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लेख
अनुकम्पा का क्या अर्थ है? || आचार्य प्रशांत (2015)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
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प्रश्न: व्हाट इज़ ग्रेस? (अनुकम्पा का क्या अर्थ है?)

वक्ता: आप ही बताइये, व्हाट इज ग्रेस? व्हाट इज़ ग्रेस? *(* सामने बैठे कुछ श्रोताओं की ओर इंगित करते हुए) ये लोग बतायेंगे, स्टूडेंट्स, अभी एग्जाम (परीक्षा) की बात चल रही है। एग्जाम में ‘ग्रेस’ शब्द आता है कहीं पर?

श्रोता १: ग्रेस मार्क्स (रियायती अंक)।

वक्ता: ग्रेस मार्क्स। ग्रेस मार्क्स (रियायती अंक) में, और जो तुम्हारे नॉर्मल मार्क्स (साधारण अंक) होते हैं, उनमें क्या अंतर होता है?

श्रोता २: नॉर्मल मार्क्स में वो मिलता है, जो आप डिज़र्व करते हो, जिसके आप योग्य होते हो।

वक्ता: जो आप डिज़र्व करते हो।

श्रोता ३: और ग्रेस में उससे ज़्यादा मिलता है।

वक्ता: डिज़र्व ना बोलो, बोलो जो तुमने अर्न (अर्जित) किया होता है। नॉर्मल मार्क्स (साधारण अंक) क्या होते हैं?

श्रोता २: जो अर्न (अर्जित) किया होता है।

वक्ता: और ग्रेस (रियायती) कौन से होते हैं?

श्रोता १: जो अपने आप मिलते हैं।

श्रोता३: देने पड़ते हैं, बिना माँगे टीचर दे देता है।

वक्ता: टीचर क्या ग्रेस सब को दे देता है? दो जने हैं, मान लो तीस अंकों पर उत्तीर्ण होना है, दोनों के सत्ताईस-सत्ताईस अंक आए हैं, ठीक है? दोनों ने अर्जित कितने किये हैं?

श्रोतागण: सत्ताईस।

वक्ता: दो में से एक को टीचर दे देता है तीन अंक ग्रेस, और एक को नहीं देता। किसको देता है? किसको नहीं देता है?

श्रोता १: जो डिज़र्व करता है, जो लायक होता है।

श्रोता २: मेहनत के आधार पर।

वक्ता: सत्ताईस तो इस बात के मिलते हैं कि तुम्हें ज्ञान कितना है, वो तुमने अर्जित किया है, तुम्हारा ज्ञान। तीन किस बात के मिले? और याद रखना तीन अंक दोनों को नहीं मिले। एक को मिले, एक को नहीं मिले। तीन किस बात के मिले? ज्ञान के मिले? तीन किस बात के मिले?

श्रोता १: यह देखकर कि उसका कक्षा में व्यवहार कैसा है।

वक्ता: घटिया टीचर होगा तो व्यवहार देखेगा। गुरु है, तो वो किस बात के तीन अंक देगा?

श्रोता ३: ईमानदार कितना है, मतलब नकली उत्तर नहीं लिख रहा वो, बना-बना कर।

वक्ता: तुम क्या हो, उसको तुम उसकी ह्यूमिलिटी (विनम्रता) बोल लो, ऑनेस्टी (ईमानदारी) बोल लो, सिंसेरिटी (निष्ठा) बोल लो, जो भी बोल लो। कक्षा का माहौल है, तो शायद ‘सिंसेयरिटी’ शब्द उपयुक्त है। जीवन है तो ‘ऑनेस्टी’ और ‘ह्यूमिलिटी’ उपयुक्त है। बात समझ में आ रही है? ग्रेस समझ में आ रहा है, क्या है? ‘ग्रेस’ वो है जो तुमने अर्जित नहीं किया, लेकिन फिर भी तुम्हें मिलता है, इस पर निर्भर करते हुए कि तुम क्या हो? तुम क्या हो ?

तो डिज़र्व तुम ग्रेस भी करते हो, पर अर्न नहीं करते। ग्रेस सबको नहीं मिल जाती है। ग्रेस कोई रैंडम, एकाएक घटना नहीं है कि यूँ ही मिल जाएगी। टीचर भी सबको दे देता है क्या ग्रेस मार्क्स? ये भी हो सकता है कि कोई आधे नंबर से फेल हो रहा हो, ना दे। हो सकता है कि नहीं हो सकता? “साढ़े उन्तीस अंक हैं, लेकिन तुझे तो नहीं मिलेगा।”

वो हो सकता है किसी को छब्बीस पर भी चार अंक दे दे। तुम क्या हो? – उसके बाद अब ये बात गौण हो जाती है, महत्त्वहीन जाती है कि – दुनिया में तुम्हारे कर्म कैसे बैठे, दुनिया में तुम्हारे कर्म कैसे बैठे। तुम बहुत सच्चे थे, बहुत ईमानदार थे, लेकिन हो सकता है कि तुम्हारे सौ में से छब्बीस नंबर ही आए। संभावना है, कम संभावना है, लेकिन संभावना है। तुम्हारी पूरी निष्ठा के बावजूद तुम छब्बीस पर अटक गए, बिल्कुल ऐसा हो सकता है। बार-बार नहीं होगा, पर कभी-कभी तो हो ही सकता है।

ठीक इसी तरीके से भीतर से साफ़-सुथरे, सहज, शुद्ध होने के बावजूद ये संभावना है कि कुछ परिस्थितियों में तुम्हारे कर्म ठीक ना बैठें, क्योंकि भीतर जो है, वो तो बड़ा है, पूर्ण है, असीमित है, पर कर्म रूप में उसकी जो अभिव्यक्ति होती है, वो तो सदा सीमित होती है। कोई गारंटी नहीं होती इस बात की कि उसका परिणाम कैसा आएगा। बात समझ रहे हो? ‘ ग्रेस’ वो होती है जो सभी प्रतिकूल परिणामों से तुम्हारी रक्षा करती है।

क्यों रक्षा करती है? क्योंकि तुम चले ही ‘उसके’ अनुसार होते हो। जो निष्ठावान है, या विनम्र है, वो क्यों निष्ठावान है, और क्यों विनम्र है? अपनी इच्छा से नहीं है। उसे अनुकम्पा उपलब्ध थी, और उसने नमन किया था, इसी कारण वो निष्ठावान है और विनम्र है। तो मालिक कहता है, “जब तू मेरे रास्ते पर चला, तो मेरे रास्तों पर चल कर जो परिणाम तुझे मिले हैं, उससे तेरी रक्षा करने का दायित्व भी मेरा। तू मेरे रास्ते पर चला, और सत्ताईस अटक गया, तो तीन मेरी ओर से।”

मामला इतना स्थूल नहीं है कि तुम सोचो कि, “आपके रास्ते पर चला, और पैसे कुछ काम पड़ गए, तो वो अलग से जमा करा देगा।” ये अर्थ मत निकल लेना। जब मैं कह रहा हूँ कि उसके रास्ते पर चल कर जो तुम्हें परिणाम मिलते हैं, उससे वो स्वयं तुम्हारी रक्षा करता है, तो उसका अर्थ ज़रा सूक्ष्म है। उसका अर्थ ये है कि – वो तुम्हें ऐसा बना देता है कि तुम्हें परिणामों की परवाह ही नहीं रह जाती। तो उसके रास्ते पर चलना, ‘ग्रेस’। और उसके रास्ते पर चलकर परिणामों से तुम्हें हानि नहीं होगी, ये भी ‘ग्रेस’।

परिणाम तो वही आएगा जो आना होगा। कर्मफल का सिद्धांत स्वयं परमात्मा भी नहीं तोड़ता। उसी का बनाया सिद्धांत है, वो नहीं तोड़ेगा। तो जो कर्म किया होगा, उसका फल मिलेगा, लेकिन फिर भी उस फल से उस परिणाम से तुम्हारी रक्षा हो जाएगी।कैसे? क्योंकि तुम्हारा फल पर ध्यान ही नहीं होगा। तुम्हारा ध्यान किस पर होगा?

श्रोता १: कर्म पर।

वक्ता: परमात्मा पर। समझो इस बात को। कर्म कहाँ से निकला? परमात्मा से। और हो सकता है इस दुनिया में वो कर्म उल्टा पड़ जाए। हो सकता है, क्यों नहीं हो सकता? तुम्हारा ध्यान तो परमात्मा पर था, तुमने कर्म इस दृष्टि से तो किया नहीं कि दुनिया के अनुकूल रहे। तुमने निगाह किस पर रखी कर्म करते समय?

श्रोतागण: परमात्मा पर।

वक्ता: परमात्मा पर। और कर्म कहाँ हो रहा है? दुनिया में। तो संभावना है, बिल्कुल है, कि तुम्हारा कर्म दुनिया में उल्टा पड़ जाए, फिट ना बैठे, दुनिया के अनुकूल ना बैठे, क्योंकि तुम दुनिया को खुश करने के लिए तो कर्म कर भी नहीं रहे थे। तुम कर्म किसके साथ रहते हुए कर रहे थे?

श्रोतागण: परमात्मा के।

वक्ता: तो कर्म हो सकता है ठीक ना बैठे। कर्म होगा, तो कर्मफल का सिद्धांत लगेगा। फल आएगा। पर तुम जिसकी ओर देखते हुए कर्म कर रहे थे, फिर वही उस फल से तुम्हारी रक्षा भी करेगा। कैसे रक्षा करेगा? कि जैसे तुम कर्म करते समय परमात्मा की ओर देख रहे थे, वैसे ही जब फल भी आएगा, तो तुम फल की ओर नहीं, परमात्मा की ओर देख रहे होगे। तो लो, परमात्मा की ही वजह से कर्म ऐसा हुआ था, और परमात्मा की ही ओर देखते-देखते फल से रक्षा हो गयी – यही ग्रेस है बस।

ग्रेस, सांसारिक उपलब्धि का माध्यम या आश्वासन नहीं है। जो लोग ‘कृपा’ शब्द का इतना घटिया उपयोग करते हों, वो बाज आएँ। लोग अपनी गाड़ियों के पीछे लिखवा के चलते हैं – ‘मालिक की कृपा’। संभावना ज़्यादा ये रहती है कि मालिक की कृपा हो गयी, तो गाड़ियाँ बिक जाएँगी। ग्रेस इतनी सस्ती चीज़ नहीं है कि ग्रेस होगी, तो आपके घर में एक गाड़ी और आ जाएगी। ग्रेस का अर्थ ये है कि – “अब हम ऐसे हो गये हैं कि गाड़ियाँ आएँ, या जाएँ, हमे फ़र्क नहीं पड़ता।”

बात आ रही है समझ में? और हम बहुत छिछोरे लोग हैं। कोई मिलेगा आपसे, और आप धीरे-धीरे उसे गाली दे रहे हो, और वो पूछेगा आपसे, “कैसे हो?” आप बोलोगे, “बस महाराज आपकी कृपा है।” वो एक घूम रहे हैं, उन्होंने अपनी टी-शर्ट पर लिखवा रखा है – ‘बाबे दी मेहर’। कुछ भी हो रहा है घर में, कुछ आ रहा है, कैसे आया? “बाबे दी मेहर”। गाड़ी आई – “बाबे दी मेहर”। पैसा आया – “बाबे दी मेहर”। बच्चा आया – “बाबे दी मेहर”। (हँसी) ये बहुत ओछे अर्थ हैं ‘मेहर’ के। इन शब्दों को ज़रा उसी तल पर रखा करो, जिसके ये हक़दार हैं।

मेहर, कृपा, अनुकम्पा, अनुग्रह – ये बस यही हैं कि जैसा भी रहे, जो भी रहे, हम मस्त के साथ हैं, तो मस्त हैं। सारी मस्ती कहाँ से है? मस्त के साथ से है। और उसके अलावा और कोई मस्त है नहीं। “सारा जहाँ मस्त, जहाँ का निज़ाम मस्त।” दुनिया की सारी मस्ती, उस दुनिया के निज़ाम की मस्ती से ही है। उसके साथ रहो, मस्त रहोगे। तुम्हारे पास और कोई मस्ती नहीं रह सकती।

बात आ रही है समझ में? तुम्हारे पास तो यही रहेगा, जैसे अभी हो। देखो, जिन्हें मस्ती चाहिए हो, वो मस्त के साथ रहें। जब मस्त के साथ हो, तो बाकि क्या आ रहा है, क्या जा रहा है, पता ही नहीं चलेगा। उसका ‘साथ’ ही ग्रेस है, परिणाम नहीं। कुछ और नहीं, बस साथ। हिम, नॉट व्हाट यू गेट फ्रॉम हिम (वो, न कि उससे जो मिल रहा है)।

उससे क्या मिल रहा है, ये तो पता नहीं, पर वो बड़ा मस्त है। उसके साथ होते हैं जब, तो हम भी मस्त हो जाते हैं। बाकि क्या मिल रहा है, क्या नहीं, ये तो हमने सोचा नहीं।

~ ‘शब्द-योग’ सत्र पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।

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