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लेख
अहंकार कब ख़त्म होता है? || आचार्य प्रशांत (2016)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
23 मिनट
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प्रश्नकर्ता: अहंकार कब ख़त्म होता है?

आचार्य प्रशांत: जब उसको अपने ख़त्म होने में कोई रुचि न रह जाए। आपका सवाल बताता है कि अभी उसके ख़त्म होने में रुचि है आपको। किसके ख़त्म होने में रूचि होती है? जिसके होने का एहसास होता है।

अहंकार उस दिन ख़त्म हुआ जानिए, जिस दिन ये प्रश्न ही मिथ्या हो जाए कि अहंकार से मुक्ति कैसे पाएँ या कि अहंकार के मुक्ति के मायने क्या हैं। जिस दिन तक आप मुक्ति की तलाश कर रहे हो, उस दिन तक पक्का है कि मुक्त हो नहीं आप। मुक्त वो जिसे अब मुक्ति से कोई प्रयोजन ही न रहा – "हमें मुक्त होना ही नहीं है, हम हैं बंधनों में, ठीक हैं, मस्त हैं।"

अब यह वक्तव्य ख़तरनाक है क्योंकि ये तमाम स्त्रियों का वक्तव्य है, पहले चरण से लेकर चौथे चरण तक – "हम जैसे हैं ठीक हैं, हमें क्यों कुछ बताते हो?"

पर ये बात ज़रा अलग है, इसकी सुगंध ज़रा अलग है, इसमें एक ख़रापन है। ये ऐसी मुक्ति है जो अब 'मुक्ति' शब्द को भी भूल गयी है। इसने कुछ ऐसा पाया है कि इसे अब खोने का और पाने का ख़याल भी नहीं है। कोई यहाँ ऐसा बैठा है जो बीच-बीच में अपनी साँस को पकड़कर देखता हो कि, "कहीं भाग न जाए?" जिसका आपको भरोसा होता है कि खोया नहीं जा सकता, आप उसकी जाँच-पड़ताल नहीं करते, आप उसको पाने की विधियाँ नहीं खोजते। यहाँ कोई ऐसा बैठा है जो बार-बार आँखों के पीछे जाकर के देखता हो कि कहीं रोशनी बुझ न जाए? आपको कोई अंदेशा नहीं कि साँस खो सकती है, कि आँखों के पीछे की रोशनी जा सकती है, इसीलिए आप उनके बारे में चिंतन ही नहीं करते। हाँ कोई मरीज़ हो जिसे साँस की बीमारी हो, कोई मरीज़ हो जिसे आँख की बीमारी हो, वो ज़रूर जाँचेगा, और उसको ज़रूर ख़याल आएँगे।

मुक्ति का अर्थ ही यही है कि इतनी आश्वस्ति है मुक्ति में, कि अब हम मुक्ति की बात ही नहीं करते।

और ये बातें चौथे चरण वाला कभी आसानी से स्वीकार करता नहीं है। अहंकार के निर्वाण की कोशिश अहंकार को बनाए रखती है क्योंकि कोशिश करने वाला तो अहंकार ही है। आप मुक्ति का जितना प्रयास करेंगे, आप उतना ज़्यादा अमुक्त रहेंगे, क्योंकि प्रयास ही तो बंधन है।

आप चेष्टा कर रहे हैं बिना ये देखे कि चेष्टारत कौन है। आप कर्म कर रहे हैं बिना ये देखे कि कर्ता कौन है। आप दाएँ जाएँ कि बाएँ जाएँ, अपने पैरों से दूर थोड़े-ही चले जाएँगे। आपकी हालत वैसी ही है जैसे कोई अपने पैरों से मुक्ति पाने के लिए कभी बाएँ भागता हो और कभी दाएँ। आप जिधर को भी भागते हैं, अपने पैरों से ही भागते हैं। और जितना भागेंगे, उतना ज़्यादा आपके पाँव मज़बूत ही होते जाएँगे। भागने वालों को भागने की आदत लग जाती है, भागने वालों के पाँव फिर ऐसे हो जाते हैं कि भागे बिना रुकते नहीं। वो फिर पेशेवर धावक हो जाते हैं। और भाग किससे बचने के लिए रहे हैं? पैरों से।

च्वांगज़ू की कहानी है जिसमें एक व्यक्ति अपनी पदचाप से इतना आक्रांत हो जाता है कि पदचाप से बचकर भागता है। अपने ही पाँव की गूँज डरा-डरा देती है उसको, और भागते-भागते जब थक के गिर पड़ता है तो पाता है कि जिससे डर के भाग रहा था वो उसके गिरने के साथ ही गिर गया। अब कोई नहीं डरा रहा उसे।

प्रश्नकर्ता 1: सर, आप कहते हैं चीज़ें जैसी हैं उनको वैसा देखो, पर बीच में विचार आ जाते हैं।

आचार्य प्रशांत: इतना तो पता है न कि विचार हैं?

प्रश्नकर्ता 1: हाँ, जी।

आचार्य प्रशांत: तो बस हो गया। अब छुटकारा और कितना पाना है? आपके चेहरे पर होली के बाद कितने रंग लगे होते हैं, कोई गिनती है? पाँच-सात-दस तरीके के रंग लगे होते हैं। रंग ही नहीं लगा होता और भी चीज़ें लगी होती हैं। जब आप उनको छुड़ाते हो तो प्रत्येक रंग का सावधानीपूर्वक पहले निरूपण करते हो क्या कि इतना जो है ये पीला, और पीले के नीचे ज़रा दाएँ तरफ है नीला? या आप बस छुड़ा देते हो? कचरे का डब्बा होता है, उसमें कचरा भरा होता है, आप पहले जाकर के कचरे पर शोध करते हो कि—कितने प्रकार का है? कितना वज़न है? बदबू में तीव्रता कितनी है? ये सब करते हो क्या? या बस कचरे का पूरा डब्बा उठा करके मुक्त हो जाते हो? फेंका!

विचार हैं! अच्छे हैं कि बुरे हैं? आशा के हैं कि निराशा के हैं? पाने के हैं कि खोने के हैं? क्या हैं?

प्रश्नकर्ता 2: विचार।

आचार्य प्रशांत: उठाओ और फेंको! और डब्बा रख दो क्योंकि डब्बे में तो कचरे को आना ही आना है। मन है डब्बा, उसमें और कुछ नहीं भरा रहेगा। आने दो, आने दो, आने दो, पर जानते रहो कि क्या है। उसके बाद उसके बारे में और चिंता की तो तुम कचरे में अब संलग्न हो रहे हो। जिसने कचरे में मुँह दे दिया, हो सकता है कि उसका मुँह भी अब कचरा ही हो जाए। जो विचारों की व्याख्या करने बैठ गया, वो विचारों में और उलझ गया। आ रही है बात समझ में?

विचारों से मुक्ति कैसे पाएँ? अरे, जान गए न 'विचार' हैं? अब मुक्ति क्या चाहिए? जान गए न कि रंग लगा है? अब मुक्ति क्या है? लो घिस दो। कचरा है, मुक्ति क्या? उठाकर फेंक दो! या क्या करोगे? उसपर निबंध लिखोगे? पुस्तक छापोगे —एक कचरे की आत्मकथा? फेंको! ख़त्म!

मैं बताता हूँ ये प्रश्न आ कहाँ से रहा है। प्रश्न यहाँ से आ रहा है कि आपको अभी भी आशा है कि विचारों में क्या पता कोई अच्छा वाला विचार भी हो, तो ज़रा तरीक़ा बताइए कि गंदा-गंदा एक तरफ़ कर दें और अच्छा-अच्छा जेब में रख लें। मैं आपको नाउम्मीद करूँगा। अच्छा आ रहा हो कि गंदा आ रहा हो, सब एक जैसा है।

और मुझे कचरे से कोई घृणा नहीं है, जीवन का हिस्सा है कचरा। आप जैसे जीते हैं, उसमें मल का उत्पादन तो होना ही होना है। आप कुछ हो जाएँ, आप बुद्ध हो जाएँ, तो भी मल तो उत्सर्जित करेंगे। कचरे से कोई घृणा नहीं, जीवन का हिस्सा है। बस जान जाइए कि 'कचरा' है। मल में समस्या नहीं है, समस्या तब है जब आप मल को गंगाजल समझ लें। मल तो ठीक है, सुबह का साथी है, रातों का चैन है। जिन्हें कब्ज़ रहती है उनसे पूछिए उनकी रातें कैसे जाती हैं। विरहिणी स्त्री भी सो लेती होगी! मल में क्या समस्या है? पर मल जब बन जाए आम का फल, कहे पीला-पीला है ये भी, तो दिक़्क़त है फिर।

जानिए कि 'विचार' है। बस हो गया! अब विचार से कुछ ऐसा नहीं कि, "अरे, विचार कहाँ से आ गया? लाओ दोनाली लेकर आओ, विचार को गोली मारेंगे।" जान लीजिए कि बस विचार है, इतना बहुत है। "क्या ख़याल आया? हमने ऐसा सोचा?” सोच ही तो है। "हमने ऐसा सोचा,” हो गया बस, बात खत्म! इससे आगे बढ़ानी ही नहीं है बात। "मुझे ऐसा लगा, मुझे ऐसा एहसास हुआ, मेरे मन में ऐसी बात उठी, बस हो गया! बात ख़त्म!"

प्रश्नकर्ता 2: जब आपसे प्रश्न पूछते हैं तो मुझे ऐसा लगने लगता है कि प्रश्न के अंत तक या जवाब तक या तो प्रश्न बेकार का था, या बेवकूफी का था। अब प्रश्न बहुत कम हो गए हैं वैसे। पहले इस तरह के किसी सेशन में जाता था तो बहुत प्रश्न उठते थे।

आचार्य प्रशांत: वजह उसकी साफ़ है। हम में से ऐसा कोई नहीं है जिसे सब कुछ पता न हो। सवाल ये है कि, "सवाल पूछते हैं तो ऐसा लगता है कि सवाल व्यर्थ ही था, और सवाल कम भी हो रहे हैं।" वक्तव्य है, सवाल नहीं है।

तो ठीक है, ऐसा होना ही है। सवाल का मतलब होता है जवाब में आस्था। सवाल का मतलब होता है ये धारणा कि उत्तर से शांति मिल जाएगी। सवाल का मतलब होता है ये विश्वास कि हमें कुछ पता नहीं है। ये धारणा ही आधारहीन है। सब कुछ तो पता है आपको। कोई यहाँ ऐसा नहीं बैठा है जिसे असली बात पता न हो, जिसे सत्य से दूरी हो। आप नावाकिफ़ हो तो आपको कुछ बोला भी जाए, दिल सब कुछ जानता है। कोई ऐसा नहीं है जिसके हृदय में सच्चाई न बैठी हो। प्रमाण उसका ये है कि तभी तो मैं जो बोलता हूँ उससे आप इतनी जल्दी सहमत हो जाते हो। अगर मैं कुछ ऐसा बोल रहा होता जिसकी आपको ख़बर ही नहीं है, तो आपको ऐसा क्यों लगता कि जैसे मैं आपकी ही बात बोल रहा हूँ? अगर मैंने कुछ ऐसा बोल दिया होता जो आपके लिए बिल्कुल अनूठी और दूर की बात है, तो आप कहते, "ये क्या कह दिया?” तो आपको ताज्जुब हो जाता। आपको अचंभा हो जाता।

आप जानते हैं कि आपके भीतर से ये प्रतिक्रिया तो नहीं उठती। आपको ऐसा लगता है कि जैसे आप अपनी ही आवाज़ सुन रहे हो। आपको ऐसा लगता है जैसे कि आपके ही दिल की बात मेरे माध्यम से आप तक पहुँच रही हो। आपको ऐसा लगता है जैसे आपके सामने आईना रख लिया गया हो, जो आपको आपका ही प्रतिबिंब दिखा रहा हो। कुछ नया नहीं, कुछ ऐसा नहीं जिसका आपको कोई अंदाज़ा ही नहीं था। और अंदाज़ा भी बहुत दूर का शब्द है, अंदाज़े में तो कल्पना करनी पड़ती है, मैं गहनतम बोध की बात कर रहा हूँ। आप भलि-भाँति परिचित हैं उससे जिसको मैं शब्दों में बाँधने की चेष्टा करता हूँ। और यदि आप परिचित नहीं हैं, तो मेरे शब्द निष्फल ही जाने हैं।

यदि आपने ठान ही रखा है ये कहने का कि नहीं जानते आप, तो मेरा कहना व्यर्थ ही जाना है। तो आप बोलते हैं और बोलते-बोलते जान जाते हैं कि क्या पूछ रहा हूँ, जानते-बूझते अनजान होने का नाटक कर रहा हूँ, तो मुस्कुराकर चुप हो जाते हैं। "अरे! कौन इतना परिश्रम करे कि अपना वाक्य भी पूरा करें!”

एक दिन ऐसा आएगा कि पूछने के लिए मुँह खोलेंगे, दो शब्द बोलेंगे, और बीच में कहेंगे, "छोड़ो न! बात पूरी भी कौन करे! इतनी भी औपचारिकता कौन रखे कि वाक्य अधूरा न छोड़ें!” बोलना शुरू किया था, अटक गए बीच में, कहा, "छोड़ो!” होता है न कभी ऐसा? किसी से कुछ कह रहे हो और कहते-कहते कहते हो, "कुछ नहीं।” और वो पूछता है, "क्या था?” आप कहते हो, "छोड़ो!” तो वैसा ही हो जाएगा।

फिर शनैः शनैः वो स्थिति भी आएगी कि भीतर से ये धारणा उठनी ही बंद हो जाएगी कि हम जानते नहीं। फिर कहोगे, "पूछना क्या?” फिर उसके बाद साथ बैठते हैं, उसके बाद फिर सिर्फ़ संगत रहती है, फिर वाद-विवाद नहीं रहता, फिर प्रश्नोत्तर नहीं बचता, फिर 'प्रश्नोत्तर सेशन' में नहीं आते आप। उसके बाद आप संगति के लिए आते हो, साथ के लिए आते हो। तब आरंभ होता है उसका, जिसे कहते हैं – सत्संग।

'सत्संग' का मतलब ये नहीं होता है कि कोई प्रवचन दे रहा है, नेता बना हुआ है, किसी का भाषण सुनने के लिए बैठे गए हैं आप। 'सत्संग'' का मतलब होता है – बस साथ में मज़ा आ रहा है। और मज़ा तो सत्य के ही साथ में आता है। मज़ा तो उसके ही साथ में आता है जो वास्तविक है। इसीलिए कहा जाता है – सत्-संग।

तो सत्संग की जो आम छवि है, वो भी थोड़ी विद्रुप-सी ही है। सत्संग में आमतौर पर यही मानते हैं कि कुछ हो रहा होगा, चाहे कोई कुछ कर रहा हो, चाहे सम्मिलित कीर्तन इत्यादि चल रहा हो। * * सत्संग का मतलब कुछ करना नहीं है। सत्संग का मतलब है – साथ होना। * * साथ में ही मज़ा-सा आ गया, कुछ चुलबुला-सा आनंद। बस वही है। अब पूछना-ऊछना क्या है? बैठे रहो चुपचाप!

बुद्ध की कहानी तो बड़ी प्रसिद्ध है। कोई सवाल पूछने आया, आतुरता में था कि पूछूँगा, अपने साथ पूरी एक सूची लाया था सवालों की। बुद्ध ने कहा, "ठीक है, बैठो।" वो बैठ गया। बुध के नेत्र बंद हैं। अब वो इंतज़ार करने लगा कि बुद्ध कब उठें और सवाल पूछूँ। बुद्ध ऐसे ही बैठे हैं। काफ़ी देर बीत गयी, बुद्ध ने आँखें खोलीं। उसने कहा, "प्रणाम, जा रहा हूँ। हो गया। मन ही नहीं कर रहा पूछने का।"

सवाल कोई शांति थोड़े ही दे देंगे। मन की चुलबुलाहट है, मन की चंचलता है, कुछ-न-कुछ उसे करना है, कुछ और करने को नहीं है तो सवाल ही पूछ लिया। सवालों से कुछ मिल थोड़े ही जाएगा। किसी उत्तर में थोड़े ही कुछ रखा है। मैं भी कभी आपको सवालों के उत्तर थोड़े ही देता हूँ। सवाल बहाना होता है, उत्तर के ज़रिए से कुछ और बोल जाता हूँ। थोड़ी-सी कलाकारी करनी पड़ती है कि आपको पता भी न चले। सवाल तो पीछे छूट गया, ये तो अब बात कुछ और हो रही है।

वैसे ही एक और कहानी है बुद्ध की। एक आया, बोला, "विवाद करना है।” प्रकांड ब्राह्मण, ख़ूब पढ़ा-लिखा विद्वान। बुद्ध ने कहा, "कर लेना। साल भर लेकिन रुकना पड़ेगा मेरे साथ।" तो पीछे कोई शिष्य खड़ा था, आनंद या कोई और, वो हँसने लगा ज़ोर से। तो जो व्यक्ति मिलने आया था बुद्ध से, उसने कहा, "तुम हँस क्यों रहे हो? इन्होंने जो कहा वो तो ठीक है कि एक साल रुक जाओ, जो विवाद-विमर्श करना है, करना। तुम क्यों हँस रहे हो?” उसने कहा, "मैं दस साल पहले आया था, उन्होंने मुझसे भी यही कहा था। एक साल रुक गया जो, वो फिर नहीं जाता। अब एक साल तो रोकना पड़ेगा ही, किसी बहाने से सही।" हाँ, एक साल रुक गया तो फिर नहीं जाएगा, तो यही बहाना कि सवालों के जवाब मिलेंगे अगर एक साल रुक जाओगे तो। ये बहाना है, ये लालच है।

तो आप यहाँ आते हो इसी लालच से ही सही कि सवालों के जवाब मिल जाएँगे। एक साल बीतने दीजिए।

बातचीत की, चर्चा की कोई छवि नहीं बनाया करिए। हम यहाँ इसलिए इकट्ठा नहीं होते हैं कि हम वो सब करेंगे जो आमतौर पर आध्यात्मिकता के नाम पर किया जाता है। समझ रहे हैं न? ये जगह देख रहे हैं आप, ये आपको क्या ऐसी लग रही है कि ये कुछ पारंपरिक सत्संग के लिए बनाई गयी है? हम अभी पुस्तकालय में बैठे हैं। इतनी किताबों के मध्य आमतौर पर नहीं होती है आध्यात्मिक परिचर्चा। हम आप एक तल पर बैठे हैं, हम आप ज़िंदगी से जुड़े सामान्य पहलुओं पर बात कर रहे हैं। आज सुबह से अभी तक इस पूरे विमर्श में 'परमात्मा' शब्द का उल्लेख एक बार भी नहीं हुआ है। ये कोई पारंपरिक सत्संग इत्यादि नहीं है। अगर वक्ता के तौर पर मैं इतनी दूर तक जा सकता हूँ कि मैं 'परमात्मा' शब्द का प्रयोग ही न करूँ, तो आपको भी ये समझना चाहिए कि आप पर भी कोई परंपरा का निर्वाह करने की ज़िम्मेदारी नहीं है। तो आप भी यहाँ पर कोई पारंपरिक सवाल पूछें, ये आवश्यक नहीं है, कि आप बैठकर पूछें कि, "बताइए, निर्विकल्प समाधि में प्रवेश कैसे करें? अहंकार की आख़िरी निवृत्ति कैसे होगी? परमात्मा के महल में कितने द्वार हैं?” कोई आवश्यकता नहीं इन सब सवालों की।

आपकी ज़िंदगी से जुड़े हुए जो असली सवाल हैं, असली मुद्दे हैं, उनकी बात करिए। बात को खरा रखिए, जैसे दोस्तों के बीच में होता है। आप अपने दोस्तों से मिलते हैं तो पहले पन्द्रह-बीस मिनट औपचारिकता निभाते हैं क्या? ऐसा तो नहीं करते। जो सीधी बात होती है वो कहते हैं। आपको अगर सड़क के ट्रैफिक ने परेशान कर रखा है तो आप सड़क के ट्रैफिक की बात करते हैं। आपको अगर बढ़ती कीमतों ने या आपके बेटे की परीक्षाओं ने परेशान कर रखा है, तो आप उसकी बात करते हैं। यहाँ पर भी वही बातें करिए। वही असली आध्यात्मिक बातें हैं।

जो आपके मन में चल रहा है, आपके लिए तो वही तथ्य है, वही जीवन है, यहाँ तक की आपके लिए तो वही सत्य है; तो आप उसी की बात करिए। जो बीमारी अभी आपको है ही नहीं, आप उसकी बात क्यों कर रहे हैं? आपको है सिर दर्द और आप यहाँ आ करके पूछते हैं कि, "कैंसर के इलाज की नवीनतम तकनीक क्या है?" तकनीक तो मैं बता दूँगा, पर तुम्हें पहले कैंसर पैदा करना पड़ेगा। आपको हो रहा है घुटने में दर्द, पर घुटने का दर्द बहुत आध्यात्मिक लगता नहीं, तो आप आकर कहते हैं कि, "दिल में दर्द हो रहा है।" अब ये ज़रा-सा धार्मिक वक्तव्य है कि दिल मैं कुछ टीस-सी उठती है। तो जो काम फिर घुटने में होना चाहिए वही दिल में कर दिया जाएगा! दिल में खपच्ची लगेगी तो कैसा लगेगा?

बात को असली रखिए। समझ रहे हैं? बात को असली रखिए।

प्रश्नकर्ता 3: आपने समय की बात कही कि जो एक साल रुक गया वो रुक जाएगा। वैसे तो सारी यहाँ समय की बात है, लेकिन यदि उस रफ़्तार में कमी आ जाए तो?

आचार्य प्रशांत: आगे कमी आनी होगी तो आ जाएगी। क्या फ़र्क़ पड़ता है? ये डर क्यों है कि कमी आ गयी तो जैसे कोई श्रेय छिन जाएगा, जैसे कोई अपमान हो जाएगा, जैसे अपनी ही नज़रों में गिर जाएँगे?

कोई खड़ा है बहुत प्यारा, बहुत दूर, और अचानक आपको ख़बर लगती है उसकी, आप उन्मत्त होकर भागती हैं। अभी-अभी ख़बर लगी है और आप खड़ी थीं बहुत देर से, अभी टाँगों में प्राण हैं, अभी शरीर में बल है, आप पूरी ताक़त से भागती हैं। हो सकता है थोड़ी देर भागने के बाद साँस फूल जाए, आप थक जाएँ, तो आपकी गति कम हो जाएगी, आप धीरे-धीरे चलने लगेंगी। उसमें कोई अपमान थोड़े-ही हो गया। उसमें आपने कुछ ग़लत थोड़े-ही कर डाला। जो अभी उचित है आपके लिए, आप वो करिए। आगे की चिंता क्यों? आगे हो सकता है यही न हो कि आप कम गति से भाग रही हैं, आगे ये भी हो सकता है कि आप रुक ही जाएँ। आगे ये भी हो सकता है कि आप विपरीत दिशा भी ले लें। आगे की सोचना क्यों? अभी जो उचित लगता है, करिए। अभी जो उचित लग रहा है उसे होने दीजिए।

आप किसी ओर को अपनी गाड़ी लेकर के चलती हैं, जिस भी दिशा आप जा रही हैं, क्या सदा एक ही गति से जाती हैं? रास्ता खुला है, सड़क बढ़िया है, आप गति बढ़ा देते हैं। सामने बैरियर आ गया, गड्ढे आ गए, रास्ता ख़राब हो गया, आप गति घटा देते हैं। और यदि आगे कहीं रास्ता बंद ही है तो डायवर्ज़न लेने में आपको कोई शर्म थोड़े-ही आती है, कि आती है? तो अभी से ये क्यों सोचना कि देखिए अभी तो मैं सौ की गति से भाग रही हूँ, लेकिन आगे अगर मेट्रो का काम चल रहा है और रास्ता बंद है और ब्रेक मारने पड़े, तो ये बात कितनी लज्जा की होगी! लज्जा की क्यों होगी? मार दीजिएगा ब्रेक। आगे अगर कहीं थक गए और नींद आ गयी, तो? तो सो जाइएगा। आगे कहीं बाहर चले गए और दो महीने तक सत्र में न आ पाए, तो? तो मत आइएगा। क्या हो गया?

होता क्या है न, कि जैसे हमारे सामाजिक रिश्ते होते हैं, हम हार्दिक रिश्तों को भी वैसा ही बना लेते हैं। सामाजिक रिश्तों में ये होता है कि एक बार शुरू कर दिया तो तोड़ना मत, नहीं तो सामने वाला बुरा मान जाएगा।

मेरा छोटा भाई था। वो जब स्कूल में पढ़ता था तो एक बार किन्हीं अज्ञात कारणों-वश राखी के दिन उसको कई लड़कियों ने राखी बाँध दी। कारण उतने भी अज्ञात नहीं हैं, पर मैं उन्हें गुप्त रखना चाहूँगा।

(श्रोतागण हँसते हैं)

अब वो पूरी बाँह भरे हुए घर पहुँचता है और कलाईयों पर राखियाँ-ही-राखियाँ सजी हुई हैं। अब मेरी माता जी ने उसको पकड़ लिया, “ये क्या करवा के आए हो?” उसने कहा, “मुझे सब ने जगत भैया बनाया है। राखी का दिन है, इतनी लड़कियों ने राखी बाँध दी है।” उसको डाँट पड़ी, खूब डाँट पड़ी। डाँट ये कह के पड़ी कि अब बँध गयीं हैं तो जीवन भर बँधवानी पड़ेंगी। अब हर राखी भाई होने का फर्ज़ निभाना पड़ेगा। अब तुमने रिश्ता बना लिया है, अब बँधवाओ, पूरी ज़िंदगी बँधवाओ अब।

अब हम सोचते हैं कि अध्यात्म भी कुछ ऐसा ही है कि शुरू कर दिया है तो निभाओ। अध्यात्म में ये सब नहीं चलता कि पीछे का प्रवाह है तो उसको आगे तक रखना-ही-रखना है। अभी प्रेम आ रहा है, गले मिल लो, चूम लो, इससे कल के लिए कोई बाध्यता नहीं पैदा हो जाती। ये हमारे सामाजिक और घरेलू रिश्ते नहीं है कि फिर कोई पुराना एल्बम लेकर आएगा, पुरानी फ़ोटो दिखाएगा और कहेगा, “देखो, तुम बेवफ़ा हो गए। ये देखो, ये कल तुम ही थे न, गले मिल रहे थे? और आज देखो अपने-आपको, हमें पहचानते भी नहीं।” तो कह दीजिए, “हाँ जी, नहीं पहचानते।” वो कल था, आज आज है। बात ख़त्म हो गयी।

बेवफ़ाई से बड़ा डर लगता है हमको। वास्तव में बेवफ़ाई से नहीं, बेवफ़ाई के लांछन से। कोई उलाहना न दे दे। दूर जाने का डर इतना रह जाता है कि हम पास ही नहीं आ पाते। ज़्यादा पास आ गए तो दूर जाने में तकलीफ़ हो जाएगी। पास आकर अगर दूर जाना पड़ा तो तौहीन होगी—असमर्पण का, अप्रेम का आरोप लगेगा। तो हम लगातार एक गुनगुना-सा जीवन जीते हैं जिसमें कभी उबाल नहीं आने पाता। उबाल आने से डरते हैं।

उबाल आ गया, फिर ठंडक होगी, तो तुरन्त कोई ताना देगा। क्या? “अभी तो उबल रहे थे, अब क्या हो गया? कल तो बड़ा प्रेम दिख रहे थे, आज हमारी ओर देखते भी नहीं।” और फिर हमें लगता है कि बड़ा अपराध हो गया हमसे।

“कल प्रेम दिखाया था आज हमारी ओर देखते भी नहीं।”

“हाँ, कल बहुत प्रेम दिखाया था, और जब दिखाया था तब पूरा दिखाया था। नाज़ है हमें कि जब प्रेम में उतरे थे तो डूब ही गए थे, और उस क्षण में पूरे थे, ईमानदार थे। अभी भी ईमानदार हैं, इसलिए प्रपंच नहीं करना चाहते, इसीलिए नाटक करके झूठ नहीं बोलेंगे। तब जो था वो अब नहीं है। अब नहीं है, कल हो सकता है पुनः। कल पुनः होगा तो हम पुनः आएँगे। कल आज की आश्वस्ति नहीं देता; आज कल की गारंटी नहीं देता।”

ये कोई वो थोड़े ही है जिसे ख़ून का रिश्ता कहते हैं। ख़ून का रिश्ता तो पानी का रिश्ता होता है। जैसे पानी पर लकीर बनाते रहिए, बनेगी नहीं न? वैसे ही ख़ून के रिश्तों की कोई क़ीमत नहीं होती है, इसीलिए तुम्हें निभाना पड़ता है। निभाने का तो मतलब ही होता है – 'ढोना'।

वास्तव में रिश्ता तब है जब निभाए बिना निभ जाए। निभाया तो तब जब बिना वादा किए निभा दिया; निभाया तो तब जब बिना बाध्यता के निभा दिया; निभाया तो तब जब बिना कहे निभा दिया। निभाया तो तब जब निभाने की कोई आवश्यकता नहीं थी तब भी निभा दिया। पहले से ही तय है कि निभाना है, फिर निभाया, तो निभाया नहीं, ढोया।

पहले ही किसी न्यायाधीश ने तय कर दिया है कि अब तो जीवन भर निभाना है तो निभा थोड़े ही रहे हो, अब तो तुम्हें जो सज़ा मिली है उसका अनुपालन कर रहे हो। किसी ने बीस साल पहले ही विज्ञप्ति जारी कर दी थी, किसी ने बीस साल पहले ही फैसला सुना दिया था, अब निभाओगे। उसने फैसला दे दिया था कि तुम निभाओगे, और तुम निभा रहे हो। तुम में और किसी कैदी में क्या अंतर है? दोनों ही सालों पहले दिए गए किसी वक्तव्य के अनुसार जी रहे होते हैं। दोनों ही किसी निर्णय के ग़ुलाम होते हैं।

निभाया तो तब, जब बिना निर्णय के निभाया। निभाया तो तब, जब बिना तय किए निभाया। ऐसे निभाने को 'जीना' कहते हैं, ऐसे ही निभाने को 'प्रेम' कहते हैं।

थोड़ी बेशर्मी बहुत ज़रूरी है। हम बड़े शर्मीले लोग हैं, शर्म के ग़ुलाम हो जाते हैं। निभाने में शर्म आती है, तोड़ने में भी शर्म आती है। हर चीज़ को लेकर तो हम शर्मसार हैं। ज्ञान को लेकर भी शर्माते हैं, उम्र को लेकर भी शर्माते हैं, जगह को लेकर शर्माते हैं, आने को लेकर शर्माते हैं, न आने को लेकर शर्माते हैं। यहॉं बैठे होंगे, जिन्हें इस बात पर शर्म आती है कि उन्हें घृणा है किसी से, खुलकर कह नहीं पाएँगे कि, "हमें इतनी नफ़रत है।"

यहाँ ऐसे भी लोग बैठे हैं जिन्हें इस बात पर शर्म आती है कि उन्हें प्यार हो गया है। कह नहीं पाएँगे खुलकर कि, "प्रेम है तुमसे।" हमारे शर्माने की कोई सीमा ही नहीं है। वास्तव में पूरा व्यक्तित्व ही शर्मसार है। तौलिए से मुँह पोंछें तो उसमें पसीना नहीं शर्म आ जाएगी।

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