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तुम उसे नहीं भोग रहे, वो तुम्हें भोग रहा है || आचार्य प्रशांत, वेदांत महोत्सव (2022)
Author Acharya Prashant
Acharya Prashant
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प्रश्नकर्ता: नमस्ते सर। मैं जे कृष्णमूर्ति जी की कमेंट्रीज ऑन लिविंग (जीने पर टीकाएँ) पढ़ रहा था तो उसमें वो कह रहे थे कि ‘ दे आर नॉट पॉजेजर्स ऑफ वेल्थ, बट आर पॉजेस्ड बाई वेल्थ (वे धन के स्वामी नहीं हैं, बल्कि धन उनका स्वामी है)।‘ तो आपने भी कुछ दिन पहले बोला था, वी डोंट ओन आर कार, बट आर कार ओंस अस (हम अपनी कार के मालिक नहीं हैं, लेकिन हमारी कार हमारी मालिक है)। इसी पर वैराग्य षट्कम के सातवें श्लोक में ऋषि भर्तृहरि भी ऐसा ही कुछ कहते हैं कि “भोगा न भुक्ता वयमेव भुक्ताः तपो न तप्तं वयमेव तप्ताः। कालो न यातो वयमेव याताः तृष्णा न जीर्णा वयमेव जीर्णाः।।“ हम भोग नहीं करते हैं, भोग हमें भोग लेता है। हम समय नहीं बिताते हैं, समय हमें बिता देता है — मतलब हम बीत जाते हैं।

तो इस पर मुझे ये जानना था कि जैसे हम जिसे भोगते हैं वो कैसे हमें भोगने लगता है? क्योंकि मुझे तो लग रहा है कि मैं पॉजेसर हूँ, मैं भोग रहा हूँ। तो भोग्य वस्तु मुझे कैसे भोग लेगी?

आचार्य प्रशांत: सबसे ज़्यादा जिन चीज़ों को भोगने की लालसा होती है, उनको ही ले लो न! कंचन और?

प्र: कामिनी।

आचार्य: कामिनी। तो वहाँ देख लो क्या होता है। देख लो वहाँ पर क्या होता है। आप जिसको भोगने की नीयत से पकड़ें, वो आपका मालिक न बन जाए, ऐसा हो ही नहीं सकता। एक ओर तो देश में महिलाओं की इतनी दुर्दशा है कि आप गरीब महिलाओं को देखिए, मज़दूर महिलाओं को देखिए, उनको कई बार तो मज़दूरी भी ठीक से नहीं मिलती, कुपोषण की शिकार रहती हैं। गाँवों में देखिए, खेतों में काम कर रही हैं; एक ओर तो ये है। दूसरी ओर अभी शादियों का शायद मौसम चल रहा है तो कहीं चले जाइए जहाँ शादियाँ हो रही हों और वहाँ देखिए कि दस-दस, बीस-बीस लाख के गहनों में कौन घूम रहा है — पुरुष या महिलाएँ? और जो तथ्य की बात है, जो हमें बिना लाग-लपेट के स्वीकार करनी चाहिए ईमानदारी से वो ये है कि उनमें से अधिकाँश महिलाओं ने दस लाख के गहने में से एक रुपए का गहना ख़ुद नहीं कमाया होता। और दस लाख मैं शायद कम बोल रहा होऊँगा। ये भारी-भारी, मोटे-मोटे — ख़ुद भी इतनी मोटी हैं और गहनें भी इतने मोटे-मोटे। (श्रोतागण हँसते हुए) और उनको घर लाए थे उनके पतिदेव इसी इरादे से कि इसको भोगूँगा। अब देख लो क्या हुआ, किसने किसको भोग लिया? पतिदेव यही सोच के प्रसन्न हैं, ‘मैं इसको ले आया हूँ, मैं भोग रहा हूँ।‘ वो इतनी मोटी कैसे हो गई, अगर उसको भोग रहे हो तो? उसने ज़िंदगी मे एक रुपया नहीं कमाया, वो बीस लाख के गहनें पहन के कैसे घूम रही है अगर तुम भोग रहे हो उसको तो?

और ये किसी जाइए फाइव स्टार होटल देखिए, वहाँ बड़ी-बड़ी, लंबी-लंबी गाड़ियाँ आएँगी, उसमें से उतर रही होती हैं। बताओ कौन किसको भोग रहा है? करोड़-करोड़, दो-दो करोड़ की गाड़ी से एक ऐसा व्यक्ति उतर रहा है जिसने ज़िन्दगी में एक रुपया नहीं कमाया है। बताओ कौन किसको भोग रहा है?

अब उस गाड़ी पर आते हैं; जिन्होंने ख़रीदी है, पता नहीं ख़ुद वो कितना चल पाते हैं उस गाड़ी पर। पर उस गाड़ी की देखभाल उनको बहुत ज़्यादा करनी पड़ती है। अब गाड़ी है तो ड्राइवर भी हो, गाड़ी है तो उसकी साल में एकाध-दो बार सर्विसिंग भी होगी, फिर इंश्योरेंस भी भरना है उसका, और अगर इतनी आपने महंगी गाड़ी खरीदी है, उसमें खरोंच, वगैरा लगी हैं तो ये तो बड़ी अपमान की बात है। तो उसमें ज़रा सा कुछ लग जाए तो जल्दी से उसको ठीक भी करवाओ।

बताओ कौन किसको भोग रहा है? आप गाड़ी को भोग रहे हो? आप तो उस गाड़ी में बहुत चल भी नहीं पा रहे, आप क्या भोग रहे हो उस गाड़ी को? वो गाड़ी ही भोग रही है आपको। पर गाड़ी चूँकि चैतन्य नहीं है, जीवित नहीं है तो हमें समझने में थोड़ी दिक्कत हो सकती है कि गाड़ी ने हमें कैसे भोग लिया? पर व्यक्तियों के रिश्तें में समझना थोड़ा ज़्यादा आसान है क्योकि वहाँ दोनों जीवित हैं। तो वहाँ आपको दिख जाएगा, कौन किसको भोग रहा है?

किसी का मालिक बनने से बचो, अगर किसी का गुलाम नहीं बनना चाहते तो। और जिसका मालिक बनोगे, अजब अस्तित्व का खेल है, ठीक उसी के गुलाम बनोगे।

भोगने की नीयत से जिससे रिश्ता बना लोगे, उसी के सेवक हो जाओगे।

अपनी आज़ादी अगर प्यारी हो तो किसी को गुलाम मत बनाना। और अगर पाओ कि गुलाम बन गए हो जीवन में, तो इसका सीधा मतलब है किसी को गुलाम बनाने की कोशिश कर रखी है। जिसको पकड़े बैठे हो, उसको आज़ाद कर दो, खुद भी आज़ाद हो जाओगे। अपने सब गुलामों को आज़ाद कर दो, आप भी आज़ाद हो जाओगे। जब तक किसी को गुलाम बना रखा है, आप खुद भी गुलाम हो। और उन्हीं के गुलाम हो जो आप समझते हो कि आपके गुलाम हैं।

आ रही है बात समझ में?

प्र: आपने पिछले सवाल में बताया था कि भगवद्गीता या ग्रन्थ हमें अपने बारे में बताते हैं इसीलिए उन्हें आत्मकथा बोला जाता है। और गीता में अभी आप बता रहे हैं कि बिना आत्मज्ञान के निष्काम कर्म संभव नहीं है।

आचार्य: हाँ।

प्र: कृष्णमूर्ति जी भी वही बात कर रहे हैं कि ‘ विथाउट सेल्फ नॉलेज एक्शन हैज़ वैरी लिटिल सिग्नीफिकेन्स (आत्मज्ञान के बिना कर्म का बहुत कम महत्व है)।‘ तो उनका सेल्फ नॉलेज मतलब आत्मज्ञान और उनका ऐक्शन मतलब निष्काम कर्म, तो ये दोनों भी एक ही बात कर रहे हैं।

आचार्य: हाँ!

प्र: मेरा एक और सवाल है केन उपनिषद् से; उसका जो द्वितीय खंड है, वो इस प्रकार शुरू होता है कि शिष्य कहते हैं कि आत्मज्ञानी का क्या लक्षण है या ब्रह्मज्ञानी का क्या लक्षण है? तो जो गुरु हैं वो कहते है कि “नो न वेदति वेद च “। ‘न वेद’ का अर्थ है न जानना और वेद का अर्थ है जानना, तो गुरु कह रहे हैं कि जो आत्मज्ञानी है, वो न जनता है और जानता है — ये दोनो ही नहीं हैं। जानना और न जानना, ये दोनों ही नहीं हैं। तो इस पर मैं बहुत सोच रहा हूँ, ये कैसे संभव है? ये कि मैं जानता भी हूँ, ऐसा नहीं है; मैं नहीं जानता, ऐसा भी नहीं है।

आचार्य: ये तो सीधी सी चीज़ है न राजदीप (प्रश्नकर्ता का नाम), किसी भी चीज़ का विपरीत अगर है तो वो चीज़ कहाँ की है?

प्र: प्रकृति की, द्वैत की है।

आचार्य: तो बस हो गया। हाँ, तो द्वैत की है माने वो द्वैत से परे है। जानना और न जानना, इनमें मत उलझो; बस ये देख लो कि किसी ऐसी चीज़ की बात हो रही है जिसका विपरीत होता है, तो कोई ऐसा जानना जिसका विपरीत है न जानना, ये दोनों ही कहाँ स्थित होंगे?

प्र: दोनों प्रकृति।

आचार्य: हाँ, तो बस ज्ञानी वो है जो प्रकृति से परे है।

प्र: अच्छा। तो अगले श्लोक में गुरु कहते हैं कि जो ये ज्ञातापन का अभिमान है; जिसमें ये ज्ञातापन का अभिमान नहीं है, वह जानता है और जिसमें ज्ञातापन का अभिमान है, वो नहीं जानता है, तो वो इस तरह कहते हैं कि…

आचार्य: सारा जो ज्ञान होता है, जिसमें ज्ञात वस्तु होती है और ज्ञाता होता है; ये दोनों कहाँ मिलेंगे तुमको? कहाँ मिलते हैं? ज्ञान-ज्ञाता-ज्ञेय की त्रिपुटी कहाँ मिलती है?

प्र: मन में, द्वैत में मिलते हैं।

आचार्य: ज्ञात विषय हमेशा कहाँ पाया जाता है?

प्र: मन में पाया जाएगा।

आचार्य: प्रकृति में न?

प्र: हाँ, संसार में।

आचार्य: ठीक है, संसार मे होता है। तो माने ज्ञान भी सारा कहाँ होता है?

प्र: संसार में, मन में, प्रकृति में।

आचार्य: हाँ, तो बस इसलिए वो कह रहे हैं कि ज्ञान से परे; माने प्रकृति से परे।

प्र: तो इस श्रृंखला में मुझे एक चीज़ दिखाई दिया कि जो शिष्य है वो फोकस (ध्यान केंद्रित) कर रहा है लक्षणों पर कि ब्रह्मज्ञानी के क्या लक्षण हैं लेकिन गुरु उसे अपने तरफ़ मोड़ रहे हैं। वो कह रहे हैं कि जो कर्ता है, वो अगर नहीं है, मतलब ज्ञाता अगर नहीं है तो ब्रह्मज्ञान है। ये बात बिलकुल उससे मिलती है जो पाँचवे अध्याय में भगवद्गीता में हो रहा है कि अर्जुन भी लक्षणों पर फोकस कर रहे हैं कि वो कह रहे हैं, ‘लड़ना है या नहीं लड़ना है?’ लेकिन श्री कृष्ण उसको कर्ता पर मोड़ रहे हैं। उसको कर्ता की तरफ़, अपनी तरफ़ ले जा रहे हैं, तो केन उपनिषद् के गुरु और श्री कृष्ण दोनों एक ही तरह के काम कर रहे हैं।

आचार्य: दोनों एक ही हैं। दोनों एक ही हैं। इसीलिए तो नाम पर बहुत ज़ोर नहीं है भारत में। जिन्होंने भी ऊँचा काम करा, सबको एक ही नाम दे देते हैं — वेद व्यास। लोग परेशान हो जाते हैं। कहते हैं, वेद व्यास; ये दो ग्रन्थ हैं जो ऐतिहासिक रूप से एक-दूसरे से एक हज़ार साल दूर हैं, दोनों को वेद व्यास ने कैसे लिख दिया?

अरे, जिन्होंने भी लिखा, वही वेद व्यास — ये बात है।

तो महाभारत के कृष्ण भी कौन हैं? वेद व्यास। उपनिषदों के ऋषि भी कौन हैं? वेद व्यास। सब एक हैं। शरीरों के अंतर का कोई महत्व नहीं, समय में भेद का भी कोई महत्व नहीं, वो चेतना तो एक ही है न जिससे सत्य आविर्भूत होता है? तो बस वही महत्व रखती है। एक ही नाम दे दो, कोई फरक नहीं पड़ता।

तुम्हें क्या लग रहा है, महाभारत से एक हज़ार साल बाद आया है भागवत पुराण। भागवत पुराण के जो कृष्ण हैं, वो क्या महाभारत के ही कृष्ण हैं? ऐतिहासिक दृष्टि से देखोगे तो बिलकुल नहीं। नामों की यहाँ बात ही नहीं है। शास्त्र आपको नाम रूप में फँसाने के लिए या वही तक सीमित रखने के लिए थोड़ी ही लिखे गए हैं। शास्त्र तो लिखे ही गए हैं आपको चेतना के तल पर ले जाने के लिए। वहाँ तथ्य नहीं खोजने चाहिए, वहाँ से सीख लेनी चाहिए, बस।

प्र: इसीलिए एक श्लोक भी बताया था श्री कृष्ण ने कि श्री कृष्ण जिसको ज्ञान देते हैं वो भी कृष्ण होते जाते हैं।

आचार्य: हाँ, बहुत बढ़िया! बहुत बढ़िया! बहुत बढ़िया! मनो इच्छवाकु, पूरा वही बिलकुल।

प्र: वही बात मुंडक उपनिषद् में भी बताया गया है कि द नोवर ऑफ़ ब्रह्म इज़ ब्रह्म अलोन (ब्रह्म को जानने वाला ब्रह्म ही है)।

आचार्य: ब्रह्मविद?

प्र: ब्रह्मैव भवति।

आचार्य: ब्रह्मैव भवति।

प्र: तो इसके अगले श्लोक में एक बात बताया गया है कि जैसे हम लोग जानते हैं, विद्या हमें मुक्त करती है, ये एक बहुत फेमस लाइन (प्रसिद्ध पंक्ति) है; तो मुझे एक वाक्य मिला है— “विद्या अमृतं विन्दते “ — विद्या से अमृत की प्राप्ति होती है। तो ये तीन शब्द मुझे बहुत पसंद आए, “विद्या अमृतं विन्दते”।

आचार्य: तो अविद्या वो है जो तुमको प्रकृति में रखती है।

प्र: और मृत्यु प्रकृति में है।

आचार्य: और जन्म और मृत्यु, पूरा खेल, पूरा द्वैत प्रकृति में है। तो विद्या वो जो प्रकृति की सीमाओं पर चोट करे, जो प्रकति के क्षेत्र का ही अभी अन्वेषण करे, वो अविद्या। जो प्रकृति की सीमाओं को टटोले, उनसे उलझे, उनके पार जाने की चेष्टा करे, वो विद्या। और प्रकृति की सीमा के पार मृत्यु तो है नहीं। हाँ, जन्म भी नहीं है। ठीक है?

तो उसको आप अमृत भी बोल सकते हो और अजात भी बोल सकते हो। कि विद्या से अमृत की प्राप्ति होती है, ऐसा भी बोल सकते हो और विद्या से अजात हो जाते हो, ऐसा भी बोल सकते हो। कि फिर अपनेआप को जीव मानोगे ही नहीं, कहोगे ही नहीं कि मेरा जन्म हुआ है। या तो ये कह सकते हो, मैं मरता नहीं। मैं वो हूँ जो मरता नहीं, या ये कह सकते हो कि मैं वो जिसका जन्म ही नहीं हुआ है — दोनों एक ही बात है।

प्र: इसलिए वो ज़ेन कोआन आप अभी कह रहे थे कि अपना जन्म से पहले का चेहरा याद करो। कि जन्म वो….

आचार्य: हाँ! हाँ! हाँ!

प्र: अच्छा बस एक आख़िरी बात, वो जो ज़ेन कोआन आपने बताया था, ज़ेन बॉय एँड द शिंटो बॉय (ज़ेन लड़का और शिंटो लड़का), उसको मैंने बहुत बार पढ़ा और मैंने अपने दोस्तों से भी शेयर किया तो जिन भी दोस्त से शेयर किया वो एक लाइन कहते हैं कि, ‘ द एँड ऑफ़ द स्टोरी सीम्स ऐबरप्ट (कहानी का अंत अचानक सा लगता है)।‘ ऐसा कह रहे हैं। जो अंत मे जो वो सब्ज़ी लेने जाता है, वो कहता है, ‘मैं सब्जी लेने जा रहा हूँ’; तो उनको मैंने ये जवाब दिया कि द एन्ड ऑफ़ द स्टोरी सीम्स ऐबरप्ट, बिकॉज़ द स्टोरी हैड नेवर बिगन। यहाँ कहानी शुरू ही नहीं हुई तो अंत कैसे होगा?

आचार्य: नहीं, उनको ऐबरप्ट लग रहा है इससे उनके मन के बारे में कुछ पता चलता है। वो ये है कि मन निष्कर्ष, कंक्लूजन चाहता है। और ज़ेन की विधि ही है मन को झटका देने की, मन को असन्तुलित कर देने की। हम चाह रहे हैं, हमें पता चल जाए कि वो जा कहाँ रहा था, जो ज़ेन बॉय था। पहले बोल दिया कि जहाँ हवा ले जाए, फिर बोल दिया जहाँ पाँव ले जाए, फिर बोल दिया मैं तो सब्जी लेने जा रहा हूँ। नहीं, तो सच्चाई क्या है? तीन बातें बोल दीं, सच्चाई क्या है?

मन चाहता है कि उसे अपने ही जगह पर खड़े-खड़े कुछ मिल जाए और ज़ेन का काम है मन को बताना कि बेटा जहाँ तुम खड़े हो वहाँ कुछ नहीं मिलता। ज़ेन का तरीक़ा ही है मन को झंझोड़ने का; तो जो दोस्त लोग हैं आपके, वो समझ ही नहीं पा रहे हैं कि कोई भी कोआन कभी आपको कोई निश्चित उत्तर नहीं देगा। कोआन उत्तर ढूढ़ने वाले को परेशान करने के लिए है। कोआन ये जो निश्चित बैठा हुआ है मन एक बिलकुल ग़लत जगह पर, उसे उस ग़लत जगह से ज़रा हिलाने-डुलाने के लिए है। कोआन इसलिए नहीं है कि आप जहाँ बैठे हो वहीं पर आपको कोई निष्पत्ति मिल गई, आप बिलकुल आश्वस्त हो गए अब, हाँ! हाँ! हाँ! ठीक है, पता चल गया। बढ़िया, अच्छा है। कोआन कोई गणित की समस्या नहीं है, कोआन कोई ऑब्जेक्टिव सिचुएशन (वस्तुनिष्ठ स्थिति) या प्रॉब्लम (संकट) नहीं है। कोआन जो समस्या को जानने वाला है, जो प्रॉब्लम सॉल्वर है, उसी पर चोट कर देता है। और वो चोट हो रही है इसीलिए वो बोल रहे हैं, ‘अरे! ऐबरप्ट एँडिंग (अचानक समाप्ति) हो गई, हमें कुछ पता नहीं चला, अचानक से हो गया।”

प्र: ये जो कार्य कारण का ताना-बाना है, जो कहानी है वो हम खोजना चाहते हैं।

आचार्य: हाँ, वो हम खोजना चाहते हैं और हम चाहते हैं कि हमारे सामने जो कुछ भी आए, उसको उसी कार्य कारण और पुराने अनुभव और ढर्रे के पैराडाईम (आदर्श) में ही वापस रख दें, फिट कर दे। कोआन वहाँ पर फिट होता नहीं, तो हम परेशान हो जाते हैं।

प्र: तो मैंने पहले आपसे एक सवाल पूछा था कि यह संसार कहाँ से आया? अब मुझे लागता है कि उसका ये हो सकता है कि ये जो हम जो कार्य-कारण का सिद्धांत आरोपित कर रहे हैं, जहाँ नहीं है, फिर भी वहाँ आरोपित कर रहे हैं, इससे संसार की उत्पत्ति हुई…

आचार्य: हाँ, तो ये संसार कहाँ से आया? पूछोगे तो मैं कह दूँगा, ये संसार तुम्हारे सवाल से आया।

प्र: मतलब सुपर इम्पोजिशन ऑफ़ कौजैलिटी (कार्य-कारण का अधिरोपण), वहाँ से संसार आया।

आचार्य: हाँ। तुमने सोचा कि ये संसार कहीं से आया, इसलिए संसार कहीं से आया। तुम्हारी सोच, तुम्हारे सवाल से आया है ये संसार। जिसको लगता है कि संसार है, उसी के लिए संसार है। इसमें और आगे जाते हैं कोआन; इतना ही नहीं होता ये संसार कहाँ से आया, तो मैं कह दूँ तुम्हारे सवाल से आया। वैसा होता है, ये संसार कहाँ से आया? तो वहाँ सामने बैठा होता है जो ज़ेन टीचर है, वो बोलता है, ‘मेरे चाय के प्याले से आया।‘

एक ऐसा ही है कि एक जा रहा था बौद्ध भिक्षु, ज़ेन मॉन्क तो वहाँ पर एक स्त्री बैठी हुई है वो गोबर के कंडे, उपले बना रही तो वो जो बौद्ध भिक्षु है, वो उससे पूछ रहा होगा, उस महिला से बोल दिया होगा या कोई साथ रहा होगा, उससे बोल रहा होगा — बट हू एसेक्टली इज द बुद्धा? बुद्ध हैं कौन? तो वो स्त्री वहीं बैठे-बैठे यूँही बोलती है, ये उपला, ये गोबर का गोल-गोल उपला, (हाथ से इशारा करते हुए) यही। और आगे कहानी ये है कि वो जो मॉन्क (साधु) था, उसकी बत्ती जल गई। वो बड़े सालों से साधना कर रहा था, उसे समझ में नहीं आ रही थी एक बात, आख़िरी अटक रही थी। जैसे ही उसको वो उपला दिखाया गया, वैसे ही उसको सब समझ में आ गया। बोला ठीक, यही बात है।

तो ज़ेन में सब ऐसे ही चलता है, वहाँ पर सारी दुनियादारी हटा करके सिर्फ़ एक चीज़ पर आख़िरी ज़ोर बचता है; जिस चीज़ पर वेदान्त का भी लक्ष्य है — मन। कि अरे, ये जो मन है और मन का जो हट है और मन की जो बद्तमीजियाँ हैं, इन्हीं को तोड़ना है। इसके अलावा और कुछ नहीं है। सारा अध्यात्म बस इतना ही है — मन को तोड़ दो।

तो काम का समय है और आश्रम है और वहाँ दो बड़े ज्ञानी बन गए हैं भिक्षु और वहाँ मठ के ऊपर झंडा लगा हुआ है, हवा चल रही है, तो वो जो झंडा है, हवा में अपना वो झूल रहा है।

तो एक कह रहा है, क्या हवा चल रही है? दूसरा बोल रहा है, नहीं हवा नहीं चल रही; ये झंडा है, ये झंडा चल रहा है। तो जो मठाधीश था, गुरु उनका, वो आता है, बेटा दोनों चलो काम करो। न हवा चल रही है, न झंडा बह रहा है, तुम्हारा खोपड़ा ज़्यादा चल रहा है। (श्रोतागण हँसते हैं)

कुछ नहीं चल रहा, तुम्हारा मन चल रहा है। चलो काम करो, वापस चलो। तो वहाँ तो सारी बात मन पर ला दी जाती है, वही है, वो अध्यात्म का शिखर है। जहाँ दुनियादारी की बातें एकदम रोक दो और सिर्फ़ मन की बात करो। आधुनिक काल में भारत में ऐसा करने वाले रमण महर्षि हुए हैं।

प्र: आपने बोला कि मन को तोड़ दो। तो कबीर साहब भी कहते हैं, “मन को मारूँ पटकि के, टूक टूक है जाय।“

आचार्य: “विष कि क्यारी बोय के, अब काहे पछिताय।“

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