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लेख
आत्मा ऐसा नहीं करती मृत्यु के बाद || आचार्य प्रशांत (2019)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
16 मिनट
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प्रश्नकर्ता: मेरी पत्नी का देहांत कुछ वर्ष पहले हुआ था, उनकी आत्मा मेरी छह वर्ष की भतीजी पर बराबर आती है। मुझे समझ नहीं आ रहा क्या करूँ?

आचार्य प्रशांत: जिनकी मृत्यु हुई, वो तो चले ही गए। लेकिन इस पूरे कार्यक्रम में एक छोटी बच्ची, दो थोड़ा ज़्यादा बड़े बच्चे और एक पूरे परिवार की भी दुर्दशा हो रही है। यह सब कुछ जो हो रहा है वो सबसे ज़्यादा घातक तो उस बच्ची के लिए है।

दो धारणाएँ हैं आपके पास—बहुत हैं, जिनमें से दो घातक जो धारणाएँ हैं मैं बताए देता हूँ: पहली तो यह कि आत्मा जीव की मृत्यु के उपरांत इस तरीक़े से आवागमन करती है। दूसरी धारणा यह कि छह-सात वर्ष का बालक या बालिका झूठ नहीं बोलेगा। ये दोनों ही धारणाएँ आधारहीन हैं। जो हो रहा है वो मामला बिलकुल दूसरा है। बच्चे अपने माहौल को देखकर बहुत कुछ सीखते हैं। सीखते क्या हैं, उचित शब्द है सोखते हैं।

वो छोटी बच्ची वही सब कुछ कर रही है, जो उसे उसके माहौल से प्राप्त हो रहा है। माहौल में कहानियाँ हैं इस तरह से आत्मा के उतरने की, मृतकों के किसी शरीर में प्रविष्ट हो जाने की, बच्ची ने वो सब कर लिया। छह-सात वर्ष की आयु तो बहुत ज़्यादा आयु होती है। साल-साल, दो-दो साल के बच्चे अपने माहौल से प्रभावित होते हैं और उसके बाद माहौल को अपनी इच्छानुसार इस्तेमाल भी करने की कोशिश करते हैं।

छोटा-सा साधारण बच्चा महत्पूर्ण हो जाता है, सम्मान का पात्र बन जाता है। आप कहते हो, 'इस पर आत्मा उतरी है, या भूत उतरा है, या देवी उतरी है।' अचानक वो बच्चा सबके ध्यान के केंद्र में पहुँच जाता है। क्यों न करे बच्चा यह सब-कुछ? ध्यान भी मिल रहा है, सम्मान भी मिल रहा है, अच्छा मनोरंजन है, बढ़िया खेल है; और बड़ों को यूँ बुद्धु बनते देखना वैसे भी बड़े मज़े की बात है।

और जबतक बच्चा इसको अपने मज़े के लिए कर रहा है तब तक तो फिर भी ग़नीमत है। एक बिंदु ऐसा आता है जब वो बच्चा, वो मन, वो जीव अपने ही झूठ का शिकार हो जाता है। उसे यह वास्तव में लगने लगेगा कि उसके ऊपर आत्मा उतरती है। उसे यह वास्तव में लगने लगेगा कि उस पर कुछ आवेश चढ़ता है। वो भूल ही जायेगा कि यह सब कुछ तो उसने स्वयं ही गढ़ा था। और वो बड़ी घातक स्थिति होती है, जब झूठ बोलते-बोलते आप स्वयं ही यह यक़ीन करने लग जाओ कि आपका झूठ सच है।

दोष उसमें बच्ची का नहीं है। जब पूरा माहौल ही अंधविश्वास से लदा हुआ हो तो छोटा-बच्चा बचेगा कैसे? वो भी उसी अंधविश्वास की परंपरा को आगे बढ़ा रहा है। वो सच्चे अर्थों में घर के बड़े-बूढ़ों का अनुकरण कर रहा है। सब अंधविश्वासी तो घर का बच्चा भी अंधविश्वासी। वो कह रहा देखो, 'मामा, पापा, बब्बा जैसा आपने सिखाया हमने बिलकुल वैसा ही करा।'

आपको कभी ख़्याल क्यों नहीं आता कि इस तरह की घटनाएँ अधिकाशतः ज़रा पिछड़े इलाकों में ही घटते हैं? इलाका जितना अशिक्षित हो, जितना पिछड़ा हुआ हो, रूढ़ियों से, अंधविश्वासों से जितना ग्रस्त हो, वहाँ उतनी ही ज़्यादा यह सब बातें सुनने को मिलती हैं, आपने ग़ौर करा है? ऐसा क्यों होता है बताइएगा? और ऐसा क्यों होता है कि अशिक्षा जहाँ जितनी ज़्यादा होती है, वहाँ उतने इस तरह के किस्से उठते हैं? और इसीलिए अब तो फिर भी कम सुनाई देते हैं। बीस साल, चालीस साल पहले तो बड़ी आम बात थी, हर चौथे आदमी पर आत्मा उतर रही होती थी।

कोई ऐसा गाँव हो, जहाँ न स्कूल हो, न बिजली हो, वहाँ ऐसे किस्से ख़ूब सुनाई देंगे न? और किसी उन्नत वैज्ञानिक प्रयोगशाला में ऐसे किस्से सुनाई देते हैं क्या? उस प्रयोगशाला में भी हो सकता है, हज़ारों वैज्ञानिक काम कर रहे हों। एक गाँव है जिसमें एक हज़ार लोग रहते हैं और एक वैज्ञानिक प्रयोगशाला है, जिसमें तीन हज़ार वैज्ञानिक काम करते हैं; ऐसी अनेकों प्रयोगशालाएँ हैं विश्वभर में। गाँव की आबादी एक हज़ार और प्रयोगशाला में हैं तीन हज़ार लेकिन उस गाँव में सौ किस्से आ जाएँगे भूत-प्रेत के।

आबादी कुल हज़ार की और किस्से आ गए भूत-प्रेत के सौ, और प्रयोगशाला में होंगे तीन हज़ार वैज्ञानिक लेकिन वहाँ भूत-प्रेत का एक किस्सा नहीं आएगा। यह भूत-प्रेत भी अंधविश्वास और अशिक्षा देखकर ही आते हैं क्या? भूत-प्रेतों को भी वैज्ञानिकों से डर लगता है क्या कि उन पर नहीं उतरते? वैज्ञानिकों के यहाँ किसी की मृत्यु नहीं होती क्या, होती है न? तो वहाँ ऐसा क्यों नहीं होता कि मृत्यु के बाद कोई रूह, कोई साया घर पर मंडराता हो?

बहुत सारी बातें एक साथ इसमें जुड़ जाती हैं। जो चला गया उसकी याद तो सता ही रही है, कमी तो है ही, ख़ालीपन तो है ही; जो चला गया पूरा घर चाहता तो है ही कि वो वापस आ जाए। तो जो चला गया उसको वापस बुलाने का यह अच्छा बहाना मिल जाता है। ऐसा लगता है कि जैसे थोड़ी क्षतिपूर्ति हो गई, जो गया था उससे महीने-दो-महीने में एक बार मुलाक़ात हो ही जाती है।

जिस पर यह तथाकथित आत्मा उतरती है उस पर उतरनी बंद हो जाएँ, तो आप उससे सवाल करेंगे — क्या हो गया भाई? बड़े आलसी हो गए हो, दो महीने बीत गए तुम पर आत्मा नहीं उतरी? आप चाहते हैं कि उस पर आत्मा उतरे। कुछ भावुकता की वजह से, कुछ मनोरंजन की वजह से, कुछ रूढ़ी की वजह से, ले-देकर कुल मिला के अज्ञान की ही वजह से। अच्छा लगता है न? पत्नी लौटकर आयी, बच्चों की माँ लौट के आयी, वो अभी भी बच्चों से प्यार करती है। कहती हैं, 'मेरे बच्चे कहाँ हैं मिलवाओं न?' अच्छा लगता है; लगता है जीवन में जो नुकसान हुआ था, थोड़ी देर के लिए ही सही उसकी पूर्ति हो गई, बीवी वापस आ गई।

अध्यात्म अंधविश्वास थोड़े ही होता है। आत्मा शब्द का इतना क्यों दुरुपयोग करते हैं? आत्मा परम सत्य है, आत्मा अटल, अचल है। आत्मा आवागमन करने वाली, आने-जाने वाली चीज़ नहीं है; जो आए-जाए सो माया। आना-जाना तो माया का काम है, आत्मा का काम नहीं है।

यह बच्चा जिस पर आप कहते हैं कि ‘आत्मा उतर रही है’, यह विक्षिप्त और मनोरोगी होकर निकलेगा, यही चाहते हैं? यह मानसिक रूप से अतिरुग्ण रहेगा बच्चा, यही चाहते हैं? अगली बार जब बच्चा बोले कि ‘मुझ पर वो आत्मा उतर रही है’, तो उसे बिलकुल प्रोत्साहित मत करिएगा, उसकी उपेक्षा करिएगा। बच्चे को ध्यान मिलता है, बच्चे को प्रोत्साहन मिलता है, इसीलिए वो यह नाटक, यह प्रपंच बार-बार करता है। अगली बार जब बोले कि ‘आत्मा उतर रही है', तो उसे झटक दीजिएगा, 'क्या नाटक कर रही हो? चुपचाप जाओ बाहर और दूसरे बच्चों के साथ खेलो।' ज्यों-ही वो ये पाएगी कि आत्मा इत्यादि का स्वांग करने से जो लाभ होता था, वो लाभ होना बंद हो गया है, त्यों-ही वो ये सब प्रपंच अपनेआप बंद कर देगी।

पर उसको यह साफ़-साफ़ कह पाने के लिए कि ‘बंद करो यह स्वांग’, सबसे पहले आपको मानसिक रूप से स्वस्थ होना पड़ेगा। क्योंकि भूलिएगा नहीं इस स्वांग में अभिनेत्री वो बच्ची है, लेकिन पटकथा आपने लिखी है, और निर्देशक आप हैं। वो बच्ची तो कठपुतली है, वो वही कर रही है जो उससे घरवाले करा रहे हैं। हाँ, आप प्रत्यक्ष रूप से नहीं करा रहे, आप उसे कोई लिखित आदेश नहीं देते हैं कि आज तुम पर आत्मा उतरनी चाहिए। पर आपने माहौल ऐसा बना दिया है कि बच्ची को वो सबकुछ करना पड़ रहा है जो वो कर रही है। जिस दिन आप स्वस्थ हो जाएँगे उस दिन बच्ची यह सब कार्यक्रम छोड़ देगी।

यूरोप की पंद्रह से बीस प्रतिशत आबादी अब अपनेआप को लिखित रूप से, औपचारिक रूप से कहती है, नास्तिक। उससे पूछो तुम्हारा धर्म क्या है? वो कहते हैं, 'कोई धर्म नहीं, हम नास्तिक हैं।' जापान में भी यही हाल है, क़रीब-क़रीब और यह बड़ा आँकड़ा है। हम दस-बीस करोड़ लोगों की बात कर रहे हैं, यूरोप, अमेरिका, जापान मिलाकर जो अपनेआप को अब खुलेआम घोषित करते हैं नास्तिक।

वो कहते हैं, 'मृत्यु के उपरांत भी कुछ है इत्यादि, इत्यादि, इसमें हमारा कोई विश्वास नहीं है।' और यह बड़ी मज़ेदार बात है कि इन करोड़ों घरों में कभी आत्मा नहीं उतरती। या भूत-प्रेत भी ये देख कर आते हैं कि कौन विश्वासी और कौन अविश्वासी है, बताओ ज़रा। हम दो-चार नहीं, हम कितने घरों की बात कर रहे हैं? करोड़ों।

इन करोड़ों घरों में कभी कोई ऊपरी हवा बहती ही नहीं। इनके यहाँ कभी नहीं होते भूत-प्रेत, डायन, चुड़ैल, रूह, जिन्न के अफ़साने। क्यों नहीं होते भाई? उन्हीं के यहाँ क्यों होते हैं, जो इन बातों को मानते हैं? दिख नहीं रहा, तुम्हारे साथ हो रहा है, क्योंकि तुम मानते हो। जो नहीं मानता उसके साथ कुछ नहीं होता। माने बात सीधी है, जो हो रहा है वो तुम्हारी मान्यता मात्र है। तुम माने जाओगे, होएगा।

और चले जाओ आदिवासियों के पास, कबीलों के पास, उनकी तो न जाने कैसी-कैसी मान्यताएँ हैं अभी भी। ख़ासतौर पर वो कबीलें जो अभी ज़्यादा संपर्क में नहीं आए हैं बाहरी दुनिया के, उनका प्रगाढ़ विश्वास है अपनी मान्यताओं पर। वो अगर कहेंगे कि साल के अमुक दिन चाँद टूटकर बिखर जाता है, तो बिखर जाता है। तुम उन्हें समझा नहीं पाओगे कि चाँद नहीं टूटकर बिखर रहा भाई।

अगर उनका विश्वास है कि उनके कबीले की देवी पहाड़ के ऊपर पत्थर बनकर बैठ जाती है, तो बैठ जाती है; तुम उन्हें नहीं समझा पाओगे, वो उस पत्थर की उपासना करे जाएँगे। अगर उनका विश्वास है कि अमुक वृक्ष के इर्द-गिर्द चक्कर लगाने से निसंतान स्त्री को संतान हो जाएगी, तो हो जाएगी और तुम उन्हें समझा नहीं पाओगे। और मज़ेदार बात यह है कि संतान हो भी जाएगी।

वो तुमको दस उदाहरण देकर के बता देंगे, कि ‘यह देखो, यह रही, और यह रही, और यह रही तीनों को बच्चे नहीं हो रहे थे, और तीनों ने उस पेड़ के चक्कर लगाए और बच्चें हो गए।‘ और तीनों आकर के गवाही भी दे देंगी, 'हाँ, बिलकुल ऐसा हुआ था।' एक तो बता देंगी कि ‘जब मैं चक्कर लगा ही रही थी, उस वक्त मुझे पता चला कि एक गर्म हवा का झोंका आया, और मेरे गर्भ में प्रविष्ट हो गया, मैं तो तत्काल जान गई कि मैं तो अभी हो गई गर्भवती।‘

वो बोलेगी, 'अरे! आप क्या बहकी-बहकी बात कर रहे हैं? हमारी आपबीती है, हमारी आँखो देखी है, हमने अनुभव करा है। आप हमारे अनुभव को झूठा बता रहे हैं, हमारा अपमान मत करिए। और ज़्यादा बोलेंगे तो ये रही हमारी कटार, ख़बरदार जो हमारे धार्मिक वृक्ष का अपमान किया तो। उस वृक्ष पर हमारे पुरखों की रूहें भी विराजती हैं, उनसे बच्चा माँगो तुरंत दे देती हैं।'

जो चले गए सो तो चले ही गए। जो बचे हैं उनकी ज़िंदगी का नाश क्यों कर रहे हो भाई? दो ही हैं, एक तो वो संसार जो मन और इंद्रियों के पार कुछ भी नहीं है और दूसरा सत्य। या तो संसार है—और संसार में जो कुछ है, वो मन और इंद्रियों को अवलोकन के लिए, अन्वेषण के लिए और चिंतन के लिए उपलब्ध है। ठीक, यह हुआ संसार। वहाँ जो कुछ है, वो प्रकृति और विज्ञान के नियमों के अधीन है। उसके आगे नहीं जा सकता है, यह हुआ संसार। वहाँ जो कुछ है उसे प्रयोगशाला में जाना जा सकता है और साबित किया जा सकता है, यह हुआ संसार।

और इस संसार के आगे, इस संसार के आधारस्वरूप कुछ है, तो उसका नाम है सत्य। सत्य न जाना जा सकता है, न सिद्ध किया जा सकता है; न इंद्रियों की पकड़ में आना है, न मन की पकड़ में आना है। हमने दो की बात करी समझना। या तो संसार है तथ्य रूप में। और संसार का जो तथ्य है, वो मन और इंद्रियों की पकड़ में आएगा; अनुभव के लिए, अवलोकन के लिए, अन्वेषण के लिए, चिंतन के लिए उपलब्ध होगा। उसे जाना जा सकता है और प्रमाणित किया जा सकता है। यह सब क्या कहलाया?

श्रोता: संसार।

आचार्य: और इस संसार के अतिरिक्त कुछ नहीं है। इस संसार की बुनियाद में जो है, उसे कहते हैं सत्य। और सत्य निराकार, निर्गुण हैं, अज्ञेय है; न उसे जाना जा सकता है, न उसे सिद्ध किया जा सकता है, न वो मन की पकड़ में आना है, न इंद्रियों की पकड़ में आना है। ठीक? यह दो ही हैं, अब बताओ भूत-प्रेत कहाँ से आ गए?

वो तो तुमने एक तीसरी ही कोटि खड़ी कर दी। अब भूत-प्रेत सत्य तो है नहीं। या यह कहना चाहते हो कि भूत ही ब्रह्म है, और चुड़ैल ही आत्मा है, और जिन्न ही सत्य है; ऐसा कहना चाहते हो? तो फिर तो जब कहा गया है कि 'सत्यमेव जयते' तो कह दो, ‘भूतमेव जयते!’ जब तुम भूत को सच मानते हो फिर क्यों कहोगे कि 'मैं सत्य हूँ', फिर तो कह दो, ‘मैं चुड़ैल हूँ!’ भाई या तो यह कहो कि यह भूत-प्रेत सब संसार के हिस्से हैं, या फिर यह कह दो कि यह सत्य है। इन दो के अतिरिक्त तो कुछ होता नहीं।

अगर यह संसार के हिस्से हैं, तो संसार में जो कुछ है वो प्रकृति और विज्ञान के नियमों के अधीन है। तो फिर भूत यह नहीं कर सकता कि दीवार फाँद जाए। बात समझ में आ रही है?

तथ्य भी भला, तथ्य के क्षेत्र का पता तुमको विज्ञान से चल जाता है; और सत्य भी भला। जो लोग तथ्य में जीते हैं, सुंदर जीवन जीते हैं, वैज्ञानिक जीवन जीते हैं, तर्कयुक्त जीवन जीते हैं। और जो सत्य में जीते हैं, वो शांति में जीते हैं, बोध में जीते हैं, प्रेम में जीते हैं; वो भी अति सुंदर जीवन जीते हैं। लेकिन तथ्य और सत्य के बीच में हम एक तीसरी कोटि खड़ी कर देते हैं, धारणा और कल्पना की। ये कोटि बड़ी गड़बड़ और बड़ी ख़तरनाक होती है।

वैज्ञानिक जीता है तथ्य में, भक्त और ज्ञानी जीते हैं सत्य में, और अंधविश्वासी जीता है कल्पनाओं और धारणाओं में। वो न तो वैज्ञानिक है, न ही संत है। तुम वैज्ञानिक हो जाओ सुंदर बात, तुम संत हो जाओ और सुंदर बात, पर तुम अंधविश्वासी हो गए इससे कुरूप बात नहीं हो सकती। अंधविश्वास का ताल्लुक विज्ञान से तो नहीं ही है, अध्यात्म से भी बिलकुल नहीं है। यह भूल मत कर बैठना कि तुम अपने अंधविश्वास को अध्यात्म का नक़ाब पहना दो।

कुछ समझ में आ रही है बात?

प्र२: फिर तो आचार्य जी तथ्य भी सत्य का रूप होंगे न। सत्य से अलग तो नहीं?

आचार्य: तथ्य यह है कि तुम दुख में हो, तुम्हें अनुभव हो रहा है। जिसका तुम्हें अनुभव हो वो तथ्य कहलाता है, सत्य अपना अनुभव नहीं कराता। हाँ, दीवार से टकरा जाओगे अनुभव हो जाएगा। तथ्य वो जो तुम्हारे मन के आयाम के अधीन हो, इंद्रियाँ जिसकी गवाही दें, बुद्धि जिसका प्रमाण दे, प्रयोग से जिसे सिद्ध किया जा सके। और बार-बार सिद्ध किया जा सके, बिना किसी अपवाद के सिद्ध किया जा सके, सो हुआ तथ्य। विज्ञान तथ्यों में जीता है, संत सत्य में जीता है, अंधविश्वासी पागलपन में जीता है, वो कल्पना में ही पड़ा रह जाता है।

हमारी बड़ी विचित्र हालत है। हम न तो तथ्य में जीते हैं, क्योंकि विज्ञान हमने पढ़ा नहीं, न हम सत्य में जीते हैं, क्योंकि सत्य में जीने के लिए जो साहस और समर्पण चाहिए और जो ज्ञान और जो श्रद्धा चाहिए वो हममें है नहीं। तो हम न इधर के हैं, न उधर के हैं, हम बीच के त्रिशंकु हैं। हम कपोल-कल्पनाओं में जीते हैं, हम किस्से-कहानियों और सपनों में जीते हैं। न विज्ञान, न अध्यात्म, हमारी अपनी व्यक्तिगत दुनिया मिथ्या मात्र है।

विज्ञान भी किस्सों को बर्दाश्त नहीं करता और अध्यात्म भी किस्सों को बर्दाश्त नहीं करता। विज्ञान भी खरी-खरी बात करता है, अध्यात्म भी खरी-खरी बात करता है। पर हम, हमारे पास बस कहानियाँ हैं; कहानियाँ, धारणाएँ, मान्यताएँ, कल्पनाएँ उन्हीं में हमारा जीवन बीतता है।

अध्यात्म विज्ञान से आगे जाता है, पर विज्ञान विरुद्ध किसी बात को अध्यात्म स्वीकार नहीं करता, इस बात को अच्छे से समझ लीजिए सब। विज्ञान के पार की कोई बात हो वो अध्यात्म की हो सकती है। उदाहरण के लिए विज्ञान प्रेम की बात नहीं करेगा, विज्ञान शांति की बात नहीं करेगा। यह बातें विज्ञान के आगे की हैं, यह बातें विज्ञान के क्षेत्र की हैं ही नहीं, ये आगे की हैं। तो अध्यात्म प्रेम की और बोध की और शांति की बात कर लेगा, यह बात विज्ञान के आगे की हैं। पर अगर विज्ञान विरुद्ध कोई बात होगी तो अध्यात्म उसे बिलकुल नहीं स्वीकार करेगा, बिलकुल भी नहीं।

जो चीज़ इतने निचले दर्ज़े की हो कि विज्ञान के ही विरुद्ध हो, वो अध्यात्मिक कैसे हो सकती है? अब विज्ञान को पार कर जाना, विज्ञान के आगे निकल जाना एक बात होती है, और विज्ञान के खिलाफ़ चले जाना, विज्ञान को भी न समझ पाना, बिलकुल दूसरी बात होती है। होती है न? चूँकि हममें से अधिकतर लोग साधारण विज्ञान में भी शिक्षित नहीं हैं। तो आध्यात्मिक होना तो दूर की बात है, हम सीधे-सीधे भौतिक भी नहीं हो पाते, हम संसारी भी नहीं हो पाते।

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