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लेख
आभार मन के स्रोत का || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2014)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
19 मिनट
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वक्ता: तेरी है ज़मीं, तेरा आसमां|

‘ज़मीं से आसमां’ मतलब, जो कुछ भी है| ज़मीन एक सिरा है, आसमान दूसरा सिरा है; उसके बीच में जो कुछ भी है| मतलब? क्या-क्या है जो ज़मीन और आसमान के बीच में है?

श्रोता १: सब कुछ|

वक्ता: सब कुछ, तो पूरा अस्तित्व| ‘तेरी है ज़मीं तेरा आसमां’, मतलब सब कुछ| सब कुछ तेरा है| सब कुछ है कहां वैसे? ये ज़मीन से लेकर आसमान तक, जो कुछ है, वो कहां है? वो कहां है?

श्रोता २: मन में|

वक्ता: मन में| और मन का स्रोत क्या है?

श्रोता २: विचार|

वक्ता: सब कुछ कहां है? मन में| और मन कहां है?

श्रोता ३: अतीत में|

वक्ता: मन किससे आता है? मन किसका है?मन किससे उठता है?

श्रोता ५: अहंकार से|

वक्ता: मन की सामग्री तो बाहर से आई है, चलो ठीक है| मन का स्रोत क्या है?

श्रोता ६: स्रोत से?

वक्ता: जो कटोरा है, उसको भरते तो बाहर वाले हैं, उसकी सामग्री बाहर से आती है| कटोरा कहां से आता है? बात आ रही है समझ में? सामग्री तो बाहर से आई, पर कटोरा कहां से आया?

उसको संबोधित किया जा रहा है, जो सब कुछ का स्रोत है| उसको संबोधित किया जा रहा है, जो उस सब का स्रोत है, जो दिखाई पड़ता है, सुनाई पड़ता है, छुआ जा सकता है| बात आ रही है समझ में?

श्रोता ७: सर मुझे यह ‘तेरी’ नहीं समझ आ रहा है| ‘तेरा’ कौन? मुझे यही नहीं समझ आ रहा है| मुझे तो भगवान ही लगते हैं हमेशा| जब भी आता है ना कि ‘कौन हूं’, तो एक कोड-वर्ड लगता है| कोड-वर्ड जैसे, मुझे लगता है कि स्त्रोत जैसे भगवान ही है|

वक्ता: ‘भगवान’ कह सकते हो, भगवान कहने में बस ये होगा कि तुम जैसे ही भगवान बोलोगे, तो तुमको रामचंद्र जी दिखई दे जाएंगे धनुष-बाण लेकर, और ये दिक्कत की बात है|

(कुछ श्रोतागण हंस देते हैं )

तो ये दिक्कत हो जाएगी ना?

श्रोता ७: सर, हमें जो दिखता है, वही उन्हें भी तो दिखता होगा ना? उन्होंने, उसको देख कर ही यह गीत लिखा होगा ना?

वक्ता: उनको छोड़ दो कि उन्होंने कहां से लिखा है| उन्होंने नहीं लिखा है, उनसे भी तो लिखवाया गया है| तो गीत लिखने वाले को भी ठीक-ठीक पता नहीं है कि वो कहां से क्या लिख रहें हैं|

श्रोता ८: उनकी भी तो अवधारणा ही थी?

वक्ता: तुम समझ नहीं रहे हो कि मैं क्या कह रहा हूं| तुम्हें क्या लगता है, तुम यहाँ आए हो?तुम भी तो यहां लाए गए हो ना?

तुम्हें खुद क्या साफ़-साफ़ पता है कि तुम यहां क्यों आए हो? जैसे तुम्हें यहाँ लाया गया है, उससे लिखवाया गया है| तुम्हें साफ़-साफ़ पता नहीं कि तुम यहां आए क्यों हो, और उसे साफ़-साफ़ पता नहीं कि उसने लिखा क्यों है| तो उसने क्यों लिखा है, इस बात का कोई ख़ास महत्व है नहीं| समझ रहे हो बात को?ये बिल्कुल मत सोचना कि उसने जो लिखा है, वो उसका असली मतलब है| हम यही सोचते हैं ना कि असली मतलब वो है, जो लिखने वाले ने, सोच कर लिखा है| ना, ना असली मतलब वो नहीं है|

असली मतलब वो है, जो तुम समझ से देखो, शांति से देखो| उसके बाद, जो अर्थ खुले, वो असली मतलब है| अब फर्क नहीं पड़ता कि उसने क्या सोचा था| उसने हो सकता है कुछ भी ना सोचा हो| उसने हो सकता है कोई बहुत ही तुच्छ सी बात सोच कर लिख दी हो| उसने क्या सोचा, इससे फर्क ही नहीं पड़ता|

श्रोता ९: लेकिन ये बातें जो लिखी हैं, उनका असली अर्थ बहुत बड़ा है|

वक्ता: भले ही लिखने वाले को भी वो अर्थ ना पता हो| हो सकता है जिसने लिखा है, उसे भी वो अर्थ ना पता हो| लेकिन इससे क्या फर्क पड़ता है? क्या सेब के पेड़ को पता है कि सेब कितना मीठा है? जल्दी से बोलो| क्या किसी आम के पेड़ ने आम चखे हैं आज तक? तो क्या फर्क पड़ता है| वो पैदा उससे हुए हैं, लेकिन उसका स्वाद तो तुमको पता है ना? ये लिखा किसी और ने होगा, ये पैदा किसी और से हुआ है, पर उसको इसका स्वाद नहीं पता है|

श्रोता १०: सर, उसने फिर कैसे लिख दिया?

वक्ता: उसने कैसे भी लिख दिया| उसने तो कैसे ही लिख दिया| स्वाद तुम्हें पता चलेगा, जब तुम उसे ध्यान से देखोगे| आम का स्वाद, पेड़ को नहीं पता होता है| आम का स्वाद उसे पता होता है, जो उसे ध्यान से, रस ले-ले कर खाता है| आ रही है बात समझ में?

तेरी है ज़मीं, तेरा आसमां, ये सब कुछ द्वैत में है, जो भी दिखाई पड़ता है; और द्वैत का, एक अद्वैत स्रोत ज़रुर होगा| द्वैत का, एक अद्वैत स्रोत ज़रुर होगा| उसको ही संबोधित किया जा रहा है, कि तेरी है जमीं, तेरा आसमां|

श्रोता ११: सर, यह द्वैत कैसे हुआ- ज़मीन और आसमान में?

वक्ता: ज़मीन और आसमान में, जो कुछ भी दिखाई पड़ता है, द्वैत में ही दिखाई पड़ता है ना? ये बोर्ड है| इस पर कुछ भी, कैसे दिखाई पड़ेगा? (सफ़ेद बोर्ड की ओर इंगित करते हुए) इस पर सफ़ेद चौक से लिख दूं, तो दिखाई पड़ेगा? इस पर सफ़ेद से लिखूं तो?

श्रोता ११: नहीं दिखाई पड़ेगा|

वक्ता: तो कुछ भी, कब दिखाई पड़ता है? जब उसका विपरीत मौजूद होता है| है ना? सफ़ेद है ही इसलिये क्योंकि काला है| काला ना हो, तो सफ़ेद नहीं हो सकता|

श्रोता १२: सर, एक की शक्ति पता नहीं लग सकती, जब तक दूसरे से लड़े ना|

वक्ता: जब तक दूसरे से लड़े ना| एक की शक्ति छोड़ दो, एक पता ही नहीं लग सकता, जब तक दूसरा ना हो| एक का पता नहीं लगेगा|

श्रोता १३: तुलना नहीं हो सकती|

वक्ता: तुलना नहीं हो सकती, बहुत बढ़िया| तो, हम जो कुछ भी देखते हैं, वो तुलना के द्वारा ही देखते हैं|

श्रोता १४: तो फिर निजता(इन्दिविदुअलिटी) कहां हुई?

वक्ता: कुछ नहीं है उसमें| ऐसे समझो कि अगर, तुलना ना बिगड़े, तो हमें जो दिख रहा है, वो भी ख़राब नहीं होगा| इस दुनिया में जो कुछ है, अगर वो सब आकर में, एक तिहाई कर दिया जाए, तुम्हें क्या लगता है, तुम्हें पता चलेगा? अगर सब कुछ, इकट्ठे एक तिहाई हो जाए, तो तुम्हें पता चलेगा? क्योंकि तुलना में तो वही रहेगा| अनुपात वही रहा, तो तुम्हें पता नहीं चला| सोचो कितनी अजीब सी बात है| एक तिहाई छोड़ दो, जो कुछ है, वो सब एक भागा तीन सौ हो जाए, तब भी तुम्हें पता ही नहीं चलेगा| क्योंकि मन तो जो भी जानता है, बस तुलना में ही जानता है| हां, अगर कुछ चीजें एक भागा तीन सौ हों, और बाकि ना हों, तब पता चल जाएगा|

श्रोता १५: सर, अगर अमीर एक भागा तीन सौ हो जाएं और गरीब भी, तो पता तो चलेगा ना?

वक्ता: (‘नहीं’ में सर हिलाते हुए) चीजें भी तो एक भागा तीन सौ हो गईं| इच्छा भी एक भागा तीन सौ हो गई| सब कुछ एक भागा तीन सौ हो गया| कुछ पता ही नहीं लगेगा|

श्रोता १६: क्या होगा फिर?

वक्ता: यही बात जिन्हें समझ में आई, उन्होंने कहा कि ये सब कुछ जो है, इसको गंभीरता से नहीं लिया जा सकता, क्योंकि ये सब द्वैत में है| और द्वैत में जो कुछ है, वो दूसरे पर निर्भर है| उसका अपना कोई अस्तित्व नहीं है, उसकी अपनी कोई औकात ही नहीं है| इसलिये उन्होंने कहा कि जो इस पूरे द्वैत का, अद्वैत स्रोत है, हम सिर्फ उसको ही सच्चा मानेंगे|

इसलिये उसको कह रहें हैं कि ‘तेरी है ज़मीं, तेरा आसमां’| तेरे होने से ये सब हैं, ये अपने होने से नहीं हैं| सफ़ेद, काले के होने से है, काला सफ़ेद के होने से है| और दोनों किसके होने से हैं? दोनों से पूछो तो वो कहेंगे कि हम एक दूसरे के होने से हैं| पर ये तो कोई बात नहीं हुई|

एक दूसरे से पृथक, अलग-अलग भी क्या तुम्हारा कोई अस्तित्व है?

श्रोता १७: सर, यह विरोधाभास है ना स्रोत? यह एक अवधारणा है|

वक्ता: वो अवधारण नहीं है|

श्रोता १७: स्रोत का स्रोत, फिर उसका भी स्रोत, फिर उसका भी…|

वक्ता: हां, हां, हां, इसलिये वो अवधारणा नहीं हो सकता| फिर जो तुम कह रहे हो उसमें वो एक अनंत प्रतिगमन हो जाएगा| पीछे जाते रहोगे, जाते रहोगे, जाते रहोगे| उसमें तुम्हें कुछ नहीं मिलेगा| तुम्हें कहीं ना कहीं, ऐसी जगह जाकर रुकना होगा, जिसके पीछे जाया नहीं जा सकता| वरना, कब तक पीछे जाओगे?

श्रोता १८: सर, जैसे-जैसे और ज़्यादा अंदर जाते जा रहें हैं, वैसे-वैसे लग रहा है कि कोई भी बात गंभीर नहीं है| किसी भी बात को गंभीरता से लेने का, फर्क ही नहीं पड़ता| लो, मत लो, बस जी लो| उसे भी जी लो, इसे भी जी लो, वैसे भी जी लो, ऐसे भी जी लो| मर के भी जी लो, जी के भी जी लो| बस जी लो|

वक्ता: और चूँकि उसके होने से ये मिला है, जिसको कह रहे हो, ‘जी लो’, ‘जीवन’, तो इसीलिये अगली पंक्ति कही जा रही है कि ‘तू बड़ा ‘महरबां’| ‘जिसको भी मैं जीवन कहता हूं, वो मुझे अपने करने से तो मिला नहीं है| उसमें, मेरी अपनी तो कोई योग्यता नहीं है| तो धन्यवाद| तूने बख्शीश दी है| इनायत है तेरी| कृपा है, प्रसाद है’|

श्रोता १९: ऐसा क्यों कहा जाता है कि बहुत अच्छे कर्म करो तो इंसान का जीवन मिलता है?

वक्ता: अच्छा, अच्छे कर्म क्यों करें?

श्रोता १८: और अच्छे कर्म क्या होते हैं?

वक्ता: चलो कुछ होते भी होंगे, पर करे क्यों?

श्रोता १९: तो इसका मतलब क्या हुआ सर?

वक्ता: इसका मतलब ये हुआ कि हर चीज़ का, एक पहला कारण तो है ना? वो पहला कारण तुम नहीं हो| अगर तुम ये दवा करोगी कि मुझे ये जन्म इसलिये मिला है क्योंकि मैंने अच्छे कर्म किए, तो तुम्हारे अच्छे कर्मों के पीछे भी कोई कारण होगा? उसके पीछे भी कुछ होगा| अंततः तुम पाओगे कि जो आखिरी कारण है, वो तुम नहीं हो| वो कोई और ही है| तो उसको धन्यवाद तो बोलना पड़ेगा ना? अच्छे कर्मों का भी अगर कारण कोई और है, तो उसे धन्यवाद बोलो|

श्रोता १९: क्योंकि मन से करवा रहा है, वही करवा रहा है|

वक्ता: करवाया तो किसी और ने है| अच्छे कर्म, तुमने खुद तो किए नहीं हैं|

श्रोता २०: और जो चीज़ तुम ‘अच्छे’ कह रहे हो, वो तुम, ‘अच्छे’ कैसे कह सकते हो, जब उसने ही ये पूरा, अच्छा और बुरा रचा है?

आपको नहीं लगता कि जैसे अगर हम पांच लोग बैठे हैं यहां पर, हम जानना चाहते हैं, तो इसलिये जानना चाहते हैं क्योंकि वो सुविधा देता है| तो एक तरह से, अगर सब कुछ ही उसका बनाया हुआ है, तो सुविधा भी तो वही उनको दे रहा है ना? मुझे नहीं पता दूसरों का, लेकिन मैं क्या जानता हूं कि कष्ट था, और तब वो सुविधा नहीं थी कहीं भी, और तब ये कुछ एकदम से सामने आया| और तब आपके अंदर एक वो बात जगती है, कि जो तुम सोच रहे थे, वो सही नहीं है| जो ज़िदगी के बारे में सोचते रहे थे, वो नहीं है| और तब वो जानने की जिज्ञासा आती है अंदर से कि ये भी करके देख ही लेते हैं|

आपको समझ में आता है कि ये ही सच है या कुछ स्पष्टता मिलती है| जैसे मैं यही सोच कर बैठा रहता था कि इतनी महत्वपूर्ण बातें बता रहे हैं, और कोई सुनने को तैयार नहीं है| क्यों है ये? क्योंकि अभी जीवन में सुविधा है, दुःख नहीं हैं| तो ये सुविधा और सुख भी तो फिर उससे ही आया ना?

वक्ता: देखो, वो नहीं सुन रहें| तुम इसका कारण तो खोज लोगे कि कोई कारण होगा| और उस कारण तो तुम आराम से क्या बोल दोगे?

श्रोता २०: कि जीवन में सुख है, सुविधा है|

वक्ता: सुख है, संस्कारित मन है| जल्दी से बोल दोगे| पर कोई अगर सुन रहा है, तो उसका कारण मत खोज लेना| अगर कोई सुन रहा है, तो उसका कारण ये नहीं है कि वो बड़ा ख़ास आदमी है, या बड़ा होशियार है| अगर कोई सुन रहा है, तो उसका कारण बस इतना सा ही है कि उसको कुछ मिल गया है| मुफ़्त में मिल गया है, कृपा है| जो नहीं सुन रहा, उसका कारण भले ही खोज लो| लेकिन अगर कोई सुन रहा है तो उसका कारण, यह मत खोज लेना कि जो सुन रहा है, वो बहुत होशियार है|

श्रोता २०: नहीं, होशियार नहीं सर| कष्ट भी तो एक चीज़ नहीं होती है?

वक्ता: कष्ट सबको है| लोग तो कष्ट सह-सह कर भी…|

श्रोता २०: सर, लेकिन एक चीज़ होती है, जो मेरे साथ हुई थी| मैं अठारह-उन्नीस साल का हूं,मैं अपने कष्ट में सोचता रहता थाकि अभी तक कुछ भी ऐसा मेरे साथ नहीं हुआ है जिसकी वजह से मैं बोलूं, या मेरे अंदर से बात आए कि ‘जीवन ख़ूबसूरत है‘(लाइफ इज ब्यूटीफुल); जो लोग कहते हैं|

वक्ता: पर ये बताओ कि ये विचार सिर्फ तुम्हारे ही दिमाग में क्यों आया? दूसरों के दिमाग में क्यों नहीं आता? जीवन तो सभी का बदसूरत है| सिर्फ तुम्हारे ही दिमाग में ये विचार क्यों आया?

श्रोता २०: पता नहीं, शायद हालत वैसे हैं|

वक्ता: नहीं, जिनके नहीं आया, उनके पास कारण है| तुम्हारे पास आया, इसका कोई कारण नहीं है| आना था भी नहीं| ये भी तुमने, कारण ही खोज लिया कि आना ही होता है| जैसे मानसून में बारिश होनी ही होती है| नहीं, ये वो भी नहीं है| इसका कोई कारण नहीं है| ये अकारण है|

लोग सो जाते हैं, इसके तो कारण हैं| जगे हुए आदमी को सुलाया जा सकता है| पर सोता हुआ आदमी, जग कर बैठ जाए, इसका कोई कारण नहीं है| मैं साधारण नींद की बात नहीं कर रहा हूं| उसमें तो, जब नींद पूरी हो जाती है, तो उठ ही जाता है आदमी|

श्रोता २१: सर, जब गहरी नींद में सोता है तब?

वक्ता: तो भी उठ जाता है| मैं उस साधारण नींद की बात नहीं कर रहा हूं| मैं किस नींद की बात कर रहा हूं, समझ रहे हो ना?तो, आपको जगने से सुलाने वाले कारण तो आपके परिवेश से आते हैं| जब तुमने यह कोर्स किया था, तो हमने सिर्फ उन परिवेशों की बात की थी| हमने सिर्फ आधी बात की थी तुमसे| हमने तुमको ये तो बता दिया था कि कंडीशनिंग कैसे होती है| खूब बताया था| खूब बताया था| पूरा कोर्स ही इस बारे में था| कहां से आती है कंडीशनिंग?

सभी श्रोतागण (एक साथ): बाहर से|

वक्ता: इधर से आई, और उधर से आई| समय (टाइम), स्थान (स्पेस), बाहरी प्रभाव, टी.वी., मिडिया, समाज, शिक्षा, किताबें, सब कुछ| खूब विस्तार से उसमें गये थे| पर उस कोर्स मे हमने कभी ये नहीं बात की कि मुक्ति कहाँ से आती है| ये तो बोल दिया था कि ‘मुक्ति तुम्हारा स्वभाव है (फ्रीडम इज़ योर नेचर)’| याद है?

सभी श्रोतागण (एक साथ): हां|

वक्ता: उसमें ये सब बातें थीं| समय से मुक्ति(फ्रीडम फ्रॉम टाइम), स्थान से मुक्ति (फ्रीडम फ्रॉम स्पेस)| पर कभी मुक्ति से स्त्रोत (फ्रीडम के सोर्स) की बात नहीं की थी| कंडीशनिंग के स्त्रोत की बात तो खूब की, पर मुक्ति के स्त्रोत की बात नहीं की थी|

श्रोता २०: क्योंकि वो समयातीत है, मनातीत है, मन के पार|

वक्ता: तुम्हें गुलाम करने वाले तो दूसरे हैं| मैं जो कह रहा हूं, इस बात को बहुत ध्यान से समझना|तुम्हें गुलामी देने वाले तो दूसरे हैं| पर तुम्हें मुक्ति देने वाले, ना दूसरे हैं, ना तुम हो| वो तो कुछ और ही है, और वो अपनी मर्ज़ी से मुक्त करता है|

श्रोता २१: सर, मुक्ति मतलब? मुक्ति भी तो मन का ही किया धरा है? मुक्ति भी तो हम अपने करने से ही जानते हैं|

वक्ता: तुम्हारी अपनी मर्ज़ी तो तुम्हें सुलाएगी| जागते तुम, अपनी मर्ज़ी से नहीं हो|

श्रोता २२: सच में?

वक्ता: हां| तुम्हारा कोई सा भी कृत्य, तुम्हारी कोई सी कोशिश, तुम्हें जगा नहीं सकती| हालांकि वो कोशिश ज़रुरी है| पर उसकी वजह से तुम नहीं जागते| इतना ज़रुर हो सकता है कि तुम कोशिश करो|

जैसे एक छोटा बच्चा है, जो इस कमरे में बैठा हुआ है| यहीं पर रेंग रहा है| और वो पूरी कोशिश कर रहा है इस दरवाजे से बाहर निकलने की; और मैं देख रहा हूं कि वह बहुत कोशिश कर रहा है दरवाजे से बाहर निकलने की| उसने इतनी कोशिश की, इतनी कोशिश की, कि मैं उठ कर के गया और मैंने दरवाज़ा खोल दिया| और वो निकल गया| क्या वो अपनी मर्ज़ी से निकला है? क्या वो अपने कृत्य से निकला है?

श्रोता २३: अपनी मर्ज़ी से निकला है सर| मर्ज़ी तो उसकी चाहिये|

वक्ता: क्या वो अपनी मर्ज़ी से निकला? अभी पूरी बात होने दो| क्या वो अपनी कोशिश से निकला?

कुछ श्रोतागण(एक स्वर में): नहीं|

वक्ता: पर क्या वो अपनी मर्ज़ी के बिना भी निकल सकता था?

कुछ श्रोतागण(एक स्वर में): नहीं|

वक्ता: क्या वो अपनी कोशिश के बिना भी निकल सकता था?

कुछ श्रोतागण(एक स्वर में): नहीं|

वक्ता: तो तुम्हारी मर्ज़ी और तुम्हारी कोशिश ज़रूरी हैं| पर तुम्हारी मर्ज़ी और तुम्हारी कोशिश से तुम्हें मुक्ति नहीं मिलेगी| देने वाला तो कोई और ही है|तुम कोशिश कर लो खूब, कोशिश करनी चाहिये| पर तुम्हारी कोशिश से तुम मुक्त नहीं होते| कंडीशनिंग दे सकते हैं दूसरे; मुक्ति दूसरे नहीं दे सकते| इसका ये मतलब नहीं है कि तुम अपने आप को मुक्ति दे सकते हो| वो कहीं और से आती है| उसी को धन्यवाद बोला जा रहा है|

तेरी मर्जी से ऐ मालिक, हम इस दुनिया में आए हैं|

तू चाहे तो हमें रखे, तू चाहे तो हमें मारे|

तो अगर तुम दूसरों से अलग हो, तो इसका श्रेय अपने आप को मत दे देना|

श्रोता २४: सर, श्रेय तो नहीं…|

वक्ता: नहीं दे रहे, तो अच्छा है| पर अगर अपने आप को दूसरों से अलग पाते हो, तो और बहुत बड़ा वाला ‘धन्यवाद’ बोलो|

श्रोता २५: सर, लेकिन मुझे एक चीज समझ नहीं आती| क्या आप यह कह रहे हो कि स्रोत के लिये हर कोई एक समान है?

वक्ता: मैंने नहीं कहा|

श्रोता २५: अच्छा ठीक है|

वक्ता: मैं क्यों बोलूं?

(श्रोता हंस देता है)

श्रोता २५: लेकिन सर, ऐसा कैसे हो सकता है कि वो, चुन रहें हैं की, ये निकलेंगे या वो निकलेंगे|

वक्ता: दुनिया का मतलब ही यही है कि यहां पर सब अलग-अलग हैं| है ना? एक-सा कहां है?

अगर सब एक सा हो गया, तो एक जैसा हो गया, एक रंग का हो गया| तो दुनिया कहां बचेगी? ये खेल ही यही है कि सब अलग-अलग है| पर तुम अलग-अलग की बात क्यों कर रहे हो? अलग-अलग तो तब हैं, जब बहुत सारे हैं| तुम तो अभी सिर्फ अपनी बात करो| तो एक ऐसी दुनिया में, जहां पर सब फंसे हुए हैं और सब एक-सी ही भीड़ में फंसे हुए हैं, उसमें अगर कोई एक-दो हैं, जिनकी आंखे खुलती हैं, उन्हें कुछ और दिखाई देने लगता है, तो उसकी वजह ये नहीं है कि उनमें कुछ ख़ास है| उनको अपने आप को कभी नहीं बोलना चाहिए कि हमने कुछ असाधारण कर के दिखाया है, या हम कुछ ज़्यादा बुद्धिमान हैं कि हमें कुछ ख़ास बातें समझ में आती हैं, जो औरों को नहीं समझ में आती हैं|

बस! धन्यवाद|

श्रोता २६: क्योंकि आपके, आप भी नहीं हैं|

वक्ता: तुम ये बताओ, तुम्हारी कक्षा में कितने थे? पैंतालिस थे ना?

सभी श्रोतागण (एक साथ): हां|

वक्ता: तुम अभी उनके साथ क्यों नहीं हो सकते? उनके भी दो आंखे हैं, दो हाथ हैं, एक जैसी सी ही मानसिक क्षमता है| सब कुछ जो तुम्हारे पास है, वो उनके पास भी है; और हो सकता है उनमें से बहुतों की मानसिक क्षमता तुमसे ऊपर भी हो| कुछ बातें जो उनको समझ में नहीं आईं, तुम्हें क्यों समझ में आ गईं? तुमने कुछ ख़ास किया है?

श्रोता २६: नहीं|

वक्ता: पर तुम्हें समझ में आ रही है बात, और उन्हें नहीं आ रही है|

श्रोता २६: हां|

वक्ता: फिर? मैं क्या कह रहा हूं, समझ में आ रही है बात? स्पष्ट हो रही है?

तुम ये पा रहे हो, इसलिये नहीं कि तुम योग्य हो| तुम इसे यूं ही, मुफ्त में पा रहे हो|

श्रोता २६: कृपा है|

वक्ता: कृपा है| तुमने इसे कमाया नहीं है|

श्रोता २६: ये बस कृपा है|

वक्ता: हां| इसका मतलब है, ये तुम्हें उपहार के तौर पर दिया गया है| ये तुम्हारी कमाई नहीं है; ये एक उपहार है|

श्रोता २७: सर, ऐसा भी हो सकता है कि हमारे अंदर उसे पाने की क्षमता थी?

वक्ता: तुम्हारी क्षमता से नहीं मिला है| इसीलिये उसको ‘प्यारा(लविंग)’ कहा जाता है कि क्षमता तो मेरे पास थी नहीं, पर फिर भी उसने दिया|आ रही है बात समझ में?

श्रोता २८: इसका मतलब कि जब तक वो नहीं चाहेगा, तब तक हम कुछ नहीं कर सकते |

वक्ता: कुछ नहीं कर सकते| ये बात|

-’संवाद’ पर आधारित।स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।

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