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लेख
आदत नहीं, औचित्य || आचार्य प्रशांत (2014)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
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प्रश्न: प्राथमिकता और आदत में क्या अंतर है?

वक्ता: हर प्राथमिकता एक आदत है, इनमें कोई अंतर नहीं है। कोई भी आदत आकर नहीं कहेगी, ‘मैं एक आदत हूँ’। हर आदत यही कहेगी कि ‘मैं…?

सभी श्रोतागण(एक स्वर में): प्राथमिकता हूँ।

वक्ता: प्राथमिकता हूँ। जिसको भी तुम प्राथमिकता कहते हो, वो सिर्फ़ आदत ही है।

अगर प्राथमिकताएं हैं, तो फिर समभाव का क्या अर्थ रह गया? समभाव का तो अर्थ ही यही है कि कुछ भी प्राथमिक नहीं है, एक ही तत्व है। तो प्राथमिकता जैसा कुछ होता नहीं, हाँ सम्यकता होती है। सम्यकता मतलब? जो उचित है, वो करना।

प्राथमिकता में चुनाव है, सम्यकता में निर्विकल्पता है।

वहाँ चुनाव है ही नहीं। अंतर समझाना। प्राथमिकता देने का अर्थ है- ‘अ’ को ‘ब’ से ज़्यादा महत्वपूर्ण मानना। और इसके लिए क्या करना पड़ेगा?

सभी श्रोतागण(एक स्वर में): चुनाव।

वक्ता: पर सम्यक कर्म का मतलब होता है- केवल एक है, दूसरा नहीं। चुनाव करने के लिए कोई ‘दूसरा’ नहीं। ऐसा कर्म सम्यक कर्म है।

श्रोता १: सर, अगर हमें ये पता चल जाए कि ये उचित विकल्प है, तो उसके पूर्व भी तो हम उसे दो-चार विकल्पों में से छांटेंगे?

वक्ता: अगर छांट रहे हो, तो अभी वो दूसरे विकल्प अपना ज़ोर दिखा ही रहे हैं, नहीं तो छांटने की ज़रुरत ही नहीं पड़ती। और अगर अभी छांट रहे हो, तो सावधान रहना, दूसरों का ज़ोर बढ़ भी सकता है। इसीलिए जब मैं किसी से बोलता हूँ कि ये करो, और वो बोलता है कि सोच कर बताऊंगा, तो वो उस सोचने में क्या करेगा? वो चुनाव करेगा।

श्रोता २: सर, सोच कर बताएगा तो क्या ग़लत है?

वक्ता: मैं भी इस प्रश्न का उत्तर सोच कर बताऊँगा। कैसा लगेगा अगर मैं तुम्हें दो दिन बाद सोच-सोच कर इसका उत्तर दूँ? अगर मुझे दो दिन बाद इसका उत्तर देना है, तो इस बात का क्या अर्थ होगा?

श्रोता २: यही कि उत्तर तैयार कर के दिया गया है।

वक्ता: जो असली है वो सोच-सोच कर नहीं होता। सोचोगे, विचारोगे, फिर अपने झुण्ड में वापस जाओगे। वहीँ पर बैठ कर फ़ैसला करोगे। सारा खेल ही इसी बात का है कि ऐसी स्पष्टता है या नहीं कि अभी बोल दो। और तुम कह रहे हो कि नहीं, मैं तो वापस जा कर बताऊंगा, मुझे विचार कर के बताना है। इस बात को बड़ा महत्व दिया जाता है कि देखिये, ये तो बहुत सोच-सोच कर कदम रखता है। कहीं कुछ करने जाओ, और खूब सोच-सोच कर करना पड़े, तो न ही करो। कोई आकर कहे, ‘आमंत्रण है प्रेम का’, और वो कहे, ‘सोच कर बताएंगे’, तो तुम कहो, ‘ठीक है, जवाब मिल गया’। अभी अगर सोचने की ज़रुरत पड़ रही है, तो बात बनी नहीं।

श्रोता ३: सर, इसी पर एक कहानी है। रविन्द्रनाथ टैगोर के दादा, वो भी सन्यासी थे। वो किसी झील के पास रहा करते थे। तो स्वामी विवेकानंद एक बार उनके पास रात को बारह बजे गए। विवेकानंद ने उनसे पूछा, ‘मुझे बताओ कि क्या भगवान है?’ रविन्द्रनाथ टैगोर के दादा ने इस बात का उत्तर देने में दो-तीन मिनट लगा दिए। और जैसे ही उन्होंने जवाब देना चाहा, स्वामी विवेकानंद बोले, ‘अगर आप सोच रहे हैं, तो बात बनी नहीं’, और मुड़कर चले गये।

वक्ता: इन सवालों पर जिसको ‘हाँ’ करने में शतांश समय भी लगा, वो झूठा आदमी है। मैं तुमसे पूछूँ, ‘श्रद्धा है?’ और तुम कहो, ‘अ..अ.., हाँ’, तो हटो यहाँ से। मैं पूछूँ, ‘सत्य है? प्रेम है?’, तुम कहो, ‘अ.उम..अ..उम.म..अ.., हाँ’। मैं पूछूँ, ‘मुक्ति चाहिए? मुक्त होना है?’, तुम कहो, ‘अ.अ.अ.अ..उम.म.म.म.., हाँ’, तो गड़बड़ है।

(हंसी)

समझ में आ रही है यह बात कि सोचने में क्या दिक्कत है? इन बातों में सोचा नहीं जाता। सोच-सोच कर ही तो जब कोई बोलता है, ‘आ जाओ’, तो तुम कहते हो, ‘सोच कर बताऊँगा’। सारी देरी सोचने के कारण ही हो गई है।

जब वो कहता है, ‘आओ’, तो जाओ, सोचो नहीं। आओ, तो आओ, उठ कर चल दो। कोई वाद-विवाद नहीं, कोई तर्क नहीं, कोई सोच-विचार नहीं, जाओ। सोच क्या रहे हो? बुलाया है न? बस जाना है, बात ख़त्म। वहाँ तुम्हारे चिंतन के लिये कोई जगह नहीं है। वहां तुम्हारी बुद्धि की कोई आवश्यकता नहीं है। बुलाए गए हो, जाओ। सोचा नहीं जाता, होशियारी मत करो।

यही होता है अकारण होना, सोच सदैव कारणबद्ध होती है। सोचोगी तो कारण निकालोगी। अकारण होने का अर्थ यही है- बुलाया, तो गए। क्यों गए? क्योंकि बुलाया गया। बस यही कारण है, स्रोत ही कारण है। क्यों गए? क्योंकि बुलाया गया। इसी को कहते हैं अकारण होना। आ रही है बात समझ में?

सभी श्रोतागण(एक स्वर में): जी सर।

– ‘बोध-शिविर’ सत्र पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।

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