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लेख
आदर्श जीवन कैसा हो? || (2018)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
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प्रश्नकर्ता: आदर्श जीवन के लिए क्या परिभाषा है एक व्यक्ति के लिए कि उसके जीवन में ये ये हुआ था और वो आदर्श जीवन जिया?

आचार्य प्रशांत: तो बड़ी सुविधा हो जाएगी न? तुम्हें बता दिया है कि ऐसा है आदर्श जीवन, अब तुम्हें कुछ विचार नहीं करना। अब तुम्हें ज़रा भी जागृति नहीं चाहिए। अब तुम्हें क्या मिल गया एक? *टेम्पलेट*। आदर्श जीवन ऐसा है – सुबह साढ़े सात बजे बिलकुल, पेट हल्का कर लो, तुम्हें लगी है कि नहीं लगी है, कोई अंतर ही नहीं पड़ता। आदर्श जीवन पता तो चल गया। जीवन अगर आदर्श है तो फिर उसमें जो कुछ है वो सब आदर्श होगा। फिर आदर्श नौकरी होगी, आदर्श कन्या होगी, आदर्श घर होगा, आदर्श भोजन होगा, आदर्श वज़न होगा। अब कहाँ आवश्यकता है तुम्हारे चैतन्य निर्णय की? अब कहाँ आवश्यकता है कि तुम आँख खोल कर के जियो? अब तुम्हें आँख नहीं, आदर्श काफ़ी है। करोगे क्या आदर्श का?

सबसे पहले तो मैं ये पूछूँगा कि, "आदर्श सवाल कौन सा होता है?" और मैं जवाब ही नहीं दूँगा जब तक आदर्श सवाल नहीं आएगा। और अगर आदर्श सवाल आ ही गया, तो फिर उसे जवाब क्यों चाहिए? तुम इतनी बातें पूछते हो, जिसमें से निन्यानवे प्रतिशत बकवास होती हैं, मैंने कभी कहा कि आदर्श प्रश्न पूछो?

(श्रोतागण हँसते हैं)

पर तुम्हें आदर्श जीवन चाहिए।

जो है जैसा है, यही है। देखो इसे, समझो इसे, और पार निकल जाओ इसके। आदर्श की प्रतीक्षा में रह गए, तो प्रतीक्षा मात्र मिलेगी। और उससे भी ज़्यादा ख़तरनाक होगा अगर आदर्श मिल गया। क्योंकि फिर तुम मुर्दा हो गए। आदर्शवादियों से ज़्यादा मुर्दा कोई नहीं होता। ये है आदर्श ( टेबल को इंगित करते हुए)। आदर्श समझते हो न? एक नमूना मन में था और उसके अनुसार कुछ तैयार कर दिया गया। ये जीवित नहीं है। इसका पहले से ही आदर्श नमूना किसी के मन में था। और उस कलाकार ने, बढ़ई ने, उस नमूने के अनुसार ये तैयार कर दिया, ये आदर्श है। ऐसा होना चाहते हो?

माँ बाप अकसर यही करते हैं, उनके दिमाग में पहले से ही आदर्श नमूना होता है, लड़के को ऐसा तैयार करेंगे। और फिर लड़का ऐसा तैयार हो जाता है, (एक श्रोता की तरफ इंगित करते हुए) और फिर सब जाते हैं और उस पर अपनी तशरीफ़ जीवन भर रखते हैं।

(श्रोतागण हँसते हैं)

आदर्श लड़के हो क्या तुम भी?

कई होते हैं, विद्यालय वगैरह जहाँ ये सब पढ़ाया जाता है – आदर्श राजू, आदर्श ललिता। और आदर्श राजू को बता दिया जाता है कि आदर्श लड़की ललिता कैसी होती है। और आदर्श लड़की को पहले ही पता है कि आदर्श लड़का माने राजू। अब हो गया। आदर्श कुर्सी पर आदर्श तशरीफ़। सब मुर्दा। पेड़ कभी ऐसा होता है?

पेड़ के पास कोई आदर्श है? तुम पेड़ को सिखा सकते हो कि इसी तरीके से आगे बढ़ना है, यहीं से ही शाख फूटेगी, और फिर वहाँ से प्रशाख फूटेगी? और ठीक इतनी पत्तियाँ आएँगी तेरे ऊपर क्योंकि यही एक आदर्श संख्या है? पेड़ को बता सकते हो? बोलो?

वहाँ तो जो होता है, उसमें एक अनियंत्रण है, एक अव्यवस्था है, एक अराजकता है। जो बड़ी सुन्दर है। पूरी नहीं है वो भी, क्योंकि पेड़ उड़ नहीं सकता। एक आदर्श तो उसको भी पता है, क्या? कि जीना जड़ों में ही है, जीना ज़मीन पर ही है। पेड़ बोलेगा भी नहीं। कुछ बातों से वो भी सीमित है। आदर्श माने सीमा। लेकिन फिर भी पेड़ के पास, इससे (टेबल) तो ज़्यादा आज़ादी है न?

आदर्शवादी मत बन जाना। क्यों चाहिए आदर्श? जब प्रतिपल तुम्हारे पास बोध है, जब तुम देख सकते हो, समझ सकते हो, तो उसके सहारे जियो न! आदर्शों का सहारा क्यों चाहिए? गाड़ी चलाते हो तो आँख से चलाते हो या स्मृति से चलाते हो? आदर्श माने 'स्मृति से जीना'। गाड़ी कैसे चलाते हो? अभी सामने जो होगा, उसको तत्काल एक समुचित उत्तर देंगे।

प्र: जो पहले से पता न हो।

आचार्य: या ये कहते हो कि, "अब ठीक तीन मिनट और छह सेकंड बाद मुझे दाएँ मुड़ जाना है।" ऐसे चलाते हो गाड़ी? अरे जीवन है, उसमें कभी भी कुछ भी हो सकता है, आदर्श कैसे काम आएँगे? वहाँ तो एक ही चीज़ काम आती है, विशुद्ध चेतना। सम्पूर्ण होश।

प्र: धर्म क्या हुआ?

आचार्य: अब जैसे अटके हुए थे, उलझन थी मन में, तो सवाल पूछ लिया, यही धर्म है। जहाँ भी हो वहाँ से शान्ति की ओर तुम्हें जो ले जाए, सो धर्म। उलझन में थे तो सुलझाव की ओर तुम्हें क्या ले जाएगा? - सवाल पूछना। तो ये धर्म हुआ। अभी-अभी तुमने एक धार्मिक कृत्य किया। और उलझे हुए हम सभी रहते हैं। तो उलझन जो कुछ भी दूर करे सो धर्म।

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