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लेख
आत्मज्ञान की तीन विधियाँ || आचार्य प्रशांत (2014)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
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प्रश्न: आत्मज्ञान कैसे हो?

वक्ता: स्पष्ट सी बात है कि जिसे जानना है, उसके करीब आना होगा। जिसे जानना है, उससे दूरी बना कर के तो कुछ जाना नहीं जा सकता। आत्मज्ञान में जिस आत्म की बात हो रही है, वो तो अहंकार ही है क्योंकि ज्ञान उसी का हो सकता है और मात्र उसी को जाना भी जा सकता है। मात्र उसी को जानकारी रूप में इकट्ठा भी किया जा सकता है। वो अपनेआप को किन रूपों में प्रकट करता है? वो अपनेआप को प्रकट करता है मानसिक रूप में और शरीरिक रूप में। वो अपनेआप को प्रकट करता है इस जगत के रूप में।

हमने दो बातें कहीं: पहली ये कि आत्मज्ञान का अर्थ ये कतई न लगाया जाए कि आप आत्मन को, ब्रह्म को, परम को जान लेंगे। वो जानने की वस्तु नहीं है। उसमें डूबा जा सकता है, उसे जाना नहीं जा सकता; वो अज्ञेय है। जो अज्ञेय हैं, उसके बारे में कुछ भी जाना नहीं जा सकता। तो आत्मज्ञान जब भी कहा जाए, तो उसका अर्थ यही है कि अहंता का ज्ञान। इस अहंता को कैसे जानना हैं?

मैंने कहा इसके अन्दर तीन कर्म होते हैं। और ये लगातार कर्म में ही उत्सुक होती है। तीन प्रकार के इसके कर्म हैं: मानसिक, शारीरिक और जगत। जगत क्या है? जगत अहंता का कर्म है। सुना है न आपने कि जैसे होते हो, दुनिया वैसी ही दिखती है। तो स्वयं को जानना है, तो दुनिया को भी देखा जा सकता है। इसमें सबसे स्थूल है , जो कुछ न कर पाता हो, उसके लिए आत्मज्ञान की शुरुआत होगी दुनिया को जानना। दुनिया कैसे चलती है, इस दुनिया के नियम-कायदे क्या हैं? इस दुनिया के सारे विज्ञान क्या हैं? इस दुनिया के सारे तंत्र कैसे चलते हैं? तो आप ज्ञान इकट्ठा कर रहे होंगे भूगोल के बारे में, भौतिकी के बारे में, अर्थ व्यवस्था के बारे में, राजनीति के बारे में लेकिन साथ ही साथ आत्मज्ञान भी मिल रहा है क्योंकि दुनिया का कोई भी तंत्र हो, कोई भी ब्यवस्था हो वो मन से ही निकली है।

मन तो एक ही है। आपने यदि ये समझा कि दुनिया भर के देश आपस में क्यों लड़ते हैं, तो आपको ये भी स्पष्ट हो रहा होगा कि दो व्यक्ति आपस में क्यों लड़ते हैं क्योंकि देशों और व्यक्तियों में कोई अंतर नहीं है। अगर आपने ये समझा कि दुनिया की अर्थ-व्यवस्थाएं कैसे चलती हैं, अमीरी कहाँ से आती है और गरीबी कहाँ आती है, तो उससे आपको अपने मन का भी बहुत कुछ पता चल जाएगा कि मन किस प्रकार धन को खींचता है। धन की कमी होने पर मन कैसे रीएक्ट करता है। किन स्रोतों से वो इकट्ठा करना चाहता है। तो कहने को तो आप जगत ज्ञान पा रहे हो लेकिन साथ ही साथ आत्मज्ञान भी मिल रहा है। ये स्थूलतम तरीका है आत्मज्ञान का।

श्रोता: पर इसमें उस आदमी को यही पता होगा न कि दुनिया ऐसी है। इसमें उसे ये तो नहीं पता चल पाएगा न कि वो खुद ऐसा है, इसिलिए दुनिया ऐसी है?

वक्ता: ये बात तुम चैतन्य रूप से नहीं कह पाओगे कि, ‘’मैं अपने बारे में ही जानकारी पा रहा हूँ।’’ पर वो घटना अभी साथ में घट रही है बिना तुम्हारे जाने। पर जैसा कहा कि ये स्थूलतम तरीका है, ये निम्नतम तरीका है। जिसमें अपनेआप को देख पाने की बिलकुल क्षमता न हो, ये तरीका सिर्फ़ उसके लिए। उससे सूक्ष्म तरीका है अपने कर्मों को देखने का। ‘’मैं क्या कहता हूँ, मैं क्या करता हूँ। ’’

ठीक है? तो पहला था जगत को देखना और दूसरा था अपने ही कर्म को देखना। ‘’किस दिशा मेरे पाँव जाते हैं, किन शब्दों का मैं चयन करता हूँ, कहाँ ये सारा समय व्यतीत होता है, किन लोगों से मैं जुड़ा हुआ हूँ, क्या खाता हूँ, क्या पढ़ता हूँ, क्या पहन रहा हूँ’’ – ये है अपने ही कर्मों को देखना। ये उस स्थूलतम तरीके से थोड़ा ऊपर का तरीका हुआ। और जो सर्वश्रेष्ठ तरीका है, जो सूक्ष्म तरीका है, वो है अपने विचारों को ही पढ़ लेना। अपने विचारों का ही साक्षी हो जाना क्योंकि, ‘’कर्म भी, जगत भी अंततः, फलित तो विचारों से ही हो रहे हैं। तो मैंने अपने विचारों को ही पढ़ लिया। मैं अपने मानस का ही साक्षी हो गया।’’

और फिर एक अद्भुत घटना घटती है जब आप विचारों को ही देखना शुरू कर देते हैं। तो विचारों के बाद आप वृत्तियों तक पहुँच जाते हैं। क्योंकि जैसे-जैसे आप विचारों की गहराइयों में जाएँगे, तो अपको धीरे-धेरे वो गाँठ भी दिखने लग जाएगी, जहाँ से सारे गाँठ निकलते हैं। ”मैं ऐसा क्यों सोचता हूँ? अच्छा, सोच रहा हूँ, स्थूल विचार तो देख ही रहा हूँ, सूक्ष्म विचार भी दिखने लगे हैं।” फिर आप वहाँ तक भी पहुँचने लग जाते हैं, जो आपकी मूल ग्रंथियां होती हैं। उन ग्रंथियों के भी मूल में, जो गहरी से गहरी ग्रंथी बैठी है, ‘अहम् वृत्ति’, वहाँ तक पहुँच जाते हैं। और उसके बाद कुछ जानने को शेष नहीं रह जाता। उसके बाद जो है, उसे ज्ञान नहीं कहा जा सकता। जिसें विचारों को, वृत्तियों को और अंततः अहम् वृत्ति को देख लिया, जो इनका साक्षी बन गया, वो अब वहाँ पर पहुँच जाता है, जहाँ पर ज्ञान की सीमा आ जाती है। अब उसके आगे ज्ञान नहीं है, आप कह नहीं पाओगे, ”मैंने जाना क्योंकि जानने का काम ही वही अहम् वृत्ति करती है। अब साक्षी हो पाओगे, अब डूब पाओगे पर अब जानना ख़त्म हुआ।”

तो आत्मज्ञान में जो उत्सुक हैं, उनके लिए कुछ सीढियाँ हैं। और याद रखियेगा कि जब सीढ़ी के अगले पायदान पर पहुँचा जाता है, तो फिर पिछला छोड़ ही देना पड़ता है। आप ये नहीं कर पाएंगे कि पहली सीढ़ी पर एक पाँव है और १८वीं पर दूसरा। हो सकता है कि प्रारंभ में जगत में आपकी बड़ी रूचि हो। आप देखना चाहें कि दुनिया भर में क्या चल रहा है लेकिन एक बार आप उस स्थान से आगे बढ़ गए, दुनिया की अपेक्षा आपने खुद को देखना शुरू कर दिए, तो अब दोबारा कोशिश मत करिए दुनिया की ओर जाने की। बात हो रही थी तो किसी ने पूछा कि कभी तो आप कहते हैं कि अखबार पढ़ना बड़ा ज़रूरी है और दूसरे मौकों पर आप कहते हैं कि, ‘’अखबार देखना, टी.वी देखना ये सब मन को भ्रष्ट करने वाली बातें हैं।’ मैंने कहा कि मैंने अलग-अलग लोगों से कहीं हैं। जो बिलकुल ही निम्नतम तल पर बैठा हुआ है, उसको मैं कहता हूँ कि तू अखबार ही पढ़। क्योंकि अभी उसमें इतनी क्षमता ही नहीं है कि वो खुद को देख सके। तुम अपनेआप को देख लो, वो ज़्यादा तुम्हारे लिए महत्वपूर्ण है, उसी से लाभ होगा। तो सबसे नीचे जगत, उसके ऊपर विचार और उसके ऊपर वृत्ति। इन्हीं को देखना आत्मज्ञान है।

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