प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, आत्मा सत्य है, शुद्ध चैतन्य है, यह हम सब जानते हैं। क्या यह जगत जिसे हम मिथ्या जानते हैं, यह भी सत्य है?
आचार्य प्रशांत: शरीर है, इसका काम है पचास चीज़ों का अनुभव करना। पूरा शरीर ही एक इन्द्रिय है, पूरा शरीर ही अपने आप में एक बड़ी इन्द्रिय है। ये कहना भी बहुत ठीक नहीं होगा कि पाँच, दस, पच्चीस इन्द्रियाँ हैं। ऐन्द्रिय ही ऐन्द्रिय हैं हम।
तो शरीर का काम है जगत को सत्यता देना, क्योंकि अनुभवों के लिए जगत चाहिए न। तुम्हें ठंड का, या गर्मी का अनुभव हो, इसके लिए तुमसे बाहर कुछ होना चाहिए। बाहर की हवा लगेगी, तभी तो ठंडा या गर्म अनुभव होगा।
तो शरीर का होना ही जगत को सत्यता दे देता है।
जब तक शरीर है, तब तक ये सब कुछ अनुभव में आता रहेगा। चेतना इन्हीं चीज़ों से भरी रहेगी – अभी ठंडा लगा, अभी भूख लगी, अभी प्यास लगी। कुछ मिला, कुछ खोया। चेतना इन्हीं चीज़ों से भरी रहती है। सवाल यह है कि ये सब कुछ, जो चेतना में मौजूद है सामग्री की तरह, इससे तुम्हें रिश्ता क्या बनाना है।
‘शुद्ध चेतना’ का ये मतलब नहीं होता कि तुम्हारे मन में कोई सामग्री ही नहीं है। ‘शुद्ध चेतना’ का मतलब ये होता है कि तुम्हारे घर में चीज़ें होंगी, पर तुम उनको लेकर बौराए नहीं हो।
‘बौराने’ का मतलब समझते हो न? तुमने अपनी पहचान ही किसी चीज़ से जोड़ दी। अब वो चीज़ ज़रा ऊपर-नीचे हुई, कि तुम बदहवास हो गए। शरीर तो तुमको पचास तरीके की चीज़ें दिखाएगा ही, अनुभव कराएगा ही। आँखें और किसलिए हैं? कान और किसलिए हैं? त्वचा और किसलिए है? मुँह किसलिए है? पेट किसलिए है? पूरा ऊपर से नीचे तक का जो तंत्र है, ये अनुभव के लिए आतुर, एक धधकती हुई प्रणाली है।
समझ लो तुम्हारा दिल धड़क ही रहा हो, जैसे बस अनुभव के लिए। जैसे आग लगी हो।
और उसको क्या चाहिए प्रतिपल? अनुभव। और अनुभव ना मिले, तो उसको ऐसा लगता है कि बस मर ही गए। उसको अध्यात्म के नाम पर भी अनुभव ही चाहिए। तुम्हें कुछ अनुभव ना हो, तो तुम कहते हो, “मैं मरा।” आँख बंद हो जाए, तो कह देते हो, “मैं अंधा हो गया।”
कैसे पागल हो जाते हो!
तो ये पूरी व्यवस्था पचास तरह के अनुभव करती ही रहेगी। तुम उनसे रिश्ता क्या बना रहे हो, ये तुम्हें देखना है। वो रिश्ता स्वस्थ रखो। उस रिश्ते में ज़रा अपनी एक हैसियत रखो, बौरा मत जाओ, पागल मत हो जाओ। डरे-डरे मत घूमो। समझो कि आने-जाने वाली चीज़ें हैं, और इनका आना-जाना आवश्यक है।
एक तो आत्मा आवश्यक है। और दूसरे, आत्मा के चलते ही, जगत की निस्सारता भी आवश्यक है। इसीलिए ज्ञानी ये भी जानते हैं कि आत्मा मात्र है, जगत मिथ्या। और अन्यत्र वो ये भी कहते हैं कि जगत कुछ नहीं है, आत्मा का ही प्रतिपादन है।
तुमने शिविर में गाया था न, “स्व आत्मा ही प्रतिपादितः।” आत्मा ही प्रतिपादित होकर के, अभिव्यक्त होकर के, जगत रूप में दिख रही है। तो आत्मा आवश्यक है, पहली बात तो ये। इस सत्य को झुठलाया नहीं जा सकता। आत्मा है, अवश्य है, आवश्यक है। दूसरा जिस बात को झुठलाया नहीं जा सकता, वो ये है कि – जगत निस्सार है। अब जगत निस्सार है, जगत क्षणभंगुर है, ये बात भी सच्ची है न? तो इस कारण जगत, आत्मा की कोटि में आ गया, आत्मा-तुल्य ही हो गया।
ये सूक्ष्म बात है, ज़रा समझिएगा।
आत्मा अपने होने के कारण सच है, और जगत अपने ना होने के कारण सच है। आत्मा है, इसीलिए सच है। और जगत नहीं है, इसीलिए सच है। तो दो बातें हैं जो पत्थर की लकीर हैं। पहली – आत्मा सदा है। और दूसरी – जगत क्षणभंगुर है। और दोनों बातें हैं तो पत्थर की लकीर न। तो दोनों ही बातें क्या हो गईं? आत्मा हो गईं। तो आत्मा जब निराकार है, तो सत्य है। और साकार होकर जब वो सामने आती है, तो अपनी क्षणभंगुरता में सत्य को प्रदर्शित करती है, प्रतिपादित करती है।
ग़लती हमसे ये हो जाती है कि हम साकार सत्य को अमर आत्मा का दर्ज़ा देना शुरू कर देते हैं। यहाँ सब कुछ क्या है? मरण-धर्मा। और हम उसे वो हैसियत देने लग जाते हैं, जो मिलनी चाहिए मात्र अजर-अमर आत्मा को। फिर हमें निराशा लगती है, फिर हमारा दिल टूटता है। फिर तमाम तरह के दुःख और पीड़ा।
जगत को पूरा सम्मान दो। वैसा ही सम्मान, जैसे दो दिन के फूल को दिया जाता है। दो दिन का जो फूल होता है, दो दिन के लिए आया है, सम्मान तो उसे फिर भी देते हो न। पर याद रखते हो कि ये दो दिन का है। उससे चिपक नहीं जाते।
ये स्वस्थ चेतना है। वो जगत को देखती है, जगत से खेलती है, पर लगातार याद रखती है कि ये दो दिन का फूल है। अभी आया, अभी जाएगा।
तो जगत को मिथ्या बोलना भी आवश्यक नहीं है। जगत को देखो और बोलो, “जगत का ना होना ही सत्य है।” तो जगत भी इस अर्थ में सत्य-तुल्य हो गया। बस भूल मत जाना कि ये खाली है, खोखला है, कुछ रखा नहीं है इसमें। कुछ रखा नहीं है जगत में – यही बात सत्य है।
जगत का देखो आत्मा से रिश्ता बन गया, या नहीं?