आचार्य प्रशांत आपके बेहतर भविष्य की लड़ाई लड़ रहे हैं
लेख
ऐसे चुनोगे तुम कैरियर?
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
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(दिवस 1)

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, प्रणाम।

मेरा नाम निधीश है। शुरू से ही मैं निर्णय लेने में बहुत कमज़ोर रहा हूँ। मैंने इंजीनियरिंग करने का निर्णय भी दूसरों के प्रभाव में लिया था। इंजीनियरिंग ख़त्म हो चुकी है और अब मुझे आगे के करियर का चुनाव करना है। आप से सुना है कि काम वो करो जिसमें समय का पता न लगे, जो सार्थक और लायक हो। इस बार मैं चुनाव जागरुक होकर करना चाहता हूँ।

मेरे तीन विकल्प हैं: जर्मनी में एमएस, भारत से एमबीए, मेरे पिता का व्यवसाय। मैं इस बार सही चुनाव करना चाहता हूँ और आगे भी सही चुनाव करने की कला सीखना चाहता हूँ।

आचार्य प्रशांत: निधीश, अच्छा होता कि मेरे पास और ज़्यादा सूचना होती तुम्हारे अतीत के बारे में, तुम्हारे मन के फ़िलहाल के आकार के बारे में। क्या सोचते हो, क्या तुम्हारी धारणाएँ हैं, किस ओर को आकर्षित हो, ये सब मुझे अगर पता होता तो मैं और पुख्ता जवाब दे पाता। अब जितना अभी मेरे सामने आ रहा है इसके आधार पर कुछ कहता हूँ।

“जर्मनी में एमएस, भारत से एमबीए, मेरे पिता का व्यवसाय”—भाई, इन तीनों ही दिशाओं में एक ही चीज़ साझी है, पैसा। नहीं तो जर्मनी से एमएस करने में और भारत से एमबीए करने में मुझे बताओ और क्या साझा है? इन दोनों में कॉमन क्या है? एक जगह तुमको टेक्नोलॉजी पढ़ाई जा रही है, दूसरी जगह तुमको बिज़नेस मैनेजमेंट पढ़ाया जा रहा है। इन दोनों में तो कुछ भी साझा नहीं है न? तुमने ये तो कहा ही नहीं कि मेरा विकल्प है एमइस इन जर्मनी और एमटेक फ्रॉम इंडिया। तुमने अगर ये कहा होता कि तुम्हें जर्मनी से एमएस करने और भारत से एमटेक करने के मध्य चुनाव करना है, तो मैं तत्काल समझ जाता कि ये लड़का ‘टेक्नोलॉजी’ की तरफ़ झुका हुआ है। पर तुम टेक्नोलॉजी की तरफ़ कोई झुकाव नहीं रखते। तुम बिज़नेस मैनेजमेंट की तरफ़ भी कोई झुकाव नहीं रखते क्योंकि तुमने ये भी नहीं कहा कि एमबीए फ्रॉम इंडिया ; वर्सेस एमबीए फ्रॉम अब्रॉड , तो माने तुम टेक्नोलॉजी भी छोड़ने को तैयार हो, तुम एमबीए भी छोड़ने को तैयार हो।

तो शायद तुम्हारा पढ़ाई से लगाव होगा क्योंकि देखो दोनों में ही एक चीज़ तो साझी है ही, एमएस और एमबीए में, क्या?

पढ़ाई।

ये पक्का हो गया है कि न तुम्हें एमएस करनी है न तुम्हें एमबीए करना है, क्या पता तुम्हें पढ़ाई करनी हो भई। २ साल अभी तुम्हारा या ३ साल कैंपस में रहने का मन हो। एमएस और एमबीए में पढ़ाई और कैंपस तो साझे हैं ही। पर तुमने इस अनुमान पर भी धूल फेंक दी तीसरा विकल्प बताकर के, ‘ज्वाइनिंग माय फ़ादर्स बिज़नेस’ *(पिता के व्यवसाय से जुड़ना)*। माने बेटा तुम्हें पढ़ने से भी कोई मतलब नहीं है।

ना तो तुम्हें टेक्नोलॉजी से कोई लगाव है, ना तुम्हारा बिज़नेस स्टडीज से कोई झुकाव है, ना तुम्हारा किसी कैंपस से ही कोई लेना-देना है। तीसरा विकल्प बता रहे हो, ज्वाइनिंग माय फ़ादर्स बिज़नेस। तो इन तीनों में कुछ भी साझा नहीं है। तुम्हें बिज़नेस भी नहीं करना है, तुम्हें टेक्नोलॉजी भी नहीं पढ़नी है, तुम्हें एमबीए भी नहीं पढ़ना है। तीनों में जो एक साझी चीज़ है वो ये है कि तीनों को ही कर के आगे का एक समाज-स्वीकृत (सोशली-अक्सेप्टेबल) और प्रतिष्ठित (रेस्पेक्टेबल) भविष्य तैयार हो जाता है।

तुमने तीन वो रास्ते चुने हैं जिन तीन रास्तों पर चलकर लड़की बढ़िया मिल जाएगी तुमको शादी करने के लिए। यही साझा है इनमें। ये जो तुमने तीन रास्ते चुने हैं, इन तीनों में साझा ये है कि इन तीनों को ही तुम अपनी फेसबुक प्रोफाइल पर चिपका सकते हो और कह सकते हो कि देखो मैं बढ़िया काम कर रहा हूँ।

कोई मिले, पूछे, “क्या कर रहे हो?,” बड़ी ठसक के साथ कह सकते हो, “एमएस फ्रॉम जर्मनी (जर्मनी से एमएस)”। कोई मिले, पूछे, “क्या कर रहे हो? बड़ी ठसक के साथ बोल सकते हो, “एमबीए फ्रॉम एन आइआइएम (एक आइआइएम से एमबीए)”। कोई पूछे, “क्या कर रहे हो?”, उतनी ही ठसक के साथ कह सकते हो, “आय हैव जस्ट टेकेन ओवर माय फ़ादर्स बिज़नेस (मैंने अभी अपने पिता के व्यवसाय को सँभाला हुआ है)”। इन तीनों में कुछ भी साझा नहीं है सिवाय एक खोखली ठसक के। ये तीनों ही तुम सामाजिक रूप से अनुमोदित, सोशली-रिकमेंडेड तरीक़े लेके आए हो और मेरे सामने रख दिया है। बोलो मैं करूँ क्या इनका?

तुम बेटा इन तीनों रास्तों में से किसी पर भी चले जाओ, चौथा रास्ता मत अपना लेना। चौथा रास्ता है, आचार्य जी से सवाल पूछने का। वो तुम्हारे लिए बड़ा ग़लत रास्ता हो जाएगा। वो तुरीय हो जाएगा तुम्हारा। मैं ये जो पहले के तीन हैं ये तीनों भुलवा दूँगा। ये सब तुम्हारी चेतना की तीन झूठी अवस्थाएँ हैं जो तुमने यहाँ पर लिखकर भेज दिया है मुझे।

भाई विकल्प तो विकल्प तब होते हैं न जब उनमें, तीनों में आपस में कुछ मूलभूत अंतर हो। कोई मूलभूत अंतर ही नहीं है इन तीनों चुनावों में। आचार्य जी हैं वीगन (शुद्ध- शाकाहारी), तुम उनसे आकर के पूछो, आचार्य जी, मैं क्या खाऊँ, मेमने का माँस खाऊँ, मछली का खाऊँ, या घोड़े का खाऊँ?”, तो आचार्य जी कुछ और ही खिलाएँगे फिर तुमको। ये तुम क्या तीन विकल्प लेकर आ गए?

कह रहे हो, “मैं इस बार सही चुनाव करना चाहता हूँ और आगे भी सही चुनाव करने की कला सीखना चाहता हूँ”। ये तुमने जो तीन विकल्प निकाले हैं न, तुम इन्हीं में घुस जाओ और पूछो अपनेआप से कि ये तुम्हें कहाँ से मिले?

बिलकुल ठीक करा है तुमने, विनम्रता और ईमानदारी के साथ लिखा है कि शुरू से ही निर्णय लेने में कमज़ोर रहा हूँ। इंजीनियरिंग करने का निर्णय भी, तुम कह रहे हो तुमने दूसरों के प्रभाव में लिया था। बेटा, तुम्हारी जो कहानी है पुरानी, तुम्हें दिख नहीं रहा है एक बार फ़िर अपनेआप को दोहरा रही है? ठीक जिस तरीक़े से तुम इंजीनियरिंग करने निकल पड़े थे, न जाने किन-किन लोगों के प्रभाव में, बिलकुल उसी तरीक़े से अब तुम एमएस करने, एमबीए करने और कैरियर बनाने निकल पड़े हो, और तुम कुछ जानते नहीं तुम क्या करने जा रहे हो।

तुम कहाँ से ये तीन विकल्प उठा लाए? इससे अच्छा तो ये कि तुम कुछ मत करो, एक साल घर पर बैठो, भारत भ्रमण करो, विदेशों का भ्रमण करो। किताबें पढ़ो, कुछ ग्रंथों को पढ़ो, अपनेआप को जानो, फ़िर विकल्प निकलेंगे।

ये कोई विकल्प ही नहीं हैं। ये अल्टरनेटिव्स नहीं हैं। ये तो एक्सटेंशन हैं, कंटिन्युएशन हैं तुम्हारी पास्ट लाइफ का। जैसे तुम जीते आए हो, तुम उसी चीज़ को आगे भी बढ़ा रहे हो, प्रक्षेपित कर रहे हो। पुरानी ही लकीर को तुम आगे खींच रहे हो, और लम्बा कर रहे हो। अगर पुरानी लकीर तुम्हारे काम नहीं आयी आज तक तो उसको आगे कर के क्या पा जाओगे?

ये मत करो।

मैं नहीं कह रहा हूँ कि ये तीनों ही रास्ते अनिवार्य रूप से तुम्हारे लिए घातक हैं। मैं यही कह रहा हूँ कि इन तीनों रास्तों में से जहाँ तक मैं देख पा रहा हूँ, तुम्हारा ‘अपना’ कोई रास्ता नहीं है। निश्चित रूप से ये तीनों ही घातक हैं, ऐसा मैं अभी नहीं कह सकता। लेकिन इतना मैं ज़रूर कह सकता हूँ कि इन तीनों में से ही कोई भी रास्ता फ़िलहाल ‘आत्मिक’ नहीं है तुम्हारे लिए; ‘अपना’ नहीं है, ‘निजी’ नहीं है। ये तीनों ही बाहर से आए हुए, आयातित, इंपोर्टेड रास्ते हैं।

तुम प्रभावित हो दुनिया से, समाज से और उनके प्रभाव में तुम इन रास्तों की ये सूची मेरे सामने ले आए हो। मुझसे पूछोगे तो मैं वही कहूँगा जो अभी थोड़ी देर पहले कहा, तुम ब्रेक लो। कम-से-कम छह महीनों का या साल भर का अवकाश लो और उस माहौल से दूर जाओ जिस माहौल में आज तक रहे हो।

पढ़ो, लिखो, यात्रा करो, नए-नए लोगों से मिलो। अपनी चेतना को थोड़ा विस्तार दो। जीवन के उन पहलुओं को भी जानो जिनको आजतक तुमने कभी देखा नहीं, जाना नहीं, ध्यान नहीं दिया। उसके बाद तुम सही स्थिति में आओगे आगे का फैसला करने के लिए।

अभी वैसे भी ऐसी कोई जल्दी, हड़बड़ी नहीं है। कम ही तुम्हारी उम्र है। थोड़ा वक़्त लगाकर के फ़ैसला लो, कोई दिक्कत नहीं हो जाएगी। लेकिन जल्दबाजी में ग़लत दिशा में तुम अपनेआप को धकेल दो तो गड़बड़ हो जाएगी। तो सब्र करो, समय लो, मन को जानो, जीवन को जानो, फ़िर छह महीने, साल भर में कोई निर्णय स्वयं ही तुम्हारे सामने उभरने लगेगा।

(दिवस २)

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, कल आपने मेरे प्रश्न के दिए उत्तर में तीनों ही विकल्पों को मूलभूत रूप से एक बताया और मुझे छह महीने से साल भर तक ब्रेक लेने का, पर्यटन करने का, और जीवन को, मन को, दुनिया को समझने का सुझाव दिया।

कल सत्संग ख़त्म होने के बाद शिविरार्थियों से और स्वयं सेवकों से बात-चीत हुई जिसमें मेरी तरफ़ से यही मत था कि यह व्यावहारिक नहीं है और मैं कर नहीं पाऊँगा। इस वक़्त मैं जहाँ काम कर रहा हूँ वहाँ मुझे मशीनों के साथ खेलना होता है और मशीनों के साथ कुछ समय से मेरा एक आकर्षण भी बन चुका है। जब इन मशीनों के साथ रहता हूँ तो इन्हीं मशीनों से संबंधित कुछ व्यापार करने का भी खयाल मेरे अंदर आता है।

आचार्य जी, आज के सत्र में यह सवाल पूछना चाहता हूँ कि आपने जो सुझाव दिया है अगर वह मुझे व्यावहारिक नहीं मालूम पड़ रहा हो या फ़िर उसको करने में परिवार की ओर से मुझे कठिनाई महसूस हो रही हो, तो इस स्थिति में मैं क्या कर सकता हूँ?

आचार्य प्रशांत: मैने कब कहा कि मैं आसान सुझाव देता हूँ? व्यावहारिक तो तुम्हें वही मालूम पड़ेगा न जिसका व्यवहार तुम आजतक करते आए हो। और जिसका व्यवहार तुम आज तक करते आए हो उससे तुम्हें लाभ ही हो गया है तो फ़िर किसी और से कोई प्रश्न इत्यादि पूछने की ज़रूरत क्या है?

बड़ी अजीब ज़िद है ये। ज़िद है; जिज्ञासा नहीं है ये। तुम कह रहे हो कि “व्यावहारिक नहीं मालूम पड़ता”। कोई घुटनों पर चलने की ज़िद पकड़ के बैठा हो और मैं उससे कहूँ कि ज़रा लाइब्रेरी के शेल्फ से फलानी किताब उठा कर देदे मुझको, वो कहे, “ये बात तो मुझे व्यावहारिक नहीं मालूम पड़ती”। बिलकुल व्यावहारिक नहीं है, जब तक तुम घुटनों पर ही चल रहे हो।

तुमसे तो मैंने कहा ही है शेल्फ से किताब निकालकर देने को ताकि तुम घुटनों पर चलने का व्यवहार छोड़ कर के ज़रा सीधे मर्द की तरह खड़े हो जाओ, हाथ बढ़ाओ, और किताब निकालो। लेकिन तुम कह रहे हो कि नहीं, मैं जैसा हूँ, जैसा मन रखता हूँ, जैसा आचरण-व्यवहार करता हूँ, मैं तो वैसा ही करूँगा। आप मुझे कोई ऐसी चीज़ बताइए जो मैं घुटनों के बल रेंगते-रेंगते ही कर सकूँ। मैं काहे को बताऊँ ऐसी चीज़ तुमको?

और बड़ी मज़ेदार बात है, कल तुम तीन विकल्प लेकर आए थे, अगर मैं सही याद कर रहा हूँ, एक था एमएस इन जर्मनी, एक था एमबीए इन इंडिया, एक था तुम अपने पिताजी का मेरे खयाल से कुछ पत्थर इत्यादि का व्यवसाय है वो करना चाहते थे।

प्र: बिज़नेस (व्यवसाय)।

आचार्य जी: हाँ, हाँ। लिख कर के भेजा है कुछ, पिताजी का पत्थर इत्यादि का व्यवसाय है, तुम उसको ज्वाइन करना चाहते थे। और आज तुमने एक चौथा भी निकाल दिया चौबीस घंटे के अंदर, कि मैं मशीनों के साथ काम करता हूँ, वो मशीनों का करना है। मालूम नहीं ये चौथा और तीसरा एक हैं या अलग-अलग हैं या क्या हैं। तीसरा है तो भी यही पता चलता है कि तुम पहले तीन पर ही अटके हुए हो, और ये चौथा है तो फ़िर तो जय राम जी की!

मैं इसमें बहुत इससे आगे कह नहीं पाऊँगा। चिकित्सक की सलाह को व्यावहारिकता, अव्यावहारिकता पर नहीं नापा जाता। व्यावहारिकता की दुहाई देना अपने अहंकार को, अपने पुराने ढर्रों, और अपनी वृत्तियों को बचाने का तर्क है, हम्म? व्यावहारिकता मतलब समझते हो न? प्रेक्टिकेलिटी। भई, जिस चीज़ का तुम व्यवहार करने लग जाओ वो व्यावहारिक हो गई। जिस चीज़ की तुम प्रैक्टिस करने लग जाओ वो प्रैक्टिकल हो गई। जिस चीज़ को तुमने ठान ही रखा है कि मुझे करना ही नहीं, वो तो इम्प्रैक्टिकल हो ही गई न?

अब उसमें मैं तुम्हें क्या समझा पाऊँगा? तुमने निश्चय कर लिया है कि मुझे फलानी चीज़ करनी ही नहीं, डर लगता है मुझे, और फलानी चीज़ करनी ही है, क्योंकि उसकी आदत है मुझे, तो फ़िर मैं तुम्हें क्या समझा सकता हूँ? तुमने पहले ही निश्चय कर लिया है। जब निर्णय पहले ही कर चुके हो तो मैं उसमें आगे की सलाह दूँ, कोई लाभ नहीं।

(दिवस ३)

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, आपने मुझे कुछ सुझाव दिया था और मैने उस सुझाव को अव्यावहारिक माना, इस बात के लिए मैं आपसे क्षमा चाहता हूँ। कल मैने आपके द्वारा दिए गए उत्तर की वीडियो घर पर दिखाई, वो खुश हुए और उन्होंने आपको सुनकर मुझे ब्रेक लेने की सहमति दी।

आचार्य प्रशांत: मैने सुझाव दिया था कि तुम अभी ज़रा अवकाश ले लो, ब्रेक ले लो।

प्र: अब इस ब्रेक के दौरान मुझे आपके आशीर्वाद की ज़रूरत है ताकि जीवन और मन के नए पहलुओं को जान सकूँ। आचार्य जी, शिविर में दी गई रीडिंग्स और पुस्तकों के अलावा कौन से ग्रंथ हैं जिन्हें इस ब्रेक में पढ़ना मेरे लिए लाभप्रद होगा? धन्यवाद।

आचार्य जी: सबसे पहले तो ऐसा नहीं है कि एक ही दिन के भीतर तुम्हारा मन बड़ा परिवर्तित हो गया है। कल तुम मेरा विरोध करने पर उतारू थे क्योंकि तुम्हें डर लग रहा था कि तुमने अगर मेरी कही बात पर आचरण करा तो घरवाले क्या कहेंगे। आज तुम्हें मेरी कही बात बड़ी सुहा रही है क्योंकि तुम्हारे घरवालों ने मेरी बात का समर्थन कर दिया है।

तो तुम मुझसे क्या आशीर्वाद माँग रहे हो, तुम मेरे कहे पर थोड़े ही चल रहे हो। (हँसते हुए) तुम्हें दिख नहीं रहा तुम क्या कर रहे हो? तुम मेरी कही बात को अपने घरवालों के समक्ष लेके गए और तुम्हें बड़ी राहत मिली जब उन्होंने कह दिया, “हाँ, ठीक है। ये, ये ठीक है। तुम ये कर लो”। और मेरी कही बात का अगर उन्होंने विरोध कर दिया होता तो आज तो तुम शायद ये सवाल पूछने के लिए शिविर में भी नहीं बचते।

तुम्हें अभी बहुत, बहुत अपनेआप को समझने की ज़रूरत है। डरे हुए हो, अनिश्चित हो, चिंता से भरे हुए हो, हम्म? पूछ रहे हो कि शिविर में दी गई रीडिंग्स और मिली पुस्तकों के अलावा कौन से ग्रंथ हैं जिन्हें इस ब्रेक में पढ़ना लाभप्रद होगा?

और फ़िर मैं जो तुम्हें अभी ग्रंथों की सूची बताऊँगा, उसकी वेटिंग (पुनरीक्षण) किससे कराने जाओगे? (हँसते हुए) हम्म?

तुम ग्रंथ इत्यादि मत पढ़ो, तुम आयन रेंड की फाउंटेनहेड पढ़ो।

आयन रेंड की ‘द फाउंटेनहेड’।

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