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असली आत्मविश्वास क्या है? जीवन में शांत सहज कॉन्फ़िडेंस कैसे लाएँ? || आचार्य प्रशांत (2023)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
24 मिनट
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प्रश्नकर्ता: नमस्ते आचार्य जी। आत्मविश्वास के असली और नकली अर्थ क्या हैं? क्या आत्मविश्वास बस मान्यता मात्र है? क्योंकि इसमें 'आत्म' शब्द भी जुड़ा हुआ है, तो थोड़ा स्पष्ट करें।

आचार्य प्रशांत: जो साधारण आत्मविश्वास होता है वो एक आग्रह होता है, वो आग्रह होता है कि मुझे जो पता है वही सही है। मुझे जो पता है वही सही है, ये आग्रह आत्मविश्वास है, 'मैं इस बात पर अड़ना चाहता हूँ कि मुझे जो पता है वो सही है।' जो वास्तविक आत्मविश्वास होता है वो है आत्मा पर विश्वास। और आत्मा माने सत्य, तो वो सत्य पर दृढ़ता है। वो कहता है, ‘जो सत्य है वही सही है।’

साधारण आत्मविश्वास क्या बोलता है? ‘जो पता है वही सही है।’ वास्तविक आत्मविश्वास क्या बोलता है? 'जो सत्य है वही सही है, चाहे वो मुझे पता हो चाहे न पता हो।' साधारण आत्मविश्वास में डर बहुत है। क्या डर है? ‘आग्रह करो कि मुझे जो पता है वही सही है, अगर वो बात ग़लत निकल गयी तो मैं टूट जाऊँगा।' वास्तविक आत्मविश्वास कहता है, ‘जो भी सही है, सामने आने दो, मैं नहीं टूटने का।’

वास्तविक आत्मविश्वास मात्र निष्कामना से आ सकता है। जो भी पता है, सामने आने दो, मुझे उससे कोई अच्छा परिणाम चाहिए ही नहीं तो मैं क्यों निराश होऊँगा! मेरी आशा क्यों टूटेगी!

समझ पा रहे हैं या फँस रही हैं बात?

वास्तविक आत्मविश्वास कोई आग्रह लेकर आता ही नहीं है। वो कोई चीज़ होता ही नहीं है, वो खुलापन और एक खालीपन होता है। जो सच है वो पता लग जाए, हमने पहले से कोई आग्रह कर ही नहीं रखा कि सच इस तरह का हो, कि सच उस तरह का हो, कि सच वैसा हो, कि सच हमारी मान्यता और सुरक्षा के अनुकूल हो, ऐसा हमने कुछ शर्त बाँधा ही नहीं। जो भी सच्चाई है साहब, सामने आये, अंजाम क्या होगा हमें परवाह नहीं — ये निष्कामना है।

सच जो भी है सामने आये, शिरोधार्य है। परिणाम क्या होगा? हमें क्या लेना-देना परिणाम से! ये वास्तविक आत्मविश्वास है। ‘मुझे कोई आग्रह रखना ही नहीं है। कोई सामने आया, उसने कोई बात बता दी, एकदम नयी बात, अनसुनी बात। तो हम कहेंगे, ‘अच्छा ऐसा है? चलो ऐसा है तो ठीक है।’ दूसरी ओर हम कुछ बात मानकर बैठे थे और कोई आदमी आया, उसने नयी बात बता दी, तो हमारे भीतर से क्या उठेगा? विरोध उठेगा, क्योंकि हमारा आग्रह टूट रहा है न, हमारा अहंकार टूट रहा है। हमारी क्या मान्यता थी, उसने उससे विपरीत बात बता दी, बड़ा बुरा लग रहा है।

हमारी कोई मान्यता है ही नहीं, तो सच जहाँ से भी पता लग रहा है हमारे लिए वो एक स्वीकार की बात है, ‘हाँ जी, बताइए। ठीक है। अच्छा ऐसा है?’ बल्कि एक फिर उसमें कौतुक रहता है एक वंडरमेंट (अचरज) कि बात रहती है — ‘अच्छा ऐसा है? ग़ज़ब! आश्चर्य है!’ वो आनन्द से बहुत मिलती-जुलती बात है। कौतुक, बाल-सुलभ कौतुक! जैसे छोटा बच्चा होता है न, आँखें ऐसे बड़ी-बड़ी करके देख रहा है (आश्चर्य से देखने का अभिनय दर्शाते हुए)। बड़ा मज़ा आता है। लेकिन वो तभी हो सकता है जब आप पहले से ही अपनी थाली भरकर न खड़े हो गये हों, फिर उसमें कोई कुछ नहीं रख सकता।

वास्तविक आत्मविश्वास कोई आग्रह लेकर आता ही नहीं तो वास्तविक आत्मविश्वास में कोई आपसे पूछेगा, ’वाट आर यू कॉन्फ़िडेंट ऑफ़? (आप किस बात को लेकर आश्वस्त हैं?) तो आप क्या बोलेंगे? ’नथिंग। देयर इज़ जस्ट कॉन्फ़िडेंस विदाउट ऐन ऑब्जेक्ट’ (कुछ नहीं, बिना किसी वस्तु के केवल आत्मविश्वास है), और उसको फेथ (आस्था) बोलते हैं। आत्मविश्वास जिसका कोई विषय नहीं है, आत्मविश्वास जो किसी पर आश्रित या अवलम्बित नहीं है, आत्मविश्वास जो किसी धारणा के सहारे पर, बैसाखी पर नहीं खड़ा है, बस है।

‘किस बात का इतना विश्वास है तुम्हें?’

'किसी बात का नहीं। सत्य कोई बात होता है क्या! हमें तो आत्मा का विश्वास है। आत्मा कोई बात होती नहीं।'

बस है, एक खालीपन है। ऐसा खालीपन जो किसी भी बात से दूषित नहीं हो सकता। हमें कुछ भी बता दो, हम उससे दहल नहीं जाएँगे। कोई भी दुनिया की सच्चाई सामने ला दो, हम उससे दहल नहीं जाएँगे।

अब आप एक बात मानकर बैठे हो, 'आपको फ़लाने ईश्वर ने बनाया।' ये बात आपने पकड़ ली है। अब कोई आपके सामने आकर बताये कि आपको ईश्वर ने क्या बनाया, आप चिम्पैंज़ी (वनमानुष) हो और वहाँ पर दिखा दे आपको चिड़ियाघर में कि ये हैं दादाजी के दादाजी, तो बड़ा बुरा लगता है। बहुत लोग इसी बात पर बहुत परेशान हैं, बोलते हैं कि तेरे पुर्खे होंगे बन्दर, मैं तो सीधे भगवान से आया हूँ। वो इसको बड़े अपमान कि बात मानते हैं कि पुर्खे बन्दर थे क्योंकि उनका आग्रह यही है कि हम तो सीधे ईश्वर के वंशज हैं। तो फिर आप कैसे स्वीकार करोगे इस बात को। ये आत्मविश्वास की कमी का द्योतक है।

आत्मविश्वास तथ्यों के प्रति पूरे खुलेपन का नाम है। आत्मविश्वास निराग्रही होता है। निराग्रही होना और सत्याग्रही होना बिलकुल एक बात है। बल्कि सत्याग्रही होने से ज़्यादा साफ़ और ज़्यादा व्यावहारिक बात है कहना 'निराग्रही’। कोई आग्रह ही नहीं है, कोई आग्रह ही नहीं है।

कोई आपसे फिर आकर ये नहीं कह सकता, ‘देखो, तुमसे एक बात बताएँगे पर तुम्हें चोट तो नहीं लगेगी?’

आप कहोगे, ‘हमें किसी भी बात से चोट लगती नहीं क्योंकि हमारा तो कोई आग्रह है ही नहीं। आग्रह होता तो उस पर चोट लग जाती, मेरे पास कोई आग्रह नहीं है।’

‘देखो, सुनो, बुरा मत मानना कुछ कहना था।’

'आपको जो कहना हो कहिए, हमको बुरा लग ही नहीं सकता।'

हवा में लाठी भाँजोगे तो हवा को चोट लगेगी क्या? क्योंकि हवा का कोई आग्रह है ही नहीं। हाँ, दीवार पर लाठी मारो तो दीवार को चोट लग जाती है क्योंकि दीवार का आग्रह है।

ये वास्तविक आत्मविश्वास है, सच्चाई किसी भी दिशा से आ रही हो, किसी भी नाम में आ रही हो, किसी भी रूप में आ रही हो, हम स्वीकार कर लेंगे। और हम सदा खुले हैं, सदा प्रस्तुत हैं। ये आत्मविश्वास है।

और जो आदमी अपनी कमज़ोर, वल्नरेबल (असुरक्षित), ब्रिटल (नाज़ुक), मरियल, घायल, दुर्बल धारणाओं को बचाये-बचाये घूम रहा है उसे आग्रही होना ही पड़ेगा। समझ रहे हो बात को? वो हमेशा ऐसे चलेगा जैसे एक आदमी जिसकी पैंट में बटन न हो। उसकी हालत क्या रहती है? वो भंगड़ा कर सकता है? वो तो ऐसे (अपने पैंट को पकड़े हुए) ही रहेगा हमेशा ज़िन्दगी में। ये आम आदमी का आत्मविश्वास है। वो ज़रा सा मुक्त हुआ नहीं, ज़रा उसकी मौज आयी नहीं कि फट से उसकी पैंट गिर जानी है। तो ज़िन्दगी भर उसको मौज कभी आएगी ही नहीं, क्योंकि मौज का मतलब होगा — गया!

वास्तविक आत्मविश्वास क्या होता है? नग्नता। हमे कोई पैंट पकड़कर रखनी ही नहीं है, हम खुल्ले नंगे हैं। कोई हमें क्या नीचा दिखाएगा! कोई हमें क्या चोट पहुँचाएगा! कोई हमारी क्या बेइज़्ज़ती करेगा! हमारे पास इज्ज़त है ही नहीं। लो, कर लो बेइज़्ज़ती। बेइज़्ज़ती उनकी होती है जो इज़्ज़त की पतलून पकड़ कर घूम रहे होते हैं, हमने कब की उतार दी। ये वास्तविक आत्मविश्वास है। जो पतलून पकड़े खड़ा है, उसको बोलो, ‘देखो, गिर रही है,’ तो दहल जाएगा। जो वास्तविक आत्मविश्वासी है उससे बोलो, ‘गिर रही है’, तो बोलेगा, ‘क्या गिरेगा? यहाँ गिरने को कुछ है ही नहीं। हम निराग्रही हैं।’ निराग्रही माने निर्-पतलून। है ही नहीं कुछ, कोई आग्रह नहीं। क्या गिरेगा, सब गिरा दिया।

समझ में आ रही है बात ये?

तो जो नकली आत्मविश्वासी होता है उसका आत्मविश्वास चेहरे से चूता है। उसके हाव-भाव से आप बता दोगे कि ये आत्मविश्वासी आदमी है। उसकी भाव-भंगिमा में तीखे तेवर होते हैं, एक हिंसात्मकता होती है, तलवार जैसी धार होती है। आपको कुछ अभी यहाँ पर चित्र दिखाये जाएँ और पूछा जाए इनमें से कॉन्फ़िडेंट (आत्मविश्वासी) चेहरा कौनसा है, आप बता दोगे। वो कैसा होगा? करके दिखाओ, करके दिखाओ कैसा होता है। कॉन्फ़िडेंट (आत्मविश्वासी) चेहरा कैसा होता है बताओ न (श्रोताओं को सम्बोधित करते हुए)।

अभी आप गूगल सर्च करिए, इमेजेज़ में — ’कॉन्फ़िडेंट फेस’ , तो दिखा नहीं देगा?

श्रोता: गर्विला चेहरा।

आचार्य: कैसा होगा?

श्रोता: थोड़ा अकड़ा हुआ।

आचार्य: थोड़ा अकड़ा हुआ। हिंसा होगी उस चेहरे पर, पानी थोड़ा कम होगा, कोमलता थोड़ी कम होगी, धार थोड़ी ज़्यादा होगी। ऐसा ही होता है न?

श्रोता: स्मार्ट (आकर्षक)।

आचार्य: हाँ, डॉमिनेंट (प्रभावी)।

श्रोता: सर, उसकी आँखें खुली होंगी बहुत ज़्यादा।

आचार्य: आँखें खुली होंगी ज़्यादा, और देख ऐसे रहा होगा जैसे खा जाएगा।

(श्रोतागण हँसते हुए)

श्रोता: जैसे उसको पूरी दुनिया की नॉलेज़ (ज्ञान) होगी, ऐसा होगा।

आचार्य: ऐसा।

श्रोता: केजीएफ़ टाइप।

आचार्य: हाँ। ये झूठा कॉन्फ़िडेंस (आत्मविश्वास) है, ये नकली आत्मविश्वास है। ये हम कह रहे हैं, डर का ही दूसरा रूप है। अंग्रेज़ी चैनल पर बहुत पुराना वीडियो है, 'कॉन्फ़िडेंस इज़ फ़ियर’ (आत्मविश्वास डर है)। ये नकली आत्मविश्वास है। ये डर है, जैसे गीदड़ जो शेर की खाल पहनकर आ गया है।

वास्तविक आत्मविश्वास कैसा होता है? कुछ नहीं, सहज, साधारण चेहरा। पर हमारी शिक्षा, हमारी संस्कृति ऐसी नहीं रही है कि हम एक साधारण, सहज चेहरे को देखकर कहें, ‘यही तो आत्मविश्वास है वास्तविक।’ उसको हम कह देते हैं दीनता है, या हम कह देते हैं, ‘ये तो बहुत साधारण चेहरा है।’ कुछ और कह देते हैं, क्या बोल दोगे? बेचारगी का चेहरा बोल दोगे।

श्रोता: ह्युमिलिटी (विनम्रता)।

आचार्य: हाँ, ह्युमिलिटी , विनम्रता का चेहरा बोल देंगे। आमतौर पर साधारण बोल देंगे, कि बड़ा साधारण चेहरा है। यही साधारण हो जाना ही आत्मविश्वास है, एकदम साधारण।

आत्मा को इसीलिए निर्विशेष कहा गया है। निर्विशेष, एकदम साधारण, यूँही सहज बैठे हुए है। न कुछ बचाने को, न कुछ छुपाने को। अस्तित्व के प्रति पूरा खुलापन, तथ्य जो भी हैं सब स्वीकार है क्योंकि तथ्यों से ही तो मान्यताएँ कटती हैं। तथ्य ही तो सत्य के और मुक्ति के द्वार हैं। हम पूरे तरीक़े से उपलब्ध हैं, एकदम सहज बैठे हैं। न किसी से डरे हैं, न किसी को डराना है। ये आत्मविश्वास है। कोई उसमें आक्रामकता नहीं, कोई तीखापन नहीं, किसी के ऊपर प्रभुत्व का कोई भाव नहीं, छाने की इच्छा नहीं।

ये जो 'छौड़ वास्ते' वाली इच्छा होती है, ये भी इस बात कि द्योतक होती है कि बन्दा बहुत डरा हुआ है, छाएगा नहीं तो मर जाएगा। इससे बर्दाश्त ही नहीं होता कि कहीं किसी कोने में सहज होकर के बैठ जाए। इसकी हस्ती पर ख़तरा आ जाता है अगर दस लोग इसको एक्नॉलेज़ (स्वीकार) न करें तो। ये किसी जगह पहुँचे, वहाँ पचास लोग हों और वो पचास लोग इसकी हस्ती को स्वीकृति न दें तो इसको ऐसा लगता है जैसे ये मर गया।

तो ये जो बड़ी इच्छा होती है कि मैं जहाँ हूँ वहाँ पर छा जाऊँ, इससे यही पता चल रहा है कि बहुत डरे हुए आदमी हो। कई लोगों को आप देखेंगे ज़बरदस्ती ज़ोर से बोलेंगे, ऊँचा बोलेंगे, जहाँ ज़रूरत नहीं है वहाँ भी बोलेंगे, हर जगह घुसेंगे। इससे पता चलता है कि इन पर अस्तित्वगत संकट है, ये भीतर से अपनेआप को लेकर के बहुत डरे-सहमे हुए हैं।

और आत्मविश्वासी की, भीतर से मज़बूत इंसान की पहचान आप पाएँगे कि वो अपनेआप को कोने में ही रखना पसन्द करेगा। जब स्थिति की माँग होगी सिर्फ़ तभी वो स्थिति के केन्द्र में आना चाहेगा, अन्यथा अपनेआप को अदृश्य रखना, लुप्त रखना या कोने में रखना उसको पसन्द रहेगा क्योंकि वो कोने में होकर के भी केन्द्र में है। उसे कोई फ़र्क नहीं पड़ रहा कि वो कोने में हो गया तो कहीं कुछ ग़लत हो गया। कोई उस पर ध्यान नहीं दे रहा तो भी उसकी हस्ती पूरी है। वो चाह ही नहीं रहा कि दस लोग मुझ पर ध्यान दें तो मुझे भरोसा आएगा कि मैं कुछ हूँ। उसको पता है कि वो कौन है। तो कोई उस पर नहीं ध्यान दे रहा तो कोई दिक्क़त नहीं। बल्कि वो जानता है कि लोग ज़्यादा ध्यान देंगे तो बेकार में एक तरह का डिस्टर्बेंस (उपद्रव) पैदा होता है, विक्षेप आता है। तो कोई किसी पर क्यों ध्यान दे, सब जो अपना-अपना काम है करो।

और जो आदमी भीतर से डरा हुआ रहेगा, सदा उसकी माँग रहेगी कि दस लोग उस पर अपना मन केन्द्रित करें। जिसको आप अटेंशन सीकिंग बिहेवियर (ध्यान आकर्षित करने वाला व्यवहार) कहते हो, ये भीतर के भय की निशानी होती है। भीतर कोई है जो जानता है कि वो है ही नहीं। अहंकार मिथ्या होता है न, उसको पता होता है कि वो है ही नहीं। जब उसको पता होता है कि वो है ही नहीं, तो वो अपने होने का प्रमाण दस और लोगों से माँगता है। वो कहता है, ‘तुम लोग बोल दो मैं हूँ ताकि मुझे थोड़ा तो भरोसा आये कि मैं हूँ, नहीं तो मैं मर गया।’

अब कोई भी आकर आपको ये तो नहीं बोलेगा न कि तुम हो, इतना तो कोई बोलेगा नहीं, वो बात विचित्र लगती है‌। तो लोगों से वो ये बोलवाना चाहता है कि तुम हो, तो इसके लिए लोगों से वो बोलवा देता है, ‘तुम सुन्दर हो, या तुम अच्छे हो, या तुम प्यारे हो, या तुम ज्ञानी हो, या तुम बहादुर हो, या तुम अमीर हो।’

आप बहुत सज-सँवरकर किसी पार्टी में जाते है, आपको मालूम है इतना सज-सँवरकर क्यों जाते हैं? ताकि आपको भरोसा आ जाए कि आप मुर्दा नहीं हो।

अहंकार है तो नहीं है, ये तो हम जानते हैं। वो तो शून्य है, मिथ्या है। तो किसी तरह वो चाहता है कि अगर दस-पन्द्रह लोग प्रमाणित कर दें कि मैं हूँ तो मुझे लगेगा कि मैं हूँ। तो आप बहुत सज-सँवरकर गये, लोग बोल रहे हैं कि वाह! कितने हैंडसम (आकर्षक) हो, या कितने प्रिटी (सुन्दर) हो, या कितने कूल (उत्तेजनाहीन) हो, या कितने सेक्सी (कामोत्तेजक) हो! उन्होंने जो भी बोला हैंडसम , प्रिटी , कूल , सेक्सी ; उसमें उन्होंने क्या बोला?

‘तुम हो।’

बस यही सुनने के लिए तो हम तरस रहे थे कि हम हैं, हैंडसम , कूल , प्रिटी , सेक्सी , ये सब तो बहाने हैं। हम ये सुनने के लिए मरे जा रहे हैं कि तुम हो, तुम हो, तुम हो।

आत्मविश्वासी, वास्तविक आत्मविश्वासी जानता है कि वो है। उसे किसी और से नहीं सुनना कि तुम हो। तो फिर उसको कोई आवश्यकता नहीं रहती दूसरों का ध्यान आकर्षण करने की। उसको नहीं फ़र्क पड़ता। उसको पता है वो कौन है, क्या है, कितना नहीं है, कितना है। सब उसको अपना हिसाब ख़ुद ही पता है। वो अपना झूठ भी जानता है, अपना सच भी जानता है।

शान्त-मौन सहजता — इससे बड़ा आत्मविश्वास नहीं होता। और चिल्लाता हुआ, कूदता हुआ, जगमग चमकता हुआ आत्मविश्वास बड़ी भीतरी बीमारी का सूचक है।

आप देखिएगा सार्वजनिक जगहों पर कई बार ऐसा होता है, वहाँ दो लोग आपस में बात कर रहे होंगे। और वो एक-दूसरे के सामने खड़े हैं, वो एक-दूसरे से बहुत आराम से बोलेंगे तो भी सुन लेंगे एक-दूसरे की बात, आमने-सामने खड़े हैं। लेकिन वो एक-दूसरे से इतनी ज़ोर से बात कर रहे हैं कि पूरा हाॅल सुन रहा है। ये दोनों आपस में बात नहीं कर रहे हैं, ये क्या कर रहे हैं? ये पूरे हॉल को सुना रहे हैं।

ये चीज़ आप किसी कॉलेज की कक्षा में भी पा सकते हैं, ये आप किसी विवाह वगैरह के बैंकेट हॉल वगैरह में पा सकते हैं, ये आप किसी कॉरपोरेट मीटिंग में भी ऐसा पा सकते हैं, आप किसी फ़्लाइट में भी ऐसा पा सकते हैं, आप मूवी थिएटर में ऐसा पा सकते हैं। आप किसी भी सार्वजनिक जगह पर ये सब पा सकते हैं। और ये काम वही व्यक्ति कर रहा होता है जिसको बड़ी हसरत होती है कि दूसरे उसकी ओर बस देख दें एक बार। कितने बड़े भीखारी हो! दूसरों की एक नज़र के लिए तरसे जा रहे हो। और बहुत खेद की बात है कि ये काम महिलाएँ ज़्यादा करती हैं थोड़ा।

इतना सारा इत्र अपने पर उड़ेल लिया है, ये क्या कर रहे हो! तुम निकल गये हो, उसके पाँच मिनट बाद भी वहाँ पर वो उसकी खुशबू है। तुमको भलीभाँति पता है तुम ये क्यों कर रहे हो। या तो ये बोल दो कि इतना बुरा गन्धाते हो कि तुम्हें ये नहाकर आना पड़ रहा है केमिकल (रसायन) में। और अगर वैसी बात नहीं है तो ये सब तुम सिर्फ़ इसलिए कर रहे हो कि दूसरा किसी तरह तुम्हारी हस्ती का अनुमोदन कर दे बस, कि ये है।

गहनों की खनखन, इत्र, तीखे तेवर, तीखे रंग, ऊँची आवाज़, चेहरे को रंगना, भड़कीले कपड़े! मैं किसी नैतिकता के नाते इन सब पर आपत्ति नहीं कर रहा, मैं एक चिकित्सक के नाते बोल रहा हूँ कि ये सब आन्तरिक बीमारी के लक्षण हैं, भाई!

दूसरे की जितनी इन्द्रियाँ होती हैं, सब पर आघात कर दो। उसकी नाक में घुस जाओ खुशबू बनकर, उसके कान में घुस जाओ खन-खन-खन-खन-खन बनकर, उसकी आँख में घुस जाओ भड़कीले कपड़े और जिस्म बनकर। ये क्या कर रहे हो? पुरुष भी करते हैं, तुम क्यों खुश हो रहे हो? (एक पुरुष श्रोता को सम्बोधित करते हुए)। कह रहे हैं, ‘हम काहे को पीछे रहें, बराबरी का ज़माना है।’

सोचो, एक्नॉलेज़मेंट (अभिस्वीकृति) चाहिए, वो भी अजनबियों से। ये कितनी दरिद्रता की बात है! जिनको तुम जानते भी नहीं अगर वो भी बस एक बार बोल दें, एक नज़र से बोल दें, क्या? ‘तुम हो।’ तो थोड़ी भीतर ठंडक आ जाती है। ये आदमी अपने एकान्त में कितना तड़पता होगा! ये अपने एकान्त में कितना तड़पता होगा, जिसको समाज में आकर के, दूसरों के मध्य आकर के ऐसे भीख का कटोरा फैलाना पड़ता है अजनबियों के भी सामने (हाथ फैलाने का अभिनय करते हुए)।

आत्मविश्वासी उसको मानना जो एक महफ़िल में चुपचाप एक कोने में बैठकर के भी पूरी तरह सन्तुष्ट मुस्कुरा सके। जिसको कोई चाहत न हो कि किसी ने मुझे देखा, किसी ने मुझे जाना, किसी ने मुझे पहचाना, किसी ने मेरी तारीफ़ करी। अरे तारीफ़ नहीं तो कोई निन्दा ही कर दो, वो निन्दा भी नहीं माँग रहा, उसे कुछ नहीं चाहिए। वो कह रहा है, ‘मैं तो अदृश्य हूँ, कोई मुझे न देखे, कोई मुझे न जाने तो भी मुझे फ़र्क नहीं पड़ता।’ हाँ, लेकिन अगर कुरुक्षेत्र की माँग ये होगी कि आ जाओ मध्य में और करो युद्ध तो उससे भी हमें इनकार नहीं है। 'परिस्थितियों की माँग होगी तो बीच में आएँगे, नहीं तो हमारे लिए वो कोना पर्याप्त है’, वो कोना ढूँढेगा अपने लिए। ‘मुझे कोना चाहिए, मैं तुम्हारा ध्यान चाहता ही नहीं। मुझे मेरा कोना दे दो, मैं खुश हूँ वहाँ पर।’

समझ में आ रही है बात ये?

अभी भगत सिंह पर बात चली थी पिछले दिनों, उनके चेहरे पर आक्रामकता किसने देखी है, बताना? बल्कि कोमल है चेहरा। नहीं है? कोमल लड़कपन है, चेहरे पर कहीं से भी ये नहीं लगता कि सख़्ती है वहाँ। सख़्ती है क्या? ये होता है आत्मविश्वास। आँखों में उग्रता है, हिंसा है, ‘जला दूँगा अंग्रेज़ों को’? नहीं। आँखों में मृदुता है। थोड़ा निकट से देखो तो लगता है जैसे नम हैं आँखें, आर्द्रता है आँखों में। ये होता आत्मविश्वास — चुप, मौन, कोमल। लेकिन जो करना है वो कर जाएगा। जहाँ बम बजाना है बजा जाएगा, वहाँ नहीं पीछे हटेगा।

और जो झूठा आत्मविश्वास होता है ये कैसा होता है? जहाँ ज़रूरत नहीं है, वहाँ गधे की तरह ढेंचू-ढेंचू। छाये हुए हैं, 'छौड़ वास्ते’। और जब मौक़ा आया तो गधे ही की तरह नदारद भी हो गये। कोई अपने से कमज़ोर मिल गया, उसको सता दिया, उसका मज़ाक उड़ा दिया। लेकिन जहाँ पर टक्कर लेनी चाहिए वहाँ बिलकुल दिखाई नहीं देते।

मैं लखनऊ से इधर आया था दिल्ली तरफ़, मुझे यहाँ का कल्चर ही समझ में न आये। क्योंकि मैं नब्बे के दशक के आरम्भिक वर्षों के लखनऊ की बात कर रहा हूँ, वहाँ पर एक तहज़ीब तब तक बची हुई थी। और यहाँ जो कल्चर था इसको लोग बोलते थे 'ले ली कल्चर’, 'ले ली'। 'ले ली' का क्या मतलब? मैं गाज़ियाबाद आया था, बोलते थे 'ले ली'। माने हर आदमी का काम है दूसरे की ले लेना।

श्रोता: उसको नीचा दिखाना।

आचार्य: नीचा दिखाना। दूसरे की ले लो और ताली बजाओ। तो बोलते थे 'ले ली संस्कृति’। तो ये देखता रहा, देखता रहा, ठीक है। तो एक बार मैंने पूछा, मैंने कहा, ‘यहाँ दुनिया में इतना कुछ है जो ग़लत हो रहा है, एक-से-एक यहाँ पर एक्सप्लॉइटर्स (शोषक) हैं, एग्रेसर्स (आक्रमणकारी) हैं, हम चलकर उनकी क्यों नहीं लेते? ये जो तुम 'ले ली', 'ले ली' करते रहते हो।’

ग्यारहवीं वाले हैं, नौवीं वालों की ले रहे हैं इंटरवल (मध्यान्तर) में पकड़-पकड़कर और बहुत खुश हो रहे हैं, ‘हाहाहा! फ़लाने की ले ली!' या कि कोई नया टीचर आ गया क्लास में तो तीन-चार मिलकर के उससे उल्टे-पुल्टे सवाल कर रहे हैं, कुछ कर रहे हैं। वो कुछ पूछ रहा है तो उसके उल्टे जवाब दे रहे हैं और फिर बहुत खुश हो रहे हैं कि इसकी तो ले ली।

मैंने कहा, 'अच्छी बात है 'ले ली'। तो चलो न, मिल करके और भी यहाँ बड़े-बड़े लुटेरे हैं उनकी लेते हैं न!' तो चुप, चुप!

फिर थोड़ा और आगे बढ़े, तो आज से दस साल पहले क़रीब भारत में ये चीज़ आयी, बाहर पहले भी चलती थी — रोस्टिंग (उपहास करना)। तो वहाँ हुआ कि ये रोस्ट कर रहे, वो रोस्ट कर रहे। बहुत अच्छी बात है, रोस्ट कर रहे हो, इसको कर रहे हो, उसको कर रहे हो। हिम्मत है तो उनकी रोस्टिंग करके दिखाओ न जो सचमुच आज के समय के सबसे बड़े अपराधी हैं। वहाँ तो तुम्हारी जान सूख जाएगी, तुम्हारे मुँह से आवाज़ नहीं निकलेगी। हिम्मत है तो उनको रोस्ट करके दिखाओ। रोस्टिंग बहुत अच्छी बात है।

तुम्हारा ये सारा 'ले ली' और रोस्टिंग सिर्फ़ कमज़ोर लोगों पर चलता है। यही झूठे आत्मविश्वास की निशानी है। ये सब बहुत आत्मविश्वास से भरे हुए होते हैं न, जो दूसरों पर हँस रहे हैं, उनकी 'ले ली' या कुछ। ख़ासतौर पर इनको कोई ग़रीब मिल जाए या कमज़ोर मिल जाए, कोई बिहारी मिल गया तो उसको बोल रहा, ‘ऐ बिहारी चोर!’ और उसकी ले ली। और अगर कोई ऐसा है जो इनकी संस्कृति का नहीं है, कमज़ोर भी है, ग़रीब भी है, तब तो उसकी लेना तो पक्का ही है।

गुड़गाँव में जाओ तो वहाँ पर घूम रहे होते हैं वो बड़े बापों की औलादें बहुत सारे, उनके पास अब गाड़ियाँ हैं बड़ी। वो जाएँगे कोई चाय वाला होगा उसके खोखे में गाड़ी मार दी, उसका खोखा गिर गया, सब हँस रहे हैं ‘हाहाहाहा’। रात में गये, कोई रिक्शा वाला अपने रिक्शे पर सो रहा, उसको बोला, ‘इधर आना भाई ज़रा! गाड़ी में बैठ!’ उसको गाड़ी में बैठाया। गाड़ी में उसको लेकर चल दिये, दो किलोमीटर बाद उसको नीचे उतार दिया और खूब हँसे कि अब ये यहाँ से पैदल जाएगा वापस, ‘हाहाहा! ले ली।’

ये सब झूठा आत्मविश्वास है। चूँकि ये ख़ुद डरा हुआ होता है, ख़ुद कमज़ोर होता है इसीलिए किसी कमज़ोर को पकड़कर उसको डराता है। झूठा आत्मविश्वास ख़ुद डरा होता है, ख़ुद कमज़ोर होता है इसीलिए ये कमज़ोरों का शिकार करने की फ़िराक़ में रहता है।

वास्तविक आत्मविश्वास न डरता है, न डराता है, वो रक्षा करता है। उसको अगर कभी आप पाओगे भी संघर्ष करता हुआ तो वो अपने से ज़्यादा किसी मज़बूत से संघर्ष में होगा, वो धर्मयुद्ध होता है उसके लिए। वो कमज़ोर पर नहीं चढ़ बैठता। अगर उसको संघर्ष करना ही है तो वो कमज़ोर की रक्षा के लिए करता है। ये वास्तविक आत्मविश्वास है।

ये जो पूरा कार्यक्रम चलता है न, मैं देखता था, सबसे पहले वो आया था एआईबी। तो मैंने कहा, ‘ये सब ठीक है, बहुत बढ़िया है!’ और जिस तरह की ये बातें कर रहे थे वो सब हम कैंपस में बहुत देख चुके थे। बल्कि ये बच्चों वाली बातें हैं, गाली-गलौज भी इससे कई गुना ऊँचे लेवल (स्तर) की कैंपस में चलती थी। तो उसमें कुछ ख़ास नहीं है। मैंने कहा, ‘ये सब तो ठीक है, कभी किसी ताक़तवर शख्सियत की भी तो रोस्टिंग करके दिखाओ न! वहाँ तो जेल में डाल दिये जाओगे तुरन्त। हिम्मत नहीं है वहाँ पर कुछ मुँह खोलने की।’

यही जो गुड़गाँव वाले हैं अमीरज़ादे, इनसे मैं कहता था, ‘बहुत बढ़िया बात है, तुम जाकर अपनी गाड़ी घुसेड़ देते हो उसके पान के खोखे में। और तुम्हें बहुत मजा आता है कि उसकी सब लकड़ी का था, माल टूटकर गिर गया और हाहाहा करके हँसते हो, ‘ले ली, ले ली’। हिम्मत है तो जाओ किसी शॉपिंग मॉल में गाड़ी घुसेड़कर दिखा दो। वहाँ तो तुम भी अन्दर, तुम्हारी गाड़ी भी अन्दर और तुम्हारा बाप भी अन्दर — गाड़ी का मालिक।

समझ में आ रही है बात कुछ?

चाहे बोस का चेहरा हो, चाहे टैगोर का चेहरा हो, चाहे गाँधी का चेहरा हो, चाहे नेहरू का चेहरा हो, चाहे तिलक का चेहरा हो; इन चेहरों पर आपको आक्रामकता और उग्रता नहीं दिखाई देगा, दिखते हैं ये?

चन्द्रशेखर आज़ाद हैं, उनकी कई बार चित्र बनाये जाते हैं कि जब वो बन्दूक लेकर के बैठे हुए हैं और आख़िरी उनके क्षण हैं। उन क्षणों में भी उनके चेहरे पर आपको तनाव या उग्रता दिखाई देते हैं? ये वास्तविक आत्मविश्वास होता है। उन्हें कोई ज़रूरत नहीं है।

आप क्या कल्पना भी कर सकते हो कि भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरु, मिलकर किसी की खिल्ली उड़ा रहे हैं, ले रहे हैं किसी की? कल्पना भी कर सकते हो क्या? पर ये गुड़गॉंव के छोरे करते हैं ये हरकत, ये तीन-चार मिल जाएँगे किसी की लेना शुरू कर देंगे। और ये मुझे आज से बीस साल पहले से समझ में नहीं आया — तीस साल से मैं दिल्ली में हूँ, मुझे तीस साल से समझ में नही आया — ये ‘लेना’ क्या होता है, ‘ले ली’।

ये तीन खड़े हुए हैं, भगत सिंह खड़े हैं, सुखदेव खड़े हैं, राजगुरु खड़े हैं, इनके चेहरों पर ये भाव है क्या कि ‘ले ली’ वगैरह? हँस रहे हैं? नहीं। शान्त, सौम्य, गम्भीर, मृदुल। आत्मा का तेज चेहरे पर बिलकुल स्निग्धता के साथ मौजूद है। न हँस रहे हैं, न रो रहे हैं। आपको क्या लगता है इन पर मुक़दमा चलता था, ये अदालत में चिल्लाने लग जाते थे? न।

ये आत्मविश्वास होता है। ‘तुम जब मुझ पर एक फ़ालतू का मुक़दमा चला रहे हो जिसमें अन्याय-ही-अन्याय निहित है, और जहाँ तुम अब मेरी जान ले लेने वाले हो, मैं वहाँ पर भी अपनी आवाज़ उठाने की ज़रूरत नहीं समझता। मुझे जहाँ बम फोड़ना था, मैं फोड़ आया।’ वो आवाज़ काफ़ी थी न! उन्होंने कहा था, ‘बहरों को सुनाने के लिए ये आवाज़ ऊँची करनी पड़ी। मैं अपनी आवाज़ क्यों ऊँची करूँ? जहाँ आवाज़ ऊँची करनी थी कर दी। बाक़ी हम जगह-जगह चिल्लाते नहीं फिरते।’

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