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लेख
अभी और कितना सहारा चाहिए तुम्हें? || आचार्य प्रशांत (2015)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
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श्रोता: सर, मन की आदत है कि वो या तो आकर्षण पर चला है या विकर्षण पर। जब उसे ये समझ में आता है रिश्तों में या किसी और जगह पर कि नकली है तो वो कुछ असली तलाशता है।पर असली की तलाश में भी कुछ चाहता है पाना। तो वो या असली कैसे मिले? कैसे समझाएं इस मन को?

वक्ता: और यदि बात ये हो कि जिस सहारे की आप माँग कर रही हैं, वो सहारा मिला ही हुआ हो। जैसे कोई छोटा बच्चा हो जो साइकिल चलाना सीख रहा हो और आती नहीं उसे साइकिल चलानी, साइकिल पर चढ़ा हुआ है और डर लग रहा है उसे खूब। पिता से बार-बार माँग कर रहा है कि “मैं गिर जाऊँगा, मैं गिर जाऊँगा, मैं गिर जाऊँगा, पीछे से पकड़े रहो साइकिल को। मैं चला रहा हूँ धीरे-धीरे, तुम पकड़े रहो।” और पिता का जवाब नहीं आ रहा है, पिता का जवाब नहीं आ रहा। पिता का जवाब नहीं आ रहा है, तो बच्चे को लग रहा है कि कोई सहारा नहीं है, तो वो पिता के प्रति द्वेष और शंका से भर गया है कि “सहारा तो देता नहीं।”

डरा इतना हुआ है कि पीछे मुड़ के देख भी नहीं पा रहा है कि सहारा है या नहीं है। तथ्य क्या है? तथ्य ये है कि सहारा है, इसीलिए अभी तक गिरा नहीं है। गिरा नहीं है, यही तो पिता का जवाब है। वो पिता शब्दों में बोलता नहीं। ये कह रहा है, “सहारा दो”; वो कह रहा है “देखो तुम अभी तक गिरे ही नहीं।” यदि ज़रा भी विवेक हो तो समझ जाओगे कि सहारा नहीं होता, तो तुम कहाँ से होते? तुम कब के धूल बन गए होते और सहारा पूरा है, और बच्चा चिल्ला रहा है “सहारा नहीं मिलता है, क्या करें? थोड़ा सहारा मिल जाता, तो हम कुछ कर लेते, कि ये कर लेते, कि वो कर लेते।”

ठीक से देख तो लो कि सहारा चाहिए या मिला ही हुआ है? तुम्हारा संताप इसलिए नहीं है कि तुम अनाथ हो, कि तुम्हारा कोई सहारा नहीं है। तुम्हारा संताप इसलिए है कि समस्त सहारा होते हुए भी, तुममें शंका बनी ही रहती है। शंका भी है और एक प्रकार की कृतघ्नता भी, जब कह रही हो कि सहारा मिल जाए, तो ये बताओ न कि बिना सहारे के इतनी दूर चली आती? सहारा नहीं होता, तो यहाँ बैठी होती? कौन ला रहा है तुमको यहाँ? बिना सहारे के आ गई? जी कैसे रही होती यदि सहारा नहीं होता? अभी और सहारा चाहिए।

अब तुम्हारी माँग के अनुसार तो वो सहारा देगा नहीं। वो तो सहारा वैसे ही देगा जैसा देना चाहिए, जो तुम्हारे लिए उचित है।

वो तुम्हारी माँग के अनुसार ही अपने सारे काम करने लगे तो मैं कहे देता हूँ उससे कि, “भाई थोड़ा रुक जाओ, अब तुम कुछ मत करना। अब प्रिया (श्रोता की ओर इशारा करते हुए) जो-जो माँग करती जाएं, बस उसकी पूर्ति कर देना।” तो अब प्रिया बताएंगी कि दिल कितनी वेग से धड़के, अब प्रिया बताएंगी कि पेट में और आँतों में कौन कौन से एंजाइम और कौन कौन से रस निकलें, बिल्कुल उसका ठीक-ठीक कैमिकल फार्मूला बताएं, तो ही निकले वों, नहीं तो निकलें नहीं क्योंकि अब तो माँग के अनुसार ही आपूर्ति होगी। और प्रिया बताएंगी कि आँखें कैसे देखें, देखने पर क्या रसायनिक प्रक्रिया हो पर्दे में और फिर किस तरह से वहाँ से इलेक्ट्रिक इम्पल्स चलें जो मष्तिष्क पहुँचे। ये सब प्रिया बताएं तभी करना, अपनेआप अब तुम कोई सहारा मत देना। जो माँग हो वही देना। तो वो अपना सारा कारोबार स्थगित कर दे और बस वही-वही दे जिसका आप आवेदन करें। फिर देखिए क्या होता है।

समझिए तो इस बात को, बिना उसके सहारे के यहाँ बैठे कैसे रहते? यहाँ तक कैसे आ जाते? जी कैसे लेते? जान कैसे लेते? समझ कैसे लेते? क्यों माँग करते हो, प्रार्थना करते हो कि, ‘’और दे दे?’’ मैं तो प्रार्थना करने वाले लोगों से भी कहता हूँ कि बस चुप हो जाओ, यही प्रार्थना है। ये भी मत कहो कि, “तूने बहुत दिया’’ क्योंकि तुम जानते ही नहीं हो कि उसने क्या-क्या दिया। तुम चुप हो जाओ, यही प्रार्थना है। तुम ये भी मत कहो कि, “मालिक ताकत देना।” ये इल्ज़ाम है एक तरह का कि, “मालिक अभी तक तूने पूरी ताकत दी नहीं है और अब हम तेरा ध्यान आकृष्ट कराने आए हैं कि ताकत देने में ज़रा कमी रह गई है। अभी हमारी दरख्वास्त लें और ताकत थोड़ी और दे।”

क्या प्रार्थना कर रहे हो कि “मालिक थोड़ी शक्ति देना?’’ उसने कोई कमी छोड़ रखी है देने में? तुम्हारी ऊँची से ऊँची प्रार्थना भी एक अर्थ में कृतघ्नता है और अभियोग है कि, “पूरा अभी मिला नहीं, तो थोड़ा और देना जी।” ठीक से देखा करो अपनेआप को, सुबह उठ कैसे गए? सुबह उठते ही ये संसार कहाँ से आ गया? घंटो-घंटो तक विलुप्त था और विलुप्त ही रहा होता तो? वापिस कहाँ से आ गया? अभी और चाहिए? ये पूरा संसार ही वापस आ गया, अब और क्या मिलेगा? अभी और चाहिए? उसने पूरा संसार दे दिया सुबह-सुबह या था वो रात में भी? अब और क्या माँग रहे हो? तुम थे रात में? गहन निद्रा में चार बजे कि पाँच बजे सुबह के, तुम थे? अपना कुछ पता था? कह सकते थे कि, ‘’मैं हूँ?’’ सुबह-सुबह उसने तुम्हें पुनर्जीवित कर दिया, अभी और माँग रहे हो?

अभी सुबह-सुबह जन्म हुआ है तुम्हारा। स्मृति का धोखा है कि समझते हो, सालों से जी रहे हो। अभी और माँग रहे हो? और जिस स्मृति से धोखा खाते हो, वो स्मृति भी किसने दी है? जिस माया के कारण ‘उसको’ भूलते हो, वो माया भी उसी की है। तो अब और क्या माँग रहे हो?

‘वो’ अपने होने पर भी है और अपने न होने पर भी है।

तो अब और क्या माँग रहे हो? जब सत्य है, तब तो सत्य है ही, जब सत्य नहीं है, तो माया है। और माया क्या है? माया भी तो सत्य का ही रूप है। छाया है सत्य की। ‘वो’ अपने होने में भी है, ‘वो’ अपने न होने में भी है; अब प्रार्थना क्या कर रहे हो, माँग किस चीज़ की है? या तो मिलेगा या तो नहीं मिलेगा। मिला तो मिला, नहीं मिला तो भी मिला। जीते तो जीते, हारे तो भी जीते। कृष्ण कहते हैं अर्जुन से कि, “या तो मुझे पाएगा, नहीं तो मेरी माया में फंस जाएगा। दोनों ही स्थितियों में हूँ तो मैं ही।”

श्रोता: सर, ये एक सवाल था जब पढ़ रही थी, तो काफ़ी रमण महर्षि और राम कृष्ण की कहानियाँ पढ़ रही थी, माया के ऊपर। तो कभी ये दिखाया जाता है कि दुनिया में विष्णु आ कर भूल गए अपना ही रूप, एक ही रूप धारण करके रह गए। या माया में इतने खो गए कि भूल गए कि विष्णु नदी के किनारे बैठे है हुए हैं प्यासे, यहीं पर रह गए। अब ये है कि उन्हें क्या चाह है, पर ऐसा क्या है कि उन्हीं को भुला देता है?

वक्ता: नहीं, उन्ही को नहीं, वो स्वयं को भूल जाते हैं। कुछ दो नहीं है न कि तुम उनको भूल रही हो? जब तुम कहती हो कि, “माया ऐसी क्यों है कि सत्य को भुला देती है?” तो बात ठीक नहीं बोली। माया वो नहीं है, जो सत्य को भुला देती है। माया सत्य की शक्ति है, स्वयं को भी भूल जाने की। सत्य पूर्ण है। सत्य की प्रत्येक शक्ति अपरीमित है, असीमित। और उसे प्रत्येक शक्ति हासिल है, प्रत्येक शक्ति उसी से है, उसी में निहित्त है, उसी की है। जब उसे सारी शक्तियाँ हैं और सारे अधिकार हैं, तो उसे ये अधिकार भी है न कि वो खुद को भूल जाए।

सत्य का खुद को भूल जाना, माया कहलाता है।

तुम सत्य को नहीं भूलतीं, सत्य खुद को भूलता है और ये उसकी शक्ति है, ये उसकी मज़बूरी नहीं है। इसमें कोई दुःख नहीं है क्योंकि ये सत्य की शक्ति है इसीलिए लीला कहलाती है। जिसे हर हक़ इख्तियार है, उसे ये हक़ भी है कि सो जाएंगे, भूल जाएंगे कि हम कौन हैं, सो ही जाएंगे। नहीं याद रखना, अपनेआप को ही भुला देंगे, धोखे में डाल लेंगे, अपने से ही खेल-खेल लेंगे।

श्रोता: तो फिर जब भूल जाते हैं और जब याद दिलाने की हर तरह की कोशिश होती है, तो पकड़ के तो वही, माया को ही तो पकड़ते हैं न? तो जब अगर ऐसा है कि माया और सत्य को अगर तोलने के रूप से देखा जाए, तो हमेशा माया को ही चुनता है मन।

वक्ता: माया को चुन के किस को चुन रहा है?

श्रोता: उसी को चुन रहा है, पर रह तो यहीं रहा है न, अटक रहा है न?

वक्ता: माया को चुन के किसको चुन रहा है? माया किस के हाथ में है?

श्रोता: सत्य को।

वक्ता: तो माया को चुन के किसको चुन रहा है?

श्रोता: पर ये जो माया के बाहर है, वो बोल सकते हैं कि माया में फंसा हुआ है।

वक्ता: जो माया में फंसा है, वही चुन रहा है न? तो वो किसको चुन रहा है? चुनाव तो उसी का है। कोई सीधे चुनता है, कोई ज़रा टेढ़ा-टपड़ा चुनता है। कोई सीधे-सीधे आनंद तक पहुँचता है, कोई कहता है, ‘’ फर्नीचर के माध्यम से पहुंचेंगे, तकिए पर नया लिहाफ चढ़ा दें तो उससे क्या पता मोक्ष ज़्यादा सुगमता से मिल जाए।’’ पर चाहिए तो उसे भी मोक्ष ही, तकिए के लिहाफ में क्या रखा है?

ये बाज़ारों में, मॉल वगैरह में जो लोग हैं, जो दुकाने हैं अगर वो ईमानदारी से अपना नाम रखें तो वो नाम कैसे होंगे? प्रेम सूटिंगस , मोक्ष फार्मेसी , त्रिप्ती यूटेंसिल्स , पूर्णता गारमेंट्स ! क्योंकि आकर्षण गारमेंट्स में नहीं है, आकर्षण पूर्णता में है। पूर्णता का लालच न होता, तो काहे को गारमेंट्स बिकते? क्या रखा है कि दुपट्टा डाल के बैठ गए? पूर्णता का वादा है। इसीलिए जिन्हें पूर्णता मिल जाती है, फिर उन्हें दुपट्टों से कोई ख़ास प्रयोजन रह नहीं जाता। (दीवार पर लगी तस्वीरों की ओर इशारा करते हुए) वो वहाँ पर ललेश्वरी हैं, कि महावीर हैं, अब पूर्णता गारमेंट्स में वो क्या करेंगे जा कर? वो पढ़ना शुरू करते हैं, “पू-र्ण-ता?” कहते हैं, ‘‘ये तो मिल गयी” तो गारमेंट्स तक पहुँच ही नहीं पाते हैं।

शब्द-योग’ सत्र पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।

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