आचार्य प्रशांत आपके बेहतर भविष्य की लड़ाई लड़ रहे हैं
लेख
आप खिलिए, आपका बच्चा स्वतः खिल उठेगा || (2016)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
12 मिनट
52 बार पढ़ा गया

प्रश्नकर्ता: अगर हमनें बच्चों से ये कह दिया कि जो अच्छा है उसमें अभी उतरो तो बच्चों को तो यही अच्छा लगता है कि टीवी देखें या मनोरंजन या इधर-उधर की कूद-फाँद तो फिर इसका क्या करेंगे?

आचार्य प्रशांत: कहानी पूरी देखिए - कोई बच्चा क्यों टीवी में, या इंटरनेट में, या धमाचौकड़ी में इतना उत्सुक हो जाता है। चलिए मैं आपसे पूछता हूँ, आप अपने-आप को देख लेंगे तो आप बच्चे का मन भी समझ पाएँगे। हम में से कई लोग होंगे जो वीकेंड (सप्ताहांत) पर घूमने-फिरने जाते होंगे। बाज़ारों में सबसे ज़्यादा चहल-पहल होती है, सिनेमा में टिकट मिलना मुश्किल हो जाता है। हमें मनोरंजन की इतनी ज़रूरत क्यों महसूस होती है हफ्ते के आखिरी दो दिनों में?

आप दफ़्तर से लौटकर आते हैं और दफ़्तर से लौटकर आते ही हममें से कईयों के लिए ये आवश्यक हो जाता है कि टीवी खोलकर बैठ जाएँ या इधर-उधर की चर्चा करें या किसी किस्म का मनोरंजन करें। अपने-आपको किसी तरीके से कोई उत्तेजना दें। कोई बाहर खाने चला जाता है, कोई कहता है कि थोड़ी व्हिस्की चलेगी। ये सब हमारे लिए ज़रूरी क्यों हो जाता है? छुट्टियाँ आते ही पर्वतीय स्थलों में, हिल-स्टेशंस में होटल का एक कमरा मिलना भी क्यों मुश्किल हो जाता है? आप कोशिश करिए बुकिंग करने की, मिलेगा ही नहीं। लॉन्ग वीकेंड (लम्बा सप्ताहांत) आया नहीं कि किसी शुक्रवार को या सोमवार को अगर छुट्टी पड़ जाए, आप शिमला में या मसूरी में जाकर के देखिए कि वहाँ हालत क्या है। ऐसा क्यों होता है? हम अपने-आपको समझ रहे हैं ताकि हम बच्चे को समझ सकें। मन एक है। कहिए ऐसा क्यों होता है?

प्र: क्योंकि हमें हमारी नौकरी में आनंद नहीं आ रहा है।

आचार्य: बात बहुत सीधी है न? जब आप दिनभर ऐसा काम करते हो जो मन को बिलकुल निचोड़ करके रख देता है, दम को बिलकुल घोट देता है तो वापस आते ही ज़रूरत पड़ती है कि ये शर्ट उतारो और टाई उतारो और कुछ ऐसा करो कि ज़रा राहत मिले। जब सालभर आप जीवन ऐसा जीते हो जिसमें गर्मी नहीं, जिसमें शांति नहीं, जिसमें सुकून नहीं तो फिर आवश्यक हो जाता है न कि दस दिन, पंद्रह दिन के लिए दार्जिलिंग, नैनीताल, नहीं तो यूरोप होकर आओ। कहिए है या नहीं?

अब बताइए मुझे कि बच्चा स्कूल से लौटकर आते ही टीवी पर क्यों टूट पड़ता है? बोलिए।

प्र: स्कूल के अभ्यास में वो वहाँ ऊब गया है इसलिए।

आचार्य: स्कूल के जो अर्थ बना दिए हैं हमनें बच्चे के लिए, उन अर्थों में वो तड़प रहा है। स्कूल का अर्थ हमनें उसके लिए बना दिया है तरक़्क़ी, प्रगति और प्रतियोगिता। दबाव-ही-दबाव है उसके ऊपर। जब दबाव बहुत रहता है तो आवश्यक हो जाता है कि कहीं से, किसी माध्यम से राहत मिले। यदि ना हो तक़लीफ़ तो क्या राहत की भी ख़्वाहिश रहेगी? बच्चा जो उपद्रव कर रहा है उस उपद्रव का कारण तो समझिए। उसका कारण ये है कि उसकी ज़िंदगी में अन्य स्रोतों से उसके ऊपर हमनें बहुत दबाव पैदा कर दिया है। आप उस दबाव को हटा दीजिए, बच्चा जो कुछ उस दबाव से मुक्ति पाने के लिए करता है वो स्वतः ही हट जाएगा। बीमारी हटा दीजिए, दवाईयों का आकर्षण बचेगा क्या? दवाईयाँ अर्थहीन हो जाएँगी।

हम तमाम तरह की उत्तेजनाओं को, आकर्षणों को, उद्दीपन को दवाई की तरह इस्तेमाल करते हैं और ये काम बच्चे ही नहीं बड़े भी करते हैं। हम भली-भाँति जानते हैं कि हम किस-किस तरीके से अपने-आपको उत्तेजित करते हैं क्योंकि ज़िंदगी में ऊब भरी हुई है। ना हो ज़िंदगी में ऊब तो क्यों चाहेंगे आप उत्तेजना? बच्चे की ज़िंदगी में भी एक सहज बहाव, एक सहज त्वरा रहने दीजिए। ऐसा क्यों हो कि बच्चा सिर्फ़ टीवी देखकर खिलखिलाए? मैं आपसे सवाल पूछ रहा हूँ। बच्चा एक कार्टून-शो देखता है, वो हँसने लग जाता है। हँसना वो चाहता था, हम उसे अन्यथा हँसने नहीं दे रहे थे तो उसे टीवी पर कुछ दोस्त मिल गए। दोस्त तो उसे चाहिए ही थे। घर में नहीं मिल रहे थे, समाज में नहीं मिल रहे थे, पड़ोस में नहीं मिल रहे थे तो उसने इंटरनेट पर खोज लिए। यदि घर में ही उसे खिलखिलाने का मौका मिल जाए, यदि घर में ही उसे दोस्त उपलब्ध हो जाएँ तो वो कहीं और तलाशेगा क्या?

हमारी ही जैसे बात है। आप जब घर में लड़ लेते हैं तो बाहर भागते हैं या नहीं? कहिए हाँ या ना? और जिस दिन दिल में प्रेम होता है उस दिन घर उड़कर आना चाहते हैं या नहीं? बोलिए। बच्चे का भी वही हाल है। आप ज़रा सशक्त हैं। आपको हक़ है तो आप दरवाज़ा खोल करके घर से बाहर निकल जाते हैं। बच्चे के पास वो हक़ नहीं है तो बच्चा घर से बाहर निकलने के लिए टीवी में घुस जाता है। वो टीवी की तरफ़ नहीं जा रहा, वो घर से दूर जा रहा है।

घर का माहौल ऐसा क्यों नहीं रखते कि उसे घर से पलायन की ज़रूरत ही ना पड़े और यदि ये बात हम बच्चों के संदर्भ में समझ लें तो अपने संदर्भ में समझ गए, अपने संदर्भ में समझ गए तो बच्चे के संदर्भ में समझ गए। पत्नी आती है और शिकायत करती है कि, "अब वो पहले वाली बात नहीं रही। पहले तो ये छुट्टी लेने का बहाना ढूँढते थे, अब छुट्टी ले-लेकर भी बहाना करते हैं काम करने का।"

घर में बच्चे स्वस्थ-रूप से बड़े हो सकें इसके लिए आवश्यक है कि पहले हम आतंरिक-रूप से स्वस्थ हों। मैं अक्सर कहता हूँ कि अभिभावक होना करीब-करीब भगवान होने के बराबर है। यदि हम ख़ुद अँधेरे में जी रहे हैं तो बच्चे को हम और देंगे क्या अँधेरे के अलावा? और बच्चा स्वप्रकाशित होता है। हर बच्चे के भीतर एक भोलापन, एक निर्मलता, एक ज्योति होती है। पर हम अपना अन्धकार उसके ऊपर भी लाद देते हैं और सोचते हम यही हैं कि हम इसका हित कर रहे हैं।

आप यदि एक बच्चे के अच्छे अभिभावक बनना चाहते हैं तो पहले अच्छा इंसान बनिए। जिन्हें रुचि हो और प्रेम हो कि मेरे घर में मेरा बच्चा है वो एक सुन्दर, समग्र, सशक्त व्यक्ति बन करके उभरे उनके लिए ज़रूरी है कि वो ज़रा आत्म-निरीक्षण करें, अपनी रोज़मर्रा की ज़िंदगी को देखें और कहें कि, "यदि मैं ऐसा हूँ तो क्या मेरे माध्यम से कुछ भी सुंदर विकसित हो सकता है?" जैसा कलाकार होता है, वैसी ही तो उसकी कलाकृति होती है। बोलिए हाँ या ना? तो कृति की ओर ध्यान बाद में दें, कर्ता की ओर ध्यान पहले दें। आप यदि सम्भल गए, आप यदि जग गए तो आपको ख़्याल ही नहीं करना पड़ेगा, आपको परवाह ही नहीं करनी पड़ेगी और बच्चा फूल की तरह खिलकर निकलेगा।

और इसका विपरीत भी उतना ही सही है। आप यदि नहीं जगे तो आप चाहे जितनी कोशिशें करलो, आप चाहे जितनी उम्मीदें करलो, होगा वही फिर जो अँधेरे में होता है। तो बात बच्चे की ज़रा-सा बाद में आती है, पहले किसकी बात है? अपनी बात है। आप जितना जागरूक होंगे, आप अपने-आपको जितना समझते होंगे, आप जितने प्रेम-पूर्ण होंगे, आपके भीतर जितना आनंद होगा बच्चे के साथ भी आप वैसा ही रिश्ता रख पाएँगे।

एक छोटा-सी बात पूछ रहा हूँ, दिनभर आप यदि दफ़्तर में चिड़चिढ़ाते हैं, दिनभर यदि दफ़्तर में आपका मन प्रतिस्पर्धा में रहता है, "मेरी तनख़्वाह कितनी है? मेरी तरक़्क़ी कब होगी? अगली नौकरी कौन-सी मिल सकती है? किस तरह से इनको छोड़ करके भागूँ? किस तरह से इनसे आगे निकलूँ? किस तरह से किसी को नीचा दिखा दूँ?" या ये आशंका कि, "कोई और तो मुझे नीचा नहीं दिखाना चाह रहा? दुनिया में तमाम दुश्मन हैं उनसे कैसे अपनी रक्षा करूँ?" इस तरीके के ख्यालों में आपका वक़्त बीतता है। मान लीजिए शाम के छः या सात बजे तक और साढ़े-सात पर आप अपने घर में आते हैं तो साढ़े-सात बजे क्या अचानक आप एक भिन्न व्यक्ति हो जाएँगे? आपका केंद्र ही बदल जाएगा क्या? हाँ, सतही विचार बदल जाएँगे। ऊपर-ऊपर से ऐसा लगेगा कि सब बदल गया। पहले दफ़्तर में था अब घर में हूँ। पर मूलतः आप अभी भी वही मन हैं न जो डरता है, जो भागता है, जो आगे निकलना चाहता है, जो अपनी रक्षा की चिंता में व्यस्त है।

जैसे आप दफ़्तर में किसी से प्रतिस्पर्धा कर रहे थे वैसे ही आप घर आकर बच्चे को भी प्रतिस्पर्धा करना सिखाओगे। कहिए हाँ या ना? जैसे आप दफ़्तर में अपने पड़ोसी के साथ भी, बगल के व्यक्ति के, सहकर्मी के साथ भी कोई सुमधुर रिश्ता नहीं रख पा रहे थे वैसे ही घर में पत्नी के साथ भी नहीं रख पाओगे। ऊपर-ऊपर से ऐसा लगेगा कि जैसे सब ठीक है और अंदर-ही-अंदर दूरियाँ बनी रहेंगी। वही जैसा कि किसी भी दफ़्तर में होता है — ऊपर-ऊपर से मुस्कुराहटें हैं, हाथ मिल रहे हैं, गले भी मिल सकते हैं पर दिलों में दूरियाँ बनी रहती हैं। वही हालात घर पर भी रहेंगे।

जीवन को समग्रता में देखिए, हिस्से करके नहीं। ये मत कहिए कि, "मुझे बच्चे के साथ तो अच्छा होना है और पड़ोसी के साथ अच्छा ना भी हूँ तो चलेगा।" आपको यदि अच्छा होना है तो आपको पूर्णतः एक अच्छा इंसान होना पड़ेगा। वो अच्छा इंसान जहाँ भी होगा अच्छा होगा। जब जहाँ भी होगा तो अच्छा होगा तो बच्चे के साथ भी अच्छा होगा। आपके घर में काम करने के लिए कोई आता है - आपने किसी को नौकरी दे रखी है, कोई कामवाली बाई है, ज़रा उसके प्रति अपना व्यवहार देखिए और हो सकता है वो भी अपना छोटा-सा बच्चा लेकर के आती हो, उस बच्चे के प्रति अपना आचरण देखिए। क्या ये सम्भव है कि प्रेम इतना बँटा हुआ हो कि घर में ही दो बच्चे मौजूद हों और वो सिर्फ़ एक की तरफ़ बहे? पूछिए, बताइए। यदि होते हैं तो झूठे हैं।

जिसके मन में करुणा होगी, जिसकी आँख में प्यार होगा वो अलग-अलग लोगों को अलग-अलग आँख से नहीं देख सकता। जो समझता होगा वो सबकुछ समझेगा अन्यथा कुछ नहीं। मैं अभी आपसे बात कर रहा हूँ, क्या ऐसा हो सकता है कि बीच में बस दस मिनट का आपको समझ में आया हो और बाकी कुछ ना आए? आप यदि देख रहे हैं तो क्या ये सम्भव है कि आपको दीवार का बस छोटा सा हिस्सा दिखाई देता हो, और कुछ दिखाई ही ना दे? जो सुनेगा वो पूरा सुनेगा, जो देखेगा वो पूरा देखेगा, जिसके दिल में प्यार होगा उसके दिल में समग्रता के लिए प्यार होगा। वो फिर ये नहीं कर पाएगा कि, "मेरा बच्चा तो मेरा बच्चा है और बाकी दुनिया में लगती हो आग तो लगे।"

पर हम इसी बात को प्रेम का सबूत मानते हैं। हम जितना बाँटकर देखते हैं, हम समझते हैं हमारा प्यार उतना गहरा है — ये भ्रम है, इससे मुक्त हो जाएँ। इसी को मैं कह रहा हूँ — पहले एक इंटीग्रल (पूर्ण), अविभक्त इंसान बनें, फिर ऐसे-ऐसे जादू होंगे जिनकी आप अभी कल्पना भी नहीं कर सकते। फिर आप सिर्फ़ ये सवाल नहीं पूछेंगे कि, "बच्चे से संबंध कैसे हो?" फिर आप पाएँगे घर से संबंध बहुत सुंदर है। यहाँ सोसायटी में यदि दो-चार आवारा कुत्ते भी घूम रहे हैं तो आप पाएँगे कि उनसे भी रिश्ता बदल गया है, अब पहले जैसा नहीं रहा। मुंडेर पर एक पक्षी आकर के बैठ जाता है उसको भी अब आप वैसे नहीं देखते जैसे पहले देखते थे। और यदि वो सब नहीं हो रहा तो ये उम्मीद छोड़ दें कि किसी एक व्यक्ति-विशेष से आपके संबंध सुधर सकते हैं, ऐसा नहीं हो पाएगा।

जो प्यार जानता है उसका प्यार सीमित या केंद्रित नहीं हो सकता सिर्फ़ अपने बच्चे या अपनी पत्नी या माता तक। प्यार सूरज की तरह है, चमकता है, फैलता है, सबपर गिरता है। तरीके अलग-अलग हो सकते हैं, किसको कितना मिलता है वो स्थितियों पर और पात्रता पर निर्भर हो सकता है, पर सूरज अपनी ओर से भेद नहीं करता। आप उठें, आप फैलें, आप पुष्पित हों फिर देखिए बच्चे की मुस्कुराहट। बल्कि बहुत अच्छा है, जो लोग माता-पिता हों, जिनके मन में बच्चे के लिए प्रेम हो वो उस प्रेम को ही जीवन-क्रांति का साधन बना लें। वो कहें — ये बच्चा मुझे प्यारा है और मैं इसके साथ तबतक न्याय नहीं कर पाऊँगा जबतक मैं नहीं बदल जाता तो अगर मुझे इसकी खुशहाली चाहिए तो इसकी खुशहाली की ख़ातिर मुझे बदलना पड़ेगा। बच्चे को कारण बना लें, बच्चे को मार्ग बना लें।

क्या आपको आचार्य प्रशांत की शिक्षाओं से लाभ हुआ है?
आपके योगदान से ही यह मिशन आगे बढ़ेगा।
योगदान दें
सभी लेख देखें