आचार्य प्रशांत आपके बेहतर भविष्य की लड़ाई लड़ रहे हैं
लेख
अपनी योग्यता जाननी हो तो अपनी हस्ती की परीक्षा लो
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
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प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, हाल ही में मुझे अभी वॉलन्टीयरिंग (स्वयं सेवा) का मौका मिला था तो मैं और मेरे सहयोगी ने तय किया कि हम आपके द्वारा जो पुस्तकें प्रकाशित हैं उनका स्टॉल लगाएँगे। जब वहाँ पहुँचा तो पाया कि इतने सारे लोगों में कौन इन किताबों का पात्र है ये कैसे समझा जाए। मुझे समझ नहीं आया और मैं ज़्यादा लोगों से खुलकर बात नहीं कर पाया।

आचार्य प्रशांत: पात्रता का निर्धारण परीक्षा के ही माध्यम से हो सकता है, हम्म? पानी में पानी मिला दो तो कुछ भेद पता चलेगा क्या? और पात्रता के निर्धारण का तो अर्थ ही है विवेकपूर्ण भेद कर पाना, है न? क्या भेद कर पाना? कि कौन 'सुपात्र' और कौन 'कुपात्र'। यही भेद करना चाहते हो न?

भेद करने के लिए जो परीक्षार्थी है उसको उसकी सामान्य स्थिति से भिन्न कोई स्थिति देनी पड़ेगी।

परीक्षा-भवन के बाहर सौ परीक्षार्थी खड़े हैं। सिर्फ़ उनको देख के ही क्यों नहीं तय कर देते कि इसमें से स्वर्ण-पदक, रजत पदक, कांस्य किसको दे देना है? नौ बजे सुबह परीक्षा आरंभ होती है—दो घंटे की है, ग्यारह बजे तक की। पौने-नौ बजे तुम पा रहे हो कि परीक्षा भवन के बाहर कितने खड़े हैं परीक्षार्थी? सौ। उन सौ में कुछ अंतर नज़र आ रहा है अभी क्या? अगर आ भी रहा है तो बहुत मामूली। कोई स्पष्ट भेद उनमें पता चल रहा है अभी? सभी बात कर रहे हैं, सभी के हाथ में किताबें हैं, सभी की उम्र भी करीब-करीब एक समान है। कई तरह के अंतर दिख रहे हैं पर कोई भी अंतर इतना स्पष्ट नहीं है कि तुम वहीं पर बता दो कि इसमें से कौन सुपात्र है और कौन नहीं है। क्या बता सकते हो?

लेकिन साढ़े-ग्यारह बजे सब बताया जा सकता है न? दो ही घंटे में ऐसा क्या बदल गया कि अब बिलकुल साफ हो गया कि कौन पात्र है और कौन नहीं? क्या बदल गया? परीक्षा ले ली। परीक्षा लिए बिना पात्रता का निर्धारण नहीं।

अब सवाल ये है कि अगर आप गए हैं लोगों में पुस्तकें वितरित करने या पुस्तकों का विक्रय करने तो वहाँ परीक्षा कैसे लें। वहाँ पर आपके व्यक्तित्व को ही परीक्षा-पत्र होना पड़ेगा। आपकी हस्ती को ही बहुत बड़ा प्रश्न होना पड़ेगा। इसीलिए मैंने कहा, “पानी में पानी मिले तो कोई भेद नहीं हो सकता”। जैसी भीड़ गुज़र रही है आपके पुस्तक स्टॉल के सामने से, अगर आप भी उस भीड़ जैसे ही हैं, तो पात्रता का कोई निर्धारण नहीं हो सकता। आप जैसे, वैसी ही दुनिया, दुनिया को आपमें कुछ अलग दिखेगा ही नहीं तो भेद का भी फिर कोई सवाल नहीं।

हाँ, आप कुछ ऐसे हैं कि आपसे पार पाना, आपसे गुज़र कर जाना, आपसे संबंध बनाना, आपसे बात करना, चाहे आपसे उपेक्षा करना, यही एक सवाल, एक चुनौती बन जाए आपके स्टॉल के पास से गुज़रने वाले के लिए तो फिर बिलकुल साफ़ हो जाएगा कौन पात्र है और कौन पात्र नहीं। आपके स्टॉल को, आपके स्वयंसेवक को, स्वयंसेवक के पूरे व्यक्तित्व को, हस्ती को, पर्सनैलिटी को एक चुनौती की तरह होना होगा। अब दूध का दूध, पानी का पानी हो जाएगा। अब बिलकुल साफ़ हो जाएगा कि कौन आपकी ओर आ रहा है, कौन आपकी ओर नहीं जा रहा है।

मैं कहा करता हूँ न कि लोहे में और ताँबे में भेद करना हो तो उसके लिए एक चुंबक चाहिए बहुत बड़ी—आपको चुंबक होना पड़ेगा। अब अंतर साफ़ हो जाएगा कि कौन पात्र है, कौन नहीं। कुछ होंगे जो आपकी ओर बिलकुल खिंचे चले आएँगे, और कुछ होंगे जिनपर आपका कोई प्रभाव ही नहीं पड़ेगा। बात साफ़ हो गई।

आप चुंबक नहीं हैं, आप भी अगर लोहे ही हैं तो कुछ पता नहीं चलेगा किससे बात करें किससे नहीं। फिर आप तुक्के मारेंगे। फिर आप दस लोगों से बात करेंगे तो उसमें से कोई एक बस यूँ ही संयोगवश पात्र निकल आएगा, उसके साथ बात बन जाएगी, नौ अवसरों पर आपका प्रयत्न व्यर्थ जाएगा। आपकी हस्ती में कुछ ऐसी बात हो न कि कोई खिंचे आपकी ओर। कोई आपको देख के दूर से ही वापिस न मुड़ जाए। आप एक भीड़ के बीचोंबीच खड़े हो, आप बाज़ार में खड़े हो न? जब आप ये पुस्तक स्टॉल लगाते हो तो आप एक बाज़ार में खड़े हो, है न? बाज़ार में भीड़ है, आप उसी भीड़ जैसे ही हो तो कोई आप पर क्या ध्यान देगा?

आपका एक पोलराइज़िंग इफेक्ट (ध्रुवीकरण प्रभाव) होना चाहिए कि आप पहुँचे नहीं कि भीड़ दो धाराओं में विभक्त हो गई—कुछ जो आपकी ओर खिंचने लगे और कुछ जो आपसे कटने लगे, दूर-दूर रहने लगे। हाँ, एक तीसरी श्रेणी भी ज़रूर होगी कि जिनपर आपका कोई असर ही नहीं पड़ रहा। वो अंधे हैं, उन्हें कुछ दिख नहीं रहा, उनकी बात नहीं करनी।

आप जो पुस्तक वहाँ वितरित करने गए हो, आपके व्यक्तित्व को उसका जीवंत प्रमाण होना होगा। एक समय था जब प्रतिदिन चार, छह, आठ स्टॉल भी लगा करते थे। दो-चार अलग-अलग शहरों में भी लगा करते थे। तो मैं कहता था कि—लेने वाला तुमसे तुम्हारी किताब नहीं लेता, किताब तो उसने पढ़ी ही नहीं, उसे किताब का क्या पता अभी? लेने वाला तुमसे तुम्हें लेता है। वो तुम्हें देखकर किताब लेता है। तुम जैसे हो, उसी अनुसार वो किताब के भी महत्व का, और गहराई का निर्धारण कर लेता है। तुम्हारी शक्ल को किताब का सार होना चाहिए। तुम्हारे चेहरे पर पुस्तक का अर्थ छपा हुआ होना चाहिए। तुम्हारी आँखों में उस पुस्तक का प्रकाश होना चाहिए। तब जो आया है तुम्हारे स्टॉल पर, वो समझ जाएगा कि अगर देनेवाला ऐसा है तो देय वस्तु भी अच्छी ही होगी। वो कहेगा कि जब विक्रेता ऐसा है तो विक्रीत वस्तु भी बुरी नहीं हो सकती। जब दाता ऐसा है तो दान में भी कुछ गुणवत्ता होगी। यहीं से दूध का दूध, पानी का पानी होगा।

आपको परीक्षा-पत्र बनना पड़ेगा। पको बाज़ार के बीचोंबीच खड़े हो जाना पड़ेगा क्या बनकर? प्रश्न-पत्र। “आओ मेरे सामने आओ, मुझे हल करो”। कुछ होंगे जो कहेंगे, “हाँ, हल करना है, आ रहे हैं”। कुछ होंगे जो आपकी शक्ल देखकर दूर से भाग जाएँगे। कुछ होंगे जिनको समझ में ही नहीं आएगा कि आप प्रश्न-पत्र हैं, उनको छोड़िए।

इसलिए आध्यात्मिक स्वयंसेवक को कभी अपनी पहचान छुपानी नहीं चाहिए।

तुम्हारी पहचान ही तो वो कसौटी है जिसपर दुनिया कसी जाएगी।

तुमने अगर अपनी पहचान छुपा ली जनता के बीच, सार्वजनिक जगहों पर, तुम अगर अपनेआप को जनता जैसा ही प्रदर्शित करने लग गए तो जनता की परीक्षा कैसे होगी भाई? बोलो?

तुममें से कौन साहसी है और कौन नहीं, इसका कुछ पता चल जाएगा न अगर अभी यहाँ पर एक साँप घुस आए? अभी कुछ दिन पहले घुसा था आश्रम में एक मस्त नाग, उससे हमें कुछ पता चला लोगों के बारे में। अब नाग महाराज भी अगर इच्छाधारी हों, हिंदुस्तान है, और वो भी यहाँ पर तुम्हारी ही तरह सफ़ेद कुर्ता पहनकर बैठ जाएँ तो किसी की क्या परीक्षा होगी, कि होगी? तुम भी मस्त, नाग भी मस्त।

आपमें दम कितना है, आप किस धातु के बने हो, ये तो तभी पता चलेगा न जब नाग, नाग की तरह ही सामने आए, अपनेआप को छुपाए नहीं। तो मेरे स्वयंसेवकों को भी नाग बनकर ही अपनेआप को दिखाना होगा। छुपाके काम नहीं चलेगा। तुम अपनेआप को छुपा लोगे तो तुम्हें नहीं पता चलेगा कि लोग कैसे हैं। और ये बड़ी विचित्र बात हो गई क्योंकि लोग तो वैसे ही घूम रहे हैं जैसा होने की उनको शिक्षा दी गई है। जैसे वो प्रशिक्षित और संस्कारित हैं। उनकी तो मजबूरी है कि वो और कोई तरीक़ा जानते ही नहीं जीने का, चलने का, खाने-पहनने का। आप तो जानते हो, उसके बाद भी आप जनता के बीच जनता जैसा ही आचरण क्यों कर रहे हो? क्यों नहीं अलग हो? अलग हो तो दुनिया तुम्हें देख के थोड़ा चौंकेगी, चौंकेगी न? जब चौंकेगी तो तुम्हें पता चल जाएगा कौन कैसा है।

अभी पंजाब के एक बड़े विश्वविद्यालय में हमारा कई महीनों लंबा कार्यक्रम चल रहा है। वहाँ विशाल जी बैठे हैं, जाते हैं। और कौन जाता है? अखिल यहाँ है नहीं, कहाँ है अखिल? अब आम तौर पर किसी यूनिवर्सिटी के शिक्षक या प्रोफेसर की तुम कैसी पोशाक की कल्पना रखते हो, हाँ? और ये लोग क्या पहनकर जाते हैं? क्या पहनते हैं विशाल जी? ये धड़ल्ले से रंग-बिरंगे कुर्तों में जाते हैं। उसका लाभ है। अभी ये क्या बन गए? ये कसौटी बन गए। ये एक तरह का प्रश्न-पत्र बन गए। कुछ होंगे जो उनको देखकर ही बिदक जाएँगे कि यूनिवर्सिटी में ये कौन घुस आया। दूसरे होंगे जो कहेंगे, “कुछ बात है। कुछ बात है। कुछ तो अलग हुआ यहाँ पर।” और फिर ये ढकोसला नहीं कर रहे, ये वही कर रहे हैं जो इन्हें करना है, जो बात इनकी आत्मा से उठ रही है। यहाँ कौन घूमता है भाई सूट-बूट में? संस्था में कौन है जिसको बड़ा आनंद रहता है कि ट्राउज़र्स ही पहनने हैं और शर्ट ही पहननी है, कौन है ऐसा? कभी-कभार पहन लेते होंगे, नहीं तो नहीं।

तो जब हम आमतौर पर ढीले-ढाले वस्त्रों में ही रहते हैं यहाँ पर, तो वहाँ जब हम विश्वविद्यालय में जा रहे हैं छात्रों के सामने तो वहाँ हम काहे के लिए पहनें टाई और ये और वो? मैं ख़िलाफ़ नहीं हूँ, कभी पहन लो शर्ट वगैरह भी इच्छा हो तो, ठीक है। लेकिन तुम्हारी हस्ती अगर असली है तो तुम्हारी हस्ती ही तुम्हारे लिए सही-ग़लत का निर्धारण कर देती है।

कहीं भीड़ बहुत हो, वहाँ बीच में से एक साइकिल निकल रही हो, तो साइकिल वाला ‘पों-पों’ करके ऐसे बजाएगा, घंटी मारेगा, “ए माई रास्ता देना। बाबू सड़क छोड़ के,” करेगा? और भीड़ बहुत हो और ट्रक आ जाए तो रास्ता अपनेआप खाली हो जाता है। तुम्हारी हस्ती ही ऐसी हो कि लोग समझ जाएँ कि तुम कौन हो। लोग समझ गए कौन है।

और ये हस्ती, मैं फिर कह रहा हूँ, तुमने कृत्रिम रूप से धारण नहीं करी है, तुम नाटक नहीं कर रहे हो। साइकिल के ऊपर तुमने ट्रक का कार्ड-बोर्ड का मॉडल नहीं बैठा दिया है। तुम ट्रक हो, और तुम ट्रक हो अगर तो तुम्हें भीड़ में हॉर्न नहीं बजाना पड़ेगा। हॉर्न छोड़ दो, तुम ट्रक हो अगर तो भीड़ में तुम ब्रेक भी मार दोगे तो भीड़ भाग जाएगी। ट्रक का ब्रेक सुना है कैसा होता है? हाइड्रोलिक होता है जिसमें से 'फिस्स' की आवाज़ आती है। उतने से ही सौ-मीटर आगे तक जान सूख जाती है कि कौन सा दैत्य है पीछे, फुँकार रहा है।

अब कुछ समझ में आ रहा है कि भारत में तुमने क्यों देखा कि जानने वालों ने, साधुओं ने कभी भगवा धारण किया, कभी सफेद धारण किया? पहली बात तो उनका आम पोशाकों से दिल उठ गया था। दिल ही उठ गया था। ऐसा नहीं था कि उन्होंने कृत्रिम तरीक़े से बनावट के लिए सफ़ेद धारण किया। उनका मन उठ गया था कि ये क्या रंगबिरंगा तुम? हमें दे दो। कभी काला भी धारण करा है। सब कुछ रहा है। लेकिन जिसने जो धारण करा है वो बात असली रही है उसकी।

और केश अक्सर बड़े होते थे। कभी केश बिलकुल साफ़ होते थे, सर घुटा रखा है, कभी दाढ़ी बड़ी होती थी, कभी बिलकुल साफ़ होती थी। वो जैसे भी होते थे, उनकी हस्ती उनकी आंतरिकता का प्रमाण होती थी। उन्होंने छुपाया नहीं कि अंदर से कुछ और हैं, लेकिन बाहर से तो हम जनमानस की तरह ही बिलकुल सामान्य बनकर जिएँगे। उन्होंने कहा, “अब अंदर से जैसे हो गए हैं, बाहर भी उस बात को छुपाएँगे नहीं। जब भीतर से ही अब हम रंगीले राजा नहीं रहे तो बाहर हम क्या आम लोगों की तरह पचास रंगों का प्रदर्शन करें? हम एक रंग, दो रंग में अब तृप्त हैं। वो रंग कोई भी हो सकता है।”

अलग-अलग पंथों, समुदायों, अलग-अलग मन के लोगों ने अलग-अलग रंग भी चुन लिए। कोई बात नहीं, लेकिन उन्होंने कभी ऐसा नहीं करा कि वो आम जनता की तरह दिखने की कोशिश करें। बात समझ में आ रही है?

आध्यात्मिक पथ पर जो आदमी लगा है वो बड़ी से बड़ी भूल ये कर सकता है कि वो कहे कि मैं तो आम लोगों जैसा ही दिखूँगा क्योंकि आम लोगों जैसा दिखने में, भीड़ का हिस्सा होने में सुरक्षा लगती है। “मैं ये नहीं दिखाऊँगा कि मैं अलग हो गया हूँ। मैं दो नावों पर एक-एक पाँव रखकर यात्रा करूँगा। मैं पचास-पचास खेलूँगा। मैं जब बाज़ार में रहूँगा तो मैं ऐसे कपड़े पहन लूँगा कि लगे कि मैं बिलकुल बाज़ार का ही हूँ। मैं दफ़्तर में रहूँगा तो मैं बिलकुल दफ़्तर जैसा ही सब धारण कर लूँगा। और मैं जब अध्यात्म में आऊँगा तो वहाँ मैं कुछ सफ़ेद इत्यादि धारण कर लूँगा”। नहीं, ये बड़ी से बड़ी भूल है जो तुम अध्यात्म में कर सकते हो और इस भूल का आप बहुत दंड भी भुगतते हैं।

दंड मैं बता देता हूँ कैसे भुगतते हैं। समझिएगा। यहाँ आप वैसे हैं जैसा आपको लगता है कि इस जगह की माँग है, है न? आप यहाँ से बाहर निकलेंगे, दफ़्तर चले जाएँगे या घर चले जाएँगे, वहाँ आप वैसे हो जाते हैं जैसा आपको लगता है कि वहाँ की माँग है। अब थोड़ा सा उस बेचारे के मन में जाइए जो आपसे आपके घर में या दफ़्तर में मिल रहा है। मान लीजिए आप यहाँ आए हैं और आपने अपनी पत्नी को, या अपने भाई, या अपने माँ-बाप को इस विषय में ज़्यादा सूचना इत्यादि नहीं दी है, बताया नहीं है और दफ़्तर में आपने अपने सह-कर्मियों को, अपने वरिष्ठों को ज़्यादा कुछ बताया नहीं है।

आप जब घर जाओगे तो घर में आप कैसे हो जा रहे हो? बिलकुल घरवालों जैसे। तो घरवालों बेचारों को क्या लग रहा है? कि आप तो उन्हीं के जैसे हो। अब बात ये है कि अंदर ही अंदर आप थोड़े इधर के भी हो चुके हो। उनको यही लगता रहेगा आप उन्हीं के जैसे हो। जब उनको यही लगता रहेगा कि आप उन्हीं के जैसे हो तो फिर वो आपसे यही चाहेंगे न कि आप उनकी सब माँगे भी पूरी करो? उनको आप ये खबर ही कहाँ लगने दे रहे हो कि आप कुछ और हो चुके हो? उनके सामने आप कैसे बन जा रहे हो?

शादी, ब्याह, पार्टी इत्यादि में आप जब जाते हो तो आप बिलकुल उसी माहौल के हो जाते हो। आपमें से कई लोग शादियों में झूमने लग जाते होंगे, कई लोग जाम भी छलकाने लग जाते होंगे। तो वहाँ के लोगों को लग रहा है—आप खन्ना साहब हैं, मान लीजिए, कि खन्ना तो बिलकुल हमारे ही जैसा है। अब एक दिन उनको पता चले कि खन्ना तो अध्यात्म में रुचि रखता है और ग्रेटर-नोएडा के किसी जंगली इलाके में बीच में आधी रात को जाया करता है, सत्संग-वत्संग सुनने, तो उन बेचारों को तो झटका ही लग जाएगा न? और उनको ये जो झटका लगा, उसके ज़िम्मेदार कौन हैं? आप खुद। क्योंकि आप उनके सामने कैसे बने रहे? आप उनके जैसे बने रहे।

अब जब उनको पता लगेगा कि यहाँ निर्जन बीहड़ में तुम आधी रात को बैठे श्रीमद्भगवदगीता का पाठ कर रहे हो, तो उनको तो दिल का दौरा आना ही आना है। कहेंगे, "खन्ना बेचारा! किसी तांत्रिक ने कुछ मार दिया, कुछ टोना-वगैरह।" और ये सब क्यों हो रहा है? क्योंकि वहाँ पर तुमने अपनी असलियत ज़ाहिर नहीं होने दी। इतना ही नहीं, तुमने यहाँ पर भी अपनी असलियत नहीं ज़ाहिर होने दी। यहाँ तुम आए तो तुम यहाँ जैसे हो गए, गिरगिट की तरह। वहाँ तुम गए तो तुम वहाँ के जैसे हो गए। तुम दोनों तरफ़ से मारे जाओगे—माया मिली न राम।

किसने लिखकर भेजा था इसमें?

(प्रश्नकर्ता हाथ उठाए हुए)

अरे ल्यो, ये तो गड़बड़ हो गई! मुझे कैसे पता चला? कहीं के नहीं बचे न? यहाँ आओगे मुझसे झाड़ खाओगे; घर जाओगे बीवी से झाड़ खाओगे। यहाँ अधिकांश लोगों की यही हालत है। यहाँ मैं झाड़ता हूँ कि पूरी तरह यहाँ के क्यों नही हो, घर पर बीवी झाड़ती है कि पूरी तरह वहाँ के क्यों नहीं हो। तुम कहाँ के हो ये तुम्हें खुद ही पता नहीं। तुम वहाँ के हो जहाँ पर अभी तुम हो। जब यहाँ हो तो यहाँ के हो, जब वहाँ पे हो तो वहाँ के हो—ऐसे काम नहीं चलता।

भीड़ को बदलने की तमन्ना ही छोड़ दो अगर तुम्हें भीड़ से डर लगता है और अगर तुम भीड़ में घुल-मिलकर भीड़ जैसे ही हो जाते हो। छोड़ दो तमन्ना। तुम में किसी को कुछ अलग दिखेगा तब तो वो तुम्हारी पुस्तकों की ओर आकर्षित होगा न? और वो कहे कि तुम भी बिलकुल उसके चुन्नू भैया जैसे ही हो, तो वो तुम्हारी किताबें क्यों ख़रीदेगा, बताओ मुझे? तुम में कुछ अलग दिखे कि न दिखे, पर अलग दिखने से खूब घबराते हो, कहते हो, “नहीं, अगर हम अलग दिखने लगे तो फिर ये लोग हमको अपना भाई नहीं मानेंगे। अलग तो हमें दिखना ही नहीं है”। मैं फिर कह रहा हूँ: अलग ज़बरदस्ती करके नहीं दिखना है। अलग बनावट करके नहीं दिखना है। मैं कह रहा हूँ: अलग तो तुम हो न भीड़ से? अन्यथा यहाँ बैठे नहीं होते।

तो अपना ये जो असली भेद है दूसरों की तुलना में, इसको ज़ाहिर होने दो न, प्रकट होने दो न।

जब तुम्हारा हृदय गीता की ओर आकर्षित हो ही रहा है तो अपने व्यक्तित्व में भी थोड़ा कृष्ण को उभरने दो न। नहीं तो ये कैसा प्रेम है तुम्हारा कृष्ण के लिए कि दिल-ही-दिल में है और ज़बान पर कभी नहीं आता, चेहरों पर कभी नहीं आता, हस्ती में, बोल-चाल में, कपड़ों में, केशों में कभी नहीं दिखाई देता—ये कैसा प्रेम है?

दुनिया भी तुम्हारी कद्र तभी करेगी जब तुम अपने प्रेम को, अपनी असलियत को ज़ाहिर करने की हिम्मत दिखाओ।

बाज़ार में अगर खड़े हो और तुम्हारा चाल-चलन, तुम्हारा व्यक्तित्व ही गवाही दे रहा है कि ये आदमी साधारण नहीं है, ये आदमी कुछ अलग है, तो लोग अपनेआप आएँगे तुम्हारे स्टॉल की तरफ़। और जब तुम्हारी ओर आएँ तो फिर तुम्हारी भाषा भी थोड़ी अलग होनी चाहिए न? या आएँगे तुम्हारी ओर, तुम बोलोगे, “हाय, हाउ डू यू डू? आय एम नाउ गोइंग टु शो यू सम नाइस गुडीज़, थिंगज़ ( हेलो, तुम कैसे हो? मैं तुमको कुछ अच्छी चीजों को दिखाने जा रहा हूँ)” वो कहेंगे, “भक्क, हमको यही भाषा सुननी है तो हम जाकर वुडलैंड के जूते नहीं ख़रीदें?” पर हम सोचते हैं कि ‘कूल’ बनकर के हमारा काम चल जाएगा।

हम डरे हुए लोग हैं। हम में हिम्मत ही नहीं होती कि साफ़-साफ़ खुलकर दिखा सकें कि हम कौन हैं।

हम आतंकवाद की बात करते हैं, सबसे ज़्यादा आतंकित तो हम अपने आस-पास के लोगों से हैं। बताइए, आतंकवादी कौन फिर? आप थोड़ा अपनी दाढ़ी बढ़ाकर देखिए, आतंकवाद। चार लोग आएँगे और कहेंगे, “ये क्या है? दाढ़ी कैसे बढ़ाई? चलो काटो, अभी काटो”। और फिर हम बात करते हैं मानवाधिकारों की। सच तो ये है कि आपके घर में ही आपके मानवाधिकारों का उल्लंघन होता है। हिम्मत हो तो घर पर भगवा पहनकर दिखा दो, फिर हम देखें तुम्हारी ‘ह्यूमन राइट्स’। ऐसा पीटे जाओगे कि पूछो मत। और हम बात करते हैं कि सड़क पर हमारे मानवाधिकारों का उल्लंघन होता है, ये होता है, वो डराता है।

सबसे ज़्यादा डरे तो हम अपने स्वजनों और मित्रों से हैं। जो लोग कहते हैं कि वो बड़े ‘ओपन माइंडेड और फ्लेक्सिबल ऑर्गनाइजेशंस’ में काम करते हैं… जो नई कम्पनियाँ हैं वो अपनेआप को इसी रूप में प्रचारित करती हैं, “क्या हैं हम? ओपन माइंडेड एंड फ्लेक्सिबल”। वो कहते हैं, “हमारे यहाँ साहब कोई ड्रेस-कोड वगैरह नहीं है”। इससे उनका आशय है कि आपको फॉर्मल शर्ट और ट्राउज़र में आने की ज़रूरत नहीं है, आप टी-शर्ट और जीन्स में भी आ सकते हो। जब कोई कंपनी कहे कि देखिए हम तो बहुत ओपन माइंडेड हैं, फ्लेक्सिबल हैं, वर्क ऑवर्स भी हमारे यहाँ फ्री हैं, आप वर्क फ्रॉम होम (घर से काम) भी कर सकते हैं बीच-बीच में चाहें तो, जब कोई संस्था इस तरह की बात करे—या ज़्यादातर इस तरह की जो ‘न्यू-एज’ इंडस्ट्रीज़ हैं उन्हीं में होता है, आईटी, आइटेस—तो उनका सोचना ये होता है कि अगर हम कहेंगे कि फॉर्मल शर्ट और ट्राउज़र नहीं पहनना है तो ये अधिक-से-अधिक क्या करेगा, हाँ? तुम पर्दनी में जाओ फिर देखो वो कितने ओपन माइंडेड हैं। पर्दनी समझते हो? कई तो समझते भी नहीं होंगे। पर्दनी क्या होती है? कौन जानता है पर्दनी?

अब जो जानते नहीं उनको मैं समझा नहीं सकता। बड़ा मुश्किल है समझाना। समझ लो वो लुंगी से भी ज़्यादा जटिल होती है। भई, आपने यही तो बोला कि यहाँ पर कोई ड्रेस कोड नहीं है? तो ठीक है, हम आ जाते हैं लुंगी में। फिर देखो कि ड्रेस कोड है कि नहीं। घोर आतंकवाद है! उसके बाद वो तुमसे कुछ कहेंगे नहीं, पर उनकी आँखें तुम्हें आतंकित कर देंगी क्योंकि उन आँखों में बड़ा आतंक भरा होगा।

मैं हमेशा से हिंदी में हस्ताक्षर करता था। और जितने सालों मैंने कॉरपोरेट में नौकरी की, कई दफे उस वजह से ही नौकरी जाने की नौबत आ गई। कोई कहे कि, “ये तुम क्या करना चाहते हो, क्या बताना क्या चाहते हो, यू वांट टु प्रूव ए प्वाइंट? (आप एक तर्क साबित करना चाहते हैं?),” मैंने कहा, “नहीं भाई, ये मेरा नाम है।”

“यू वांट टु स्टैंड आउट? (आप अलग दिखना चाहते हैं?)”

“नहीं भाई, सिर्फ़ अपना नाम लिख रहा हूँ अपनी मिट्टी की लिपि में, ‘प्रशांत’। क्या आपत्ति है?”

और जब कंसल्टिंग में गया तब तो पूछो मत। वो बहुत सूडो (दिखावटी) नौकरी होती है। सूडो समझते हो?

(श्रोतागण 'न' जताते हुए)

बहुत आध्यात्मिक ही रह गए! सूडो मतलब, चलो तुम्हारे लिए, सॉफिस्टिकेटेड—सॉफिस्टिकेटेड नहीं, वास्तव में नकली सॉफिस्टिकेशन। तो वहाँ तो मैं पहुँचा तो मुझे बाक़ायदा समझाया गया कि, “देखो भई, हम अपने क्लाइंट्स से बहुत मोटी बिलिंग करते हैं और तुम्हारी भी बहुत मोटी बिलिंग होने जा रही है। अब उनके सामने अगर तुमने हिंदी में दस्तख़त कर दिए तो बड़ी दिक्कत हो जानी है। तो तुम एक काम करो, ये कोई लीगल डॉक्यूमेंट वगैरह तो है नहीं, वहाँ जहाँ भी साइन करना ऐसे ही कोई फ़र्ज़ी अंग्रेज़ी में कुछ कर देना।”

मैंने कुछ कहा नहीं, मैंने बस देखा। तो तीस सेकंड बाद वो बोलता है, “जस्ट जोकिंग (सिर्फ मज़ाक कर रहा था)”।

(श्रोतागण हँसते हुए)

डरते क्यों हो अपनी असलियत ज़ाहिर करने से, क्यों डरते हो? तुम वही दिखाओ जो तुम हो। उसके बाद सही लोग अपनेआप तुम्हारे पास आएँगे और बड़ी-से-बड़ी राहत तुम्हें ये मिलेगी कि व्यर्थ के लोग अपनेआप तुमसे दूर हो जाएँगे। तुम चोरों के बीच चोर जैसा आचरण करोगे तो वो चोर सब तुमसे लिपटे ही रहेंगे न? अगर तुम चोर हो नहीं तो चोरों के बीच चोरों जैसा आचरण क्यों कर रहे हो? अगर तुम मूर्ख हो नहीं, तुम पार्टीबाज़, शादीबाज़ मूर्खों के बीच मूर्खों जैसा आचरण क्यों करने लग जाते हो? मुझे बताओ।

ये जितना तुमने अभी यहाँ पर बोध जागृत करा है, ये जितना भीतर प्रज्ञान अभी उमड़-घुमड़ रहा है, ये शादी-ब्याह में कहाँ खो जाता है? वहाँ तो तुम भी शेरवानी डालकर के और वही 'खन्ने'! जब तुम वहाँ उन्हीं जैसा आचरण करोगे तो वो तुम्हें घेरे ही रहेंगे न—घेरे रहेंगे या नहीं रहेंगे? वहाँ अगर तुम्हें उनसे मुक्त होना है तो बहुत आसान है, एक-दो-आधी समझदारी की बातें कर दो, वहाँ से पूरी भीड़ तुम्हारे आस-पास से ऐसे ग़ायब होगी जैसे गधे के सर से सींग।

मूर्खों के बीच फँसे हो तो ये थोड़ी करना है कि डंडा चलाना है, एकाध-दो समझदारी की बातें कर दो, वो बिलकुल विलुप्त हो जाएँगे। चमत्कार, कहाँ गए? बुलाए नहीं आएँगे।

कहो, बुलाओ, “आ जाओ, आ जाओ” “अरे! आपके पास आते हैं तो उतर जाती है”

और खन्नवा तो बिलकुल नहीं आएगा, सीधे भागेगा डांस-फ्लोर की तरफ़।

तुम बड़ी असंभव माँग करते हो। तुम कहते हो, “संसार जैसा भी बने रहना है, संसार में भी लिप्त रहना है और भीतर-ही-भीतर आध्यात्मिक भी रहना है”। ऐसे नहीं होता भई। मैं बैनर-पोस्टर लगाने को नहीं कह रहा, मैं लाउडस्पीकर पर घोषणा करने को नहीं कह रहा, पर कम-से-कम बात को छुपाओ मत। बात को नगाड़ा बजा-बजाकर के गाने की ज़रूरत भले न हो, पर छुपाने की भी ज़रूरत है क्या? छुपा काहे रहे हो?

छुपाओ नहीं, काम अपनेआप हो जाएगा। क्यों हो जाएगा? वो भी बताए देता हूँ। बहुत हैं जो खोज रहे हैं किसी असली आदमी को। सच तो ये है कि हर आदमी में एक खोज होती है किसी दूसरे असली आदमी की, होती है कि नहीं? अब दिक्कत सारी ये है कि जो असली आदमी है, उसको शर्म आती है अपने असली होने पर, तो वो अंदर-ही-अंदर भले ही थोड़ा असली हो जाए, बाहर-ही-बाहर नकली नकाब ओढ़े रहता है। तो असलियत को खोजता हुआ कोई आ भी जाए तो तुम्हें पहचानेगा कैसे? कोई घूम रहा है बाज़ार में, जिस बाज़ार में तुमने स्टॉल लगाया है, कोई उस बाज़ार में घूम रहा है और कहीं-न-कहीं उसे ये विचार है कि कुछ असली मिले तो उसकी ओर जाऊँ। वो कैसे आएगा तुम्हारी ओर अगर तुमने अपनी असलियत पर पर्दा डाल रखा है?

तो नकली बने रहकर के तुम उनको अपनेआप से दूर कर देते हो, अवरुद्ध कर देते हो जिन्हें असलियत की तलाश है। और ऐसे बहुत हैं, तुम्हें पता नहीं चल रहा होगा, ऐसे बहुत हैं। तुम्हें पता क्यों नहीं चल रहा होगा कि कुछ लोग हैं जो असलियत को खोज रहे हैं? क्योंकि वो भी बाहर-बाहर से नकली हैं। बाहर-बाहर से सब नकली हैं, अंदर-ही-अंदर सब खोज रहे हैं किसी असली को।

असली जो है वो पता कैसे चलेगा जब बाहर-बाहर सब नकली बने बैठे हो? तो कोई चाहिए न जो खुलकर सामने आए और कहे, “हाँ भई, यहाँ खेल असली है, आ जाओ।” तुम खुलोगे नहीं तो कोई कैसे आएगा तुम्हारी ओर? तुम खुलोगे नहीं तो यही सब नकली आते रहेंगे तुम्हारी ओर।

अध्यात्म सिर्फ़ आंतरिक मौन का नाम नहीं है—आंतरिक मौन तो आवश्यक है ही कि मन शांत है, मौन है—बाहरी तल पर शेर की गर्जना भी है अध्यात्म; भीतर मौन और बाहर दहाड़। ये ग़जब मत कर देना कि अध्यात्म का मतलब तो मौन होता है न तो हम कभी इन होठों से बताएँगे नहीं कि हमें कृष्ण पसंद हैं। अध्यात्म माने तो मौन होता है न जी?

ये मौन नहीं है, ये ख़ौफ़ है। तुम्हें डर लगता है अपनी असलियत ज़ाहिर करने से। तो मौन, मौन करते-करते बिलकुल ही पंगु, कायर, नपुंसक मत हो जाना कि दहाड़ने की ताक़त ही खो बैठे। क्यों? क्योंकि हम मौन के पुजारी हैं। मौन हृदय में ही शोभा देता है, जीवन में कहाँ मौन? जीवन में तो कर्म है, गति है, घर्षण है, संघर्ष है, तरह-तरह की तरंगें हैं और शब्द हैं। संसार में मौन कहाँ? संसार में मौन मत हो जाना; हृदय में मौन रहना—वो अच्छी बात है। संसार में तो बिलकुल दहाड़ती हुई घोषणा करना जानो।

ऋषीकेश में एमडीटी होता था तो उसमें एक आया करे अँग्रेज़—ब्रिटिश नहीं था, यूरोपियन था, सबको हम अँग्रेज़ ही बोलते थे—तो वो सर घुटा के, पीछे चुनई बढ़ा के और खूब चंदन-वंदन मल के आए, टीका-वीका करके। अच्छी बात है। दो ही चार दिन आया। दो ही चार दिन क्यों आया? अभी पता चलेगा।

तो आए और बैठे और बिलकुल कपड़े-वपड़े भी उसने बिलकुल धारण कर लिए थे जोगियों-सन्यासियों वाले। तो एक दिन हुआ, “चलो, अब आज गंगा नहाएँगे, आज सत्र के बाद जितने बैठे हैं”। वो सब यूरोपियन ही होते थे, यूरोपियन-अमेरिकन। “चलो, आज गंगा नहाएँगे”।

माहौल तीन साल पहले का। तो उसको लेकर के गए, और लोग भी गए थे तो वहाँ नहाने के लिए कपड़े उतारे गए, और जब कपड़े उतारे गए तो उसके ऊपर से लेकर नीचे तक टैटू ही टैटू। और टैटू भी सारे बिलकुल ज़बरदस्त तरीक़े के, कि छाती पर कुछ बनवा रखा है, नाभि पर कुछ बनवा रखा है, जांघों पर, नितम्बों पर, सब पर उसने टैटू छपवा रखे थे।

तो पूछा, “ये क्या है?”

बोला, “ये रात वाले सत्र के लिए होता है”। बोलता है, “यहाँ ऋषीकेश में दो तरह के सत्र चलते हैं। दिन में आध्यात्म वाले और रात में गाँजे वाले।” तो बोल रहा है, “मैं दोनों जगह को बिलॉन्ग (संबंधित रहना) करता हूँ न। मैं जब सुबह वाला होता है तो उसमें मैं चंदन-वंदन लगा लेता हूँ और ये सब कर लेता हूँ, कपड़ा पहन लेता हूँ। रात वाले में जब जाता हूँ तो कपड़े उतार देता हूँ और तब 'ये' है पूरा।” और उसमें साँप बने हुए हैं, दुनिया भर का कार्यक्रम लगा रखा है उसने। फिर वो आया भी नहीं उसके बाद।

तो ऐसा हमारा जीवन है।

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