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लेख
अचेतन और अर्धचेतन मन को कैसे जानें? || आचार्य प्रशांत (2021)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
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प्रश्नकर्ता: मेरा सवाल एक किताब है डॉक्टर एम स्कॉट पेक की ‘द रोड लेस ट्रैवेल्ड’ , उससे है। और शायद अभी जो पहले हम बात कर रहे थे मन की सफ़ाई करने की, तो उसमें एक चैप्टर (अध्याय) है ‘द मिरेकल ऑफ अनकॉन्शियस’ जिसमें शायद एक तरीक़े से कहना चाहिए कि उन्होंने मन को साफ़ करने के तरीक़े बताये हैं। उन्होंने फ्रायडियन स्लिप्स की बात करी है कि हमारी जो ज़बान भी स्लिप (फिसल) हो जाती है तो वो भी एक अनकॉन्शियस का इशारा है।

तो इस सब को उन्होंने आगे और जटिल बातों में भी जोड़ा है। जैसे — उन्होंने बताया है कि अगर आप किसी दुर्घटना से भी बाल–बाल बच जाते हैं तो वो भी एक अनकॉन्शियस का ही इशारा है। तो अब तक मुझे ये लगता था कि अनकॉन्शियस ब्रेन (अचेतन मस्तिष्क) होता है, मतलब फिजिकल (भौतिक) चीज़ है कोई—कॉन्शियस और अनकॉन्शियस। पर जिस तरह से उसमें उन्होंने चीज़ों की जटिलताओं को अनकॉन्शियस से ही जोड़ा है तो वो उसपर थोड़ा मुझे स्पष्टीकरण चाहिए था।

आचार्य प्रशांत: नहीं, वो जो चीज़ कह रहे हैं, उससे कहीं–कहीं ज़्यादा प्रकट है माया। वो तो ये कह रहे हैं कि अगर तुम्हारी ज़बान फिसल जाती है तो ज़बान का फिसलना अनायास नहीं होता, संयोगवश नहीं होता, उसके पीछे तुम्हारी वृत्ति बैठी होती है। तो ज़बान फिसल गयी, तुम कुछ न कुछ बोल गये, इस बात से तुम पकड़ लो, जान लो कि तुम्हारे भीतर क्या बैठा हुआ है। ठीक है?

ज़बान फिसल गयी, तब तो जान ही सकते हो कि भीतर क्या बैठा है। ज़बान जब नहीं फिसल रही तुम तब भी जान सकते हो भीतर क्या बैठा है। तुम्हें क्या लग रहा है कि वो जो मूल वृत्ति है, वो मात्र सबकॉन्शियसली ही अपनेआप को मैनिफेस्ट या अभिव्यक्त करती है? नहीं। जिसे तुम अपनी कॉन्शियसनेस , अपना कॉन्शियस सेल्फ़ बोलते हो, वो उस पर भी छायी हुई है। बस हमारी नज़र इतनी पैनी नहीं है कि हम पकड़ लें।

मैं बोल रहा हूँ, मैं किस जगह पर रुक रहा हूँ, मैं किसको देख रहा हूँ, मैं किन शब्दों पर ज़ोर दे रहा हूँ, इन सब बातों से, इनमें से एक-एक बात से, मेरे भीतर क्या है, ये पता चलता है। पर हम तो टुन्न रहते हैं, बेहोश, तो हमें कैसे पता चलेगा? हम देख ही नहीं पाते। नहीं तो नज़र काफ़ी है। देखेंगे आप किसी को, पता चल जाएगा कि वो चीज़ क्या है।

जो पुरानी कहानियाँ हैं न कि फ़लाने साधु थे, वो आये, उन्होंने फ़लाने को देखा और देखते ही कह दिया कि ऐसा है, ऐसा है। वो कहानियाँ ज़्यादातर तो अतिशयोक्ति हैं पर उनमें ज़रा सा सच भी है। आपके चलने का तरीक़ा, आपके बैठने-सोने-उठने, खाने-पीने का तरीक़ा, आपकी ज़िन्दगी के निर्णय, ये सब लगातार और खुलकर बता रहे हैं कि आपके अन्दर क्या बैठा हुआ है। हैरत की बात ये नहीं है कि भीतर कुछ गुप्त है। हैरत की बात ये है कि इतना प्रकट है खुली किताब की तरह, फिर भी हमें पता क्यों नहीं चलता। चलो दूसरों का नहीं पता चलता, अपना भी नहीं पता चलता। हम अपने ही बारे में बिलकुल अनजान बने रहते हैं।

इंसान बदलेगा न, यकीन जानिए, उसका चेहरा बदल जाता है। तो अगर इंसान के बदलने से चेहरा बदलता है तो चेहरे को बदलकर इंसान को आप जान क्यों नहीं पाते, चेहरे को पढ़कर। इंसान बदलता है, उसकी आँखें बदल जाती हैं, आवाज़ बदल जाती है। आप बदलते हैं न, आपके शरीर की कोशिकाएँ तक बदल जाती हैं। आपकी सेल्स (कोशिकाएँ) वैसी नहीं रह जाती हैं जैसी थीं। सबकुछ दिखता है अगर आप देखें, और दूसरों में बाद में देखिएगा, पहले ख़ुद को देखिए। आप बाज़ार जा रहे हैं, किस दुकान के सामान पर जाकर आपकी नज़र बार-बार ठहर जा रही है। ये सबकुछ अनायास नहीं हो रहा। इसके पीछे वजह है, और उस वजह का नाम है ‘मैं’।

आपको किस तरह के व्यक्ति अच्छे लगते हैं? ख़ासतौर पर विपरीत लिंगी में, अपोज़िट ज़ेंडर में। इससे तो पूरा भेद ही खुल जाता है। आपको ख़ुद को जानना हो तो बस ये देख लीजिए कि किस तरह का पुरुष या स्त्री आपको आकर्षित करता है, एकदम बात पता चल जाएगी। हो सकता है कि आप बहुत किसी ऊँची जगह पर काम करते हों, बहुत रुपया-पैसा हो, पर देख लीजिए कि आपका पसन्दीदा अभिनेता या अभिनेत्री कौन है।

होंगे आप व्हार्टन के एमबीए , कर रहे होंगे आप किसी टॉप नॉच इन्वेस्टमेंट बैंक में काम और पन्द्रह साल का आपका अब अनुभव हो चुका है, पर छुप-छुपकर आप देखते तो उस आइटम गर्ल को ही हैं। तो आप जान लीजिए कि अन्दर से आप क्या हैं। ऊँचे आदमी को कभी नीची चीज़ पसन्द आ ही नहीं सकती — “हंसा तो मोती चुने”। और आप ऊपर-ऊपर से हंसा बने हुए हैं और अन्दर-अन्दर उस कौवी के दीवाने हैं, तो इससे क्या पता चलता है?

हर चीज़ में — आपका खाने में क्या स्वाद है, आपको रेस्टोरेंट कौनसा पसन्द है, आपको गाड़ी कौनसी पसन्द है, आपको कपड़े कौनसे पसन्द हैं। आपको बोली-लिपि-भाषा, ज़बान कौनसी पसन्द है, आपका पसन्दीदा साहित्यकार कौन है, आपको कविताएँ कैसी रुचती हैं। आप अपने बाल कैसे रखते हैं, छोटी-छोटी बात। इन्हीं के प्रति तो सजग रहना है।

सजग ऐसे नहीं रहना कि इनको ठीक करें, नियंत्रित करें, बदल दें। सजग ऐसे रहना है कि इनको देख लोगे तो भीतर जो कुकड़ूकूँ कर रहा है, उसके बारे में पता चल जाएगा। और उसका नाम परमात्मा नहीं है। क्या नाम है उसका? मन, माया, जो बोलना है बोल लो। आप जिम जाते हैं, आप पहुँचते ही किस मशीन की ओर भागते हैं। आप ग़ौर करेंगे अगर, तो कुछ पता चल जाएगा अपने बारे में। टेनिस में, क्रिकेट में, आपका पसन्दीदा खिलाड़ी कौन है, आपको टी-ट्वेन्टी पसन्द है या टेस्ट क्रिकेट? कुछ अपने बारे में पता चल जाएगा तुरन्त।

आप चित सोते हैं, आप पट सोते हैं, आप करवट सोते हैं, इससे भी आपके बारे में पता चल जाता है। आकाश की ओर छाती करके और दोनों हाथ ऐसे खुले (हाथ दोनों तरफ़ फैलाकर) फेंककर सो पाना ज़्यादातर लोगों के लिए सम्भव ही नहीं होता। डर सा लगता है, जैसे कि कहीं छत ही छाती पर न गिर पड़े। अधिकांश लोग या तो करवट सोते हैं या पेट के बल। आप जो भी कर रहे हैं उसके पीछे मानसिक कारण है। संयोग कुछ नहीं होता। संयोग होते भी हैं अगर तो बाहरी होते हैं।

आपकी जो प्रतिक्रिया होती है बाहरी चीज़ों को, वो कभी संयोग नहीं होती। तो फ्रायडियन स्लिप्स का इंतज़ार मत करो। हम बहुत चतुर खिलाड़ी होते हैं। हम ऐसे भी हो सकते हैं कि ज़बान को ऐसा बाँध लें कि कभी फ्रायडियन स्लिप हो ही न, फिर क्या करोगे? तुमसे कितने महीने पहले कोई फ्रायडियन स्लिप हुई थी, बताओ? फिर?

पर ये जो तुमने आज काला पहना है न पूरा, इसको देखोगे तो शायद कुछ पता चले। या अब जैसे बाल बढ़ते जा रहे हैं। ऐसे ही नहीं बढ़ रहे, कुछ बात है।

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