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तुम, तुम्हारा बोध, तुम्हारी शोभा
Author Acharya Prashant
Acharya Prashant
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व्यामोहमात्रविरतौस्वरूपादानमात्रतः।

वीतशोका विराजन्ते निरावरणदृष्टयः ॥६॥

अनुवाद: अज्ञान मात्र की निवृत्ति होते ही, तथा स्वरूप का बोध होते ही, दृष्टि का आवरण भंग हो जाता है और तत्वज्ञ पुरुष शोकरहित होकर शोभायमान होते हैं।

आचार्य प्रशांत: तीन बातें हैं तीनों एक हैं। तीनों में से कोई किसी का कारण नहीं है। कौन सी तीन बातें हैं; अज्ञान मात्र की निवृत्ति, स्वरूप का बोध, दृष्टि का आवरण भंग होना। इनमें से ऐसा नहीं है कि कोई घटना पहले होती हैं फिर दूसरी आती है फिर तीसरी आती है। इनमें कोई क्रम नहीं है और इनमें से कोई किसी का कारण नहीं है। तीनों ही अकारण है। तीनों ही सत्य के परमात्मा के ही नाम हैं। अतः तीनों ही अकारण है।क्योंकि अकारण कितने होते हैं, एक। उसके अलावा बाकी सब का कारण होता है और वो कारण जाना जा सकता है। परमात्मा के अलावा जो कुछ है, सत्य और शून्य के अलावा जो कुछ है उसका कारण निःसंदेह होता है और वो कारण बुद्धि से जाना जा सकता है। इसलिए बुद्धि का उपयोग करना होता है। आध्यात्मिकता बुद्धिहीनता का नाम नहीं है। ये जो तीनों है, ये तीनों एक है। ये तीनों ही मनातीत हैं, ये तीनों ही बुद्धि से आगे की बातें हैं और जो बुद्धि से आगे का है वहां न कोई क्रम है, न विकास है, न श्रृंखला है, न समय है, न कारण है।

क्यों होती है अज्ञान मात्र की निवृत्ति, भगवान जाने। इसलिए उसे कहा जाता है - अनुकंपा। कोई नहीं बता पाएगा अचानक किसी की बत्ती क्यों जल गई? कोई नहीं बता पाएगा। ऊपर-ऊपर देखोगे तो कारण मिलेंगे, गहराई में जाओगे तो नहीं पाओगे। ऊपर-ऊपर देखोगे तो बिल्कुल लगेगा, लगेगा कि कोई किताब पढ़ ली, लगेगा कोई घटना घट गई थी, लगेगा पत्नि से डांट खा ली, लगेगा गुरु ने उपदेश दे दिया, लगेगा अपनी समझ थी बुज थी कुछ अनुभव हुए। ऊपर-ऊपर से देखने पर कारण मिलेंगे की अज्ञान की निवृत्ति क्यों हुई, वास्तव में कोई कारण नहीं है।

वास्तव में कोई कारण होता तो जो कारण इनके साथ हुए वो कारण हज़ारों औरों के साथ होते। गुरु बैठकर के हजारों को उपदेशित करते रहते हैं, सब की निवृत्ति हो जाती है क्या? पत्नी से करोड़ों को झाड़ पड़ी, सबके ज्ञान चक्षु खुल गए क्या? जीवन ने बहुतों को ठोकर मारी, सब जाग गए जान गए क्या? ऐसा तो नहीं होता। तो वो जो उठ बैठने की घटना होती है उसके बारे में कुछ कहा ही नहीं जा सकता। तभी तो उस ओर सिर्फ विनीत हुआ जाता है, सर झुकाया जाता है। कौन जाने क्यों हुआ? न उसका प्रयत्न किया जाता है, न उसकी दिशा में प्रयत्न को बाधित किया जाता है। ये तो पक्का है कि तुम्हारे प्रयत्न के फ़लस्वरूप तो नहीं होते। पर ये भी पक्का है कि अगर तुमने अपने प्रयत्नों को बाधित किया तो वो भी एक प्रयत्न ही हो गया। न प्रयत्न करना होता है, न प्रयत्न रोकना होता है क्योंकि प्रयत्न करना तुम्हारी प्रकृति हैं, इसलिए तुम करे जाओ। क्योंकि सतत् चलायमान रहना तुम्हारी प्रकृति हैं इसलिए तुम तो चले जाओ। और अगर सर झुका के चल रहे हो तो चलते-चलते अनायास वो मिल जाएगा। रुक मत जाना क्योंकि रुकना चलने से ज़्यादा बड़ा कर्ताभाव हो गया। जब बहना प्रकृति हो तुम्हारी तब जम जाना, खड़े हो जाना, अड़ जाना, स्थिर हो जाना बहुत बड़े श्रम का और प्रयत्न का सबुत हैं। न प्रयत्न करना, न प्रयत्न न करने का प्रयत्न करना।

प्रयत्न तो अधिक तरीके से किया जाता है; एक तो ये कि जैसा बह रहा है बहाव उसको और गति देंगे, उसको और त्वरा देंगे, एक तो इसमें प्रयत्न है। और दूसरा प्रयत्न किसमें है कि जैसा बह रहा है उसको रोक देंगे। तुम दोनों में से कुछ मत करना। तुम तो गति को चलने देना, तुम तो बहाव को कायम रखना और फिर कहीं भी प्रकाश आ सकता है। कहीं भी अज्ञान की निवृत्ति हो सकती हैं। तुम्हें नहीं पता लगेगा। दादू के वचन है; गेल माही गुरुदेव मिले। बड़ी सरलता से, बड़ी सिधाई से बड़ी गुढ़ बात को कह दिया है। कि जैसे यूं ही कोई साधारण सी गली में चले जा रहा हो और वहाॅं गुरुदेव मिल गए। ऐसे ही हो जाती है अज्ञान मात्र की निवृत्ति। तुम तो भिंडी खरीदने गए थे, गली के छोर पर सब्जी की दुकान थी। भिंडी पर 35% की छुट चल रही थी। तुमने कहा ले आते हैं और रास्ते में कुछ और ही हो गया।

स्वरूप का बोध ज्ञान नहीं है। स्वरूप का बोध से आशय होता है उन सब से मुक्ति जो तुमने बाहरी रूप धारण कर लिए हैं। स्वरूप का बोध ऐसा नहीं होता कि कोई तुम्हें अपना विलक्षण अद्भुत सुंदर रूप दिख जाएगा। स्वरूप का बोध इतना ही बताता है कि जिन रूपों को आज तक अपना मानते आए थे उन रूपों से, उस मानने से, उस मानने वाले से सब से मुक्त हो गए। न रूप रहा, न मानना रहा, न मानने वाला रहा; यही है स्वरूप का बोध। इसमें भी बड़े-बड़े अद्भुत कलाकार हैं जो स्वरूप का बोध करा करते हैं। वो कहते हैं आंख बंद करो और देखो अपनी सुंदर छवि।

भारत में एक बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण मत चल रहा है। भारत का नहीं है, अंतरराष्ट्रीय हैं। और उसने प्रचार और प्रसिद्धि पाई है कृष्ण की छवियाँ दिखा-दिखा कर लोगों को। वो चलता ही कृष्ण के रूप पर हैं। उनके मतावृन्द्रियों से पूछो कि कृष्ण कौन है? वो कहेंगे जो सबसे सुंदर पुरुष हो उसे कृष्ण कहते हैं। वो कृष्ण के सुंदर व्यक्तित्व की गाथा कहते नहीं थकते। और जब वो कृष्ण के व्यक्तित्व की बात करते हैं तो उनकी बात सूरदास या चैतन्य की भक्ति नहीं है। वह कुछ और ही चीज है।

स्वरूप के बोध का अर्थ है जितने रूप हैं, सब नकली हैं। मुझे किसी रूप को महत्व या गंभीरता नहीं दे देनी है। किसी को नहीं देना। यही स्वरूप का बोध है। एक हल्कापन है। चैतन्य के शब्दों में अचिंतयता। और यह बड़ी अटपटी बात है कि इन्हीं चैतन्य को ये जो आजकल के कृष्ण रूपवादी हैं, जो कृष्ण चेतना का तथाकथित प्रचार कर रहे हैं इन्हीं चैतन्य को अपनी प्रेरणा बताते हैं, इन्हीं चैतन्य की पूजा करते हैं। और चैतन्य ने सीधे कहा था कि अचिन्तय। उनसे किसी ने पूछा कि जीव और सत्य दो है की एक है, भेद है या अभेद है। उन्होंने कहा मामला अचिंतय है, इसके बारे में सोचो ही मत। उन्होंने कहा अचिंतय भेद अभेद। भेद भी है अभेद भी है। बात सीधी ऐसी है कि जिसके बारे में कुछ कहा नहीं जा सकता। कहूं की एक है तो भी झूठ, कहूं कि दो है तो भी झूठ। कहना ही झूठ है मौन मात्र सत्य हैं। इसलिए चुप हो जाओ। जिन चैतन्य ने कहा अचिंतय उन चैतन्य का नाम लेकर के ये सड़कों पर चिंतन करते फिरते हैं। ये तो कहते हैं कि दिन-रात कृष्ण चेतना में डूबे रहो। चेतना में कोई भी रूप हो वो चेतना का बोझ ही है, वो मन का बोझ ही है। जो मन से न उतरे माया कहिये सोए।

स्वरूप का बोध है अरूप में स्थापना जो अरूप में स्थापित हो जाता है। अब वो सारे रूपों को व्यगंम हम दृष्टि से देख पाता है। वो किसी रूप से विशेषतया आकर्षित या आसक्त नहीं होता। रूप ही तो हैं, सुख क्या है रूप ही तो है, दुख क्या है रूप ही तो है, काला क्या है रूप है, सफेद क्या है रूप है, छोटा क्या है रूप है, बड़ा क्या है रूप है, सुंदर क्या है रूप है, असुंदर क्या है रूप है; रूप ही तो है। अब आप अरूप में स्थापित हुए और ऐसा नहीं कि अब आप रूपों की अवहेलना कर रहे हो। अब आप रूप को जान पाओगे और जहां जाना वहां प्रेम है। पर ये प्रेम विभाजक नहीं है, विघटकारी नहीं है। ये ऐसा नहीं है कि दो से प्रेम और चार से बेर। अब तो सब रूप एक से हैं, ऊपर-ऊपर से भेद है। क्योंकि ऊपर-ऊपर से भेद है इसलिए हम भी ऊपर-ऊपर से व्यवहार में भी भेद रख लेंगे।

भीतर से सारे रूप एक हैं। सारे रूप एक है क्योंकि अरूप एक है। अरुप एक है, उस अरूप में आसित हो जाने को कहते हैं “स्वरूप का बोध”। उसका भी कोई कारण नहीं। कारण तो तब होना जब कुछ अगला-पीछा हो। कार्य और कारण तो तब होते हैं जब समय की संभावना होती हैं। कारण होता है, समय बीतता है, कार्य आता है। जहां कुछ बदलना ही नहीं है वहां कारण शब्द ही अप्रासंगिक हो जाता है।

कार्य और कारण तो तक शोभा देते हैं जब कहीं कुछ बदलना हो। पहले कारण आए फिर कार्य इत्यादि इत्यादि। जहां सबकुछ अचल है जहां न सूरज उगता है, न चांद खिलता है या जहां सूरज भी लगातार रहता है और चांद भी लगातार रहता है वहां कौन किसका कारण है। वहां किसने किसको निर्देशित किया है? वहां क्या पहले आता है क्या बाद में आता है वहां तो जो है सो है। न कुछ आता है, न कुछ जाता है। कैसा कारण? कारण तो जब भी होगा लगेगा कि कारण आया, फिर कारण गया तो कार्य आया, फिर कार्य गया तो कार्य किसी अन्य कार्य का कारण बना। फिर अगला कार्य आया, फिर अगला फिर अगला। गाड़ी चल रही है क्रम आगे बढ़ रहा है। यहां तो न कुछ आगे बढ़ना है न पीछे जाना है क्योंकि जो आगे बढ़ेगा, पीछे जाएगा। वो सदा आपके लिए चिंता का, शौक का कारण रहेगा। पीछे वाला छूटेगा तो एक क्लेश होगा। आगे वाला आने का संदेश भेजेगा तुम्हें आश जगेगी, आश जगेगी व्याकुल रहोगे, कुछ छूटेगा तब भी व्याकुल रहोगे। न आना है न जाना है, सब एक है। सब एक हैं।

दृष्टि का आवरण भंग हो गया; ऐसा नहीं है कि कुछ विशिष्ट होने लग जाएगा कि पहले आंखों पर पर्दा पड़ा था तो सत्य दिखाई नहीं देता था। अब आवरण हट गया है अब चारों और कुछ विशिष्ट प्रकाश दिखाई देता है। दृष्टि का आवरण भंग होने पर उल्टा हो जाता है। पहले बहुत कुछ था जो विशिष्ट लगता था अब विशिष्टता से निजात मिल जाती हैं। दृष्टि पर जब तक आवरण है तब तक कुछ खास लगेगा। कुछ खास ऐसे लगेगा कि पाना है, कुछ खास ऐसे लगेगा कि बचाना है। जब आवरण भंग हो जाता है तो जो दिखाई देता है वो एक होता है क्योंकि सारे रुप एक हैं क्योंकि अरूप एक हैं।

निर्मल दृष्टि वही जो लगातार भेद देखती रहे और फिर भी अभेद में स्थापित रहे।

जो दृष्टि अभेद में स्थापित नहीं होती वो धोखा देती हैं क्योंकि वो भेद भी नहीं देख पाती। यही आम आदमी की कहानी होती हैं क्योंकि उसकी दृष्टि अरूप में, अभेद में स्थापित नहीं होती। इसीलिए उसे दुनिया में भी भेद ठीक से दिखाई नहीं देते। आमतौर पर आप ये सुनते आए हैं कि आध्यात्मिक आदमी की दृष्टि भेद नहीं देखती। बात बिल्कुल उल्टी हैं। आध्यात्मिक आदमी की दृष्टि इतने भेद देख लेती है उतने भेद कोई और नहीं देख पाता।

दो अलग-अलग बातें होती हैं। एक ये कहना कि मैं अलग-अलग रूप और भेद तो देख पा रहा हूं पर सारे रूप और भेद एक ही तल पर हैं; एक ही बात है। और एक दूसरी बात है कि मैं अंधा हूं मुझे कुछ दिखाई नहीं देता। इसीलिए मेरे लिए सारे रूप और सारे भेद एक ही तल पर है। ये दो बहुत अलग-अलग बातें हैं इनको एक मत समझ लीजिएगा। एक है तत्वज्ञानी की दृष्टि वो कहता है कि मेरी दृष्टि साफ़ है, तेज है, पैनी है। मुझे सारे भेद दिखाई देते हैं, मुझे सारे रूप दिखाई देते हैं पर मैं जानता हूं कि सारे रुप एक हैं। मुझे दिखाई पड़ता है कि सारे भेद एक हैं। ये जानते हुए एकत्व में स्थापित हैं। और एक दूसरा आदमी है जो अंधा है उसके लिए सब काला है, सब अंधियारा है। वो भी यही कहेगा सब एक हैं पर जब वो कहता है सब एक है इसका अर्थ क्या हुआ कि उसे कुछ समझ नहीं आ रहा, उसे कुछ दिखाई नहीं दे रहा। इसलिए उसके लिए सब एक हैं। ये दूसरा आदमी ठोकरों के अलावा और क्या पाएगा।

अध्यात्म के नाम पर अक्सर ये जो दूसरा आदमी है इसको प्रोत्साहित किया जाता है बल्कि अध्यात्म ने अक्सर ये दूसरा आदमी खड़ा किया है। ये वो आदमी होता है जिसे दुनियादारी की समझ नहीं होती। जिसे काला सफेद एक दिखाई देता है। इसे गेहूं और घुन एक दिखाई देता है। इसे बुद्ध और बुद्धू एक दिखाई देते हैं। ऐसे मूर्ख मत हो जाना। संसार का तो अर्थ ही हैं विविधता। संसार माने विविध वस्तु भंडार। जैसे किराने की दुकान होती है न, संसार वैसा है। जिसको विविधता न दिखाई पड़े वो अंधा है, पगला है। विविधता देखते हुए एकत्व में स्थापित रहना विलक्षण बात है। परंतु विविधता को देख ही न पाना बहुत बड़ी लाचारगी हैं। अब तुम जानोगे कैसे किधर को बढ़ना है? तुम्हारे लिए तो आग और पानी एक हो गया। अच्छा वास्तव में। जल के मरोगे या डूब के मरोगे, एक ही काम होगा तुम्हारा; मरो।

संसार में विवेक करना सीखो। विवेक के दो अर्थ होते हैं; विवेक शब्द जब संसार के संदर्भ में प्रयुक्त हो तो उसका अर्थ है विविधता को देख पाना। और यही विवेक शब्द जब सत्य के संदर्भ में प्रयुक्त हो तो उसका अर्थ होता है जान पाना की सत्य कहां है और संसार कहां है, अद्वैत कहां है, द्वैत कहां है, नित्य क्या है, अनित्य क्या है? दोनों विवेक के काम है। संसार में होशियारी से जी पाने को विवेक ही कहते हैं। और जो संसार का नहीं है उसके सामने होशियारी न चलाने को भी विवेक कहते हैं। तुम्हें अच्छे से पता होना चाहिए कि कहां होशियारी चलनी है और कहां नहीं चलनी है। जो बुद्धि का नायोचित क्षेत्र हैं वहां बुद्धि लगानी है उसी को विवेक कहते हैं। और जहां बुद्धि के क्षेत्र की सीमा आ जानी है, वहां रुक जाना है ये भी विवेक कहलाता है।

और तत्वज्ञ पुरुष शोकरहीत होकर शोभायमान होते हैं ये चौथी चीज़ भी वही है जो पहली तीन है। अष्टावक्र कुछ बताते थोड़े ही हैं, कुछ समझाते थोड़ी हैं। वो तो बस उद्घोषणा करते हैं कि ऐसा है। क्यों है, कहां से आया, कब तक रहेगा, कब जाएगा, आगे-पीछे, दायां-बांया इससे उन्हें मतलब ही नहीं। तो क्या करते हैं, बस विवरण दे देते हैं। वो क्या करते हैं, बस बता देते हैं, जता देते हैं, घोषणा चल रही हैं। तर्क़ नहीं है। तुम लगा लो तर्क पूछो नहीं कि क्यों? तो कहेंगे भाड़ में जाओ। हम तुम्हें क्यों समझाने के लिए बैठे हैं। हम बस बताने आए कि ऐसा है और जो है उसका कारण क्या मांग रहे हो। अरे है तो है। होना कोई इतनी कमज़ोर बात है कि उसके कारणों द्वारा उसका सत्यापन किया जाए। होना अपने आप में पहली और आखरी बात है। जो है ही उसके कारणों की तलाश में मत निकल जाना। कारण बड़े बहाने बन जाएंगे। फिर ऐसी-ऐसी बात होगी कि तुम्हारे सीने पर नाग चढ़ गया है और फन फैला दिया है और मुंह पर ही डसने वाला है और तुम पता करने निकलना चाहते हो कि किस बिल से आया है, कारण खोजूंगा। तुम खोजो कारण कि किस बिल से निकला।

है! कारण क्या पूछ रहे हो। अरे है!

सत्य और वृत्ति दोनों बस होते हैं। उनका कोई कारण नहीं होता। जो दोनों के कारण खोजने निकलेगा, लात खाएगा। और हम दोनों का ही कारण जानना चाहते हैं। हमें सत्य का भी मूल जानना है, सत्य का क्या मूल होगा। सत्य का कोई मूल नहीं होता। सत्य अपना मूल स्वंय होता है, अपना बाप स्वंय होता है। और वृत्ति का भी कोई कारण नहीं होता। तुम कहो वृत्ति का आगा-पीछा को खोजेंगे। ज़रा विश्लेषण करेंगे, प्रयोगशाला में वृत्ति को ले जाएंगे, पैथोलॉजी से रिपोर्ट निकलवाएंगे। कुछ फर्क नहीं पड़ेगा। वृत्ति है, जान लो की हैं और कह दो नहीं अच्छी लगती, छोड़ो पसंद नहीं आ रही। भईया तुम्हारा माल पसंद नहीं आया। अब उसको भईया को पूछने का हक है क्यों नहीं पसंद आया बहन जी? तुमने कोई ज़िम्मेदारी थोड़ी ले रखी है बताने की कि ना देखिए इसमें है ना जो आपने कच्चा माल लगाया है उसकी गुणवत्ता ज़रा संदिग्ध है और हमें लग रहा है कि आप कीमत थोड़ी ज़्यादा उघा रहे हैं। और हमें आपका व्यवहार भी ज़रा अच्छा नहीं लगता, गर्मी भी लग रही हैं और भूख भी लग रही है। इसीलिए अभी सौदा नहीं करेंगे। ये सब तुम वहां खड़े होकर के बयानबाज़ी करते हो क्या? नहीं पसंद आया तो नहीं पसंद आया। वृत्ति से मुक्ति ऐसे ही मिलती हैं, कारण जाना कि नहीं। बस ये कह कर कि हमें पसंद नहीं आता। हमें नहीं पसंद आता यह कलह-क्लेश। तब ये नहीं कहा जाता कि ये कलह-क्लेश आया कहां से। और इस पर भी बड़ा आध्यात्मिक उद्योग चल रहा है। वो कहते हैं हम पीछे जाएंगे और पता करेंगे कि तुम्हारे संस्कार तुम्हारे विकार आए कहां से थे।

कोई रिबर्थ पढ़ा रहा है। कोई पास्ट लाइफ इक्वेशन पढ़ा रहा है। वो कहते हैं पीछे चलेंगे वहां से कारण उठा कर लाएंगे। मूर्खों से पूछो कारण का कारण कौन लाएगा और उसका कारण कौन लाएगा, उसका कारण कौन लाएगा? कारण में तो पीछे जाते जाओगे तो अनंत श्रंखला हैं, कहीं रुकेगी नहीं। रुकेगी तो तब जब तुम रुक जाओगे और तुम्हारे रुकने का अर्थ होता है अकारण के सामने सर झुका दिया और इसी को कहते हैं मन का थम जाना। कारण मत खोजना, तुम देखना कि जब भी तुमने दुःख पाया है जब भी तुमने ग्लानि अर्जित की है तुमने उसको जायज़ ठहराने के लिए कारण ढूंढ़े हैं। तुम अपना घटिया से घटिया व्यवहार देख लो। तुम अपने कुत्सित से कुत्सित कर्म देख लो। तुम तुरंत पाओगे कि तुम कारणों की दुहाई देते हो। तुम कहते हो कि ये तो इसलिए है क्योंकि चार साल पहले का कोई कारण है। हो गया ठीक है। है कारण तो, तो। सड़ना है, जलना है, गलना है। और कारण का कारण क्या है? ये रखा है इस पर(मेज़ पर) और ये रखा है जमीन पर और जमीन किस पर रखी है? पानी है मर्तबान में, मर्तबान हैं मेज़ पर, मेज़ हैं जमीन पर और जमीन किसपर हैं। नहीं देखीये आप को कुतर्क कर रहे हैं। आप आगे जा रहे हैं, उतना आगे नहीं जाते हैं। कितना आगे जाते हैं महोदय, पहले ही बता दीया करिए। हम तो ये जानते हैं आगे जाएंगे तो अंत तक जाएंगे। अंत तक जाए बिना चैन नहीं है। अंत को ही सत्य कहते हैं। अंत को ही परमात्मा कहते हैं। पर आप चाहते हैं कि हम दो कदम जाए ताकि आपका व्यवसाय चलता रहे। आप बता दें कि देखिए आप के भीतर ये जितनी बीमारी बैठी है न, ये जितना गुस्सा है, चिड़चिड़ाहट है ये इसलिए है कि जब आप पांच साल की थी तो पड़ोस में जो माली आता था, उसने आपको थप्पड़ मार दिया था और आपकी चुटिया बना कर चला गया था। तो वो जो चुटिया है उसकी चोट आप के ज़हन पर छप गई है और वो भी आपको जीने नहीं देती। आप बस माली का बदला अपने पति से निकालती हैं। तो समाधान क्या है? समाधान यही है की चुटिया खोली जाएगी। तो अब ये चिकित्सक आपकी चुटिया खोलेंगे। और आप कहेगी हां आज बड़ा चैन मिला। आज लग रहा है कि वो जो बीस साल पहले की घटना थी, उससे मुक्ति मिल गई और चल रहे हैं तन के।

तत्वज्ञानी पुरुष, तत्वज्ञ पुरुष आनंदित होता है, शोभायमान होता है। कारण से नहीं, कुछ पाने के लिए नहीं, यूं ही। शोभा कोई अर्जित की गई चीज़ नहीं होती कि आज मुंह रगड़-रगड़ के धोया है तो शोभा है, कि आज गए हैं पैसे खर्च करके आए हैं मुंह पर पॉलिश करवाई है रगड़वाया है तो शोभा है। उस शोभा की बात नहीं हो रही है। ये वो शोभा है जो होती ही है। वो तब भी होती है जब तुम उस पर धूल भी फेंक देते हो। वो रहती है और लगातार रहती हैं। वो मनुष्य की प्राचीनतम, कुढ़तम, अनन्य गरिमा है; वो छीनी नहीं जा सकती। उसी को कह रहे हैं अष्टावक्र; अनुकंपा मात्र हैं, स्वभाव मात्र हैं। वही तत्व है और उस तत्व का ज्ञान होने से क्या अर्थ है बाकी सारे ज्ञान को यूं ही जान लेना फ़िज़ूल है, हल्का है, काम चलाऊ है, व्यवहारिक मात्र हैं, पारमार्थिक नहीं है। कुछ हल्कापन होता है वही फिर ओझ बनकर, विभा बनकर, नूर बनकर तुम्हारे चेहरे से बरसता है।

कॉस्मेटिक नहीं होता वो। मैं ये भी नहीं कह रहा कि कॉस्मेटिक नहीं होता तो प्राकृतिक होता है। कई लोग ये अर्थ निकाल लेते हैं कि इन्होंने डब्बा बंद पदार्थ खरीदने से मना किया है। ये कह रहे हैं कि देसी विधियों से नूर अर्जित करो। वो फिर मुंह पर खीरा और केला लगाते हैं। मैं लोरीयार वाले नूर की बात नहीं कर रहा और मैं लौकी वाले नूर की भी बात नहीं कर रहा, आजकल वो भी बहुत प्रचलित है। आलू की सब्जी ज़्यादा बनने लगी है आजकल। आप जानते हो आलू मुंह पर लगाया जाता है, उससे बड़ी शोभा खिलती है। अष्टावक्र मुंह पर ना तो डब्बा खोल के कुछ मलने को कह रहे हैं, न लौकी, तुरई, आलू, खीरा, ककड़ी, जितनी भी चीज़ें आपको पसंद हो, बैंगन, भाटा क्या पता। नाक में मटर दे दिए दो, इससे नाक का लावण्य उभरता है; मटरीली नाक। जैसे आपको ये सब सुनकर के अटपटा लग रहा है वैसे ही अष्टावक्र जब इस दुनिया को देखते हैं तो कभी हंसते हैं तो कभी रोते हैं। कबीर कहते हैं: “कासे कहूं सब जग बौराना।”

बात किससे करूं? सब पगलाए हुए हैं। कोई डब्बा खोल मुंह पर मल रहा है और कोई तुरई काट के मुंह पर लगा रहा है।

शोभा स्वभाव है और जो शोभा स्वभाव ना हो जो स्वभाव आयातित हो उस शोभा से बचना। उसके फेर में मत आ जाना। आयातित शोभा को ही माया कहते हैं।

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