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विश्वास, जानना, लक्ष्य... || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2013)
Author Acharya Prashant
Acharya Prashant
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वक्ता: जिसे तुम विश्वास कह रहे हो वह दो तरह का होता है: पहला, विश्वास और दूसरा श्रद्धा, और इन दोनों में ज़मीन आसमान का अंतर है। इसको ध्यान से समझिएगा। विश्वास का अर्थ होता है कि मैंने जाना नहीं है। विश्वास जो है, दो तरह का होता है, पहले का अर्थ होता है कि मैंने जाना नहीं, बस मान लिया। तुम सब विज्ञान के छात्र हो?

श्रोता: हाँ, सर।

वक्ता: क्या तुम मान लेते हो जो किताबो में लिखा है? प्रयोगशाला है, प्रयोगशाला में जाकर उसे सत्यापित भी करते हो? किसी ने कोई थ्योरम दिया तो इसका प्रमाण माँगते हो। विश्वास तो नहीं किया ना? जो दूसरा विश्वास है, वह है श्रद्धा। श्रद्धा का अर्थ होता है मैंने जाना। जो भी विश्वास, श्रद्धा बनेगा वह सच्चा होगा। उसमें धोखे का सवाल नहीं उठता क्यूँकी तुमने जाना है। जिसमें विश्वास होगा कि दूसरों ने कहा है, वह टूटेगा। उसमें तो धोखा भी होगा और दुःख भी मिलेगा। तो इसलिए मानो नहीं जानो। यह बात याद रखोगे?

श्रोता: हाँ, सर।

वक्ता:

मानो नहीं जानो।

हमारी ज़िन्दगी मानने पर चलती आ रही है। मैं तुमसे सिर्फ़ एक बात कर रहा हूँ कि मानो नहीं, जानो। इस शक्ति का इस्तमाल करो फिर देखो कितना मज़ा आता है।

श्रोता: सर, आज आपने देखने की बात कही, जो ज़ाहिर है। दस में से नौ लोग खास कर जवान, जो हमारे उम्र के हैं, गांधी को गाली देते है, ठीक हैं। गांधी के बारे में गलत शब्द इस्तेमाल करते हैं। उन्होंने हमारे देश के लिए किया या नहीं किया, उसकी मुझे जानकारी नहीं है। पर इतना जानता हूँ कि उन्होंने देश के लिए अपने परिवार को, अपने बच्चे, सुख जीवन को छोड़कर सारा जीवन इसी में बिताया। कहीं ना कहीं बहुत समर्पण था इसलिए रविन्द्रनाथ टैगोर ने उन्हें महात्मा की उपाधि दी। अगर उसमें कुछ ख़ामी थी, तो क्या थी। जिससे ये धारणा बन गई है कि हर दस में नौ लोग गाली देते है, वजह क्या है?

वक्ता: सवाल तुम्हारा उल्टा आ रहा है। एच.आई.डी.पी है अपने बारे में जानने के लिए और तुम्हारा सवाल हैं गांधी के बारे में। न तुम समाज हो और ना तुम गांधी हो। तुम्हारा प्रश्न यह होता कि मुझे गांधी पसद क्यों नहीं है? तो मैं कुछ कह भी सकता था। अभी तो तुमने मुझसे सामान्य ज्ञान का सवाल कर लिया है और एच.आई.डी.पी है आत्म ज्ञान के बारे में। आत्मज्ञान, सामान्य ज्ञान से बहुत ऊंची होती है।

श्रोता: सर, आपने कहा था जो सवाल आपको परेशान कर रहा हो,उसको पूछो।

वक्ता: प्रश्न अपने बारे में होना चाहिए। जरूरी है कि सवाल अपना हो।

श्रोता: सर, बिल्कुल हमसे सम्बंधित है।

वक्ता: तुमसे नहीं हैं।

श्रोता: सर, बहुत बुरा लगता है, दुःख होता है।

वक्ता: हमें दुःख क्यों होता है? मुझे क्यों दुःख हो अगर मुझे सच पता हो। अगर एक पागल आदमी मुझे गाली दे रहा है, क्या मुझे दुःख होगा? दुःख होने का तो अर्थ ही यही है कि मुझे संदेह है। तुम आओ और मुझसे मिलो और बोलो मैं गधा हूँ और मेरे चार कान हैं- दो आदमी के और दो गधे के। तुम आओ और मुझसे बोलो सर, आप गधे हो। यह दो के अलावा दो और कान हैं; दो आगे और दो पीछे। मैं दुःखी हो जाऊंगा अगर मेरे मन में शंका पैदा हो जाए कि मैं सच में गधा हूँ, तब मैं जरूर बेचैन हो जाऊंगा। जिसे अपना नहीं पता होगा, जिसको अपने जानने में कमी होगी वही तो दूसरो को जानने में दुःखित होगा ना। जिस बारे में तुम जानते हो, उसी के बारे में संदेह होता हैं। तुमसे कहा ना तुम्हें गाँधी के बारे में कोई जानकारी नहीं हैं। तुम्हें इसमें अफ़सोस इसलिए हो रहा है क्योंकी तुम्हें इसके बारे में कोई जानकारी नहीं हैं और जानकारी बढ़ाओ तो तुम्हें समझ में आ जाएगा कि लोग क्यों गाली देते है। तुम्हारी अपनी समझ इतनी पुख्ता हो जाएगी कि तुम्हें लोगों के कहने से फ़र्क भी नहीं पड़ेगा। वह कहते हैं तो कहें, मुझे पता है। पूरी दुनिया कुछ भी कहे तो कहती रहे फिर भी तुमने कुछ गांधी के बारे मेंयकीन कर रखा है, ये जानना है या मानना है?

सभी श्रोता: मानना है।

श्रोता: सर, कुछ हद तक जानते हैं..

वक्ता: जानना सीमित नहीं होता, जानना कुछ हद तक नहीं होता। जितना जाना बस वही सही है, जितना माना वह सब गड़बड़। जब तुम कहते हो जितना जानते हैं, तो वह सीमित हो गया न बेटा, और उसके आधार पर तुमने इतना सारा मान और लिया है। सीमित नहीं होता जानना कि बस मैंने इतना जाना और काफ़ी है। जिसे प्यास होती है वो कहता है मैं समझूँगा। अधिक से अधिक, पूरे से पूरा जानूँगा। हम सत्य को बहुत कम जानते हैं, संपर्क नहीं रहता है उससे हमारा और फिर जो ख़ाली जगह बचती है उसे भर देते हैं मानने से। जाना इतना सा, माना इतना सारा।समझ रहे हो बात को?जैसे कि एक छोटी सी पूँछ दिखाई दी और उसके हिसाब से ये निष्कर्ष निकाला कि, हाथी है। छोटी सी पूँछ दिखाई दी है और मान लिया हाथी है। जान इतना सा, माना इतना सारा तो गड़बड़ तो होगी, चूक तो होगी। हर जानवर की पूँछ होती, तुमने कैसे मान लिया कि हाथी ही है? जितना अधिक से अधिक जान सकते हो, पूरे से पूरा जान सकते हो जानो। मानने का दायरा कम से कम रखो।

श्रोता: सर, मेरा एक सवाल था कि माँ की ममता भी उस बच्चे कि ओर ज़्यादा झुक जाती है, जो ज़्यादा कमाता है तो क्या इसका मतलब ऐसा ही सब कुछ है?

वक्ता: नहीं, इसका मतलब यह है कि ममता जो है वो कुछ कीमती चीज़ है ही नहीं। देखो ‘मम’ एक संस्कृत शब्द होता है जिसका अर्थ होता है- मेरा। मेरा माने जिस पर मेरी मलकीयत हो; ममता माने जिस पर मेरी मालकीयत हो, मेरा। अगर एक माँ वाकई इतनी प्रेमी है, तो क्या सड़क पर चलते भिखारी के बच्चे से भी प्यार करती है? जिस बच्चे से वो इतना प्यार करती है, अगर पता चले कि हॉस्पिटल में बच्चा बदल गया था, ६ महीने पहले तो क्या उसी बच्चे को फ़ेंक कर अपना असली वाला नहीं ले आएगी? प्यार उसे उस बच्चे से नहीं था, प्यार उसे इस भावना से था कि ये मेरा है। उसे प्यार ‘मम’ से था, बच्चे से नहीं। मेरा है इसलिए प्रेम है और ये तो मलकीयत हुआ, प्रेम नहीं। अपनी गाड़ी से हर कोई प्यार करता है, अपने मोबाइल से हर कोई प्यार करता है, ये कोई प्यार है? ये तो सिर्फ एक तरह की माल्कीयत है कि मेरी गाड़ी है, मेरा मोबाइल है वैसे ही मेरा बेटा है। ‘मम’ माने? मेरा। इस ममता में कोई जान नहीं है। ये बहुत बेहूदी बात है कि बोला गया है कि माँ की ममता सर्वोच्च होती है। प्रेम में जान होती है और प्रेम यह देख के नहीं होता कि मेरा है या नहीं फिर प्रेम सबको प्रेम की निगाहों से देखता है। प्रेमये नहीं कहता कि मेरा बेटा है तो ठीक-ठाक रहे और पड़ोसी के आग लगे।समझे? समाज में तुमने जिस ममता को जाना है और बहुत कीमत दी है, वो ममता दो कौड़ी की है। और इसीलिए वो सब कुछ होता है जो तुम अभी बोल रहे हो कि जो ज़्यादा कमाता है उसकी तरफ ज़्यादा झुकाव है, जो कम कमाता है उसकी तरफ़ कम झुकाव है क्यूँकी बात ही यही है। तुम्हारे पास मान लो दो मोबाइल हैं; जो ज़्यादा काम करता है तुम्हारा झुकाव उसकी ओर होता है, जो काम ही नहीं कर रहा तुम उसकी तरफ ध्यान नहीं देते।

श्रोता: सर, जो मैं चाहता हूँ, जो मेरा उद्देश्य है अगर मैं उस तक नहीं पहुँच पाता हूँ तो ग़लती किसकी है? क्यूँकी मैं देखता हूँ तो मुझे अपनी गल्तीं नहीं दिखती है।

वक्ता: उद्देश्य बनाने में ही ग़लती है, क्यूँ बना रहे हो उद्देश्य? तुम जो भी कर रहे हो बिना उद्देश्य बनाए क्यूँ नहीं कर सकते?

श्रोता: बिना उद्देश्य के तो काम ही नहीं करेंगे, बैठे ही रह जाएँगे।

वक्ता: देखो! दो तरह से काम किया जा सकता है। एक इसीलिए क्यूँकी लगता है कि कहीं पहुँच कर कुछ मिल जाएगा और दूसरा इसीलिए कि तुमको कुछ मिला ही हुआ है। आदमी, काम दो वजह से करता है- एक वजह ये होती है– जिस वजह से 99% जनता काम करती है– कि अगर मुझे वो मिल जाए, मेरा लक्ष्य, तो मुझे कुछ ख़ुशी मिल जाएगी। 99% प्रतिशत लोग ऐसे ही जीते हैं और दूसरा तरीका होता है कि मैं बड़े प्रेमपूर्ण तरीके से जी रहा हूँ। इसमें मुझे इतनी ख़ुशी है कि मैं उस ख़ुशी में कुछ कर रहा हूँ। इसमें कुछ ख़ुशी नहीं है, सिर्फ़ आनंद है।अगर तुम्हारे जीने का तरीका यह है कि उद्देश्य बना कर जीना है, लक्ष्य बना कर जीना है तो यह बस यही बताता है कि तुम अभी कितने दुखी हो। समझ गए न? तुम उद्देश्य बना कर यही कहते हो न कि वो मिल जाए तो मुझे शान्ति मिल जाएगी। ख़ुशी कौन मांगता है? जो दुखी होता है। लक्ष्य बनाना, दुखी होने का लक्षण है। इसका अर्थ यह बिलकुल भी नहीं है कि जो वर्तमान में है, पूरा है, मस्त है वो कुछ करेगा ही नहीं। वो भी करता है वो फिर मस्ती में करता है अपनी। वो दुखी हो कर नहीं करता, वो डरा हुआ नहीं करता। देखो! जब तुम उद्देश्य बना कर चलते हो तो हमेशा एक डर रहेगा कि अगर उद्देश्य पूरा नहीं हुआ तो मैं दुखी ही रह जाऊँगा। और जो अपनी मस्ती में काम करता है वो कहता है कि काम हो रहा है, अभी भी मस्त हैं, जब परिणाम आएगा तभी भी मस्त रहेंगे। हमारी मस्ती में कोई कमी नहीं पड़ने वाली। उद्देश्य मिले न मिले, हम मस्त ही रहेंगे। अभी भी पूरे हैं, तब भी पूरे रहेंगे। जब उद्देश्य बना कर काम करते हो तो जीवन ऐसा ही रहेगा चिढ़चिढ़ा सा, मुरझाया सा।

आ रही है बात समझ में?

‘शब्द-योग’ सत्र पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।

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