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लेख
"अहिंसा परमो धर्मः गलत है, हिंसा ही धर्म है" || आचार्य प्रशांत, वेदांत महोत्सव (2023)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
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प्रश्नकर्ता: नमस्ते, सर। कुछ दिनों पहले मुझे एक फॉरवर्ड (आगे बढ़ाया हुआ संदेश) आया था वाट्सएप पर तो उसमें लिखा था कि महात्मा गाँधी जी ने हम भारतीयों को एक अधूरी सीख दी थी। तो वहाँ पर लिखा था कि "अहिंसा परमो धर्म:" इस तरह की सीख दी थी और इससे नपुंसकता भर दी थी भारतीयों में। इस तरह का इल्ज़ाम लगाया था। और ये भी बोला था कि जो पूरी बात है वो नहीं बताई थी। तो इसके बाद ही शास्त्रों में जो आता है कि ‘धर्म हिंसा तथैव च’, ये भी लिखा गया है शास्त्रों में तो ये बात महात्मा गाँधी जी ने नहीं बोली।

और फिर कुछ एग्जांपल (उदाहरण) दिए थे उसी वाट्सएप फॉरवर्ड में कि जैसे गीता है तो अर्जुन युद्ध लड़ते हैं तो वो भी धर्म के लिए लड़ते हैं। फिर हमारे जो देवी-देवता हैं उनके हाथों में शस्त्र पाए जाते हैं। तो पढ़ने में वो ठीक लगी बात जो फॉरवर्ड में लिखी है, कि ये दो एग्जामपल भी हैं। तो आपसे समझना था कि कितनी सच्चाई है इस बात में।

आचार्य प्रशांत: गाँधी जी ने बचा लिया, वरना आमतौर पर आजकल जब कोई बताता है कि सर व्हाट्सऐप फॉरवर्ड आया है तो आमतौर पर यही बता रहा होता है कि वो मेरे बारे में है। जैसे ही तुमने बोला वाट्सएप फॉर्वर्ड आया था, मुझे लगा बताओगे कि आप ही के बारे में आया था। ये व्हाट्सऐप ने बड़ा बेड़ा गर्क कर रखा है, फॉरवर्ड ही फॉरवर्ड। जय हो गाँधी जी की, इस बार उनके बारे में आया है। तो क्या उनको क्या बता दिया कि कायर बना दिया पूरे देश को?

ये कहीं नहीं लिखा हुआ है, 'धर्म हिंसा तथैव च' कहीं पर भी नहीं लिखा हुआ है। और आप जाओगे ये फेसबुक, ट्विटर वग़ैरह पर वहाँ बहुत लोगों ने अपना वो डीपी और जो कवर पिक होती है वहाँ यही लगा रखी होती है 'धर्म हिंसा तथैव च।'

आपको जानकर के आनंद होगा कि ये किसी भी ग्रंथ में कहीं पर भी नहीं लिखा हुआ है। और इससे आपके रोंगटे भी खड़े हो जाने चाहिए कि ये कौनसी सेंट्रलाइज्ड कॉन्स्पिरेसी यूनिट (केन्द्रीकृत साज़िश इकाई) है जो इतनी बड़ी-बड़ी साज़िशें करती है कि जो बात धर्मग्रंथ में लिखी भी नहीं हुई है, उसको संस्कृत में लिख करके उसको चारों तरफ़ व्हाट्सऐप से और दूसरे ज़रियों से फैला देती है। ये कौन लोग हैं और ये कौनसी सेंट्रलाइज जगहें हैं जहाँ इस तरह की साज़िशें की जा रही हैं।

यह आपने भी सुना-पढ़ा होगा न ‘धर्म हिंसा तथैव च’? और कहते हैं कि गाँधी जी ने आधी बात बतायी कि "हिंसा परमो धर्म:" बाक़ी बात क्यों नहीं बतायी। अरे कहीं लिखी होगी तो बताएँगे न। और यह तुम भी जानते हो कहीं लिखी नहीं है। पर तुम्हारा बहुत ही विकृत और हिंसक और अधार्मिक दिमाग है जो कि धर्मग्रंथों से भी छेड़खानी करने में एक पल को नहीं सकुचाता। तुम्हारा अहंकार और तुम्हारा अपना एजेंडा इतना बड़ा है कि उसके लिए तुम धर्मग्रंथों को भी ख़राब कर रहे हो। जो कहीं लिखी ही नहीं है बात वो तुम बता रहे हो।

क्रोध मुझे सब पर आता है पर आमतौर पर मुझे घृणा किसी से भी नहीं होती है। क्रोध आता है थोड़ी देर, चला जाता है। उसके बाद मैं किसी को याद भी नहीं रखता कि इस पर कभी मुझे क्रोध आया। लेकिन ये लोग जो धर्मग्रंथों को ही विकृत कर देते हैं न, इनको लेकर के भीतर एक पीड़ा सी बनी रह जाती है।

ये महाभारत से है – 'अहिंसा परमो धर्म:'

आप महाभारत को नहीं छोड़ रहे हैं। और जब महाभारत की बात आती है तो तत्काल मुझे वो याद आता है जो सबसे प्रिय है – भगवद्गीता। मत करो न वहाँ ये दुराचार!

महाभारत में कुछ नहीं तो एक दर्जन जगह या बीस-पच्चीस जगह होगा कि आया होगा 'अहिंसा परमो धर्म:' लेकिन उसमें साथ में आगे कहीं भी नहीं लिखा है कि 'धर्म हिंसा तथैव च'।

एक बार को आप सोचिए वो लोग कौनसे होंगे जो ऐसा दुष्प्रचार कर रहे हैं। इतना बड़ा झूठ पूरी जनसंख्या में फैलाये दे रहे हैं और पूरी जनसंख्या उनके इस झूठ का शिकार, विक्टिम बनी जा रही है। ये कौन लोग हैं और कितने गन्दे लोग हैं!

और जब ये इस सीमा तक जाकर दुष्प्रचार कर सकते हैं तो ये किसी को भी छोड़ेंगे क्या? ये कृष्ण को नहीं छोड़ रहे हैं, महाभारत को नहीं छोड़ रहे हैं, किसको छोड़ेंगे? सीधे-सीधे इन्होंने गीता तक को नहीं छोड़ा है।

और बहुत सारी वज़ह हैं। एक वज़ह जो एकदम प्रकट है, पहली है, वो ये है कि हमें संस्कृत नहीं आती। चूँकि हमें संस्कृत नहीं आती इसलिए हमें जो खिलाया जाता है हम खा लेते हैं। जो आपको बता दिया जाता है कि ये लिखा हुआ है, वो आपको मानना पड़ जाता है।

गीता में भी वो नहीं लिखा हुआ है जो आपको बताया गया है आज तक। और मेरे ख़िलाफ़ अब बहुत-बहुत लोग खड़े होने वाले हैं। आपको बहुत-बहुत तरह की ख़बरें मिलेंगी। हो सकता है कि बहुत हिंसक ख़बर भी आपको जल्दी ही मिले। वज़ह सिर्फ़ ये है कि मैं गीता का वो अर्थ सामने ला रहा हूँ जो कृष्ण ने चाहा था। ऐसे में ऐसों की दुकानें बंद हो रही हैं जिन्होंने गीता को लेकर बड़ा भ्रामक दुष्प्रचार कर रखा है। वो मुझमें सौ खोट निकालेंगे पर उनको जो एक मूल समस्या है मुझसे वो बस एक ही है कि मैंने गीता का सही अर्थ क्यों बता दिया आपको। ये उनकी मूल समस्या है।

इससे आपको ये भी पता चलेगा जो उन्होंने जोड़ा है उन्होंने कुछ यूँही रैंडमली (कुछ भी) नहीं जोड़ दिया; क्या जोड़ा है? 'धर्म हिंसा तथैव च' — अहिंसा तो परम धर्म है लेकिन हिंसा भी धर्म है।

इससे आपको ये भी पता चलेगा वो करना क्या चाहते हैं। जो उन्होंने जोड़ा है इसी से उनके मंसूबे पढ़िए। वो क्या करना चाहते हैं? वो हिंसा करना चाहते हैं। और ये मत सोचिएगा कि वो हिंसा वो किसी पराये पर करना चाहते हैं। जानते हैं वो हिंसा किस पर करना चाहते हैं? वो हिंसा आप पर ही करना चाहते हैं। दूसरा तो बहाना है, ग़ुलाम उन्होंने आपको बनाना है दूसरे का हौवा दिखाकर के कि वो लोग हैं, देखो, उन पर हिंसा करनी है। और उन पर हिंसा करनी है तो अब मैं नेता बन गया, चलो सब मेरे पीछे खड़े हो जाओ। अब हम सब मिलकर हिंसा करेंगे।

इस पूरी प्रक्रिया में हुआ क्या है? वो नेता बने और आपको पीछे खड़ा किया गया। हिंसा आपके साथ की गयी है। आप से कहा गया है कि सही काम-धंधे छोड़ो, मेरे पीछे लगो और हिंसा करो।

दुनिया के किसी भी देश में, दुनिया के किसी भी धर्म में, धर्मग्रंथ के साथ खिलवाड़ स्वीकार किया जाता है? धर्म ग्रंथ में से आप श्लोक या पंक्ति हटाओ, शब्द भी हटाइए, एक अर्ध विराम भी ऊपर से नीचे कर दें, तो क्या स्वीकार किया जाएगा? और यहाँ सीधे-सीधे पूरी खिलवाड़ ही कर दी गयी है। और हम ऐसे नासमझ हैं, हमको लगता है कि नहीं बात तो सही बोली गयी होगी।

अरे संस्कृत नहीं आती, कोई बात नहीं, महाभारत के इतने तो हिंदी में और सब भाषाओं में अनुवाद उपलब्ध हैं, जाकर के देखते क्यों नहीं हो? पर पढ़ने-लिखने की तो आदत ही नहीं है। व्हाट्सप में जो आ गया वही सही लिखा हुआ है। विचार नहीं करते थोड़ा भी। सामने जो दिख रहा है उसके पीछे क्या है, ये समझने की कोशिश नहीं करते। जिसने जो दिखा दिया देख लिया, जिसने जो चटा दिया, चाट लिया।

कायदे से तो इन सब बातों पर रोंगटे खड़े हो जाने चाहिए हमारे कि ये क्या किया जा रहा है हमारे साथ, पर कुछ नहीं होता। कोई आकर के बोल देता है हमारे शास्त्रों में ऐसा लिखा है। अरे पूछो ना, सबसे पहले तो पूछो कि तुम किस किताब को शास्त्र बोल रहे हो। शास्त्र माने क्या? शास्त्र की परिभाषा होती है वो जो हमको मुक्ति की ओर ले जाए, उसको शास्त्र बोलते हैं। जहाँ किस्से-कहानियाँ और ये गप्पेबाज़ियाँ हैं, उसको शास्त्र बोलेंगे क्या? इधर-उधर की कहानियाँ, फ़लाना राजा, उस राजा ने क्या-क्या करा, उस राजा की पूरी वंशावली क्या है इन सब बातों को शास्त्र बोलेंगे क्या?

कौनसे देवता किस दूसरे देवता पर कुपित हो गये, फिर उसने क्या श्राप दिया, फिर श्राप देने से वो जो हिरण था वो ब्राह्मण बन गया। और फिर फ़लाने सरोवर में पानी पीने गया। वहाँ मेंढक ने उसकी गर्दन पकड़ ली। फिर एक अप्सरा निकल कर आयी। अप्सरा और मेंढक में प्रेम हो गया, उससे उनके आठ पुत्र पैदा हुए। और जो आठवाँ पुत्र था फिर वो जाकर के ऐसा हो गया। यह शास्त्र है!

यह शास्त्र है?

और अक्सर इन सब बातों से कुल मिलाकर जो बात निकलती है वो ये कि ब्राह्मण देवता की सेवा ज़रूर करना। कुल मिलाकर के सार यही निकला। या फिर पति परमेश्वर की सेवा ज़रूर करना।

फ़लाने देवता बैठे हुए थे और वो अपने राग-रंग में मग्न थे, सोमरस का पान कर रहे थे। तो तभी बहुत बड़े ऋषि सामने से निकले, उन्होंने ऋषि को प्रणाम नहीं किया तो ऋषि ने उनको ऐसे कर के क्या कर दिया मालूम है? कन्या बना दिया। बोले अब तू कन्या बन गई। जैसे ही कन्या बन गई, बोले, ‘अब मुझसे विवाह कर’ और वशीभूत होकर के कन्या ने तुरंत विवाह कर लिया। बोले, ‘देख पहले तूने मुझे प्रणाम नहीं करा। अब मैं तेरा पति परमेश्वर हो गया। अब तू जीवन भर मेरी सेवा करेगी।‘

यह शास्त्र है?

पर कोई आकर कहे फ़लाने शास्त्र में लिखा हुआ है। वहीं टोको, रोको उसे। ये शास्त्र कैसे हो गया? और शास्त्र है तो श्लोक बताओ। श्लोक भी जो आपको बताया जाएगा, उसका अर्थ कुछ और होगा। कई बार उन्हें श्लोक संख्या नहीं पता। कई बार जो आपको श्लोक बता रहे हैं, उसका उनको कुछ अर्थ नहीं पता। पर उन्होंने जो भी अर्थ चिपका दिया, आपने चिपकने दिया।

तो इसका परिणाम ये हुआ – ‘धर्म हिंसा तथैव च।‘

अहिंसा सत्यवचनं सर्वभूतहितं परम्। अहिंसा परमो धर्म: स च सत्ये प्रतिष्ठितः। सत्ये कृत्वा प्रतिष्ठाम तु प्रवर्तन्ते प्रवृत्तय:।।

अहिंसा और सत्य भाषण — ये समस्त प्राणियों के लिए अत्यंत हितकर हैं। अहिंसा सबसे महान धर्म है, परंतु वह सत्य में ही प्रतिष्ठित है। सत्य के ही आधार पर श्रेष्ठ पुरुष के सभी कार्य आरंभ होते हैं।

~ (207.74, मार्कण्डेयसमास्यापर्व, वानपर्व)

"अहिंसा परमो धर्म: स च सत्ये प्रतिष्ठित:।" ये है महाभारत, वनपर्व से। "अहिंसा सबसे बड़ा धर्म है और सत्य पर ही टिका होता है। सत्य में निष्ठा रखते हुए सारे काम संपन्न होते हैं।" ये अगली पंक्ति है।

फिर अनुशासन पर्व में आता है। अनुशासन पर्व में तो मुझे जहाँ तक ध्यान है बहुत बार आता है। उसमें से एक यहाँ पर दिखाई पड़ रहा है।

अहिंसा परमो धर्मस्तथाहिंसा परं तपः। अहिंसा परमं सत्यं यतो प्रवर्तते।।

अहिंसा परम धर्म है, अहिंसा परम तप है और अहिंसा परम सत्य है; क्योंकि उसी से धर्म की प्रवृति होती है।

~ (114.23, दानधर्म पर्व, अनुशासन पर्व)

दानधर्म पर्व। "अहिंसा परम धर्म है। अहिंसा परम तप है। अहिंसा ही परम सत्य और अहिंसा से ही धर्म की प्रवृत्ति आगे बढ़ती है।"

"अहिंसा परमो धर्म तथा अहिंसा परमम तप:। अहिंसा परमम सत्यम यतो धर्म: प्रवर्तते।" और भी बहुत बार है। ख़ुद ही देख लीजिएगा। महाभारत की मूल प्रति आपके पास हो तो उसमें से देख लीजिएगा। न हो तो यहाँ गीताप्रेस से जा करके एक ले लें। पर महाभारत तो बहुत मोटा ग्रंथ है, उतना आपके पास पढ़ने का संयम न हो तो उसकी ईबुक ही पढ़ लें।

अनुशासन पर्व खोलकर के देख लें, आपको पता चल जाएगा। उतना भी न करना हो तो बस गूगल कर लें – 'महाभारत अहिंसा परमो धर्म:।' उसमें भी आ जाएगा कि कहाँ-कहाँ पर ये श्लोक आता है। और फिर उसमें देखें कि 'धर्म हिंसा तथैव च' ये कहाँ लिखा है।

महाभारत से कुछ श्लोक जहाँ 'अहिंसा परमो धर्म:' का ज़िक्र है।

अहिंसा परमो धर्म: सर्वप्राणभृतां वर।

समस्त प्राणियों में श्रेष्ठ ब्राह्मण! अहिंसा सबसे उत्तम धर्म है।

(11.12, 11.13, पौलोमपर्व, आदिपर्व)

अहिंसा परमो धर्मस्तथा अहिंसा परो दमा:। अहिंसा परमम दानम, अहिंसा परमम तप:।

अहिंसा परम धर्म है, अहिंसा परम संयम है, अहिंसा परम दान है और अहिंसा परम तपस्या है।

(116.28, दानधर्मपर्व, अनुशासनपर्व)

श्रीमहेश्वर उवाच अहिंसा परमो धर्मो ह्यहिंसा परमं सुखम्। अहिंसा धर्मशास्त्रेषु सर्वेषु परमं पदम्।।

श्रीमहेश्वर ने कहा — अहिंसा परम धर्म है। अहिंसा परम सुख है। सम्पूर्ण धर्म शास्त्र में अहिंसा को परमपद बताया गया है।

(245.4, दानधर्म पर्व, अनुशासनपर्व)

अहिंसा परमो धर्मो, हिंसा चाधर्म लक्षणा। प्रकाशलक्षणा देवा मनुष्या: कर्म लक्ष्णा।

अहिंसा सबसे श्रेष्ठ धर्म है और हिंसा अधर्म का लक्षण (स्वरूप) है।

(43.20 व 43.21, अनुगीतापर्व आश्र्व मेधिकपर्व)

हिंसा की निंदा करते हुए महाभारत से एक प्रासंगिक श्लोक

अव्यवस्थितमर्यादैर्विमूढ़ैर्नास्तिकैर्नरै:। संशयात्मभिरव्यक्तैर्हिंसा समनउवर्णइतआ।

जो धर्म की मर्यादा से भ्रष्ट हो चुके हैं, मूर्ख हैं, नास्तिक हैं तथा जिन्हें आत्मा के विषय में संदेह है एवं जिनकी कहीं प्रसिद्धि नहीं है, ऐसे लोगों ने ही हिंसा का समर्थन किया है।

(256.3, मोक्षधर्मपर्व शांतिपर्व)

लेकिन आप तक सही बात पहुँचाने के लिए हमने संपूर्ण महाभारत का अध्ययन किया। लेकिन ‘अहिंसा परमो धर्म, धर्म हिंसा तथैव च’ जैसा कोई श्लोक हमें इस ग्रंथ में नहीं मिला। हो सकता है हमारे अध्ययन में त्रुटि रह गयी हो। यदि आपको ये श्लोक महाभारत ग्रंथ में कहीं मिले तो कृपया हमारे साथ साझा करें।

पृष्ठ संख्या, अध्याय, पर्व व प्रकाशक का नाम अवश्य लिखें।

पर सावधान रहें। यदि आप गूगल पर इसे ढूँढने का प्रयास करेंगे तो वहाँ कुछ ऐसे सर्च रिजल्ट्स आपके सामने आएँगे। इन्हें खोलने पर आपको कहा जाएगा कि ऐसा कोई श्लोक महाभारत के शांतिपर्व, वनपर्व या अनुशासनपर्व में है। लेकिन कहीं भी स्पष्ट रूप से श्लोक संख्या या अध्याय नहीं बताया गया है। इसलिए हमने स्वयं इसे जाँचने का प्रयास किया और ऐसा कोई श्लोक ग्रंथ में नहीं पाया। आप भी स्वयं माहभारत पढ़ें और ऐसे भ्रामक लेखों के चक्कर में ना फँसे ।

कुछ बहुत हिंसक लोग और अज्ञानी लोग जिन्हें वास्तव में मदद की ज़रूरत है वो मदद तो क्या ही लेंगे, वो बहुत मुखर हो बैठे हैं। वो बहुत ज़ोर-ज़ोर से बोल रहे हैं। और झूठ चूँकि डरा-सहमा होता है इसलिए उसे बहुत ज़ोर-ज़ोर से बोलना पड़ता है।

और एक बहुत बड़ा बहुमत है लोगों का जो उस झूठ में शामिल नहीं होना चाहते लेकिन बहुत ज़ोर से बोले जा रहे झूठ का विरोध भी नहीं कर रहे। उनके विरोध न करने के कारण ये जो चंद लोग हैं जो हर तरह का झूठ, यहाँ तक कि धर्मग्रंथों के प्रति भी असत्य प्रचारित कर रहे हैं, इनको बड़ा बल मिल रहा है। ये सब जो झूठ फैलाते हैं, जहाँ से भी तुमको ये व्हाट्सैप फॉर्वर्ड आया होगा, उन लोगों की तादाद बहुत छोटी है। छोटे हैं पर वोकल हैं, बहुत ज़ोर से बोलते हैं और बहुत हिंसात्मक तरीक़े से बोलते हैं; चिल्लाकर, चढ़कर। तो जो शांत बहुमत है वो फिर डरा-सहमा चुप बैठा रहता है; वही जैसे भेड़े होती हैं न, जिधर को हाँक दो उधर पहुँचे जा रहे हैं। और क्या बोलूँ?

इससे सम्बन्धित कुछ हो तो बताइए।

प्र२: अभी जो हम बात कर रहे थे कि हिंसक लोगों के विरोध में जो शांत लोग नहीं बात कर रहे हैं, तो उनको हम ऐसे समझें कि वो कायर हैं या उनमें आत्मबल की कमी है?

आचार्य: देखो, बल सत्य से आता है। जब आपको सत्य पता ही नहीं तो आप में बल कहाँ से आएगा? आपको किसी ने बोल दिया 'धर्म हिंसा तथैव च।' आपने कहा, 'हो सकता है लिखा होगा।' आपको किसी ने बोल दिया गाँधी बहुत अच्छे आदमी थे, राष्ट्रपिता थे। आपने मान लिया। आज आपको बोला जा रहा गाँधी और नेहरू से ज़्यादा बुरा कोई नहीं था, इन्होंने देश बर्बाद करा। आपने वो भी मान लिया।

तो थाली के बैंगन हैं, जो जिधर को लुढ़काना चाहे लुढ़का सकता है। गाँधी और नेहरू दोनों बड़े लेखक भी थे। किसने पढ़ा गाँधी को और किसने पढ़ा नेहरू को? आपने पढ़ा है क्या?

चूँकि आपने पढ़ा नहीं इसलिए आप जानते भी नहीं गाँधी कौन हैं। गाँधी के बारे में कोई दो-चार फ़िल्मी गाने सुन लिए। बोले ये गाँधी हैं। या कोई फ़िल्म देख ली गाँधी के बारे में तो यही तो गाँधी हैं। इतने ही तो गाँधी हैं।

अब एक व्यक्ति है जिसे राष्ट्रपिता कहा जा रहा है तो आपके भीतर यह थोड़ी जिज्ञासा नहीं उठी कि ऐसे कैसे किसी व्यक्ति को राष्ट्रपिता कह दिया। उसमें कुछ खूबी थी भी कि नहीं थी? क्या वो इस सम्मान का अधिकारी था?

और जैसे ही आपमें यह जिज्ञासा उठेगी आप तुरंत क्या करेंगे? आप उस बारे में खोजबीन करेंगे। वो खोजबीन हमने कभी करी नहीं थी। हर शहर में एक एमजी रोड होती है, ठीक? हर शहर में कहीं पर गाँधी जी की मूर्ति स्थापित होती है। दो अक्टूबर को छुट्टी भी हो जाती है, स्कूलों में कार्यक्रम भी हो जाते हैं। ये सब हम करते रहे, बिना ये जाने करते रहे कि गाँधी हैं कौन। जाना था क्या कभी? कभी जाना था क्या? कुछ नहीं पता था। न ये पता था गाँधी कौन हैं न ये पता था नेहरू कौन हैं। न ही ये पता था कि गोडसे कौन हैं। हमें कुछ नहीं पता था। हमने यूँही मान लिया।

जब पचास साल से मानते चले आ रहे थे तो आज किन्हीं और ताक़तों ने आपको एक विपरीत चीज़ मनवा दी। अब ताज्जुब क्या है?

न पहले कुछ पता था, न अब कुछ पता है। पहले भी किसी ने कान में फूँक दिया था, प्रणाम करो, राष्ट्रपिता हैं। अब किसी ने आकर कान में फूँक दिया है, अब बोलते हैं चरखासुर हैं। तो वो भी आपने मान लिया।

पहले बताया जाता था कि गाँधी जी से ज़्यादा बड़ा कोई सात्विक जीवन और कठोर दिनचर्या का उदाहरण नहीं हुआ। कि देखो कैसे चलते थे, कैसे जीते थे, एक लंगोटी में जीवन बिता दिया। और अब आपको बताया जा रहा है कि अरे! वो तो कामलोलुप आदमी थे, छोटी-छोटी बच्चियों से सेक्स करते थे। आपने वो भी मान लिया।

क्योंकि पहले भी आपने कहाँ पता करा था कि सचमुच आपको जो बताया जा रहा है उसमें कितनी सच्चाई है, उसका यथार्थ क्या है? कहाँ पता करा था? तो पहले बोल दिया गया कि गाँधी जी माने ब्रह्मचर्य की पराकाष्ठा, तो मान लिया। अब बोला जा रहा है आपसे कि गाँधी जी माने वो जो अपने आश्रम में छोटी बच्चियों को रखकर के उनके साथ सोया करता था, वो भी आपने मान लिया।

पहले बोला गया कि गाँधी जी माने वो जिसने आज़ादी दिला दी; मान लिया। आज बोला जा रहा है गाँधी जी माने वो जिसने देश का बँटवारा करा दिया; वो भी आपने मान लिया। पहले गाँधी जी वो जो 'रघुपति-राघव-राजा-राम।‘ आज कहा जा रहा है गाँधी जी वो जिन्होंने हिंदुओं के विरुद्ध पक्षपात किया।

तो ज्ञान कुछ है नहीं, भेड़ों सी हालत है। निजता, इंडिविजुआलिटी कुछ है ही नहीं। कि भाई जो भी बता रहे हो, ठीक है आपने बता दिया, आपका एहसान है। पर हम भी तो कुछ जाकर के देखेंगे। हम कुछ हैं कि नहीं हैं? जब आप कुछ नहीं होते तो कोई भी आकर आपको, मैं कह रह हूँ, भेड़ की तरह ठेल देता है।

पहले उनका बड़ा महिमा मंडन कर दिया गया। विवशता थी, मानना पड़ा। अब उनका मानमर्दन करा जा रहा है। वो भी आपकी विवशता है, आप देख रहे हैं आपकी आँखों के सामने अपमानित हो रहे हैं। ठीक है, देखिए।

वही काम नेहरू के साथ – कहाँ पता है नेहरू के बारे में कुछ! हम छोटे थे ‘डिस्कवरी ऑफ इंडिया’ से शुरुआत ही हुई थी। अरे ठीक है उस आदमी में हज़ार ग़लतियाँ होंगी, पर एक बार देख तो लो कि वो इंसान क्या था, कैसा था। तुम्हें उस बंदे का कुछ पता भी है या बस गाली देने लग गए?

आज बहुत ख़ुश हो रहे हो न कि अरे दुनिया की जितनी सब बड़ी-बड़ी कंपनियाँ हैं इनके सीईओ भारतीय बन रहे हैं। ये सीईओ कहाँ से निकले हैं? नेहरू से निकले हैं, आईआईटी से और आईआईएम से निकले हैं। या ये बाबाजी से निकले हैं?

या तो कह दो कि हमें कोई मतलब ही नहीं पड़ता कि गूगल में कौन है और ट्विटर में कौन है। हमें देखना ही नहीं है। पर उन्हें देखना भी चाहते हो, उस पर नाज़ भी करना चाहते हो। हमारे भीतर का देशभक्त बिलकुल पुलक जाता है जैसे ही पता चलता है कि किसी देश का प्रधानमंत्री कोई भारतीय बन गया या किसी बड़ी कंपनी का सीईओ कोई भारतीय बन गया—भारतीय नहीं, हिंदू, हमें हिंदू से मतलब है। तो पुलक तो बहुत जाते हो, फिर ये भी पूछा करो न वो आया कहाँ से है। वो नेहरू से ही तो आया है। पर वो कभी पढ़े नहीं ।

जेल से पत्र लिखा करते थे इंदिरा गाँधी को। वो पूरी संकलित होकर के एक किताब है। मैं एकदम छोटा था, मुझे दी गयी थी। ये तो छोड़िए कि पिता के पत्र पुत्री के नाम तो आप उसमें पिता का भाव देखेंगे; भाषा भी तो कितनी सुंदर है।

मैं न गाँधी भक्त हूँ न नेहरू भक्त हूँ, पर न्याय तो होना चाहिए न। एक आदमी ने जो अच्छा करा उसको अच्छा बोलो। एक आदमी ने जो बुरा करा उसको बुरा बोलो। अंधाधुंध किसी को गालियाँ देनी शुरू कर दो, ये कहाँ की बात है भाई!

बहुत ग़लतियाँ करी नेहरू ने जिसमें से एक बड़ी ग़लती तो यही थी कि धर्म की बड़ी उपेक्षा की उन्होंने। उन्नीस सौ सैंतालीस का उन्होंने ख़ून-खराबा देखा था। तो उनके मन में बात आ गयी थी कि धर्म माने हिंसा और धर्म माने पिछड़ापन, और आदमी धर्म के चक्कर में जानवर बन जाता है। इतना ज़बरदस्त उन्होंने नरसंहार देखा था, तो उन्होंने धर्म को एकदम पीछे कर दिया। और जो मुझे एक बड़ी शिकायत है नेहरू से वो यह है कि पाठ्यक्रम में उन्होंने अध्यात्म को ज़रा भी जगह नहीं दी। अध्यात्म से मेरा मतलब कोई धार्मिक जोड़-तोड़ नहीं; 'एजुकेशन ऑफ द ‘सेल्फ’ , आत्मज्ञान। इसके लिए उन्होंने कोई जगह ही नहीं छोड़ी। तो ये बात मैंने हमेशा कही है और यह समस्या मुझे नेहरू से हमेशा रही है।

लेकिन अब आप बोलना शुरू कर दो कि अय्याश आदमी था और ये देखो उसकी मैं ये फोटो निकाल के लाया हूँ। ये देखो वो एडविना माउंटबेटन से संभोग करते पकड़ा गया। और उनकी वो फोटो निकाल देंगे जिसमें वो उनके साथ खड़े होकर हँस रहे हैं। कहीं पर उनकी फोटो निकाल दी जिसमें वो सिगरेट पी रहे हैं, कहीं पर वो सिगार है, जो भी है अपना। और यही सब प्रचारित हो रहे हैं कि देखो नेहरू कितना अय्याश था, देखो गाँधी कितना अय्याश था। तुम्हें उस आदमी की पूरी ज़िंदगी में यही चीज़ दिखाई पड़ रही है।

विनोबा भावे का नाम सुना होगा। 'लोकदेव' उन्हें विनोबा ने ही बोला था न। विनोबा बोलते थे लोकदेव हैं। और विनोबा कोई अकेले नहीं हैं, और विनोबा धार्मिक आदमी हैं। कहते थे भारत की मिट्टी से जितना प्यार इस आदमी ने करा है, बहुत कम लोगों ने करा होगा।

हाँ, हमें इस बात में ज़रूर संशय हो सकता है कि उन्होंने भारत की मिट्टी को एकदम समझा कि नहीं समझा। इस पर मतभेद हो सकता है। और ये मुझे भी लगता है कि उन्होंने भारत की धार्मिकता को पूरी तरह समझा नहीं। लेकिन आप व्यक्ति की नीयत पर ही कीचड़ उछालो, यह बात तो कहीं से भी ठीक नहीं है। नीयत कैसे ख़राब हो गयी, भाई! एक आधुनिक भारत का वो निर्माण करना चाहते थे। इसमें ग़लत बात क्या है?

और भारत को आधुनिकता की बहुत-बहुत ज़रूरत है। आधुनिकता का मतलब समझते हो क्या होता है? मोडरनिटी। मोडरनिटी माने ये नहीं होता कि छोटे कपड़े पहने घूम रहा है तो मॉडर्न हो गया। आधुनिकता का मतलब होता है कि मैं जानने पर ज़ोर दूँगा, परम्परा या अतीत पर नहीं। आप बहुत मॉडर्न कपड़े पहनकर के अगर अंधविश्वासी हो और आप एनर्जी , औरा और इस तरह की बहुत सारी मिस्टिकल बातें उड़ा रहे हो तो आप मॉडर्न नहीं हो।

एक आधुनिक मन किसको बोलते हैं?

अधुना माने क्या होता है – अभी। मतलब जो अतीत में न जिये वो आधुनिक है। और जो अतीत की गुलामी कर रहा है वो आधुनिक नहीं है। आधुनिक की ये परिभाषा होती है। और भारत अतीत की बेड़ियों में बुरी तरह जकड़ा हुआ था उन्नीस सौ सैंतालीस में। नेहरू ने कहा भारत को मॉडर्न होना होगा, आधुनिक होना होगा, अतीत से भारत को बाहर आना पड़ेगा। क्या ग़लत कहा? हम-आप यहाँ बैठे हुए हैं, क्या ये हम एक आधुनिक भारत का ही लाभ नहीं उठा पा रहे हैं? बोलिए।

तो उसकी जगह आप ये सब शुरू कर दें। देखो, इंसान को इंसान रहने दो। न कोई देवता होता है न कोई दानव होता है। किसी भी व्यक्ति का निष्पक्ष मूल्यांकन होना चाहिए, ये बात ठीक है कि नहीं है? कोई अगर मेरे सामने आकर बिलकुल ही गाँधी भक्त हो जाए कि गाँधी अवतार थे और नेहरू देवता थे। तो मैं उससे पूरा विवाद कर लूँगा – ‘कहो अवतार कैसे थे।‘ तब मैं गाँधी की पाँच भूलें गिना दूँगा, नेहरू की पाँच ग़लतियाँ गिना दूँगा। अगर तुम उनको देवता, अवतार बोलोगे, पूजने लग जाओगे तो फिर आवश्यक हो जाएगा उनकी ग़लतियाँ बताई जाएँ। वो काम भी मैं ही करूँगा।

लेकिन आप उनको सीधे-सीधे दानव घोषित कर दो तो यह बात भी बराबर की ग़लत है। इंसान होते हैं सब, कुछ अच्छाइयाँ होती हैं, कुछ बुराइयाँ होती हैं। जो जैसा है उसको वैसा जानो। अपने एजेंडा के चलते किसी को न तो एकदम महिमा मंडित कर दो और न किसी का मान मर्दन ही कर दो। और कौन कैसा है, यह जानने के लिए व्हाट्सऐप पर नहीं चलते। पढ़ना पड़ता है, रीडिंग करनी पड़ती है।

थोड़ा पढ़ो, थोड़ा जानो। पढ़ना माने तथ्य के निकट आना। तथ्य के निकट नहीं हो तो कल्पना के निकट हो। और जो कल्पना के जितने निकट होता है उसको विक्षिप्त बोलते हैं, पागल। ये कल्पनाओं में जीता है बस अपनी, विक्षिप्तता की यही निशानी होती है न। पागल आदमी बस अपनी दुनिया में, अपनी कल्पनाओं में जी रहा होता है।

जब तुमने रीडिंग ही नहीं करी तो तुम विक्षिप्त आदमी हो, और क्या हो। कितनी अजीब बात है, आज जब टेक्नोलॉजी (तकनीक) इतनी सुलभ है, सुगम है और रीडिंग इतनी कम हो गई है। आज आपके लिए किताब पढ़ना पहले की अपेक्षा कितना ज़्यादा आसान है, है न? हार्ड कॉपी जहाँ चाहो मिल जाती है। अमेजन पर ऑर्डर दे दो, घर आ जाती है। हार्ड कॉपी नहीं चाहिए तो ईबुक मिल जाती है। और वो किंडल आता है, उसको लेकर के जहाँ चाहो चले जाओ, पढ़ते रहो। रीडिंग आज पहले की अपेक्षा कितनी ज़्यादा आसान है लेकिन रीडरशिप (पढ़ने का शौक) एकदम शून्य हो चुकी है। लोग नहीं पढ़ रहे बिलकुल।

पढ़ने का विकल्प क्या बना हुआ है? यही व्हाट्सऐप। व्हाट्सऐप पर ज्ञान ले रहे हैं न। या अगर पढ़ भी रहे हैं तो कौनसी तरह की किताबें पढ़ी जा रही हैं, वो तुम देख लो। एकदम घटिया स्तर की किताबें हैं जो बेस्ट सेलर्स (सबसे लोकप्रिय) हुई पड़ी हैं। आप किसी बुक शॉप में चले जाओ, वहाँ सामने जो उन्होंने विंडो में डिस्प्ले (प्रदर्शनी) कर रखा है, उसको देखो कि क्या है। उसमें ज्ञान है? उसमें दर्शन है? उसमें विज्ञान है? उसमें सोच है, समझ है, गहराई है, अध्यात्म है? उसमें क्या है? उसमें कुछ नहीं है। कूड़ा-कचड़ा, एकदम मल-मूत्र बेस्टसेलर बनकर बिक रहा है।

पढ़िए-पढिए-पढ़िए और जानिए। और किसी भी व्यक्ति या विषय को लेकर ठोस मत बनाने से बचिए। कहिए, ‘अभी तक मुझे इतना पता है उससे ऐसा लगता है। आगे की बात मैं छानबीन करने के बाद बोलूँगा। और इंसान हूँ, मैं चैतन्य हूँ, मेरी अपनी बुद्धि है, अपनी समझ है। मुझे थोड़ा तथ्यों का अन्वेषण करने दीजिए। मैं थोड़ा पता तो करूँ कि किसने क्या बोला है।‘

देखिए अगर आप मेरे साथ हैं और आप थोड़ा भी मुझसे रिश्ता रखते हैं। आप यहाँ तक आए हैं, मैं समझता हूँ बहुत-बहुत बड़ी बात है आज के समय में। हार्दिक धन्यवाद आपका। लेकिन अगर आप मुझसे रिश्ता रखते हैं और आप कहते हैं कि आप सिर्फ़ मुझसे रिश्ता रखते हैं, तो बात बनेगी नहीं हमारी-आपकी। मेरा काम है आपके लिए वो खुला दरवाज़ा बनना जिसके पार बहुत बड़ा आकाश है।

मेरा काम यह नहीं है कि आप मेरे पास आये हैं, माने मेरे पास आये हैं। मेरा काम यह है कि आप मेरे पास आये हैं तो मैं आपको सौ सही दिशाओं में भेजूँ। मुझ पर रुक मत जाओ। देखो, जाओ, उसको सुनो, उसको पढ़ो, यह भी देखो, वो भी देखो। जितना ज़रूरी मेरे लिए यह है कि मैं आपको ग़लत दिशाओं में जाने से रोकूँ। उतना ही आवश्यक है कि मैं आपको प्रेरित करूँ तमाम अन्य सही दिशाओं में जाने के लिए।

समझ में आ रही है बात?

तो आप कहें कि मैं तो आचार्य जी को सुनता हूँ। फिर आगे? मैं मंज़िल नहीं हूँ। आपकी मंज़िल है आपकी अपनी मुक्ति। मुझ पर आकर के थोड़ी रुक सकते हैं आप! आप अगर मेरे पास आये हो तो मुझे भी अच्छा तभी लगेगा जब मेरे पास आने के बाद आपका देखना, सुनना, समझना बढ़ जाए, आप अनुभवों के प्रति ज़्यादा खुल जाओ। जो चीज़ें आप देख नहीं पाते थे आप देखने लगो। जो सुन नहीं पाते थे सुनने लगो। जहाँ जाने से बहुत कतराते थे, वहाँ जाकर के वहाँ का यथार्थ जानने की कोशिश करो। और पढ़ो, ख़ूब पढ़ो।

मैं आपसे बात कर सकूँ, आपके लिए ये मिशन चला सकूँ, इसके लिए मैंने ये कुर्बानी दी है कि मेरा पढ़ना कम हो गया है बहुत। और मुझे दिन में सौ बार इसका अफ़सोस आता है कि मैं और रीडिंग (पढ़ाई) क्यों नहीं कर पा रहा। पिछले छः-सात साल से मैं जितना पढ़ना चाहता हूँ, मैं उसका चौथाई भी नहीं पढ़ पाता। और जब तक यह संस्था का काम बढ़ा नहीं था, उसके पहले के साल एक अर्थ में मेरे स्वर्णिम वर्ष थे। मैं दस-दस, बारह-बारह घंटे पढ़ा करता था। और उतना न पढ़ा होता तो मैं आज आपसे बात नहीं कर पा रहा होता।

ये अपने लिए मैंने तब एक उसूल बनाया था कि जिस मुद्दे पर जानता नहीं, उस मुद्दे पर बोलूँगा नहीं। तो अगर बोलना है तो पहले पूरी गहराई से जितनी तरह की जहाँ-जहाँ की किताबें हैं, सब पढ़ो, सब जानो।

और ऊपरी पढाई नहीं करनी है, गहराई में जाकर के प्रवेश करो, अपने नोट्स बनाओ, नोट्स कंपेयर (तुलना) करो, नोट रिवाइज (दोहराओ) करो। बहुत एक्टिव रीडिंग थी बहुत इंगेज्ड रीडिंग (डूब के पढ़ाई) थी।

वो मेरी प्रक्रिया रही और मैं चाहता हूँ आप भी उसी प्रक्रिया पर जाएँ। नहीं तो आपके लिए मैंने अपनी रीडिंग कम करी और नतीजा मुझे ये मिला कि आप भी कोई रीडिंग नहीं करते हैं तो मुझे क्या मिला फिर?

आपके प्रश्नों में भी धार तभी आएगी जब आपके विचार जाकर के अन्य विचारकों से टकराएँगे। क्योंकि आप पहले तो हो नहीं जो विचार कर रहे हो। इतिहास में इतने लोग हुए हैं जिन्होंने गहरा विचार करा है। तो आप जो भी विचार बना रखे हैं उन विचारों को जाकर दूसरी जगहों पर थोड़ा बाउंस ऑफ करो, टकराने दो अपने विचारों को। और फिर जो संघर्ष की स्थिति निर्मित हो उसको लेकर के आप यहाँ आइए। फिर उस पर बात करते हैं।

फिर उन प्रश्नों में कुछ गहराई भी होती है। उनमें बोलने में भी मुझे फिर आनंद आता है। नहीं तो फिर ऐसे ओंगे-पौंगे सवाल आ जाते हैं, क्या बोलूँ, कितनी बार बोलूँ। 'आचार्य जी, गर्लफ्रेंड से ब्रेकअप हो गया।' मैं क्या करूँ! तो इस स्तर के सवाल नहीं चाहिए न।

सवाल भी ऐसे पूछें कि, “आचार्य जी, नीत्से ने जो ‘विल टू पावर’ बोली है, क्या उसका अहम् वृत्ति से कोई सीधा सम्बन्ध है?”

“आचार्य जी, जिस जगह पर आकर के युंग को फ्रायड से अलग होना पड़ा था, क्या यही वो जगह थी जहाँ शंकराचार्य को बौद्धों से शास्त्रार्थ करना पड़ा था?”

तब मुझे भी कुछ बात करने में आनंद आएगा कि हाँ भाई ये कोई सवाल आया है। लेकिन वैसा कुछ होता नहीं। मैं अपनेआप को असफल ही मानूँगा अगर आपके प्रश्नों में गुणवत्ता नहीं आ रही है। आप अगर किसी से बोलें कि मुझसे आपका कुछ सम्बन्ध है तो वो चीज़ आपकी चेतना में दिखाई देनी चाहिए, आपके व्यक्तित्व में पता चले।

प्र३: नमस्ते, सर। अभी जो टॉपिक्स (विषय) चला कंटिन्यूसली (लगातार) बात पढ़ने की चली है। तो आपसे टॉपिक्स तो पता चल जाता है कि यह पढ़ना चाहिए लेकिन जैसे ही बुक स्टोर या लाइब्रेरी (पुस्तकालय) जाते हैं तो बुक कौनसी सलेक्ट करें (चुनें), ऑथर या प्रोफेसर कौनसा चुनें, बहुत कंफ्यूजन होता है। दो-तीन बुक पढ़ने के बाद भी समझ में नहीं आता कि इस बुक को कंटिन्यू करना चाहिए या नहीं करना चाहिए।

आचार्य: पिछले अपने बारह सालों में मैंने जिन किताबों का उल्लेख करा है उनको ही पढ़ लीजिए। कुछ नहीं तो पचास तो किताबें होंगी जिन पर बोला होगा। उसके अलावा और होंगी जिनका मैंने सिर्फ़ संदर्भ दिया होगा, हवाला दिया होगा। उनसे ही शुरुआत कर लीजिए। नहीं तो मुझे लगता है ए. पी. सर्किल पर भी कई बार हम सूचियाँ डालते रहते हैं। ये अभी पिछले कई महीनों से नहीं डाली है। ये पढ़ लीजिए। और जब मैं रीडिंग कह रहा हूँ तो मेरा आशय सिर्फ़ ये नहीं है कि किताब। फिर उसमें, उदाहरण के लिए, मूवीज़ देखना भी शामिल है।

जो कुछ भी आदमी की चेतना को विस्तार देता है, आपको एक ऊँचा, सुसंस्कृत इंसान बनाता है वो करिए न। जो फ़िल्म निर्माण के क्षेत्र में आज तक की सबसे अच्छी सौ फ़िल्में बनी हैं, क्या आपने देखी हैं? और सिर्फ़ भारतीय नहीं, अंतरराष्ट्रीय। उनको देखिए।

संस्था में सबके लिए कई बार ज़रूरी कर चुका हूँ, थोड़ा सफल रहता हूँ, थोड़ा असफल रहता हूँ कि दो काम तुमको करने ही करने हैं। एक कोई स्पोर्टिंग एक्टिविटी (खेल सम्बन्धित क्रिया) होनी चाहिए जिसमें तुम पारंगत हो। तो कोई बैडमिन्टन करता है, कोई टेनिस करता है, कोई स्कवॉश कर लेता है। और वो कम्पल्सरी (अनिवार्य) रहता है कि करो। फिर भी ये लोग इतने सूरमा कि उसको किसी तरीक़े से अवॉयड कर ले जाते हैं। लेकिन थोड़ा-बहुत ही सही, करते हैं और करते-करते अब इतने सालो में सब किसी-न-किसी खेल में कुछ सीख गए हैं।

दूसरा, मैं कहता हूँ कि म्यूज़िक, कुछ सीखो या कोई और कला, इंस्ट्रूमेंट नहीं बजा सकते तो गाना सीखो। गाने का क्षेत्र नहीं है तो चित्रकला में कुछ कर सकते हो।

व्यक्तित्व को विस्तार दो। जिसको हम बोलते हैं समृद्ध जीवन। कोई आपको देखे और देख सकता हो तो उसको दिखाई दे कि रिच पर्सनैलिटी (ऊँचा व्यक्तित्व) है। ये नहीं कि आप कहो कि आध्यात्मिक आदमी हो और वो आपसे बात करने लगे चीन-रूस सम्बन्धों पर और आप कहें, ‘हैं! चीन और रूस में भी सम्बन्ध है!’

कि अगर विदेश जाएँ, कहीं जर्मनी, फ्रांस और वहाँ कोई आपका होस्ट हो, आपको ओपेरा में ले जाए और आप कहें ये क्या हो रहा है गर्दभनाद। संगीत की कम-से-कम इतनी आरंभिक समझ होनी चाहिए कि वहाँ आपको बैठा दिया गया है तो आपको थोड़ा-थोड़ा समझ में आ रहा है कि क्या हो रहा है। इतना तो होना चाहिए।

बाक़ी एक सूची और कहीं पर, हम ए.पी. सर्किल पर ही और डाल देंगे फिर से।

प्र३: अभी शिवरात्री में जो वीडियो डाला था, तो उसमें आपने बोला था कि अक्का महादेवी जी के लाल देद की पुस्तक पढ़िए तो जब उसको सर्च करा या पढ़ने गया तो ऑथर्स (लेखक) इतने सारे आये, कुछ-कुछ प्रीफेस (प्रस्तावना) पढ़े, कुछ-कुछ बुक्स (किताब) को समझने की कोशिश की तो कंफ्यूजन सा हो गया और उसमें।

आचार्य: ठीक है, तो अनुवाद किसका पढ़ना है ये भी डाल देंगे। ठीक है। कायदे से ये चीज़ वहाँ वीडियो डिस्करिप्शन (वीडियो विवरण) में लिख देनी चाहिए थी। तो कायदे से तो बहुत कुछ होना चाहिए था, पर जैसे ही मैंने ये बोला, फिर मुझे याद आता है कि उसकी रिकॉर्डिंग शुरू करी थी रात में एक बजे और उसकी रिकॉर्डिंग हुई थी मेरे पिता जी की श्रद्धांजलि सभा की रात को।

सत्रह तारीख़ की थी न शिवरात्री कि अठारह की थी? और पंद्रह की श्रद्धांजलि सभा थी। उसी दिन रात को रिकॉर्ड हुआ है। चौबीस घंटे लगते हैं दो घंटे की वीडियो की प्रोसेसिंग , एडिटिंग में। और फिर वो शिवरात्रि से एक दिन पहले सत्रह तारीख़ को पब्लिश हुआ था। तो कहीं पर सीमा खिंच जाती है न फिर कि कितना कर सकते हो। लेकिन और करना चाहिए, करेंगे आप तक सही बात पहुँचाने के लिए।

संस्था के कार्यकर्ताओं की ओर से संदेश –

आप तक सही बात पहुँचाने के लिए हमने सम्पूर्ण महाभारत का अध्ययन किया। लेकिन ‘अहिंसा परमो धर्म: धर्म हिंसा तथैव च’ जैसा कोई श्लोक हमें इस ग्रंथ में नहीं मिला। हो सकता है हमारे अध्ययन में त्रुटि रह गयी हो। यदि आपको ये श्लोक महाभारत ग्रंथ में कहीं मिले तो कृपया हमारे साथ साझा करें। पृष्ट संख्या, अध्याय, पर्व, व प्रकाशक का नाम अवश्य लिखें।

पर सावधान रहें यदि आप गूगल पर इसे ढूँढने का प्रयास करेंगे तो वहाँ कुछ ऐसे सर्च रिजल्ट आपके सामने आएँगे, इन्हें खोलने पर आपको कहा जाएगा कि ऐसा कोई श्लोक महाभारत के शांतिपर्व, वनपर्व या अनुशासनपर्व में है। लेकिन कहीं भी स्पष्ट रूप से श्लोक संख्या या अध्याय नहीं बताया गया है। इसलिए हमने स्वयं इसे जाँचने का प्रयास किया। और ऐसा कोई श्लोक ग्रंथ में नहीं पाया। आप भी स्वयं महाभारत पढ़ें और ऐसे भ्रामक लेखों के चक्कर में ना फँसे।

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