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लेख
अस्तित्व की सुंदर व्यवस्था || आचार्य प्रशान्त (2016)

आचार्य जी: अच्छा, यह सब जो दिख रहा है, इसमें एक अपनी व्यवस्था है, या नहीं है? तुमनें कहा कि नदी दिख रही है, पेड़ दिख रहा है, सूरज है, पक्षी हैं, हवा चल रही है। यहाँ मछलियाँ हैं नदी में, बाहर और जानवर हैं, ये कुत्ता खड़ा है। कुछ इसमें से ऐसा है, जो लग रहा है कि स्थिर है, चल नहीं रहा है। और कुछ ऐसा है जो साफ़-साफ़ चलता हुआ भी दिख रहा है; नदी का बहाव है, हवा का बहाव है। पेड़ लगता है कि चल नहीं रहा है पर गति उसमें भी है। तो यह सब जितना है, इसमें इसकी अपनी कोई आंतरिक व्यवस्था, एक इंटरनल आर्डर है या नहीं है?

इंजीनियरिंग की तरह से ही सोचो अगर, तो यह सब व्यवस्थित है या नहीं है? इसमें व्यवस्था है? इसमें एक आर्डर्लिनेस है; व्यवस्था। तो, नदी अपना तट तोड़कर चढ़ी नहीं आ रही। चढ़ती भी है तो उस चढ़ने में भी एक व्यवस्था होती है। जमीन में पानी है और ठीक इतना है कि उससे पेड़ हैं। कम हो जाएगा तो भी पेड़ नहीं रहेंगे, ज्यादा हो जाएगा तो भी पेड़ नहीं रहेंगे। हवा का बहाव है और ऐसा भी नहीं है कि शून्य हो, पर ऐसा भी नहीं है कि सब उखाड़ ही दे।

किसी भी चीज की, किसी दूसरी चीज से दुश्मनी जैसी नहीं लग रही है। और, व्यवस्था गहरी है। गहरी से अर्थ यह है कि गहराई में इसके सारे तत्व, वो सारे एलीमेंट्स , वस्तु , जो तुमनें लिखे हैं। इसकी सारी अलग-अलग लगने वाली इकाईयाँ, एक-दूसरे से जुड़े हुआ हैं। और, सब मस्त हैं। कोई ऐसा नहीं कि किसी को दिक्कत हो इसमें। और, ऐसा भी नहीं है कि किसी को समझौता करना पड़ रहा है, कंधे पर पत्थर रखना पड़ रहा है। जिसको जितना चाहिये, ठीक उतना उपलब्ध भी है। मछली को पानी की कमी नहीं है, पक्षी को आकाश की कमी नहीं है, पेड़ को धरती की कमी नहीं है।

तो यह एक व्यवस्था चल रही है, और यह व्यवस्था ऐसी है जिसमें कोई केन्द्रीयकरण नहीं है, कोई सेंट्रल अथॉरिटी कहीं नहीं बैठी हुई है। व्यवस्था अपने आप को ही सुचारू रूप से चला रही है। व्यवस्था ऐसी है, जिसमें उसके तत्व और उन तत्वों की जो पारस्परिक व्यवस्था है, वो अलग-अलग है ही नहीं। नदी का होना ही पेड़ के लिए अच्छा है। नदी को कुछ अलग से नहीं करना पड़ रहा है। नदी का होना ही काफी है।

अब एक व्यवस्था यह हो जो हम देख रहे हैं कि हमारे चारों ओर चल रही है। यह व्यवस्था समझ में आ रही है? अभी तक तुम इसे ही देख रहे थे। तुमनें इसके अलग-अलग वस्तु देखे। मैं सिर्फ इतना कह रहा हूँ कि उन सारे वस्तुओं को, इकाइयों को, विषयों को अगर एक साथ देखो, तो दिखाई पड़ेगा कि वो बिलकुल जुड़े हुए हैं आपस में, सम्बन्धित हैं। सम्बंधित हैं कि नहीं हैं? अगर यहाँ पानी न हो, तो काफी कुछ जो और तुम्हें दिख रहा है, वो दिखाई नहीं पड़ेगा। यह हवा न हो या सूरज न हो, तो बाकी सब कुछ जो दिखाई दे रहा है, वो भी दिखाई नहीं पड़ेगा। तो इसके सारे तत्व एक दूसरे से बिलकुल जुड़े हुए हैं और बड़ा गहरा जुड़ाव है इनमें।

तो एक तो यह व्यवस्था, जो तुम यहाँ देख रहे हो। और एक व्यवस्था वो होती है, जो इंसान बनाता है। जैसे कि अभी सुबह के 9:00-9:30 बज रहे हैं, शहर में ट्रैफिक बड़ रहा होगा। और उस ट्रैफिक को सुचारू रूप से चलाने के लिए इंसान क्या व्यवस्था बनाता है? हम उसके तत्व गिन रहे हैं; *ऑब्जेक्ट्स*। सड़कें हैं सबसे पहले तो, गाड़ियाँ हैं, गाड़ियों में लोग हैं, लाल बत्ती है, हवलदार है। यही सब है ना? कहीं-कहीं पर सड़क के बीच में ही रेलवे लाईन है, तो रेलवे फाटक हैं। ठीक है? या और दूसरी व्यवस्थाएँ हैं, जो हम बनाते हैं। जैसे, हमारा पूरा समाज है। यह क्या है? व्यवस्था है। जैसे तुम कॉलेज में पढ़ते हो। वो क्या है? वो भी एक व्यवस्था है।

उस व्यवस्था में भी एक आर्डर होता है। *‘* आर्डर’ माने एक तरह की ‘योजना बद्धता’। वहाँ भी अलग-अलग एलिमेंट्स होते हैं: इकाईयाँ, तत्व। जिन्हें एक साथ काम करना पड़ता है उस व्यवस्था के लिए। अब मैं तुमसे पूछना चाहता हूँ – तुमनें पिछले आधे-एक घंटे बैठकर शांति से इसको देखा, तो यह बताओ कि यह जो अस्तित्व की व्यवस्था है और जो मानव – निर्मित व्यवस्थाहोती है, उसमें क्या फर्क होता है? और, क्या समानता है, अगर समानता दिखती है तो?

श्रोता १: मानव-निर्मित व्यवस्था कभी-कभी अशांति हो सकता है। और, हो सकता है कि वो उचित तरीके से न चले। पर प्रकृति की स्थिति में ऐसा नहीं है क्योंकि वो अपने प्रवाह में बहती है।

श्रोता २: मानव-निर्मित व्यवस्था में प्रयास लगाने होते हैं खुद से। और प्रकृति मेंबाहरी प्रयास नहीं लगाने पड़ते।

आचार्य जी: बढ़िया। और?

श्रोता 3: प्राकृतिक व्यवस्था बिलकुल संतुलित है पहले से ही। और, मानव-निर्मित ऐसा बिलकुल भी नहीं है।

श्रोता ४: प्राकृतिक व्यवस्था को थोपा नहीं जा रहा पर मानव-निर्मित व्यवस्था को थोपा जाता है।

आचार्य जी: बोलो?

श्रोता ४: सर, प्राकृतिक व्यवस्था सबके लिए है, और मानव-निर्मित व्यवस्था केवल इंसानों के लिए।

श्रोता ४: यहाँ (प्राकृतिक व्यवस्था ) पर सब खुश हैं और वहाँ पर सब खुश नहीं हैं।

आचार्य जी: और मूल भूत रूप से क्या फर्क है?

श्रोता ४: सर, मानव – निर्मित व्यवस्था किसी न किसी लाभ के लिए होता है।

आचार्य जी: आदमी जो भी व्यवस्था बनाता है, उसका कुछ न कुछ उद्देश्य जरूर होता है। और उद्देश्य इंसान का हमेशा एक ही होता है- ‘किसी भी तरीके से अपना फायदा’। और, फायदा हम कुछ भी कह लें लेकिन होता हमेशा व्यक्तिगत है। घूम फिर करके फायदा इस इकाई को होना चाहिए, जिसका नाम ‘व्यक्ति’ है। ‘मैं’- उसी को अहम् भी कहते हैं।

इंसान जितनी भी व्यवस्थाएँ बनाता है, कुछ चाहने के कारण बनाता है, कुछ पा लेने की हसरत से बनाता है।”

पा लेने की हसरत का अर्थ क्या होता है? कोई कमी है। कुछ कमी लग रही है। उसको पा लें तो कमी दूर हो जाएगी। तो हमारी जो सारी व्यवस्थाएँ हैं, वो दुःख से निकलती हैं, हीन भावना से, कमी और कमजोरी की भावना से। हाँ? दुःख से पैदा होती हैं, और चाहती क्या हैं? ख़ुशी

“जो भी कुछ दुःख से पैदा होगा, वो हमेशा ख़ुशी चाहेगा।” यही द्वैत का नियम है। द्वैत का नियम है: ‘द्वैत का एक सिरा भागता है दूसरे की ओर’।

और जो यह (अस्तित्व की) पूरी व्यवस्था है, यह क्या चाहती है? यह नदी का बहना, और सूरज का उगना या पत्तों का बस ऐसे ही हिलना, या सुबह हुई और पक्षियों ने गाना शुरू कर दिया, यह क्या चाहते हैं? किसी ने कहा तुम्हारे फायदे के लिए बने हैं। तुम इस समय नदी के पास न आते तो क्या बहाव न रहता? और इस दुनिया से सारे इंसान मिट भी जाएँ, तो क्या सुबह-सुबह पक्षी गीत नहीं गाएँगे? बल्कि तब ज्यादा शान्तिपूर्वक गा लेंगे। अगर यहाँ इस वक्त इंसानों की तादात, संख्या थोड़ी बड़ जाए, तो जानते हो क्या होगा? नदियाँ गन्दी होंगी। जैसे की अभी भी है। और ज्यादा गन्दी कर दी जाएगी। हम जो यह बात-चीत कर रहे हैं, यह बिलकुल भी संभव नहीं रह पाएगी। पक्षी दूर कहीं भागेंगे। मछलियाँ भी भागकर किनारे से अन्दर को छुपेंगी या गहराई में जाएंगीं।

यह (अस्तित्व की) जो पूरी व्यवस्था है, जिसका कोई उद्देश्य नहीं है, जिसमें सॉरो नहीं है, जो दुःख से नहीं पैदा हुई है, बस यूँ ही है। मस्त! इस पूरी व्यवस्था में, जिसे मैं एक पार्टी भी कह सकता हूँ, हम आमंत्रित भी हैं क्या? तुम कह रहे हो कि यह सब हमारे लिए है। मैं कह रहा हूँ, यह तो छोड़ ही दो कि तुम इस उतसव के मुख्या अतिथि हो, जो तुम्हें शायद लग रहा है’। मुख्य अतिथि छोड़ो, मैं पूछ रहा हूँ कि तुमको आमंत्रण भी आया है क्या।

श्रोता ४: नहीं।

आचार्य जी: तुम तो यूँ ही घुस आये हो, बिना बुलाये। अब बिना बुलाए आ गए हो। यह लोग थोड़ी मेहमान-नवाजी जानते हैं; अतिथिदेवोभवः। तो जब तक हम शान्ति से हैं, सलीके से हैं, तो नदी हमें कुछ कहेगी नहीं। पक्षी भी कहेंगे- ठीक है बैठे हैं, बैठे रहने दो। हवा बहती रहेगी। पर जब हम अपनी पर उतरते हैं, हम दिखाने शुरू करते है कि हम तो ‘इंसान’ हैं, तब क्या होता है? पक्षी भागने लगते हैं, नदियों में बाड़ आनी शुरू हो जाती है। मछलियाँ मरने लग जाती हैं। हवा दूषित हो जाती है। तापमान बढ़ना शुरू हो जात है। ग्लोबल वार्मिंग , पक्षियों ने तो नहीं करी है ना? किसने करी है? इंसानों ने। हमने करी है।

इस वक्त यह जो कुछ हो रह है, उसमें अगर तुम्हारे ध्यान में कोई बाधा डालता है बीच-बीच में, तो कौन डालता है? तुम्हारे सर को बीच में दो बार उठकर जाना पड़ा। कौओं को समझाने तो नहीं गए थे। कुत्ते में भी इतनी समझ तो है कि अगर उसको टोक दिया जाए, तो अहंकार के नाते लड़ने नहीं आएगा। कि पब्लिक प्लेस है भाई।

यह अंतर जरा समझने की कोशिश करते हैं। ऐसा तो नहीं है कि जिन इकाईयों को तुमने गिना, उनमें जिन्दगी नहीं है। पेड़ भी जिन्दा हैं, मछलियाँ भी जिन्दा हैं, जानवर भी जिन्दा हैं, पक्षी भी जिन्दा हैं। नदी तो अपने आप में पूरी एक जैवीय व्यवस्था होती है, एक पारिस्थितिकी तंत्र होती है। जानते हो नदी में कितनी ऐसी चीजें हैं, जो जिन्दा हैं? एक तरह से पूरी नदी ही जिन्दा है। पूरी नदी ही बिलकुल जीवन से बिलकुल लहलहा रही है। तो इस व्यवस्था में सब कुछ जीवित है। लेकिन फिर भी बिना उद्देश्य के मज़े में है। बहाव है। काम हो रहा है। गति है, कर्म हो रहा है। लेकिन कोई हसरत, कोई इच्छा नहीं है।

इंसान के साथ ही ऐसा क्यों है कि हमारी हर व्यवस्था, हमारा हर काम, हमारी छोटी से छोटी गति भी कुछ पाने के लिए होता है? कुछ भी ऐसा है हमारा, जो बस यूँ ही होता हो? अकस्मात्, अकारण, *अनरीजनेबल*। कुछ भी ऐसा कर सकते हो? कुछ चाहिये इंसान को। और वो कारण हमेशा यही होता है कि आगे कुछ पाना है, कुछ करना है। कुछ बेचैनी है।

श्रोता ५: बेचैनी नहीं। यह एक प्रक्रिया है, जीवन है। कुछ तो कारणहोना चाहिये जीने के लिए। पड़े तो नहीं रहेंगे।

आचार्य जी: नदी पड़ी हुई है?

श्रोता ५: अब प्रकृति को एक इंसान से तुलना करना, वो अलग है।

आचार्य जी: पक्षी में और इंसान में क्या अंतर हो गया?

श्रोता ५: पक्षी का अपना एक निर्धारित नियम है – खाना तलाशना और बहुत कुछ। पर हम लोगों को तो जीने के तरीके को भी देखना है कि किस तरह सब चल रहे हैं। अब हम लोग विषम होकर तो नहीं चल सकते ना?

आचार्य जी: *‘*विषम होकर नहीं चल सकते’, क्या यह बात तुम लेकर आये थे तुम इस दुनिया में कि मुझे औरों को देख-देखकर ही चलना है?

श्रोता ५: लेकर तो कोई कुछ नहीं आता।

आचार्य जी: या पैदा तुम भी पक्षी जैसे हुए थे?

शोर्ट ५: वो अंडे से हुए थे।

आचार्य जी: चलो! कुत्ते को ले लो। वो अंडे से नहीं हुआ था। (सभी श्रोता हस्ते हुए) तो, पैदा तो कुत्ते जैसे ही हुए थे। तो यह बात कहाँ से आई की मुझे तो औरों को देख-देखकर ही चलना है, कोई कारण होना चाहिये? यह कहाँ से आई?

श्रोता ५: बिना कारण तो कुत्ते भी नहीं जी रहे।

आचार्य जी: यह सब जो अपने आसपास दिख रहा है, इसका कारण बताओ, क्या है? कारण माने होता है कि यह उद्देश्य है और उस उद्देश्य पर जाकर उसे रुक जाना है। जो कुछ भी तुम्हें दिख रहा है, उसका कारण क्या है? क्या उसके पीछे है? और क्या उसके आगे है?

श्रोता ५: प्रकृति से तुलना करेंगे तो…

आचार्य जी: प्रकृति कोई मुर्दा चीज नहीं है। और तुम उससे अलग नहीं हो। मैंने नदी कही, तुमने कहा नदी से अलग हैं। तो मैंने जानवर ले लिया। या तुम प्रकृति से अलग कुछ हो? तुम कहते हो प्रकृति से तुलना मत कीजिए तो तुम उससे अलग हो कुछ क्या? तो बताओ, मैं पूछ रहा हूँ- इस सब का कोई उद्देश्य है? और बिना उद्देश्य के भी यह व्यवस्था, तुम्हारी सारी व्यवस्थाओं से कहीं बेहतर है, कहीं ज्यादा लचीला है।

आज हमनेंं शुरुआत करते ही कहा था कि जितनी भी अस्तित्वगत व्यवस्थाएँ हैं, वो मानव-निर्मित व्यवस्थाओं से कई-कई ऊँचे दर्जे की हैं। देखो कि कैसे ग्रह घूमते हैं सूरज की तरफ। इंसान के लिए यही बड़ी बात हो जाती है कि वो ठीक-ठीक निकाल ले कि वो कितनी गति से घूम रहे हैं? कैसा उनका कक्ष है? आज तक इंसान को यह भी नहीं पता है कि जो पूरा विराट ब्रह्माण्ड है, कितना बड़ा है? इसकी कोई सीमा है भी या नहीं, यह भी ठीक-ठीक नहीं पता। ब्रह्माण्ड या मल्टीवर्स है, हमें यह भी नहीं पता। और पूरी एक व्यवस्था है, जो चल रही है।

तुमनें क्या व्यवस्था बना ली है? एक रॉकेट लॉन्च कर दिया। हवाई-जाहज का टाइम-टेबल बना दिया कि इतने बजे हवाई अड्डे में यह उतरेगी और इतने बजे चल देगी। दो-चार इंजन बना दिए, पाँच-सात मशीनें बना दीं। इनकी क्या कीमत है इस विराट व्यवस्था के सामने? और इस पूरी विराट व्यवस्था में कोई दुखी नहीं है।

तुम ही ने कहा था (श्रोता को संबोधित करते हुए) कि इंसान जब भी व्यवस्था बनाएगा, तो उसमें समझौते होंगे और दुःख होगा। और अस्तित्व की जबरदस्त व्यवस्था चल रही है, जिसमें सब मस्त हैं। तभी मैंने उसे कहा था उत्सव, *पार्टी*। और उसमें और इंसान की व्यवस्था में मूलभूत फर्क यह है कि अस्तित्व को कुछ चाहिये नहीं। ‘जिसे कुछ चाहिये नहीं, वो इतना कुछ कर गया। और जिसे बहुत कुछ चाहिये, वो इतना भी नहीं कर पाता कि ट्रैफिक ठीक से चले।’ दुनिया का कोई शहर बता दो, हिंदुस्तान की बात नहीं कर रहा हूँ, उन्नत से उन्नत मुल्क में कोई शहर बता दो, जहाँ पर ट्रैफिक ठीक चलता हो।

होगी तुम्हारी बड़ी तकनीक, अभी जापान में चार साल पहले परमाणु संयंत्र में विस्फोट हो गया। वहाँ तीस कि.मी. दूर तक की आबादी को आजतक लौटने नहीं दिया गया है। छोटा सा एक परमाणु संयंत्र और अस्तित्व का परमाणु संयंत्र (सूरज की ओर इशारा करते हुए), वो देखो ऊपर चमक रहा है। उसमें संलयन प्रतिक्रियाहोता है। तुम कह रहे हो कि प्रकृति से क्यों तुलना करते हो। सही में प्रकृति से तुम्हारी तुलना नहीं हो सकती। कहाँ तुम, कहाँ प्रकृति। लेकिन तुम्हारी धारणा कुछ ऐसी रहती है कि हम तो थोड़े ज्यादा हैं।

मैं तुमसे कह रहा हूँ – तुम अपना परमाणु उर्जा संयंत्र देखो, जो तुमसे चलाये नहीं चलता। हर छह महीने में खराब हो जाते हैं। कभी दुर्घटना हो जाता है। और एक यह ऊपर चल रहा है उर्जा संयंत्र (सूरज की ओर इशारा करते हुए)। जानते हो ना? यहाँ पर भी पूरा जो कम है, वो रेडियोधर्मिता का ही है। हाइड्रोजन, हीलियम यही चल रहा है यहाँ भी। और यहाँ कभी कुछ गड़बड़ नहीं होती।

तुम्हारी ट्रेन कभी समय पर आती नहीं। और इसका ऐसा होता नहीं कि एक भी दिन एक सेकंड देर से उगे। मैं आज तुम्हारे पास एक घंटे पहले भी पहुँच सकता था। तुम्हारी व्यवस्था की बनाई हुई ट्रेन कभी समय पर आती नहीं। और यह कभी समय से एक सेकंड न आगे, न पीछे होता नहीं। बात ठीक? तुम इतना भी नहीं कर पाते कि किसी को कैंसर है, किसी को एड्स है, तो उसको बचा लो। जो पहले ही जीवित है, तुम उसे जीवित नहीं रख पाते। और प्रकृति में धूल से जीवन पैदा हो जाता है।

अस्तित्व क्या कर रहा है? वो धूल से जीवन पैदा कर रहा है। उसकी व्यवस्था, जो कुछ नहीं चाहती, वो इतना कुछ कर जाती है। और, तुम चाहते ही रहते हो ज़िन्दगी भर, अंत में झाड़ झोंखर के हो जाते हो; राख। मंजिल क्या है तुम्हारी? पूरे तुम्हारे चाहने की क्या मंजिल है? जिन्होंने बहुत चाहा था, वो अभी तुम्हारे पाँवों के नीचे दबे पड़े हैं। रोहित याद है ना, रेत में? तुम पहले नहीं हो, जो चाह-चाहकर यहाँ बैठे हो। यह मिट्टी बहुत पुरानी है। यह मंदिर भी बहुत पुराना है। यह नदी भी बहुत पुरानी है। हजारों, लाखों आये यहाँ पर ऐसे ही बैठे, चाहने वाले, वो कहाँ गए? नदी आज भी बह रही है। सूरज आज भी उगता है। पूरी विराट व्यवस्था चल रही है और उसे कुछ चाहिये नहीं।

श्रोता ६: सर, यह प्राकृतिकजो है, वो भगवान के द्वारा चलाया जाता है। औरतो एक सुपर प्राकृतिक ताकत है। तो उनसे हम मानव-निर्मित व्यवस्था कैसे कर सकते हैं? वो तो तुलना करने के लिए चीज ही नहीं है।

आचार्य जी: अब सारा खेल इसी का है। जिसे तुम भगवान कहते हो, उसे तुम कहना चाहते हो कि वो जहाँ से आये थे, अपने से ऊपर, अपने से बड़े, अपने से वृहद, किसी विराट ताकत से। ये उस ताकत द्वारा जैसे बनाए गए थे, ये समर्पित हो गए। इन्होंने विद्रोह में सिर नहीं उठाया है कि तुमने हमें जैसा बनाया, हमें उससे कुछ अलग होना है। तुमने कहा प्राकृतिक व्यवस्था भगवान द्वारा बनाई गई है। और, इंसान किसके द्वारा बनाया है?

सभी श्रोता: भगवान के ही द्वारा।

आचार्य जी: तुम कहीं और से आये हो क्या? तुम कहीं और से आये हो? तो फिर इसमें और तुममें फर्क क्या है? इसमें और तुममें फर्क यह है कि यह जैसा बनाया गया उसके द्वारा; उसको चाहें वहाँ देख लो, चाहें यहाँ देख लो, चाहें इसमें देख लो। मर्जी है तुम्हारी। कि यह जैसे बनाए गए, यह उसमें मस्त हैं। इन्होंने कहा, “पूर्ण ने बनाया है, तो हम पूर्ण ही होंगे।” पूरा अधूरे को जन्म नहीं देता। बनाने वाला अगर पूरा है, उसमें अगर कोई खोट नहीं है, तो बनाने वाले जब बनाया, रचनाकार की जो रचना है, उसमें भी खोट नहीं हो सकता। या तुम यह कहना चाहते हो कि परमात्मा तो पूर्ण है पर परमात्मा की रचना अपूर्ण है।

ऐसा हो सकता है क्या कि तुम तो जबर्दस्त हो पर तुम जो कृति करो, तुम जो रचना करो, वो घटिया हो? ऐसा हो सकता है? ऐसा तो नहीं होगा।

यह बहुत छोटी सी बात है, जो उस चिड़िया को पता है (एक चिड़िया की ओर इशारा करते हुए)। यह इतनी छोटी सी बात है, जो उस चिड़िया को पता है, कि मुझे बनाने वाला भी पूरा और मैं भी पूरी। तो मुझे आगे कुछ हासिल नहीं करना है। मुझे आगे कुछ हासिल नहीं करना है। इंसान को यह बात नहीं पता। छोटे बच्चे को फिर भी थोड़ी बहुत पता होती है। वो जरा सा बड़ा होता है, उसको बिलकुल ही भुला दी जाती है।

अस्तित्व में जो कुछ है, सबको पता है कि हमको यूँ ही फ़ेंक नहीं दिया गया है। चिड़ियाँ पैदा होती है, तो उसके लिए पेड़ पहले से है। है कि नहीं है? या चिड़ियाँ को पेड़ उगाना पड़ता है? या मछली को कुआँ खोदना पड़ता है। इंसान अकेला है, जो कहता है कि जीवन सार्थक करने के लिए मुझे कुछ करना पड़ेगा। जो चाहिये, वो मुझे मिला ही नहीं हुआ है, मुझे हासिल करना होगा अपनी मेहनत से। *वो जो हीबा ने कहा न* , थकान (एक श्रोता को संबोधित करते हुए)। हमें थकान बड़ी प्यारी है। हम कहते हैं – न, हम तो कहीं और के हैं, हमें तो बस यूँ ही टपका दिया गया है। हम गलत जगह पर आ गए। हमारा आना दुर्घटनाहै। दुर्घटनावश आ गए हैं, तो जल्दी मेहनत करो रे। मेहनत करो नहीं तो बड़ी गड़बड़ हो जाएगी, ख़त्म हो जाएँगे।

अस्तित्व में बाकी जो कुछ है, वो खेलता है। इंसान अकेला है, जो मेहनत करता है और झेलता है। बात समझ रहे हो ना? इन सब में और तुममें अंतर यह है कि यह खेल रहे हैं और तुम झेल रहे हो। इनके लिए जीवन खेल है और तुम्हारे लिए जीवन अझेल है, बोझ है। कुछ भी यहाँ ऐसा नहीं है, जो तनाव में है, तुम्हारे अलावा।

श्रोता ७: सर, अस्तित्व के लिए तो यह लोग भी मेहनत ही कर रहे हैं?

आचार्य जी: दिखाओ! दिखाओ मुझे कोई चिड़ियाँ जो सांझ भी जग लेती हो।

श्रोता ७: सर, वो उसका तरीका है।

आचार्य जी: बेटा! पैदा तुम भी वैसे ही हुए थे। पर तुम्हारे भीतर बेचैनी इतनी है, तड़प इतनी है कि तुम्हें नींद नहीं आती रात-भर। और नींद लाने के लिए तुम्हें क्या-क्या उपाय करने पड़ते हैं, उनका जिक्र बड़ा मुश्किल है। इंसान अकेला है, जिसे नींद लाने के लिए गोलियाँ भी खानी पड़ती हैं। और कभी टी.वी., कभी इन्टरनेट , कभी *मोबाइल*। इंसान अकेला है, जिसकी नींद खुलती नहीं है भोर होते ही। कोई चिड़िया दिखा दो, जिसको उठने में देर हो जाती है। कैसे उठे थे आज?

सभी श्रोता: हँसते हुए…

आचार्य जी: दिक्कत हो जाती है। रात की नींद यदि पूरी हो, तो सुबह उठने में दिक्कत नहीं होती है। खोखले दावे मत करो। इंसान की हकीक़त तुम भी जानते हो, हम भी जानते हैं। सुबह से शाम तक सिर्फ बेचैनी है और कुछ नहीं है। और वही हमारा इंजन है; जितने बेचैन होते हो, उतनी ज्यादा मेहनत। समय-सारिणी आ गई ना? ४ मई क्या है?

सभी श्रोता: परीक्षाएँ।

आचार्य जी: अब क्या होगा चालू? मेहनत! क्योंकि वो तारीख तुम्हें अब क्या करेगी? तारीख अब क्या करेगी?

सभी श्रोता: बेचैन।

आचार्य जी: करता यह सब कुछ है। कुछ भी यहाँ ऐसा नहीं है, जो कुछ न कर रहा हो। लेकिन उसके करने में तनाव नहीं है। उसके करने में कोई आज्ञा पालन का भाव नहीं है। उसके करने में कोई गुलामी नहीं है। क्योंकि कोई चाहत नहीं है। हवाएँ लगातार बह रही हैं। चाँद, तारे, सूरज लगातार अपनी-अपनी कक्षाओं में परिक्रमा कर रहे हैं। कुछ भी ऐसा तो नहीं है न, जो थक के या रुककर बैठ गया है। या ऐसा है? या यह कहना चाहते हो कि अगर बेचैनी नहीं होगी, तो कोई हिलेगा ही नहीं। यहाँ कुछ भी ऐसा है, जो हिलता हुआ न दिखाई दे रहा हो? बोलो?

काम चल रहा है दुनिया में, कि दुनिया में नहीं चल रहा है? हाँ या न? नदी सागर से मिल रही है। सागर का पानी उठकर ऊपर जा रहा है। वहाँ से बरसात हो रही है। पक्षी उड़ते हैं तो साईबेरिया से उड़कर भारत आ जाते हैं। इतनी मेहनत कोई इंसान करेगा? और हर साल वो यह करते हैं।तुम तो जीवन में एक बार तीर्थ यात्रा कर लेते हो या हज चले जाते हो। वो तो हर साल आधी दुनिया की यात्रा करके यहाँ आते है। फिर वापिस भी चले जाते हैं।

श्रोता ८: सर, उन्हें तो इस प्रकार का बनाय गया है परमात्मा के द्वारा।

आचार्य जी: तुम्हें कैसा बनाया गया है? मैं जानना चाहता हूँ कि तुम्हें वास्तव में अलग बनाया गया है या यह जो तुमने अपने आप को अलग मान रखा है, यह तुम्हारी बीमारी है। कहीं ऐसा तो नहीं कि यह तुम्हारी विक्षिप्तता ही हो। तुम जिन चीजों को पाना चाहते हो, क्या वो आखिर तक मिलती हैं? तुम कहते हो कि मुझे आधा-अधूरा भेज दिया गया है और अब आगे हासिल करना है। जो भी कोई जो कुछ भी हासिल करना चाहता है, उसे वो अंत तक भी उसके नसीब में होता है क्या? नसीब यदि हो, तो उसका एक ही प्रमाण होता है कि और हासिल करने की चाहत ख़त्म हो जानी चाहिये। आपको जो चाहिये था, अगर वो आपको मिल गया, तो आपको रुक जाना चाहिये। पर ऐसा तो कभी होता नहीं। तुम आखिर तक कुछ ऐसा ढूँढ़ते रहते हो, जो तुम्हें कभी मिलता नहीं।

कहानी सुनी है ना? सिकंदर मरा तो उसने कहा कि जब मुझे लेकर निकलना, मेरी शव यात्रा, तो मेरे दोनों हाथ बाहर होने चाहिए और हथेलियाँ खुली हुई होनी चाहिए, पूरी दुनिया को यह सन्देश मिले कि सिकंदर भी खाली हाथ ही जा रहा है, पाया कुछ नहीं। तुम जिस चीज के पीछे भाग रहे हो, वो ऐसी है ही नहीं कि उपलब्ध हो जाए, या शायद ऐसी है, जो पहले से ही तुम्हें उपलब्ध है। तो यह कहना हमें कुछ हासिल करना है, यह तुम्हारी खासियत है या तुम्हारा पागलपन है? जिस मामले तुम अपने आप को पक्षियों से अलग पाते हो, वो सब अलग होना तुम्हारी विशिष्टता है, युनीकनेस है या बीमारी है?

इस पर जरा गौर करो। स्वीकार करने को नहीं कह रहा हूँ जल्दी से, पर जरा गौर करो। कि वो सब कुछ, जिसको तुम कहते हो कि ‘हम तो अलग हैं’। वो अलग होना वास्तव में है क्या? तुमनें क्या करके अपने आप को अलग कर रखा है?

एक तरीके से जो अलगाव की जो पूरी कोशिश है, यह बनाने वाले के प्रति विद्रोह है। ये इंसान का विद्रोह है प्रकृति के विरुद्ध। और, जो लोग धर्म की भाषा बोलना चाहते हैं – यह इंसान का परमात्मा के विरुद्ध विद्रोह है।कि साहब आपको क्या अक्ल थी, यूँ ही हमको भेज दिया। अब हम कम से कम तीन मंजिला घर बनाएँगे। आपको अगर अक्ल होती, तो माँ के पेट से हमारे साथ तीन मंजिला घर भी पैदा करते। हमें तो आपने नंगा पैदा कर दिया। यह आपकी शिकायत है भगवान के खिलाफ। और, आदमी का पूरा जीवन शिकायत में बीतता है।

वो कहता है – “तुमनें तो बस यूँ ही नंगा पैदा कर दिया। अब आगे का तो सब हमें देखना है ना। अगर तुम वास्तव में हमारे शुभचिन्तक होते। तो पैदा हुए थे पीछे-पीछे पाँच करोड़ का चेक भी निकलना चाहिये था। अब पाँच करोड़ का चेक तो तुमने दिया नहीं, तो वो किसे हासिल करना होगा? हमें। तो तुम हटो अब रास्ते से। अब जरा हम करके दिखाएँगे। तुम हटो! तुम तो एक तरीके से दुश्मन हुए हमारे कि तुमनें हमें एक दुश्मन जैसी जगह पर, एक प्रतिकूल दुनिया में फ़ेंक दिया है। जहाँ पर खतरनाक किस्म के जानवर हैं, जो हमें खा सकते हैं, जहाँ भूख है और बीमारी है। तुमनें तो फँसा दिया। अब जरा हम कुछ करके दिखाएँगे।”

ठीक है, तुम यह कहते होगे, पर यह भी बता दो कि तुम करके दिखा क्या पाते हो? और कौन आज तक क्या करके दिखा पाया है? और किस मामले में ऊँचे से ऊँचा इंसान यहाँ पर बैठी छोटी से छोटी चिड़िया से बेहतर है? किस मामले में?

जिस इंसान ने ऊँची से ऊँची उपलब्धि हासिल करी हो और यह जितनी उपलब्धियाँ होती हैं, वो अस्तित्व की नज़रों में नहीं होतीं। तुम्हारी सारी उपलब्धियाँ होती किसकी नज़र में हैं? समाज की नज़र में। अस्तित्व की नज़र में तुम वही हो। तुम होगे बड़े अरबपति, सूरज तुम्हारे लिए उतना ही है, हवा तुम्हें उतनी ही मिलेगी। और मरोगे तो कब्र भी तुम्हारी उतनी ही बड़ी बनेगी। हाँ, तुम मकबरा अपना बहुत बड़ा बनवा लो, तो अलग बात है। तुम मरोगे तो तुम्हें उतनी ही लकड़ी चाहिये तुम्हें भी जलाने के लिए। तो, अस्तित्व की नज़रों में — तुम हो जाते होगे कुछ भी — हो उतने ही जितने कि बाकी हैं। समाज की नज़रों में तुम ख़ास हो जाते हो।

मैं तुमसे पूछ रहा हूँ कि यह जो ख़ास हो जाते हैं समाज कि नज़रों में, इन्होंने भी क्या ऐसा पा लिया है, जो उस मछली को नहीं मिला है, या जो उस चिड़िया को नहीं मिला है। क्या ऐसा पा लिया है? तो, क्यों मरे जा रहे हो? कोई जानवर देखा है, जिसके माथे पर सिलवटें पड़ी हों और तनाव में हो और गोली खा रहा है अवसादकी। और देखो, यहाँ कितनों के माथे पर अभी भी सिलवटें हैं। कोई जानवर देखा है, जिसको हृदयाघात आया हो? कि साहब के पैसे डूब गए शेयर मार्केट में, तो वहाँ भालू गुज़र गया। बताओ?

पिछले साल-डेढ़ साल से भारत में बलात्कार के खिलाफ प्रदर्शन चल रहा है। हाँ? कभी देखा है कि कभी कोई जानवर किसी दूसरे जानवर का बलात्कार कर रहा हो? और वो नंगे रहते हैं। और उनके ऊपर नैतिकता के कोई नियम भी नहीं हैं। और उनकी कोई जेल भी नहीं है। तब भी वहाँ देखा है कि बलात्कार होता हो?

श्रोता 9: सर, यह हम समझ कैसे पाएँगे कि बलात्कार हो रहा है या वो आम क्रिया कर रहे हैं?

आचार्य जी: इंसानों में कैसे समझ जाते हो? किसी कुत्ते की टांग खींचो और वो शान्तिप्रद न हो, तो तुरंत समझ जाओगे। कैसी बातें कर रहे हो बेटा? किसी गधे के भी पीछे जाकर खड़े हो जाओ और जरा उसको सुई चुभाओ। पता चलेगा जानवर जब शांत नहीं होता, तो क्या करता है।

(सभी श्रोतागण हस्ते हुए…)

जैसे इंसानों में जान जाते हो कि बलात्कार हो रहा है, वैसे ही अगर जानवर को परेशान करोगे तो दिख जाएगा।

श्रोता १०: सर, वो तो हमारे लिए है अगर वो आपस में करें तो कैसे पता लगेगा?

आचार्य जी: आपस में तुम किसी जानवर को पागल कर दो। या उसे कोई बीमारी लग जाए, वो पागल ही हो जाए। और वो किसी दूसरे जानवर पर आक्रमण कर दे, तो तुम्हें पता लगता है कि नहीं लगता है?

श्रोता १०: पता लगता है।

आचार्य जी: तुम्हारे पास या किसी के पास भी कोई पालतू जानवर है? किसी जानवर से प्रेम किया है आजतक? कोई है? जान जाते हो कि नहीं कि यह परेशान है?

सभी श्रोता: हाँ।

आचार्य जी: तो तुम कैसी बात कर रहे हो, तुम्हें पता नहीं लगेगा कि वो परेशान हो रहा है? साफ़-साफ़ पता लगता है कि नहीं कि बीमार हो गया है या परेशान हो गया है? और अक्सर उसको जो परेशानी रहती है, वो इंसानों की दी हुई होती है। सब पता लग जाता है। जैसे इंसान का पता चलता है, वैसे जानवर का पता चला जाता है। पर जानवर में यह सब होता ही नहीं है; कोई बिना मतलब किसी का पैसा लूट रहा है, किसी ने ज्यादा बड़ा घर बना लिया है, किसी ने खूब इकट्ठा कर लिया है अपने बच्चों के लिए, कोई बलात्कार कर रहा है, कि हिन्दू भालू की मुसलमान तेदुए से लड़ाई हो गयी और भालू और तेदुआ…

श्रोता १०: लड़ रहे हैं।

आचार्य जी: हाँ। जानवरों में यह होता ही नहीं। लेकिन वो पूरी तरह समर्पित हैं। तुम जितने धार्मिक हो सकते हो, उससे कहीं ज्यादा धार्मिक वो हैं। क्योंकि वो जरा भी हिलते ही नहीं हैं बिना अस्तित्व की इच्छा से। शाम हुई सो जाएँगे, सुबह हुई उठ जाएँगे और किसी ने उनको पढ़ाया नहीं है। उन्हें बस पता है कि ऐसे हम रचे गए हैं और जैसे हम रचे गए हैं, हमें उससे अलग होना नहीं है। इससे बड़ी धार्मिकता और क्या होती है कि मैं जो हूँ, उससे अलग मुझे कुछ होना ही नहीं है।

तुम गाय को मांस खिलाकर दिखा दो और शेर को घास खिला कर दिखा दो? नहीं कर पाओगे। वो जैसे रचे गए हैं, उन्हें उससे अलग कुछ होना नहीं है। ब्रिटेन में बड़ी बीमारी फैली थी कुछ साल पहले क्योंकि उन लोगों ने धोखे से मांस खिलान शुरू कर दिया था। मैड काऊ डिजीज़ , नाम सुना था? वो ऐसे ही फैल गयी थी।

श्रोता ११: सर, गाय सब खा लेती थी?

आचार्य जी: उसे पता नहीं चलता था। धोखा करके उसमें रंग, गंध सब मिलाकर खिला दिया, गायें पागल होनी शुरू हो गयीं। वो बर्दाश्त ही नहीं करते हैं कि जैसे वो हैं, उससे हठकर वो जरा भी रहें। उन्हें नहीं बर्दाश्त है। इंसान अकेला है, जो कहता है कि मैं जो हूँ, मुझे वो नहीं बर्दाश्त।

श्रोता १२: सर, कहा जात है कि बचपन से जिस चीज की आदत लगाओगे, वो लग जाती है। तो हम अगर गाय को बचपन से माँस देना शुरू करें या उसके सोने-जागने का समय-सारणी बदल दें, तो क्या वो बदल नहीं जायेगी?

आचार्य जी: कर लो, कोशिश कर लो। पर वो चल नहीं पाएगी, मौत हो जाएगी उसकी। कोशिश करी गयीं हैं इस तरीके की, चल नहीं पाते।

श्रोता १२: तो फिर ऐसा कहना गलत है कि बचपन में जैसा ढाला जाए, वो वैसा नहीं बन सकता?

आचार्य जी: इंसान अकेला है जो अपने साथ यह जुल्म करता है। और उसका नतीजा उसके साथ बिलुकल वही होता है, जो जानवरों के साथ होगा। गाय को कुछ ऐसा करवाया गया, जो उसकी प्रकृति में नहीं है, वो क्या हो गयी?

सभी श्रोता: पागल।

आचार्य जी: इंसान भी लगातार वो सब कर रहा है, जो उसकी प्रकृति में नहीं है, तो क्या हो गया है?

सभी श्रोता: पागल।

आचार्य जी: नतीजा एक ही है। हाँ। गाय का पागलपन, तुम पागलपन घोषित कर देते हो, ‘कि गाय पागल हो गयी*’*। इंसान जब पागल होता है, तो तुम उसे क्या घोषित करते हो?

श्रोता १४: सफल।

आचार्य जी: ये सक्सेसफुल हो गया। ये अव्वल हो गया। ये अमीर हो गया। तुम उसे फिर बड़े बड़े खिताब देना शुरू कर देते हो। मान्यवर हो गए अब ये। जानवर पागल होता है, तो पागल कहलाता है। इंसान जब पागल होता है, तो चाँद-सितारा, रोल-मॉडल कहलाता है, सुप्रसिद्ध व्यक्ति बन जाता है। और जो जितना बड़ा पागल, वो उतनी बड़ी *सेलेब्रिटी*। सुप्रसिद्ध बनना सबको है।

श्रोता १५: सर, जो भी सुप्रसिद्ध बन जाते हैं, जो भी अववल बन जाते हैं, उनकी सारी मेहनत उसको पाने में लगती है। फिर तो वो सारा पागलपन है?

आचार्य जी: और हम क्या कह रहे हैं।

श्रोता १५: तो वो सही कर रहे थे या गलत कर रहे थे?

आचार्य जी: पेड़ से पूछो कि ‘सुप्रसिद्ध व्यक्ति आएगा, तो उसे ज्यादा छाया देगा’? या नदी से पूछो, या पूरे अस्तित्व से पूछ लो। या वो जो खाना खाते हैं, उस खाने से पूछ लो कि सुप्रसिद्ध व्यक्ति के पेट में जाओगे, तो ज्यादा पोषण दोगे। कौन है जो कह रहा है कि *सेलेब्रिटी* , सेलेब्रिटी है? सेलेब्रिटी को सेलेब्रिटी किसने बनाया है?

श्रोता १५: समाज ने।

आचार्य जी: और वो समाज कैसे लोगों से भर हुआ है?

सभी श्रोता: पागल लोगों से।

आचार्य जी: तो पागल ही तो एक और पागल को महापागल घोषित कर रहे हैं।

(सभी श्रोतागण जोर-जोर से हँसने लगे)

या कहीं आसमान से आकाशवाणी हुई थी कि फलाने आज से महापागल हैं और आज से इनको ख़ास माना जाए। ये विशिष्ट हो गए हैं। तुम ही ने तो लेजाकर पदक दिए हैं। तुम ही ने तो ले जाकर पदक दिए है न कि आप आइये, ऊपर मंच पर चाहिये और हम आपके गले में फूल माला डालना चाहते हैं। फूल माला तुम्हारे अलावा और किसने डाली हैं उनके गले में? और तुम कैसे हो, यह तुम्हें पता है। तो तुम्हारे द्वारा डाली गयी फूल मालाओं की क्या कीमत है?

श्रोता १६: सर, हर चीज का एक लक्ष्य होता है। इंसान के पैदा होने का क्या लक्ष्य है, जो हम नहीं पहचान रहे हैं?

आचार्य जी: कहाँ लक्ष्य है? मैं जानना चाह रहा हूँ कि कहाँ लक्ष्य है? है कहाँ लक्ष्य? यह तुम्हें किसने सिखाया कि हर चीज का एक लक्ष्य होता है। बिना लक्ष्य के भी काम हो सकता है। और उसी को तो निष्काम कर्म कहते हैं। कि लक्ष्य नहीं है, कामना नहीं है लेकिन काम फिर भी हो रहा है। यह बात हमें समझ नहीं आती। हम कहते हैं, ‘मैं हिलूँ ही क्यों अगर इससे कुछ हासिल नहीं होना।” बच्चा इस बात को जानता है। बच्चा हिलता है, बिना कुछ हासिल किये। कभी छोटे बच्चे को नाचते हुए देखा है? कुछ कर रहा है वो कि नहीं कर रहा है? क्या कर रहा है?

सभी श्रोता: नाच रहा है।

आचार्य जी: कुछ हासिल करने के लिए नाच रहा है?

सभी श्रोता: नहीं।

आचार्य जी: यह बात हम नहीं समझ पाते। हमें लगता है कि अगर कुछ मिलना नहीं है, तो मैं कुछ करूँ क्यों। इसीलिए भी किया जाता है क्योंकि तुम मस्त हो। इसीलिए भी करा जाता है क्योंकि तुम्हें बाँटने में ही मौज है। यह तो भिखारियों वाला करना है; कि कर क्यों रहे हैं ताकि कुछ मिल जाए। यह तो भिखारियों वाला करना है। एक बादशाहों वाला करना होता है कि जो मिलना था, वो मिला हुआ है। अब तो बस मौज बाँट रहे हैं।

और, मैंने तुमसे एक सवाल पूछा था, “जहाँ से तुम आए हो, वो बादशाह है या भिखारी है?”

सभी श्रोता: बादशाह।

आचार्य जी: तो बादशाह के बेटे हो तुम। बादशाह का बेटा क्या होता है, बादशाह या भिखारी?

सभी श्रोता: बादशाह।

आचार्य जी: तो उसने तुमको भिखारी बनाकर फेंका है क्या नीचे? कि नीचे जाओ और भीख मांगो पूरी दुनिया से। समाज से स्वीकृति मांगो कि कुछ पैसा दे दो, थोड़ी इज्ज़त दे दो, थोड़े पदक दे दो। इसीलिए पैदा किये गए हो? तो फिर लक्ष्य माने क्या? बादशाह का क्या लक्ष्यहोता है? कुछ भी नहीं। मज़ा!

श्रोता १६: सर, यही पूछ रहे हैं कि किस लिए पैदा किया है?

आचार्य जी: ‘किस लिए’ शब्द तुम्हारे लिए महत्वपूर्ण क्यों है? बेचैनी क्यों होती है? देखो यह कोशिश मत करो कि तुम्हें समझ में न आये। तुम पूरी कोशिश कर रहे हो कि समझ में न आये। बात बहुत सीधी है पर अड़े हुए हो कि समझ में नहीं आनी चाहिए क्योंकि समझ में आ गयी, तो तुम्हारे लिए खतरा है। जान लगा रखी है कि समझ में न आये।

(सभी श्रोता हँस्ते हुए…)

श्रोता १७: सर, तो फिर आप समझाइये।

आचार्य जी: मेरे समझाने की है ही नहीं। यह ऊपर सूरज की रौशनी है, यह समझायेगी क्या? रौशनी तो है, तुमने जोर से आँख भींच रखी हैं कि दिखाई न दे। तुम सूरज से कह रहे हो कि आप हमें दिखाइये ना। वो क्या कर सकता है? सूरज क्या कर सकता है? वो तो मौजूद है। उसकी रौशनी मौजूद है। तुम आँख बंद क्यों करके क्यों बैठ हो? जरा आँखें कम भींचो सब समझ में आएगा। बात बहुत सीधी है।

श्रोता १७: सर, एक मतभेद है। यह जिन जानवर, पेड़ और पक्षियों की बात हम करते हैं, वो भी तो साथ में एक व्यवस्था बनाते हैं। और व्यवस्था वहीं होती है जहाँ डर होता है। तो फिर हम इसे कैसे समझें?

आचार्य जी: हाँ, शुरू में ही कहा था हमें दो तरह की व्यवस्थाएँ दिख रही हैं चारों ओर। तुमने बात बिलकुल ठीक बोली कि आम तौर पर हम जितनी भही व्यवस्थाएँ देखते हैं, वो डर की होती हैं। इसका प्रमाण यह है कि चौराहे पर अगर पुलिसवाला न मौजूद हो, तो ट्रैफिक जाम हो जाता है। उस व्यवस्था को बनाए रखने के लिए पुलिसवाला चाहिए। तो बात तुमने बिलकुल ठीक कही कि हम जो भी व्यवस्था बनाते हैं, उसको कायम रखने के लिए डर चाहिये। लेकिन हमने कहा था कि व्यवस्थाएं एक दुसरे किस्म की भी होती हैं। यह जो व्यवस्था है चारों ओर, यह डर पर नहीं चल रही है। यह आनंद पर चल रही है, मस्ती पर चल रही है।

श्रोता १७: सर, यह जो पक्षियों का झुण्ड है, यह एक प्राकृतिक घटनाहै। पर, डर तो इसमें भी है।

आचार्य जी: बेटा! तुम कभी देखना साथ में उड़ते हुए पक्षियों को। देखना कि ऐसे-ऐसे पक्षी इकट्ठा हो रहे होंगे, जो एक दूसरे को जानते नहीं होंगे और वो जिस आकार में उड़ रहे होते हैं, वो पूरा एक ‘*वी*’ बना होता है। किसी ने उनको सिखाया होता है कि ‘*वी*’ में चलना है। बस एक सहज सामंजस्य है। और कुछ देर में जो, ‘*वी*’ है वो चितर-वितर भी हो जाता है। अभी मैंने उदाहरण भी दिया था कि साइबेरिया से उड़ते हैं पक्षी और हिन्दुस्तान तक पहुँच जाते हैं। और वो झुण्ड में ही आते हैं और वो झुण्ड हर साल बदलता रहता है और कोई सिखाने वाला नहीं है। और कोई नेता नहीं होता, जो आकर एलान करता हो कि “चलो रे, इतने बजे जाना है, और सब इकट्ठा हो जाना। वो बस अपने आप हो जाता है।

ऐसे समझ लो कि दो मुसाफिर जा रहे हों और मिलें और उनमें याराना हो जाए। और फिर थोड़ी देर में उनकी राहें अलग हो गई तो अलग भी हो गए। तो यह भी नहीं है कि अब तो जिंदगी भर के लिए गाँठ बाँध ली। अस्तित्व ऐसा होता है। उसमें न तो चिपक जाना है और न ही द्वेष है। न आसक्ति है, न द्वेष है। और अपने आप वहाँ पर व्यवस्था फिर चलती भी रहती है।

कभी तुम भैंस को देखना। पानी पी रही है, उसके ऊपर आकर कोई बगुला बैठ गया है। अब बगुला पैसे तो नहीं देगा तो भैंस को कि इतनी देर बैठे। पर फिर भी दोनों में एक सम्बन्ध है। और हमारे जैसे सम्बन्ध होते हैं इनसे कहीं ज्यादा साफ़ सम्बन्ध प्रकृति में होते हैं। कहीं ज्यादा साफ सम्बन्ध। वहाँ तो सफाई इस हद तक है कि शेर अगर शिकार भी करता है ना, तो सिर्फ उतना मारता है, जितने में उसका पेट भर जाए। कभी इकट्ठा करके नहीं रखते देखोगे उसको। उसके सामने यदि यह विकल्प भी होगा कि पाँच-दस जानवर मार दे, वो कभी नहीं मारेगा। वो एक पकड़ेगा, बाकी ठीक। वो यह नहीं कहेगा, “अरे! भविष्य, मेरे होने वाले बच्चे और दुनिया को दिखाना नहीं है कि मेरे पास कितने हिरन हैं। वो कहेगा कि पेट भरना था, अब आगे बढ़ो।

तो सामंजस्य, सुन्दर सम्बन्ध, यह सब प्रकृति में होता है। और सिर्फ प्रकृति में ही होता है। इंसान के लिए भी संभव है पर हम उससे जरा दूर आ गए हैं।

श्रोता १८: सर, वापस कैसे लाया जा सकता है?

आचार्य जी: अब जैसे यहाँ पर बैठे हो इन सब के साथ। क्या यह संभव है कि संबंध हों दूसरे से पर कुछ हासिल करने के लिए न हों? अगर तुम यह कर पाओ, तो तुम वापस लौट गए अपनी उसी शुद्ध अवस्था में। बहुत आसान है। बिलकुल मुश्किल नहीं है। तुम पूछ रहे हो वापस कैसे जा सकते हैं। (श्रोता की तरफ इशारा करते हुए)

मैं यहीं का उदाहरण ले रहा हूँ। दोस्तियाँ हैं? यारियाँ हैं? इनमें हमेशा कुछ हासिल करने की भावना होती हैं कि नहीं होती है? क्या यह संभव कि हासिल करने की भावना कम हो जाए? क्या यह संभव है कि हम एक दूसरे से ऐसे जुड़े हों कि, न पाने का लालच है और न खोने का डर है, फिर भी हमारा आपस में संबंध? क्या यह संभव है? अगर तुम कहते हो कि संभव नहीं है, फिर तो कोई बात ही नहीं है। पर अगर सम्भव है, तो बहुत अच्छा। होना भी चाहिये।

फिर यही बात, जो दो इंसानों के सम्बन्ध में लागू होगी, वो एक इंसान के पूरी दुनिया से सम्बन्ध पर लागू होगी। क्या तुम जी सकते हो ऐसे कि जीने में लालच भी न हो और डर भी न हो और फिर भी मस्ती हो? क्या तुम काम कर सकते हो ऐसे कि लालच की वजह से नहीं कर रहे और खौफ भी नहीं है कि अरे! करा नहीं तो सजा मिल जाएगी? क्या तुम पढ़ सकते हो ऐसे कि लालच नहीं है? बस यूँ ही। कोई कारण ही नहीं है। क्यों पढ़ रहे हैं? बस यूँ ही। अच्छा-सा लगता है। क्यों खेल रहे हो? कोई प्रतियोगिता जीतनी है? न। उमंग है। खेले जा रहे हैं। थोड़ी देर में हो सकता है कि न भी खेलें। कोई जीतना-वीतना नहीं है। यूँ ही खेलना शुरू किया था और यूँ ही खेलना बंद भी कर देंगे। यूँ ही।

यूँ ही कुछ भी कर सकते हो? बेवजह, फालतू, अकारण। बहुत दम चाहिये उसके लिए। हल्के आदमी के बस की नहीं है।

श्रोता १९: यह ऐसे भी तो हो सकता है, जो व्यवस्था इन सब के लिये बनी है। हमारे लिए यह व्यवस्था ऐसी ही बनी हो जैसे हम रह रहे हैं।

आचार्य जी: तुम कहना यह चाहते हो कि तुम चुने गए हो सज़ा देने के लिए। देखो! जो कहानियाँ भी हैं धार्मिक, वो बड़ी बोधयुक्त हैं। बड़ा साफ़ इशारा देती हैं कि यह मामला क्या है। पर सिर्फ कहानी है, इसमें कोई तथ्य नहीं है। पर कहानी को समझो। जितने भी अब्राहमिक धर्म हैं उनकी मूल कहानी क्या कहती है कि ‘खुदा ने इंसान को बनाया और एक सुन्दर बगीचा है। उसमें ऐडम-ईव , आदम और हव्वा दोनों हैं और जानवरों की तरह हैं, नंगे रहते हैं। और अपना मजे में घूमते-फिरते हैं, खाते-पीते हैं। उनमें और बाकी अस्तित्व में कोई अंतर नहीं है। ठीक है? सब एक-से बनाए गए, बिलकुल एक-से। कहानी आगे बढ़ती है। कहानी कहती है। अब जो कहानी कह रही है, वो सिर्फ संकेत है। उन संकेतों को समझना। फिर कहानी क्या कहती है आगे?

श्रोत २०: शैतान आता है।

आचार्य जी: किस तरीके से? वो ललचाता है। लालच आता है। वो कहता है- ‘अरे! वो ख़ास फल नहीं खाय तुमने; बढ़िया सेब’। लालच आते ही इंसान अस्तित्व से अलग हो जाता है। हममें और इनमें बस लालच का अंतर है। वो मूल कहानी भी ही कहती है कि ‘लालच आया और तुम अलग हो गए’। उस दिन से इनमें शर्म पैदा हुई और इन्होंने कपड़े पहनना शुरू कर दिया। और उस दिन से यह ईश्वर के उस बाग़ से निष्काशित कर दिए गए, निकाल दिये गए कि, तुम जाओ क्योंकि अब तुममें लालच आ गया है। तो लालच ही है, जो तुम्हें सजा के तौर पर मिला है। वो लालच न हो, तो तुम इनके ही जैसे हो। पर लालची मन को यह बात गाली की तरह लगेगी। लालची मन को यदि बोलो कि तुम पक्षी की तरह, जानवर की तरह और मछली की तरह हो, तो उसको यह बात कैसी लगती है?

श्रोता २१: गाली की तरह लगती है।

आचार्य जी: गाली की तरह लगता है। अरे! जानवर बोल दिया। बहुत साफ मन चाहिए यह स्वीकार करने के लिए कि हम बहुत गिरे हुए हैं। और बहुत उन्नति होगी हमारी और बहुत सफाई चाहिये हमारी कि हम पक्षी जैसे हो पाएँ। इसके लिये बहुत साफ़ मन चाहिये, जो इस बात को स्वीकार करे। नहीं तो आम मन तो जानवरों को गाली की तरह इस्तमाल करता है। हम क्या बोलते हैं, “कुत्ता कहीं का।” अगर तुममें जरा भी बोध होता, तो तुम कहते, “कुत्ता बोला। मेरी इतनी हैसियत कहाँ कि मैं कुत्ता हो पाऊँ।”

हमनें जानवरों को लेकर के कोई अच्छी मिसालें तो रखी नहीं हैं। क्या बोल देते हैं, “गधा कहीं का, बली का बकरा, उल्लू का पट्ठा।” तो हमें इस पूरी प्रकृति में सिर्फ नीचता दिखाई देती है। हमें तो यही लगता है कि हम ऊँचे हैं औए यह सब हमसे नीचे हैं। और हम ऊँचे क्यों है क्योंकि हम लालची हैं और यह लालची नहीं है। हम ऊँचे क्यों हैं क्योंकि हम तड़प रहे हैं और बेचैन हैं और तनाव में हैं। और यह तनाव में नहीं हैं, तो हम इनसे ऊँचे हैं।

तुम एक हिंसक आदमी हो; हिंसक। हिंसा भरी हुई है तुममें। तुम्हारे पास एक पचास रुपये का चाक़ू है। तुम क्या करोगे उस पचास रूपए के चाक़ू से? किसी को मारोगे। अब तुमने तरक्की कर ली। तुममें महत्वाकांक्षा थी। तुम सफल हो गए। अब तुम सफल कहलाते हो। अब तुम्हारे पास चार लाख रुपये की बन्दूकहै। पहले सिर्फ पचास का चाकू था। अब चार लाख वाली बड़ी बन्दूक है। उससे तुम क्या करोगे। अब भी मारोगे। अब और ज्यादा मारोगे।

श्रोता २२: अभी उसको समझ आ गयी है।

आचार्य जी: उसको समझ आ नहीं रही। फिर वो, वो रहा ही नहीं, जो पहले थे। अब यह एक नया इंसान है।

श्रोता २२: अब तो वो जो भी काम करेगा, शांत है, उसे तनाव नहीं है, तो वो असली इन्सान होगा?

आचार्य जी: हाँ। पर देखो, जो ऐसा हो जाएगा, उसको यह सवाल ही नहीं उठेगा कि मैं क्या करूँगा, क्या नहीं करूँगा। तुम्हें यह सवाल उठ रहा है। जो यह हो जाएगा उसको यह सवाल ही नहीं उठेगा कि अब आगे क्या करूँगा और पीछे क्या करूँगा। वो कहेगा, “ठीक है, जो है सो है ही। हो रहा है।” पर हम उसके बारे में सोच रहे हैं। उससे दूर बैठे हैं। किनारे पर बैठकर हमें चिंता होती है कि वो क्या करेगा। वो विचार भी नहीं करेगा कि क्या करेंगे। हो रहा है। आज का पता है न। कल का पता है। परसों जो होगा देखा जाएगा। दो कदम से आगे हम देखते ही नहीं।

पर डर बहुत लगता है। जैसे ही बात कान में पड़ती है कि जो होगा, वो देखा जाएगा, तो तुरंत यह भाव आता है कि क्या मुझमें इतनी सामर्थ्य है कि जो भी होगा, मैं देख पाऊँगा। कहीं टूट न जाऊँ। यही लगता है ना? कहीं बिखर न जाऊँ। कहीं हालात ऐसे न हो जाएँ कि मैं झेल ही न पाऊँ। नौकरी न लगी तो! अब न लगकर तो पता नहीं तुम्हें कितना कष्ट होगा। पर सोच-सोचकर तुमने काफी कष्ट झेला है। कितने हैं चौथे वर्ष वाले? (श्रोताओं से पूछते हुए) और जिनकी लग गयी है, उन्हें कुछ ऐसा नहीं है कि कम कष्ट है।

श्रोता २३: सर, हम जैसे पैदा हुए है अगर वैसे ही रहें। तो प्रकृति को जो कराना है, वो करालेगा?

आचार्य जी: हाँ, वो करालेगा। तुम जैसे पैदा हुए हो ना, वो कोई रुका हुआ, ठहरा हुआ, स्थिरबिंदु नहीं है। बीज अपने आप में पौधे की और फूल की पूरी तैयारी के साथ पैदा होता है। तो कोई यह न कहे कि फिर तो हम बीज ही रह जाएँगे। फिर तो हम हिलें ही न। तुम बीज हो और मिट्टी में पैदा हुए हो। अब क्या होना है? बोलो!

श्रोता २४: उगना है।

आचार्य जी: उगना है। खिलना है। पर उस पूरी प्रक्रिया में तनाव के लिए कोई जगह है? जल्दी बोलो!

सभी श्रोता: नहीं।

आचार्य जी: मेहनत के लिए कोई जगह है? हाँ, कर्म के लिए पूरी जगह है। अब तुम्हें दिक्कत यह होती है कि तुम समझ नहीं पाते हो कि बिना मेहनत के कर्म कैसे हो सकता है। और मैंने दो-दो बातें बोल दीं। पहला, बिना इच्छा के कर्म हो। और दूसरा, बिना मेहनत के कर्म हो। और यह दोनों ही बातें गले से उतरती नहीं। इच्छा न हो तो हम हिलें ही क्यों? पागल हैं, फालतू थकें। और दूसरी बात बिना मेहनत के कर्म हो। जैसे बीज से पौधे का निकलना। इतना बड़ा पेड़ निकल आया, मेहनत किसी ने करी नहीं। यह हुआ कैसे, जल्दी बताओ?

यह इतना बड़ा वृक्ष खड़ा है। तुम्हें अगर करनी हो, तो तुम थक-हारकर पागल हो जाओगे। और कहोगे, “बाप रे!” और जो यह कर दे, उसको तुम विश्वशिरोमणि इनाम दोगे। ” इन्होंने इतना बड़ा पेड़ उगा दिया। और यहाँ वृक्ष अपने आप ही उगे पड़े हैं। तो तुम भी अगर सिर्फ मौका दो अपने आप को, ढील दो, खुला छोड़ो, तो ऐसे ही उगोगे। मस्त! बिना किसी को परेशान किये। बिना किसी से दुश्मनी लिए। बिना किसी मेहनत और थकान के इतने बड़े हो जाओगे। और जब तुम्हारा वक्त आएगा। तो जैसे यह पेड़ गिरेगा न एक दिन, वैसे ही तुम भी एक दिन गिर जाओगे। चुप-चाप मिट्टी में समा जाओगे।

श्रोता २५: सर, आपने कहा- बिना मेहनत और थकान हम भी बड़े हो जाएँगे। कोई उदाहरण दे दीजिये ऐसे इंसान का?

आचार्य जी: नहीं समझ पाओगे क्योंकि तुम्हारे लिए उदाहरण का अर्थ ही होता है, तुम्हारे समाज से उठा हुआ उदाहरण। उदाहरण तुम इस लिए माँग रहे हो, ताकि तुम उसको रोल मॉडल बना सको या फिर एंटी-रोल मॉडल बना सको, काट सको।

श्रोता २५: नहीं सर, ऐसा नहीं है।

आचार्य जी: क्या करना है? क्या करना है नाम जानकर? तुम जैसे हो, वैसे में तुम उनसे कोई सम्बन्ध उनसे बैठा नहीं सकते। तुम्हारे लिए वो नाम सिर्फ नाम रहेगा। तुम नाम को समझ ही नहीं पाओगे। तुम जब सामने खड़े इस पेड़ से सम्बन्ध नहीं बैठा पा रहे। तो मैं एक नाम उछाल दूँगा, तुम उस नाम क्या सम्बन्ध बैठा पाओगे? मैं नाम कुछ भी बोल सकता हूँ, क्या फर्क पड़ता है? मैं बोल दूँ, “आशुतोष सहाय।” मैं बोल दूँ, “विपिन गुप्ता।” मैं बोल दूँ… कुछ भी। क्या फर्क पड़ता है? उस नाम से तुम क्या सम्बन्ध बैठा पाओगे? क्या जान पाओगे? बात तो तुम्हारे मन की है ना। मन ऐसा हो जो जान पाए। उसकी ओर ध्यान दो। भीतर की ओर मुड़ो, बाहर की ओर नहीं।

और जहाँ तक बात है कि ऐसे हैं कि नहीं, ऐसे ही हैं। वही हैं जिन्हें क्राइस्ट ने कहा था, “*साल्ट ऑफ़ दा अर्थ*।” वही हैं जिनके होने से दुनिया है। नहीं तो आठ अरब लोग हैं इस दुनिया में, उनके होने, न होने से कोई विशेष फर्क नहीं पड़ता। मैं जिनकी बात कर रहा हूँ, उन्हीं चुनिंदा मुट्ठीभर लोगों के होने से दुनिया है। बाकी तो बस ऐसे ही हैं। *मैन*– मेड हैं, *गॉड*– मेड नहीं हैं बाकी।

श्रोता २६: सर, जो लोग जंगलों में रहते है या इधर-उधर रहते हैं और कोई काम नहीं करते हैं, वो क्या सही रस्ते पर हैं?

आचार्य जी: कुछ नहीं कह सकते, बेटा। कोई जरुरी नहीं है कि जंगल कोई चला गया है तो सही रास्ते पर ही हो। कोई जरुरी नहीं कि कोई हिमालय पर चढ़कर बैठ गया है, तो सही रास्ते पर हो।

श्रोता २६: नहीं, उसे बस लालच नहीं हो।

आचार्य जी: नहीं, कोई जरुरी नहीं है कि कोई जंगले गया है तो उसे कोई लालच न हो। धार्मिकता, या मुक्ति, या मोक्ष की इच्छा बहुत बड़ा लालच होती है। कि मुझे इस विक्षिप्त संसार से मुक्ति मिल जाएगी। और वो वहाँ जाकर भी रहते आसक्त ही हैं, रहते अटैच्ड ही हैं। तो कोई गारंटी नहीं है कि कोई वहाँ जंगले में गुफा में बैठा है और ऊपर जाकर महात्मा बना बैठा है, तो वो… ऐसा कुछ भी नहीं है।

श्रोता २६: सर, जो यह व्यवस्था है पेड़ों का या बाकी नेचर का, यह तो फिर गलत है।

आचार्य जी: वो व्यवस्था गलत है या सही है, इस पर जल्दी से मत कूदो। पहले ध्यान से यह देखो कि वो व्यवस्थाएँ क्या हैं और कहाँ से आ रहे हैं। और यह देखो कि कैसा मन होता है जिसे व्यवस्थाओं की बहुत जरूरत पड़ती है। कैसा मन होता है जिसे व्यवस्था की बहुत जरुरत पड़ती है।

तुम लोग यहाँ बैठे हुए हो। इतना ही कहना काफी था कि यहाँ बैठ लो। पर अगर मन अशांत हो, बेचैन हो, बिखरा हुआ हो, भागना चाहते हो या अभी सूरज ऊपर बिलकुल आ जाए, तपने लग जाओ या खूब भूख लगने लग जाए, तो बहुत जबरदस्त व्यवस्था बनाना पड़ेगा तुम्हें यहाँ बैठाने के लिए। कहना पड़ेगा, “अगर उठे, तो पुलिस तैयार है, अगर उठे, तो दस-दस हजार फाइन है।” पता नहीं क्या-क्या बातें बोलनी पड़ेंगी लेकिन तब भी तुम इधर-उधर छिटकोगे, भागोगे, छुपोगे और कुछ नहीं तो गिर जाओगे, सोने लगोगे या मूड खराब करोगे। कुछ तो करोगे।

व्यवस्थाकी जरुरत कब पड़ती है? जल्दी बोलो। अपने भाई के साथ चल रहे होते हो या किसी से दोस्ती है या प्रेम है, तो क्या व्यवस्था बनाते हो कि दो मिनट तुम बोलोगे फिर दो मिनट हम बोलेंगे? ऐसा होता है?

श्रोता २६: नहीं।

वक्ता: घर अभी जाओ, माँ से बात करो, तो पहले योजना बनाओगे। कि पहले एक एजेंडा तैयार होगा कि आज बात किस बारे में होगी, कितनी देर होगी। और उसके मिनट्स लिखे जायेंगे। और यहाँ साथ में एक साक्षी बैठना चाहिए; *विटनेस*।

श्रोता २६: इसकी जरुरत नहीं पड़ती।

आचार्य जी: जरुरत नहीं पड़ती न? व्यवस्था की जरुरत कब पड़ती है? जल्दी बताओ। मामला जितना गड़बड़ होगा तुम्हें उतनी व्यवस्थाएँ बनानी पड़ेंगी। अन्यथा एक आंतरिक व्यवस्था पहले से ही है। और वो आंतरिक व्यवस्था बड़ी प्यारी होती है। जीवन में जो कुछ कीमती है, उसी आंतरिक व्यवस्था से निकलता है। प्रेम, उदाहरण के लिए, किसी सामाजिक व्यवस्ता से नहीं निकल सकता। बाहर की कोई भी व्यवस्था तुम्हें प्रेम नहीं दे सकती। वो तो किसी एक आंतिरक व्यवस्था से ही निकलता है। और उसकी अपनी एक आंतरिक व्यवस्था होती भी है। समझ में आ रही है बात?

श्रोता २७: सर, हम इस उम्र में अगर चाहें भी प्रकृति के तरीके रहना, तो भी न चाहते हुए बाहरी चीजें प्रभाव डालते हैं।

आचार्य जी: जो प्रभाव हैं, वो तुम्हारे ऊपर काम कैसे करते हैं? इसमें (दीवाल)तुम्हें कुछ टाँगना हो, तो जानते हो क्या जरुरी है?

सभी श्रोता: कील।

आचार्य जी: इसमें कील हो, हुक हो। वो न हो अगर इसमें, तो तुम चाहकर भी इसमें कुछ टाँग सकते हो? समझ में आ रही है क्या कह रहा हूँ? तुम्हारे अपने पास बहुत सारे कील और हुक हैं, जिनसे तुम्हें फँसाया जाता है। तुम्हारे हुक तैयार हैं। कोई फंदा डालता है, तुम्हें फँसा लेता है। उसी हुक का नाकम लालच है। जिनको तुम कह रही हो कि तुम्हारे ऊपर लोग आकार प्रभाव डाल देते हैं; तुम गुलाम हो। वो गुलामी यूँ ही नहीं है। वो गुलामी तुमनें खरीदी है। तुम्हें वो गुलामी स्वीकार है। क्योंकि उस गुलामी के बदले में बहुत कुछ मिलता है। तुम अपना लालच छोड़ दो, गुलामी उसी दिन ख़त्म हो जाएगी।

“तुम अपना लालच छोड़ो, गुलामी उसी दिन ख़त्म।”

श्रोता २८: सर, हम अपने आप को पहचान नहीं पाते हम लालच में फँसे हुए हैं। हमें अभी तक यह बात नहीं पता कि हमारे पैदा होने का रीज़न क्या है। जिसे पता है उसे तो इस चीज से हटना चाहिए?

आचार्य जी: हटने का क्या अर्थ होता है? यह जमीन है। इस पर तुम बैठे हो। इस पर कोई और भी बैठा हो सकता है। तुम यहाँ इसीलिए बैठे हो सकते हो कि तुम्हें लग रहा है कि बैठकर दो लाख रुपया मिल जाएगा। कोई यहाँ इसीलिए बैठा हो सकता है क्योंकि यहाँ बैठने में…

सभी श्रोता: आराम है।

आचार्य जी: तो हटने का क्या अर्थ है? ज़मीन पर दोनों बैठे हैं। हटा कोई भी नहीं है। पर एक इसलिए बैठा है, कुछ मिल जाए और एक इसलिए बैठा है, यूँ ही। हटने का क्या अर्थ है?

श्रोता २८: वो अपने उस काम को, पढ़ाई-लिखाई को छोड़कर।

आचार्य जी: पढ़ाई-लिखाई क्यों नहीं हो सकती बिना लालच के? और याद रखना ज्यादातर लोग जिन्होंने वो सब करा जिसको तुम पढ़ते हो, उन्होंने बिना लालच के करा। उन किताबों में जिनका तुम नाम पढ़ रहे हो और जिनकी उपलब्धियाँ पढ़ रहे हो, जिनकी डिस्कवरीज पढ़ रहे हो, उन्होंने तो बिना लालच के करा। उनको तो बस जानने में ही मजा आ रहा था, तो वो कर रहे थे। हाँ, तुम लालच के लिए पढ़ते हो; पढ़ लूँगा तो नौकरी लग जाएगी।

ज्यादातर लोगों ने जो जाना है। ज्ञान ही पढ़ते हो ना? ज्ञान? वो जो ज्ञान जिन्होंने हासिल किया, जिन्हें पता चला, उनको तो ज्ञान अकस्मात मिला। और उन्हें उस ज्ञान से कुछ फायदा भी नहीं मिला। उनमें से अस्सी प्रतिशत ऐसे थे, जिन्हें उनके जीवन काल में सराहा भी नहीं गया। बीस ही प्रतिशत ऐसे थे, जिन्हें समाज से थोड़ी मान्यता मिली। बाकी पाँच में से चार ऐसे थे, जिन्हें कोई जान भी नहीं पाया। मरने के बहुत-बहुत बाद पता चला- “अरे बाप रे! इतना बड़ा काम करा गया ये तो।” पर वो मस्त करे जा रहे हैं। तो उन्हें तो लालच नहीं है, जिन्हें तुम पढ़ भी रहे हो।

श्रोता २८: सर, यह जो हमारा वास्तविक रूप है, उसको हम कैसे हासिल कर सकते हैं?

आचार्य जी: एक आदमी था, जिसको तीस साल तक सिर दर्द था। पैदा हुआ था तभी से उसे यह बीमारी थी; एक छोटा-सा सिस्ट था दिमाग में। तो उसको सिर रहता था। जानते हो, उसे तीस साल तक पता भी नहीं चला कि उसको सिर दर्द है। वो कहता था, “यह तो प्रकृति है। ऐसा तो सबको होता है। यह तो प्रकृति है।” यह बीमारी थोड़ी है। यह तो स्वभाव है। तीस की उम्र में कोई दूसरा चेक-अप करने गया था, तब पकड़ा गया कि अरे! तेरे दिमाग में तो यह है।

वो किसी और चीज की जाँच कराने गया था, यह पकड़ में आ गया। बड़ा आसान था, छोटा-सा ऑपरेशन किया डॉक्टर ने निकाल दिया। अचानक हल्का हो गया, तब उसे पता चला कि तीस साल तक नरक में था। तीस साल तक उसे पता नहीं चला कि वो नरक में है। वो कहता था। यह तो प्रकृति है। यह तो इंसान की प्रकृति है। सिर ऐसा भारी-भारी होना चाहिय। यही तो इंसानी वृत्ति है। जिंदगी बिलकुल सड़ी हुई होनी ही चाहिये। हर समय तनाव होना ही चाहिए। यही तो इंसान की प्रकृति है।

बेटा! यह इंसान की प्रकृति नहीं है। यह तुम्हें तब पता चलेगा, जब तुम उससे मुक्त हो जाओगे। तब तुम्हारे मन में धन्यवाद उठेगा कि बाप रे! कहाँ फँसे हुए थे। बाप रे! कहाँ फँसे हुए थे। ऐसे समझ लो कि तुम्हारी पैंट बहुत तंग है और सुबह से पहने घूम रहे हो। और आदत लग गयी हो कि दर्द हो रहा है और यहाँ किनारे कट से रहे हैं। पर फिर भी उसे झेल रहे हो, थोड़ी देर में दर्द होना बंद हो जाता है। जानते हो? कोई चीज तुम्हें परेशान कर रही हो और तुम उसे झेले जाओ, झेले जाओ, तो तुम उसके आदि हो जाते हो। उसके बाद जब रात में घर जाते हो। उसको उतारोगे, सोने जाओगे, तब अचानक पता चलेगा कि कितना कष्ट था।

“जब मुक्ति मिलती है, तब कष्ट की गहराई का पता चलता है।” अन्यथा कष्ट झेलते-झेलते तुम कष्ट को ही स्वभाव समझने लगते हो। स्वभाव में और आदत में अंतर होता है। यह अंतर समझना। आदत, स्वभाव नहीं होती। तुमनें कुछ आदतें पल ली हैं, उनको स्वभाव मत बोला करो।

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