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लेख
आनंद का अनुभव कौन करता है?
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
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आचार्य प्रशांत: (प्रश्न पढ़ते हुए) कठोपनिषद, द्वितीय अध्याय की द्वितीय वल्ली, श्लोक संख्या पंद्रह पर देवेश (प्रश्नकर्ता) जिज्ञासा कर रहे हैं। कह रहे हैं कि, "इस श्लोक में ऐसा लग रहा है जैसे परम अवस्था, ब्राह्मी अवस्था एक गहरी नींद है जहाँ कुछ भी चेतना में नहीं है, और उससे पूर्व के श्लोक क्रमांक चौदह में अलौकिक आनंद की बात हो रही है।" तो कह रहे हैं कि, “सिद्धांततः ये बहुत बार सुना है कि यह अलौकिक आनंद अनुभव और चेतना के पार है। पर ये बात समझ नहीं पाता कि यदि चेतना नहीं है तो आनंद होता कहाँ है?”

आचार्य: आनंद चेतना की कोई पृथक या विशिष्ट अवस्था नहीं है। किसी एक ख़ास अवस्था पर उंगली रखकर आप नहीं कह पाएँगे कि, "ये आनंद की अवस्था है, इस अवस्था में व्यक्ति आनंदित है।"

आनंद ऐसा है जैसे शर्बत में शक्कर। आप कहाँ कहेंगे कि, "शक्कर है"?

ज्यों मेहंदी के पात्र में लाली लखी न जाए।

हर अवस्था के प्रति एक निर्लिप्तता। हर अवस्था के पीछे एक शांति। हर अवस्था के पीछे स्थिरता। ये सब आनंद युक्त अवस्थाएँ हैं। शांति स्वयं तो कोई अवस्था होती नहीं, स्थिरता स्वयं तो कोई अवस्था होती नहीं। ध्यान से समझिएगा, अनुभव हमेशा अस्थिर का ही होता है, जो स्थिर है उसका अनुभव नहीं हो पाएगा। अनुभव होने की शर्त ये है कि कहीं कुछ बदले, कुछ गति हो, तो आपको पता चलेगा।

एक छोटा सा प्रयोग करके देख लें। इस कमरे में सभी दीवारें स्थिर हैं, आपको उनका कुछ विशेष पता नहीं चल रहा होगा। एक दीवार ज़रा-सी हिलने लगे, आपको उसका पूरा अनुभव होने लगेगा। आकाश का अनुभव नहीं होता, उस पर बादल तैरते रहते हैं उनका अनुभव हो जाता है। आप रेल में बैठे हैं, आपके बगल में एक और रेल खड़ी है, आपको अनुभव नहीं होगा उसका, वो चल पड़े तो आपको अनुभव हो जाता है।

स्थिरता का अपना कोई अनुभव नहीं होता है। इसी तरीके से शांति का भी अपना कोई अनुभव नहीं होता। शांति तो है ही अनुभव से निजात। हाँ, जहाँ अशांति मची, वहाँ का अनुभव होना शुरू हो जाएगा।

तो अनुभव ऐसा समझिए कि जैसे समस्या है, जो समाधान माँग रही है और अनुभव की समस्या का समाधान ये नहीं होता कि अनुभव-विलीन हो जाएँ, या अनुभव का दमन कर दिया जाए। अनुभव की समस्या का समाधान ये होता है कि मन अनुभव से ज़रा हट जाए, अनुभव चलता रहे, मन अनुभव के पीछे शांति में स्थापित रहे। क्योंकि मानव जन्म लिया है तो अनुभवों में जीना ही पड़ेगा। ये इंद्रियाँ, ये मन और किसलिए हैं? ये तो अनुभव करते ही रहेंगे।

संसार का अर्थ ही है कि कुछ चलायमान है, और चलायमान मात्र नहीं है, विचलित है। जो कुछ परिवर्तनशील है, चलायमान है, तुम उसकी गति को रोकने की कोशिश करोगे तो हार जाओगे, वो सब तो हिलेगा, डुलेगा, मचलेगा, उछलेगा, कूदेगा, चंचल है। उसके पीछे कुछ और होता है जो स्थिर बैठा होता है। और जब तुमने अपना नाता उस स्थिरता से जोड़ रखा होता है, अपितु कि चंचलता से, कि विक्षिप्तता से, तब तुम कहलाते हो 'आनंदित'।

तुम्हारे पास सदा विकल्प है,आदमी पैदा होने का अर्थ होता है विकल्प के साथ पैदा होना। ये भी है और वो भी है, तुम दोनों में से किसी के साथ भी जुड़ सकते हो। तुम अपना नाता किसी से भी बैठा सकते हो और नाता तुम्हें बैठाना पड़ेगा क्योंकि आदमी अपूर्णता में पैदा होता है, नाते की उसको प्यास रहती है। प्यासे तो तुम पैदा हुए ही हो, किसी न किसी से तो जुड़ना पड़ेगा ही। जीवन तुम्हारा कैसा बीतता है यह निर्भर इस पर करेगा कि तुम किससे जुड़ बैठे।

जो हिले-डुले जा रहा है, जिसको अपना ही आसरा नहीं है, जो स्वयं ही स्थिर, स्थायी नहीं है, जिसमें स्वयं ही इतनी मजबूती नहीं कि वो खड़ा हो सके इसीलिए वो चंचल है, तुम उससे भी जुड़ सकते हो, हक़ है तुम्हें। परमात्मा की प्रकृति आकर के न तुम्हें रोकेंगे, न चेताएँगे।

दुनिया के किसी कानून की नज़र में तुमने कोई अपराध नहीं कर दिया अगर तुम विचलन और विक्षिप्तता से सम्बद्ध हो बैठे। हाँ, बस अपने साथ थोड़ा अन्याय कर लिया। जो विचलन से जुड़ गया, वो विचलित हो गया। जो विक्षिप्तता से जुड़ गया, वो विक्षिप्त हो गया।

तुम जिससे जुड़ते हो वही तो तुम हो जाते हो, मन स्वयं तो कुछ होता नहीं, जैसी उसकी संगत होती है वैसी उसकी शक्ल हो जाती है।

आनंदित होने का अर्थ होता है उसके साथ जुड़ना, जिसके साथ जुड़ना सम्यक है।

तुमने सही चुनाव किया, उसका पुरस्कार है आनंद।

तुमने सही चुनाव किया, तुम इधर भी जा सकते थे, तुम उधर भी जा सकते थे। और गलत राह ज़्यादा आकर्षक थी, लुभा रही थी। तुम गलत राह नहीं चले, तुम सही दिशा गए, कोई तुम्हारी पीठ थपथपाता है, तुम्हें भेंट मिलती है, तुम्हारा उत्साहवर्धन किया जाता है, उस भेंट का नाम है आनंद।

ठीक तब, जब तुम्हें भेंट मिल रही है, उस वक्त भी जो हिल-डुल रहा था, वो तो हिल-डुल ही रहा है। इधर तुम्हें सम्मानित किया जा रहा है, उत्साहित किया जा रहा है, प्रेम दिया जा रहा है, और उधर वो जो प्रेम की तलाश में छटपटा रहा था, वो अपना काम जारी रखे है, उसका तो काम है वो। बस इतना है कि अब उसे तुम्हारा सहारा नहीं मिला है, और तुम्हें उसकी बीमारी नहीं मिली है, दोनों के लिए भला हुआ।

मन की छटपटाहट को तुम्हारा सहारा मिल गया होता तो वो और सघन हो जाती, वो और अनवरत हो जाती, और तुम मन की छटपटाहट से सम्बद्ध हो गए होते तो वो छटपटाहट तुम्हें भी छूत के रोग की तरह लग जाती। दोनों के लिए भला हुआ। जो छटपटा रहा था तुम उससे अलग हो गए, उसकी छटपटाहट की ऊर्जा कम हो गयी, अब वो बहुत ज़्यादा ना छटपटा पाएगा, और छटपटाएगा भी तो उसमें तीव्रता नहीं रहेगी। "अब वो मात्र छटपटाहट है, अब वो मेरी छटपटाहट नहीं है, मैं नहीं जुड़ा उससे।"

तुमने जुड़ने से इनकार कर दिया, "अब वो मात्र दर्द है, अब वो मेरा दर्द नहीं है, अब वो मात्र विचलन है, अब वो मेरा विचलन नहीं है, अब वो मात्र दु:ख है, मेरा दु:ख नहीं है।" उसकी धार चली गई, उसका वज़न गिर गया, उसकी औकात चली गई, वो ज़रा-सा रह गया। जैसे चाकू को चलाने वाला हाथ निर्जीव हो गया हो, अब चाकू बेचारा क्या कर लेगा? चाकू में धार अभी भी है, पर अब वो धार शक्तिहीन हो गई।

छटपटाहट चाकू थी, "मेरी छटपटाहट", हाथ में पकड़ा हुआ चाकू था, मेरे हाथ में पकड़ा हुआ चाकू। ये हूँ मैं, और ये है मेरी छटपटाहट (हाथ से इशारा करते हुए)। हाथ अलग खींच लो, छटपटाहट तो रहेगी, वो प्रकृति के गुणों की बात है। प्रकृति के गुण तो अपना काम करेंगे। माया नाचेगी, संसार में उथल-पुथल रहेगी लेकिन तुम्हारे ऊपर कोई पाबंदी नहीं है उससे जुड़ने की, तुम्हारे लिए आवश्यक नहीं।

तुम व्यर्थ ही विवश रहते हो, जहाँ मजबूरी नहीं वहाँ तुम मजबूर बने रहते हो। तुम ऐसे जीते हो जैसे तुम्हें कोई हक़ ही नहीं। और हक़ तुम्हें पूरा है, बस तुम हक़ का गलत इस्तेमाल कर रहे हो। हक़ का गलत इस्तेमाल ही ये बताता है कि तुम्हें हक़ तो था, हक़ ना होता तो तुमने उसका गलत इस्तेमाल कैसे किया होता? और अगर गलत इस्तेमाल कर सकते हो, तो सही इस्तेमाल भी कर सकते हो। सही इस्तेमाल किया तो फल क्या मिलेगा?

एक श्रोता: आनंद।

आचार्य: आनंद।

अपने हक़ के सम्यक प्रयोग का पुरस्कार है आनन्द! वरदान! आशीर्वाद!

समझ रहे हैं देवेश (प्रश्नकर्ता)?

जो लोग आनंद को एक विशिष्ट, पृथक, खास अवस्था की तरह ढूँढ रहे हैं, वो बेचारे ढूँढते रह जाएँगे, वो मिलेगी नहीं। या, उन्हें मिलेगी तो जैसे भ्रम मिलता है, वो दावा कर बैठेंगे, "फ़िलहाल हम आनंदित हैं"। मुझे मिलते हैं बहुत लोग, वो कहते हैं, "कुछ घड़ी का आनंद मिला था, फिर छिटक गया", मैं उनसे कहता हूँ, "जो छिटक जाए वो आनंद नहीं।" जो छिटक जाए वो तो सुख-दुःख है, सुख-दुःख की परिभाषा ही यही है कि वो आते हैं और?

जाते हैं, छिटक जाते हैं। आनंद भी ऐसा ही हो जाए कि अभी आया फिर गया तो आनंद में और सुख-दुःख में क्या भेद? फिर तो अद्वैत और द्वैत एक हो गए।

आनंद ऐसे है जैसे इस कमरे में प्रकाश; निरंतर, अकंप, स्थायी। प्रकाश है और प्रकाश में जिन्हें चलना-फिरना है वो चल-फिर रहे हैं। अब वो प्रकाश में चल-फिर रहे हैं, गिरेंगे नहीं।

समझना बात को। अब वो प्रकाशित हैं।

इसी तरीके से मन भी आनंदित होता है। जैसे ये कक्ष प्रकाशित है और क्योंकि ये कक्ष प्रकाशित है इसीलिए इस कमरे में अब जो भी गति होगी वो विक्षिप्त गति नहीं होगी, उस गति के पीछे होश होगा, जागृति है, समझदारी। आँख खुली हुई है, गिरोगे नहीं, क्योंकि प्रकाश है। इसी तरह से जब समस्त गति के पीछे स्थिरता होती है तो समस्त गति आनंदित होती है, जैसे अभी कमरा प्रकाशित है, तब गति आनंदित होती है। प्रकाशित कमरे में जो गति होती है, वो अंधेरे कमरे की गति से अलग होती है कि नहीं होती है? इसी तरीके से आनंद में जो गति होती है, वो दुःख की गति से या विक्षेप की गति से भिन्न होती है।

एक व्यक्ति आनंदित होकर चल रहा है, और एक व्यक्ति अनानंद में चल रहा है, दोनों की चाल में अंतर होगा। अब कर्म क्या है उनका इस वक़्त? कर्म दोनों का एक ही है, क्या, चलना। ऐसा नहीं है कि एक आनंद कर रहा है और दूसरा आनंद नहीं कर रहा है, बस एक की चाल के पीछे आनंद है और दूसरे की चाल के पीछे आनंद नहीं है।

आनंद वो जो सदा पीछे रहेगा, आगे-आगे तो कुछ और ही चलता रहेगा। आप आगे खोजेंगे आनंद को तो निराश हो जाएँगे, लोग यही भूल करते हैं। और, हैं कई गुरुजन जो कहते हैं कि आओ आनंद दिलाएँगे, और वो आनंद का अनुभव भी करा देते हैं।

आनंद का अनुभव नहीं होता, आनंद में बहुत सारे अनुभव होते हैं। फिर आपके रोज़मर्रा के अनुभव आनंदित रहते हैं। जैसे यहाँ इस कक्ष में साधारण काम-धाम ही हो रहा हो, साधारण काम-धाम, क्या? कोई चाय पी रहा है, कोई पानी पी रहा है, कोई पढ़ रहा है, कोई लेटा है, कोई दो लोग बात कर रहे हैं, साधारण काम, सफ़ाई चल रही है। पर वो सारे काम कब हो रहे हैं, जब प्रकाश है। जब प्रकाश है तो वो सारे काम कैसे होंगे?

उन कामों में गुणवत्ता रहेगी, वैसे ही, आनंद भी पीछे होता है और आगे आपके रोज़ के काम चल रहे होते हैं। रोज़ के काम चल रहे हैं, चाय पी रहे हैं, पंखे को ताक रहे हैं, दीवार पोत रहे हैं, नहा रहे हैं, खा रहे हैं, चल रहे हैं, खेल आए, बहस कर ली। काम सारे वही हैं, ऐसा नहीं है कि अब आप आनंद कर रहे हैं, काम तो सारे ही वही हैं, पर सारे कर्मों के पीछे आनंद का प्रकाश है। सारे कर्मों के पीछे आनंद का प्रकाश है।

आनंद को कहीं बाहर मत खोजिएगा, बाहर तो वही सब कुछ चलेगा जो चलता है। अवस्था क्या रहेगी? अभी हमारी अवस्था ये है कि हम जगे हुए हैं और दौड़ रहे हैं, अभी हमारी अवस्था ये है कि हम जगे हुए हैं और खा रहे हैं, अभी हमारी अवस्था ये है कि हम जगे हुए हैं और आँखें नींद से बोझिल हो रही हैं। अवस्थाएँ तो सब यही हैं बाहर की, पर ये सारी अवस्थाएँ आनंदित अवस्थाएँ हैं। जैसे पानी में शक्कर घोल दी गई हो। पानी तो है ही, कुछ और आ गया है जो दिखाई नहीं पड़ रहा, पर है। पानी में शक्कर घोल दो तो क्या दिखाई पड़ती है? पर कुछ आ गया है, आनंद ऐसे ही आ जाता है, कि चल तो रहे हो, पर चाल में कुछ हो गया है, ये आनंद है।

अब आप पूछ रहे हैं कि "अगर अलौकिक आनंद अनुभव और चेतना के पार होता है, तो चेतना नहीं है तो आनंद होता कहाँ है?" चेतना होती है, किसने आपसे कह दिया कि चेतना नहीं होती है? चेतना होती है। चेतना को पंख लग गए होते हैं। चेतना को किसी ने प्रेम से छू दिया होता है। आपको कोई प्रेम से छू देता है, तो आप क्या अदृश्य हो जाते हैं? विलीन हो जाते हैं? पर कुछ और हो जाते हैं। चेतना का वो हाल होता है आनंद के स्पर्श से।

ये बिल्कुल भ्रांति है कि आनंद तभी है जब चेतना नहीं है, चेतना रहेगी। चेतना रहेगी। चेतना खिल उठेगी। चेतना में से खुशबू आएगी। और चेतना में क्या होगा? चेतना में वही होगा जो चेतना में हो सकता है, ‘संसार’। आप दरवाज़ा खोलेंगे तो आपको बाहर खेल का मैदान दिखाई देगा, खुला आकाश दिखाई देगा, बच्चे दिखाई देंगे, स्त्री-पुरुष दिखाई देंगे, चेतना रहेगी। आप गाड़ी चलाएँगे, आपको सड़क दिखाई देगी, वाहन दिखाई देंगे, लोग दिखाई देंगे, हॉर्न सुनाई देगा, आप बैठेंगे तो आप कुर्सी पर ही बैठेंगे, आप नहाएँगे तो पानी से ही नहाएँगे। चेतना में जितने कार्य होते हैं और चेतना की जितनी सामग्री होती है सब मौजूद रहेगी, पर सब कुछ ऐसा होगा जैसे अब उस पर रोशनी पड़ रही हो।

संसार तो वही रहता है ना रात में भी? सुबह लेकिन खिल उठता है, जब सूरज की ताज़ी रोशनी पड़ती है तो संसार खिल उठता है। सुबह-सुबह पेड़ बदल जाता है क्या? पत्तियाँ बदल जाती हैं क्या? पर रात के अंधेरे में पत्तियों की कोई शान नहीं। और सुबह-सुबह क्या होता है? वही पत्तियाँ जैसे सोना हो जाती हैं। झील तुमने रात में भी देखी होगी और झील को तुम चाँदनी रात में भी देखना। अमावस की रात में भी झील देखी होगी और चाँदनी की रात में भी देखना, जब लहर-लहर पर चाँद का प्रतिबिंब होता है, हवा चल रही हो और ऊपर से चाँद बरस रहा हो। झील बदल गई क्या? लौकिक रूप से देखो तो झील वही है, पर चाँदनी छू गई उसको, सब बदल गया।

एक आनंदित व्यक्ति तुम्हारे सामने बैठा है, उसका वज़न बढ़ गया? उसका वज़न घट गया? उसके कंधे ज़्यादा चौड़े हो गए? उसका लिंग बदल गया? वो ज़रा-सा अदृश्य हो गया? व्यक्ति तो वही है, उसके पदार्थगत गुण तो बिल्कुल वही हैं, पर यदि वो आनंदित है तो उसमें ऐसी कुछ बात आ गई है, कुछ ऐसा नूर आ गया है कि तुम्हें भी अनुभव ज़रूर होगा।

आनंद चेतना के पार ज़रूर है पर वो चेतना को बदल के रख देता है, इसका मतलब ये नहीं कि चेतना कहीं चली जाती है। और बदल के वो वैसे ही रख देता है जैसे चाँद झील को बदल के रख देता है, जैसे सुबह की पहली किरण ओस की बूँद को बदल के रख देती है। ओस की बूँद तो भोर से पहले भी थी, कि नहीं थी? पर देखा जब उसपे किरण पड़ती है तो क्या हो जाता है? क्या हो जाता है? जैसे ओस की बूँद भी सूरज हो गई हो, अब उसका वज़न बढ़ गया। जो कुछ भी चेतनागत गुण है, वो तो वही रहे, पर कुछ बदल गया।

भौतिक रूप से देखो तो सबकुछ वही है, पर फिर भी कुछ बदल गया, तो आनंद ये कर देता है जीवन के साथ।

ऐसा नहीं है कि आप आनंदित हो जाएँगे तो आपका घर ज़्यादा बड़ा हो जाएगा। आप आनंदित हो जाएँगे तो ऐसा भी नहीं है कि आपका रंग बदल जाएगा, कि आपके रिश्तेदार दूसरे हो जाएँगे। आपका रंग नहीं बदलेगा, आपका ढंग बदल जाएगा। आपके रिश्तेदार नहीं बदलेंगे पर आपके रिश्ते बदल जाएँगे। रिश्तेदार बदले बिना भी रिश्ते बदले जा सकते हैं, रिश्तेदारों को मत सताना। अंग और रंग तो बदल नहीं पाओगे, तुम्हारा क्या ज़ोर है पर ढंग बदल जाएगा, वो आनंद की बात है।

कोई अंधा होगा वो दूर से देखे, कह दे, “ये तो वही आदमी है।” कोई आँख वाला होगा वो कहेगा, "सब बदल गया।" तुम कद नाप रहे हो क्या? कद वही है, बाकी सब बदल गया, ऐसा होता है आंनद का स्पर्श।

आनंद चेतना का विकल्प नहीं है, आनंद चेतना को विस्थापित नहीं कर देता। आपके मन में शायद कुछ ऐसा मॉडल है कि चेतना है, और जब आनंद को आना होता है तो चेतना को हटा दिया जाता है, अब आनंद आ जाता है। नहीं, ये बात मूर्खता की है। चेतना तो सदा रहती है पर जब आपने सुख-दु:ख की अपेक्षा आनंद को चुना होता है तो आपका चुनाव चेतना पर एक निखार ला देता है। चेतना कहीं चली नहीं गई, बस निखर गई।

फिर आप पूछेंगे कि कहने वालों ने ये क्यों कहा है कि वो चेतना के पार है? वो सामान्य चेतना के पार है। जैसी चेतना हम आमतौर पर देखते हैं वो उसके पार है। वो एक अलग श्रेणी की, एक अलग आयाम की चेतना होती है, जिसे आनंद ने स्पर्शित किया होता है। तो एक तो इस वजह से कहा कि चेतना के पार है, और दूसरी, इस वजह से कहा, कि चेतना सिर्फ़ जड़ पदार्थ को छू सकती है, पकड़ सकती है, आनंद जड़ पदार्थ तो है नहीं, तो इसीलिए कहा कि चेतना के पार है।

आप पुल के पार निकल जाते हो, पीछे मुड़ के देखते हो तो पुल गायब हो जाता है क्या? इसी तरीके से चेतना के पार जाने पर भी चेतना तो रहती है, बस आप चेतना से आगे के किसी से जुड़े, आपने नाता चेतना में घटती तमाम छवियों की जगह एक अपरिमित, असीम, अडिग शांति से बनाया। आप पुल से भी नाता रख सकते थे, आप छोर से भी नाता रख सकते हो, आप किनारे से भी नाता रख सकते हो, आपने तय किया कि आप नाता पुल से नहीं रखोगे, मंज़िल से रखोगे। पुल कहीं चला नहीं गया, बस पुल पर जो आप डगमग-डगमग होते थे, आपका डगमगाना चला गया।

देखा है, हवा चलती है लक्ष्मण-झूला कैसे काँपता है? अब उसपे खड़े हो तो तुम भी काँपोगे। तुमने झूले के काँपने को अपना काँपना बना लिया, कोई आवश्यक था कि तुम भी काँपो? झूले का काँपना तो आवश्यक है। तुम्हारा काँपना तुम्हारा चुनाव था क्योंकि तुमने चुना था झूले को, तुम किनारे को भी चुन सकते थे, तुम किनारे को भी चुन सकते थे।

और जब तुम किनारे पर खड़े हो तो झूला सुंदर लगता है, और जब तुम झूले पर खड़े हो और झूला तेज़ हवाओं में काँप रहा है, तब तुम्हारी क्या हालत होती है? तब तुम कहते हो, "ये झूला आफ़त है।" कहते हो ना? जैसे आम संसारी कहता है, "संसार आफ़त है, कहाँ फँस गए, कितना दुःख पा रहे हैं।" और यही जब तुम झूले को पार कर जाते हो और ज़रा दूर से झूले को देखते हो, तो काँपता हुआ झूला नयनाभिराम लगता है। तुम कहते हो, "वाह! क्या सुंदर दृश्य है," क्योंकि तुम अब झूले पर नहीं हो।

चेतना को रहने दो, पड़ी रहने दो। उसमें उठा-पटक चलती ही रहती है। कुछ अच्छा लग जाएगा, कुछ बुरा लग जाएगा, कुछ पा लोगे, कुछ गँवा दोगे, यही सब चेतना है, और क्या है चेतना? किसी का जन्म होगा, किसी की मृत्यु होगी, यही चेतना है। कोई दिन अच्छा बीतेगा, कोई दिन बुरा बीतेगा, लाभ-हानि, सर्दी-गर्मी, हर्ष-शोक, ये चलेगा। इतने किस्मत वाले नहीं हो तुम कि ये सब चलना बंद हो जाए। इतना किस्मत वाला कोई नहीं होता। ये चलेगा। झूला काँपेगा। सवाल बस ये है कि तुम कहाँ खड़े हो।

गहरी नदिया, नाव पुरानी।

दूर खड़े होकर के तुम चित्र ले रहे हो कितना सुंदर लगता है, मैंने भी ली है। बरसात की गंगा, और जर्जर नाव, और उसपे दो-चार लोग बैठे हुए हैं, और दूर किनारे पर खड़े होकर के तुम चित्र क्लिक (खींचना) किए जा रहे हो, "कितना..., क्या बात है।" और यही अगर तुम उसी नाव पर सवार हो तो? अब नाव तो जर्जर है ही, और नदिया भी गहरी?

श्रोता: है।

आचार्य: है ही। प्रश्न बस एक है, तुम कहाँ खड़े हो? तुमसे किसने कहा है कि तुम नाव पे?

दूर रहो तो बात काव्य की है, तुम कविता लिख सकते हो, "क्या नदी का बहाव है, इस बहाव में कैसी जर्जर नाव है", कोने पे बैठ के तुम कवि हुए जा रहे हो। और वो दो-चार जो अभागे नाव पर हैं उनकी साँस अटकी हुई है। उनका जीवन बच जाए यही कविता है।

ज़रा दूर से देखो तो संसार कविता है, और चढ़ गए नाव पे, तो वही संसार आपदा है।

उपनिषद क्या हैं, कविताएँ ही तो हैं। ऋचा का और क्या अर्थ होता है, कविता, विशुद्ध कविता, उच्चतम कविता, वो ऋचा कहलाती है। वो कहाँ से आई, किनारे पर बैठ के नदिया और नाव को देखने से आई। और तुम्हारे जीवन में क्यों नहीं है काव्य? क्योंकि तुम उसी नाव पर?

श्रोता: बैठे हो।

आचार्य: थपेड़े खा रहे हो, अब तुम क्या कविता करोगे? "हाय-हाय, राम-राम," यही तुम्हारी कविता होगी।

तो चेतना में पाएँ अपने आपको तो निराश मत हो जाइएगा, न अपने आपको हीन समझने लगिएगा। हमारे सामने ऐसे-ऐसे किस्से आ जाते हैं कि हम किस्सों के सामने ही दब जाते हैं। हमें बता दिया जाता है कि "अमुक बाबाजी थे, और फलाने ऋषि थे, वो अपनी चेतना को कहीं फेंक आते थे। एक थे बाबा बमलहरी, वो भंग के गोले में चेतना मिला के खा जाते थे, बची ही नहीं, चबा गए।" वो सब भंग के गोले में ही होता है। वो वाली आपको आनंदित अवस्था चाहिए तो भांग है, और भी हैं चीज़ें, गांजा, और क्या-क्या होता है?

उन किस्सों के सामने दब मत जाइएगा। आप चैतन्य ही रहिए, बस चेतना की पराकाष्ठा पर रहिए। विकृत, मिश्रित, अशुद्ध, मलिन चेतना न रहे।

विशुद्ध चैतन्य रहे। विशुद्ध चैतन्य का ही नाम समाधि है, उसी का नाम आनंद है, उसी का नाम शांति है, उसी का नाम परमात्मा है।

जब चेतना के पीछे परमात्मा होता है तो चेतना साफ़ होती है फिर आँखों को साफ़ दिखता है। उसी स्थिति को उपनिषदों ने, कृष्ण ने कहा है कि "ज्ञानी की इन्द्रियाँ स्वस्थ हो जाती हैं।" आपको अजीब लगेगा, आप कहेंगे, "इसकी आँखें ज़्यादा साफ़ होती हैं? कान में रुई डालता है, तेल डालता है, क्या करता है?" नहीं, इसका अर्थ ये होता है कि अब उसकी आँखें पूर्वाग्रहग्रस्त नहीं होतीं। अब उसकी आँखें मोह या भय के पर्दों से नहीं देखतीं। अब वो सीधे देखता है।

सीधे देख पाना ही तो आनंद है। सीधे देखेंगे तो दिखाई पड़ेगा कि भ्रमित होने के कितने मौके थे और आप बच गए। जैसे किसी ने आप के सर पे हाथ रख दिया हो, वरदान मिल गया हो। कहाँ-कहाँ नहीं फँस सकते थे आप पर किसी ने आपके सर पे हाथ रखा हुआ है, वरदहस्त है, आप बच गए। फिर मज़ा आ जाता है, फिर बुद्ध मुस्कुराते हैं, "इतने जाल बिछे हुए थे, हम नहीं फँसे।" कबीर कहते हैं, "माया हाट में बैठी थी फंदा ले करके, कबिरा गया काट," अब कबीर मुस्कुरा रहे हैं, ये आनंद है।

फंदे हैं, आपके लिए नहीं हैं। पुल हिल रहा है, आपके लिए नहीं हिल रहा। नाव जर्जर है, आप नहीं डूबेंगे। नाव कहीं गई नहीं, पुल कहीं गया नहीं, फंदे कहीं गए नहीं, माया कहीं गई नहीं और चेतना भी कहीं गई नहीं, बस साफ़ कर दी गई।

कबीर ने ये कहा क्या, कि चदरिया में आग लगा दो, कि फाड़ दो, तार-तार कर दो, कि ये कहा कि, चदरिया को साफ़ रखो। "जस की तस धर दीनी चदरिया," साफ़ थी, ज्ञान का साबुन लगाया, श्रद्धा के पानी से साफ़ किया, और जैसी थी वैसी बना के रखी। वो चादर ही चेतना है, चादर और क्या थी? तन-मन को ही तो चादर कह रहे हैं कबीर, और जहाँ तन-मन है वहाँ चेतना है। उसके दुश्मन मत बन जाइए, प्यारी चादर है, झीनी, चदरिया झीनी रे झीनी।

चेतना साफ़ रहे,(तो) इसी संसार में जो अनुभव होते हैं उन्हें फिर हम कह देते हैं आनंदपूर्ण अनुभव। चेतना गंदी रहे, तो इसी संसार से फिर जो अनुभव होते हैं, हमें कहना पड़ता है कि ये तो लिप्तता के, कटुता के, क्लेश के, आँसुओं के, पीड़ा के अनुभव थे। चेतना साफ़ रहे तो पीड़ा के पीछे भी आनंद है। आप कहेंगे, "मैं पीड़ा में भी आनंदित हूँ।" कोई आपसे पूछेगा कि अपना अनुभव बताओ साफ़-साफ़, तो आप कहेंगे, "आनंदयुक्त पीड़ा"। प्यार का दर्द है मीठा-मीठा, प्यारा-प्यारा, आनंदयुक्त पीड़ा।

"पीड़ा है?" "हाँ, है।"

"चेतना है?" "हाँ, है।"

"पुल काँप रहा है?" "हाँ, है।"

"हम आनंद में हैं, आनंदयुक्त पीड़ा।"

आनंदयुक्त कहना भी ऐसा लगता है जैसे आनंद और पीड़ा मिले-जुले हों, आनंदमग्न पीड़ा, पीड़ा जो आनंद में मगन हो गई है, खो गई है। मीरा कृष्णमग्न हो गई, पीड़ा आनंदमग्न हो गई, ऐसे।

कृष्ण नहीं हैं तो मीरा पीड़ा हैं, कृष्ण हैं तो मीरा आनंदित हैं।

आँसू, आँसू होते हैं, पर जब मन आनंदित होता है तो आनन्द के आँसू हो जाते हैं, नहीं तो क्षोभ के आँसू हैं।

जो सही है उससे जुड़े रहो, इसी संसार में राजा की तरह आनंद भोगोगे, मैं शब्दों का चयन होश में कर रहा हूँ, आनंद भोगोगे। क्या आशय है मेरा? सारे अनुभवों में आनंद की छाप रहेगी। सारे अनुभवों पर आनंद का प्रकाश रहेगा, इसी संसार में अतः तुम आनंद भोगोगे।

आनंद स्वयं कोई भोगने वाली चीज़ नहीं है, भोगी तो वस्तुएँ जाती हैं, आनंद कोई चीज़ है ही नहीं। बात ज़रा सूक्ष्म है, पकड़ में आ रही है ना? तो अगर कोई कहे कि मैं आनंद भोग रहा हूँ, तो वो सही भी हो सकता है और गलत भी हो सकता है। होश में कहा है उसने, कि आनंद भोग रहा हूँ, तो ठीक कहा है। पर आमतौर पर जिस अर्थ में लोग कहते हैं कि मैं आनंद भोग रहा हूँ, वो बेवकूफ़ी की बात होती है।

भोगा तो संसार ही जाता है, पर जब भोग में योग होता है तो आप कह सकते हो कि आनंद भोगा जा रहा है। और जो परमात्मा के साथ नहीं, जो सच्चाई के साथ नहीं, उनके लिए संसार यातना है। तुम्हारे लिए भी संसार अगर यातना है तो बस एक चीज़ जान लेना, कि जो सही है, जो सत्य है, तुम उसके साथ जुड़े हुए नहीं हो, तुम्हारे मन में उसका सम्मान नहीं। तुम पूर्ण प्रेम नहीं दे पाए, तुम झुक नहीं पाए, तुम श्रद्धा नहीं दे पाए, तुम खुल नहीं पाए। अन्यथा यातना कैसे तुम पर हावी हो जाती? आती, पर वैसे ही आती जैसे पुल को कँपकपी आती है। यातना तुम्हें आती, पर ज़रा दूर रह जाती और तुम उसके दर्शक मात्र होते।

यातना तुम पर हावी हो जाती है, बात सीधी है, तुमने चुनाव गलत किए हैं। तुम स्वयं को सत्य के ऊपर चुन रहे हो। तुम अकड़ को आत्मा के ऊपर चुन रहे हो। तुम गुरुर को गुरु के ऊपर चुन रहे हो। इसीलिए यातना भोग रहे हो, अन्यथा यातना कहाँ से?

यदि मात्र प्रकाश रहे और कोई वस्तु नहीं, तो आपको प्रकाश का पता नहीं चलेगा, याद रखिएगा। अंतरिक्ष से प्रकाश गुज़र जाता है, अंतरिक्ष में घनघोर अंधेरा रहता है, क्यों? क्योंकि वहाँ धूल भी नहीं है जिस पर प्रकाश पड़ सके। इसी प्रकार से आनंद का अनुभव तभी होगा जब कोई वस्तु हो, जब चेतना हो। प्रकाश का अनुभव कब होता है, जब प्रकाश किसी वस्तु पर पड़े, अन्यथा प्रकाश है ही नहीं।

तो वस्तुएँ चाहिए, देवेश जी (प्रश्नकर्ता),चेतना चाहिए आनंद के अनुभव के लिए। प्रकाश के अनुभव के लिए वस्तुएँ चाहिये, और आनंद के अनुभव के लिए चेतना चाहिए। इसका अर्थ ये नहीं है कि चेतना न हो तो आनंद हट जाएगा, इसका अर्थ बस ये है कि चेतना न हो तो आनंद तो रहेगा पर अनुभव नहीं रहेगा। अनुभव तो होते ही सब चेतना में हैं ना?

दुनिया को बदला नहीं जा सकता, दुनिया को सिर्फ़ प्रकाशित किया जा सकता है। प्रकाशित हो गई, अपने आप बदल गई।

तुम्हारी ज़िन्दगी को भी बदला नहीं जा सकता, उसे सिर्फ़ प्रकाशित किया जा सकता है, आनंदित किया जा सकता है। प्रकाशित हो गई, आनंदित हो गई, तो बदल गई।

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