित भी नहीं होना चाहिए, वो अपना फ़र्ज़ निभा रहा है। अब ये तो आपको देखना है कि आपको शरीर ही देखना है या आप शरीर से आगे भी कुछ हो।

प्र३: एक ऑटोवाले से मुलाकात हुई। तो ऐसे ही बात चली। उसने एक बात बोली कि कई साल हो गए माँस छोड़े हुए, पहले बहुत खाता था। बस एक दिन पता नहीं क्या लगा, क्यों लगा और छोड़ दिया। उसके बाद मन नहीं करता। कारण पता भी नहीं है।

आचार्य: वही है न, शाकाहार के जितने पैरोकार हैं, वो सब हारते रहे हैं। लोगों ने बड़ी कोशिशें की हैं माँसाहारियों को तर्क द्वारा समझाने की। माँसाहारियों के सामने लोग जाते हैं और तर्क देते हैं कि “देखो, माँस मत खाओ, इससे तुम्हें ये बीमारी हो जाएगी। कैंसर का खतरा बढ़ जाता है, दिल की बीमारी हो जाएगी, लिवर पर दबाव पड़ेगा, माँस मत खाओ।” और जितने आप तर्क देते हो, दुनिया में माँसाहार उतना बढ़ रहा है। तर्क से नहीं समझा पाओगे, किसी कि ह्रदय में प्रेम जाग्रत कर पाओ तो दूसरी बात है।

माँसाहार छोड़ने का कारण कभी तर्क नहीं बनेंगे, माँसाहार छोड़ने का कारण तो सिर्फ करुणा बनेगी, प्रेम बनेगा। जिसके दिल में प्रेम जग गया, बस उसे माँस से जुगुप्सा हो जाएगी।

वो प्रेम बड़ी अलौकिक बात होती है, वो तर्क से नहीं आएगा, वो किसी को विवश करके नहीं आएगा, वो समझा-समझाकर नहीं आएगा। अब बड़े तर्क दे लो, वो दो महीने नहीं खाएगा, फ़िर एक दिन पहुँच जाएगा।

वो तो जब एक दूसरी लौ जलती है ह्रदय में, तब आदमी का पूरा जीवन ही बदलता है। बहुत कुछ छूटता है, उस बहुत कुछ के साथ माँस भी छूट जाता है। और अगर वो सब कुछ नहीं छूटा है जो अज्ञान की परिणति है, सिर्फ माँस छूटा है, तो माँस भी बहुत दिनों तक छूटा नहीं रहेगा। कोई बीमारी आएगी, आप माँस खाने लग जाओगे, या फ़िर माँस छूटा भी होगा तो वो बड़े सतह-सतह की बात होगी। सतह-सतह पर तो आप शाकाहारी होंगे, भीतर-भीतर आपके खूब हिंसा होगी।

शाकाहार तभी सार्थक है जब वो आत्मज्ञान से फलित हो। संस्कार आया हुआ शाकाहार बड़ा व्यर्थ है। पहली बात तो बहुत दिन चलता नहीं। माँ-बाप शाकाहारी होंगे, बच्चे को बड़े संस्कार देंगे कि, “बेटा, खाना मत।” तो वो घर में नहीं खाएगा, बाहर से आमलेट खाकर आएगा और फ़िर माउथवॉश कर लेगा। सिगरेट पिएँगे, कुछ भी खाएँगे, चिकन मोमो, उसके बाद *लिस्ट्रीन*। मम्मी को पता ही नहीं चला। कितने दिन चलेगा ये सब?

ब्राह्मणों को, जैनों को देखिए, बड़े संस्कार हैं माँस न खाने के। और उनके बच्चे को देखिए, घूम रहे हैं, बकरे में पूरा मुँह डाल दिया है उन्होंने अपना, भैंसे के अंदर घुसे हुए हैं। ताज़ा खाना है, हेल्थी फ़ूड , रॉ भैंसा। ये ब्राह्मणों और जैनों के हाल हैं जिन्हें खून में संस्कार मिले होते हैं शाकाहार के, 'शर्मा झटका कॉर्नर'।

तो मैं न तो संस्कारों वाले शाकाहार की बात करूँगा, न तर्कों वाले शाकाहार की बात करूँगा। संस्कारों वाला शाकाहार चल भी गया तो नकली है। बहुत घूम रहे हैं ऐसे ब्राह्मण-पंडित जो माँस, अंडा, मच्छी कुछ नहीं खाते और भीतर-ही-भीतर हिंसा से भरे हुए हैं—बेकार। और न मैं तर्कों वाले शाकाहार की बात करूँगा क्योंकि शाकाहार के खिलाफ-ही-खिलाफ तर्क हैं, उसके पक्ष में बहुत कम तर्क हैं।

मैं तो उस शाकाहार की बात करूँगा जो अतार्किक है, अकारण है। पता नहीं कहाँ से आता है। वो जहाँ से आता है, उसे परमात्मा बोलते हैं, आत्मा बोलते हैं, सत्य बोलते हैं। वो जब उठता है तो उस अवस्था को प्रेम बोलते हैं, करुणा बोलते हैं। प्रेम फैले, करुणा फैले, माँस का सेवन अपने आप हट जाएगा—और कोई रास्ता है भी नहीं।

अपने से आगे का कुछ दिखना चाहिए, अपने से आगे का। इसी को तो कहते हैं न अध्यात्म—'मुझसे आगे भी कुछ है'। परमात्मा कौन? जो बियॉन्ड है, जो पार है, जो तुमसे आगे का है। जब तुम्हें अपने से आगे का कुछ दिखता है तो जानते हो तुम क्या कहते हो? हो सकता है माँस खाने से मैं पाँच साल ज़्यादा जीता, पर मेरे दैहिक जीवन से आगे भी तो कुछ है न। आगे से अर्थ यह नहीं है कि मरने के बाद कुछ है, आगे से अर्थ है कि मेरे दैहिक जीवन से ज़्यादा महत्वपूर्ण भी तो कुछ है न।

“ठीक है, कम जी लेंगे। नहीं खाया मुर्गा, हो सकता है पाँच साल काम जिएँ, जी लेंगे पाँच साल कम। इस ज़िन्दगी से ज़्यादा कीमती कुछ और है।”—इसी को अध्यात्म कहते हैं। “नहीं खाएँगे माँस, नहीं पिएँगे दूध, कम जी लेंगे, ठीक है। ठीक है, हो सकता है माँसपेशियों में थोड़ी ताकत कम रह जाए, कोई बात नहीं, पर मारेंगे नहीं। इस जिस्म से ज़्यादा कीमती कुछ और है।”

क्या नाम है उसका? हम नहीं जानते; उसका कोई नाम नहीं होता। कहाँ होता है वो, कैसे देखा जाता है? कैसे उसकी कीमत लगाएँ? कुछ नहीं कह सकते, वो निराकार है। उसकी कीमत कुछ नहीं, अमूल्य है। झेल लेंगे नुकसान, इस नुकसान से आगे कुछ और है। ये जो आगे की बात है—ये ही अध्यात्म है, यही प्रेम है, यही करुणा है। जब आदमी कहता है, “तैयार हूँ नुकसान झेलने को, पर मारूँगा नहीं। तेरा नुकसान नहीं कर सकता, भले हमारा नुकसान हो जाए। मारुँगा नहीं, भले मर जाऊँ—मुझसे बड़ा है कुछ!”

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