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तीसरा नेत्र खुल गया तो…|| आचार्य प्रशांत (2021)
Author Acharya Prashant
Acharya Prashant
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प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, महाशिवरात्रि पर्व के विषय में एक प्रश्न आपसे पूछना चाहती हूँ। ये शिव की तीसरी आँख का क्या मतलब होता है?

आचार्य प्रशांत: दो आँखें सबके पास होतीं हैं न? और इन दो आँखों से सिर्फ़ संसार दिखता है। ठीक है? तो दो आँखें समझ लीजिए प्रतिनिधि हो गईं द्वैत की, डुवलिटी की। दो आँखों से संसार दिखता है, दो आँखों से जो भी कोई देखेगा वो अधिक-से-अधिक क्या देख पाएगा? संसार। और जब आप सिर्फ़ संसार देखोगे तो आपकी सारी इच्छाएँ, आपके बड़े-से-बड़े इरादे, आपकी ऊँची-से-ऊँची उपलब्धि भी कहाँ की होगी? संसार की ही होगी।

देखना माने संसार को समझना।

जब मैं कह रहा हूँ कि दो आँखों से संसार दिखता है, तो माने हमारे मन में सिर्फ़ संसार-ही-संसार चलेगा अगर बस ये दो ही आँखें हैं तो, हम इंद्रियों के ग़ुलाम हो जाएँगे; क्योंकि ये दो आँखें बस हमें पदार्थ दिखातीं हैं, मटीरियल चीज़ें दिखातीं हैं। और ये दो आँखें हमें किसने दीं हैं? प्रकृति ने दीं हैं। तो ये दो आँखें संसार की प्रतिनिधि हो गईं, सब इंद्रियों की प्रतिनिधि हो गईं, द्वैत की प्रतिनिधि हो गईं और प्रकृति की प्रतिनिधि हो गईं।

समझ में आई इतनी बात?

तीसरी आँख छोड़िए, पहले ये दो आँखें क्या हैं वो समझिएगा! ये दो आँखें किस-किस की प्रतिनिधि हैं? द्वैत की, संसार की, प्रकृति की, और सब इंद्रियों की। वास्तव में जब भी जानने वालों ने इंद्रियों की बात करनी चाही है, तो उन्होंने ऐसा कहा भी नहीं है कि सब इंद्रियाँ; आमतौर पर वे बस 'आँखें' बोल देते हैं - 'क्या देख रहे हो?' अद्वैत की एक बड़ी अच्छी किताब है, उसका भी नाम बस ‘दृग्-दृश्य विवेक’ है। दृश्य माने जो दिख रहा है, दृग माने जो देख रहा है, माने आँखें। तो वहाँ भी, अब वो ये नहीं कह रहे कि तुम्हें फ़र्क पता होना चाहिए दिखाई देने वाली चीज़ और देखने वाले में। उनका भी जो अभिप्राय है वो सिर्फ़ आँखों से नहीं है; उनका भी अभिप्राय — मैं उस किताब की बात कर रहा हूँ — उनका भी अभिप्राय सब इंद्रियों से है, लेकिन सब इंद्रियों का प्रतिनिधि बना दिया जाता है आँखों को।

तो ये दो आँखें हैं, ये दो आँखें हमारे पूरे जीवन का प्रतिनिधित्व करतीं हैं। अगर आपके पास आँखें हैं, तो क्या आपने कुछ भी ऐसा चाहा है जो आपने कभी देखा न हो? आपमें से कुछ लोग कहेंगे, ‘हम कल्पना को भी तो चाह सकते हैं!’ जब आप कल्पना को भी चाहते हैं तो आपके पास उसका क्या होता है एक? चित्र होता है; तो आप उसे देख तो रहे ही होते हो। और वो जो चित्र होता है, उसमें वही तत्व होते हैं जो आपने कभी-न-कभी देख रखे होते हैं।

आप अपनी कामना का जो मानसिक चित्र बताते हैं, मुझे बताइएगा, उसमें कोई भी ऐसा रंग हो सकता है जो आपने पहले कभी देखा न हो? बोलिए! उसका जो आकार भी होगा वो आपने पहले जो आकार देख रखे हैं उन्हीं आकारों का एक अलग प्रस्तुतिकरण हो सकता है, पर वो चीज़ कुछ ऐसी ही होगी जो आपने पहले देख रखी है; या कई ऐसी चीज़ें जो आपने पहले देख रखीं हैं, उन चीज़ों को मिला-जुलाकर के और उसमें और मसाला जोड़कर के आप अपनी कल्पना निर्मित कर लेंगे।

ठीक है?

तो आँखें निर्धारित कर देतीं हैं कि आप ज़िंदगी में क्या चाहेंगे। आँखें ये भी निर्धारित कर देतीं हैं कि कब आप कहते हैं कि आप जागृत अवस्था में हैं और कब स्वप्न में हैं और कब सुषुप्ति में हैं; तो आपकी चेतना की भी क्या स्थिति है, ये आपकी आँखें निर्धारित कर देतीं हैं। जब बच्चा पैदा होता है तो उसको हम मुहावरे के तौर पर बोलते हैं - 'जब मैंने आँखें खोलीं।' और जब मौत होती है तो आप उसको क्या बोलते हो? 'और फिर उन्होंने आँखें बंद कर लीं।' ऐसा तो आप बोलते भी नहीं, कि और फिर उन्होंने सुनना बंद कर दिया, या फिर उन्होंने सूँघना बंद कर दिया। जबकि ये सब भी होता है, जब आँखें बंद होंगी तो सुनना और सूँघना भी बंद होगा; पर हम उसकी बात नहीं करते।

तो आँखें, जो हमारी पूरी प्राकृतिक हस्ती है, जन्म से लेकर मृत्यु तक, ये उसी का प्रतिनिधित्व करने लग जातीं हैं। ये इन दो आँखों का महत्व है, या ये इन दो आँखों द्वारा प्रतीक रूप में दर्शायी गयी बात है। लेकिन दो आँखें आपको जो भी कुछ बतातीं हैं, उसमें आपको चैन नहीं है। जो दिखता है उसको आप कितना भी पा लें, पाने की इच्छा फिर भी बची रहती है। जो दिखता है आपको वो उससे बहुत भिन्न नहीं हो सकता जो पशुओं को दिखता है; और जो दिखता है आपको, उसको देखने में सबसे महत्वपूर्ण बात ये है कि ‘आप’, जो देखने वाले हैं, वो शेष ही रह जाता है। आँखें जब भी देखेंगी तो देखने में हमेशा एक शर्त लगी होगी - देखी गई वस्तु दृष्टा से बिल्कुल भिन्न है; आप बचे रह जाएँगे।

और ये जो आप बचे रह जाते हैं साधारणतया देखने में, इसी में बड़ा कष्ट रहता है, क्योंकि आप जो कुछ भी देखेंगे वो आपको कहीं-न-कहीं मन के बहुत गहरे तल पर आपकी अपूर्णता का एहसास कराता है।

कोई भी दृश्य ऐसा नहीं है दुनिया में जो आपको किसी-न-किसी तल पर अशांत न कर जाए; वो सारे दृश्य भी जो हम कहते हैं कि बड़ी शांति देते हैं। कोई आपको नदी-झरना दिख गया, सूर्योदय दिख गया, वो भी आपको इस अर्थ में अशांति दे जाते हैं कि आपको पता है कि सूर्योदय अगर हुआ है तो थोड़ी ही देर में सूरज सर पर चढ़ आएगा, झरना अगर दिख रहा है तो आप झरने के किनारे सदा के लिए घर नहीं बना सकते। तो शांति मिलती भी है तो अपने साथ उस शांति के छिनने की आशंका साथ लाती है। लाती है कि नहीं लाती है?

कभी देखा है, शाम को सनसेट पॉइंट पर पहुँचने के लिए कितनी ज़ोर-आज़माइश हो रही होती है? पहाड़ों पर आप गए हैं कहीं? लगभग हर पहाड़ पर एक सनसेट पॉइंट होता है। हर शहर में, एक छोटे कस्बे में एक सनसेट पॉइंट होता है। और मान लीजिए सूर्यास्त का वक़्त है पौने छ: बजे का, तो आप पाएँगे कि पाँच बजकर पैंतीस मिनट–चालीस मिनट पर गाड़ियाँ पूरी स्पीड से पहाड़ी रास्तों पर भागी जा रहीं हैं, भागी जा रहीं हैं। क्यों? क्योंकि सूर्यास्त में बड़ी शांति मिलती है देखने में। ये जानते हो क्या है? ये शांति के छिन जाने की आशंका है - ‘पाँच-पैंतीस हो रहा है, पाँच-पैंतालीस पर सूर्यास्त है, कहीं शांति छिन न जाए!’ और छिन तो जाएगी ही! तुम सही समय पर पहुँच भी गए तो पाँच-पचास पर क्या होगा?

श्रोता: सनसेट।

आचार्य: हो सकता है तुम पाँच-चालीस पर पहुँच जाओ, तुम ख़ुश हो लोगे, मोबाइल निकालोगे, फ़ोटो खींच लोगे सूर्यास्त की; पाँच-पचास पर तो चला ही जाएगा न? और जो नहीं पहुँच पाए पाँच-पैंतालीस पर, उनकी तो जो आग लगेगी उसका तो कुछ कहना ही नहीं! फिर वहाँ धक्का-मुक्की हो रही होगी — ये हो रहा है, वो हो रहा है, गाड़ियाँ भिड़ रहीं हैं — कोई खाई में गिर गया गाड़ी लेकर के; सूर्यास्त देख रहा था, उसी का अस्त हो गया!

समझ में आ रही है बात?

अब तीसरी आँख की चर्चा करना ज़रूरी बचा? तीसरी आँख समझ रहे हो न फिर क्या है? दो आँखें अगर द्वैत हैं तो तीसरी आँख अद्वैत है। तीसरी आँख एक प्रतीक है जो आपको बताती है कि आपकी ज़िंदगी में उसके आगे का कुछ होना ज़रूरी है जो बस दुनिया में और आँखों से दिखाई देता है। अगर कुछ ऐसा नहीं है आपके पास जो इन दो आँखों से दिखाई न देता हो, तो आपकी ज़िंदगी बड़ी बेचैन रहेगी, बड़ी परेशान रहेगी। वास्तव में जीवन का उद्देश्य ही है इन दो आँखों के पार निकल जाना। जो इन दो आँखों के दायरे तक सीमित रह गया वो व्यर्थ ही जिया!

तो शिव की तीसरी आँख प्रतीक है किसी बहुत महत्वपूर्ण चीज़ का। और वो जो तीसरी आँख है वो शिव के पास है और शिव कोई आपसे दूर नहीं हैं, शिव आपकी एक संभावना हैं, आपकी उच्चतम संभावना का नाम ‘शिव’ है। तो शिव और क्या हैं? हमारी उच्चतम संभावना शिव हैं। तो हमारी उच्चतम संभावना के पास ये तीसरा नेत्र दिखाया जाता है। ठीक है? हमारी जो उच्चतम संभावना है, उसके पास तीसरा नेत्र है। तो माने हमसे क्या कहा जा रहा है? कि तुम भी ऊँचे उठो और इतना ऊँचे उठो कि तुम्हारा भी एक तीसरा नेत्र हो; और ऊँचे उठने की पहचान और परिभाषा ही यही है कि आपका तीसरा नेत्र खुल गया।

तीसरा नेत्र खुलने का मतलब समझ रहे हो न? कुछ खुल नहीं जाना है। मतलब क्या? मतलब जो दिखाई दे रहा है उसके पार देखना शुरू कर दोगे। अब ये पार देखने का भी क्या मतलब है, थोड़ा विस्तार में समझिए! कहीं आपको ये न लगने लग जाए कि कुछ मायावी चीज़ें, जैसे ‘हू-हा' दिखने लग जाएगा या मिस्टिसिज़्म शुरू हो जाएगा। नहीं, वो सब नहीं!

पार देखने का मतलब बिलकुल ध्यान से समझिएगा! ये दो आँखें हमेशा किसको देखतीं हैं? दुनिया को देखतीं हैं। ये दो आँखें दुनिया में ही एक चीज़ है जिसको नहीं देखतीं, न देखना चाहतीं हैं।

श्रोता: स्वयं को।

आचार्य: शाबाश! स्वयं को। तो तीसरा नेत्र जो है वो वास्तव में वो है जो स्वयं को भी देखता है। वो बाकी दोनों नेत्रों के साथ ही काम करेगा; अब आप दृश्य को और दृष्टा को एकसाथ देख रहे हैं।

तीसरे नेत्र का ये मतलब है कि सिर्फ़ दुनिया को ही मत देखो, क्योंकि जो दुनिया को ही देख रहा है वो दुनिया में ही फँसा रहेगा और कष्ट पाएगा। दुनिया को भी देखो और ख़ुद को भी देखो। जो ये करने लग गया वो शिव के समीप आ गया, शिवत्व इसी का नाम है।

ये तीसरी आँख किसलिए है? ये इधर-उधर कुछ भस्म-वस्म करने के लिए नहीं है, ये स्वयं को देखने के लिए है। तो फिर कहा क्यों जाता है कि तीसरी आँख खोली तो सब भस्म हो गया और..? मतलब ये है कि ये दोनों आँखें क्या कर रहीं थीं? सामने वाले पदार्थ से चिपकी हुई थीं, और वो जो सामने वाली चीज़ थी वो बिल्कुल दिमाग पर चढ़कर बैठ गयी थी राजा की तरह। तो इस तीसरी आँख ने वो जो सामने वाली चीज़ थी, उसका तुम्हारे मन पर जो एकाधिकार था, जो वर्चस्व था, उसको भस्म कर दिया; चीज़ को नहीं भस्म कर दिया।

नहीं समझ में आ रही बात?

सामने मिठाई रखी है, और ये दो आँखें जाकर उस मिठाई से चिपक गईं हैं; और तुम्हारे मन पर मिठाई नाच रही है, नाच रही है, नाच रही है और तुम अपने मन को देख भी नहीं पा रहे कि वो किस तरह से मिठाई का ग़ुलाम हो गया है! तीसरी आँख खुली और तीसरी आँख ने स्वयं को देखा, स्वयं की ग़ुलामी को देखा; और जैसे ही स्वयं की गु़लामी को देखा, वो मिठाई अब तुम्हारे लिए क्या हो गयी?

श्रोता: ज़हर।

आचार्य: ज़हर तो चलो नहीं भी हुई।

श्रोता: अमहत्वपूर्ण।

आचार्य: हाँ, अमहत्वपूर्ण हो गयी, साधारण हो गयी। ठीक है? तो उस मिठाई का तुम्हारे ऊपर जो कब्ज़ा था, जो पज़ेशन था, जो वर्चस्व था, वो अब क्या हो गया? वो भस्म हो गया। ये अर्थ है इस बात का कि जब तीसरा नेत्र खुलता है तो संसार भस्म हो जाता है; माने कि संसार ने तुम्हारे खोपड़े पर जो कब्ज़ा ले रखा होता है वो कब्ज़ा भस्म हो जाता है, संसार नहीं भस्म हो जाता।

समझ में आ रही है बात?

तो ये तीसरा नेत्र फिर इसलिए है ताकि ये जो दूरी रहती है कि सिर्फ़ एक को देखा जा रहा है और दूसरा छुपाया जा रहा है — सामने वाला देखा जा रहा है और पीछे वाला छुपाया जा रहा है — ये दूरी पाट दी गई। ये दूरी कैसे पाट दी गई? दोनों को एक साथ देखकर के; अब दोनों साथ दिख रहे हैं।

इसी तीसरे नेत्र के खुलने को फिर आप साक्षित्व भी कह सकते हैं। साक्षित्व कोई बहुत दूर की बात नहीं होती है, वो यही होता है, कि मिठाई सामने आई तो ये भी दिख गया कि इस मिठाई का मेरे ऊपर असर क्या हो रहा है, ये भी दिख गया, पूरी प्रभावों की श्रृंखला दिख गयी। ऐसा नहीं कि अलग-अलग कुछ स्मृति में याद आ गया; साफ़ दिखाई दे गया कि भीतर एक बैठा हुआ है जो प्रकृति की विकास-यात्रा में कभी मक्खी, कभी चींटी हुआ करता था।

ये मैं पुनर्जन्म की बात नहीं कर रहा, लेकिन हम सब जिस यात्रा से आए हैं उस यात्रा में हमारी कोशिकाएँ सबकुछ रह चुकीं हैं, वही वास्तविक पुनर्जन्म है। मैं उस पुनर्जन्म की बात नहीं कर रहा जिसमें कि आप कुछ और थे पहले; आप माने ये जो व्यक्ति, पर्सन सामने बैठा है।

तो सब दिखाई दे गया कि भीतर कोई बैठा हुआ है जिसकी कोशिकाएँ संस्कारित हैं, जो मिठाई से कैलोरीज़ आतीं हैं उनको अपने भीतर रख लेने के लिए। क्यों? ताकि जब भुखमरी का दौर आए, अकाल का दौर आए तो आपके पास इतना भंडार हो कि आप उस दौर को पार कर जाओ।

आप जानते हो न आदमी शक्कर की ओर क्यों आकर्षित होता है? वो प्रकृतिगत कारण है। ऐसा नहीं कि शक्कर स्वादिष्ट होती है; उसका स्वादिष्ट लगना बाद में आता है, प्रकृति की इच्छा पहले में आती है। प्रकृति की इच्छा क्या है? ये जो क्रम है बंधन का ये चलता रहे, ये लगातार चलता रहना चाहिए; और वो तभी चलेगा जब तक तुम ज़िंदा हो।

प्रकृति तुम्हें ज़िंदा तो रखना चाहती है, लेकिन क़ैदी की तरह ज़िंदा। इस हद तक हमें उसका आभार मानना चाहिए, वो माँ है हम सबकी कि वो हम सबको जिंदा रखना चाहती है, वो हमें जीवन देती है। इस बात के लिए हम उसके आभारी हैं, हम उसको माँ बोलते हैं। प्रकृति को ही माँ बोला जाता है, कि तूने हमें जन्म दिया। लेकिन वो जन्म तो देती है और जन्म देने के बाद क्या बोलती है? 'अब तुम बंधक की तरह जियो।' वहाँ पर हमें फिर कहना पड़ता है कि हमें प्रकृति से आगे निकलना है; जैसे जवान हो गए लड़के को घर छोड़ना होता है। वो आभारी रहता है माँ का, 'माँ, तूने मुझे जन्म दिया, तेरा एहसान ज़िंदगी-भर नहीं भूलूँगा। लेकिन मैं बहुत बड़ा हो गया हूँ और तू मुझे घर में ही क़ैद रखना चाहती है?'

प्रकृति वैसे ही करती है जैसे एक साधारण माँ होती है न कई बार, कि जन्म दिया, बहुत अच्छे से पालन-पोषण किया, लेकिन मोह इतना है कि अब वो जवान भी हो गया तो उसे बाहर नहीं जाने दे रही। प्रकृति तुम्हें जीवन-भर बाहर नहीं जाने देती; तुम सौ साल के हो जाओ, वो तो भी तुम्हें पकड़कर अपने भीतर ही रखती है।

समझ में आ रही है बात?

तो प्रकृति से आगे जाना है, यही ‘साक्षित्व' है, यही जीवन का उद्देश्य है। तीसरे नेत्र की यही कहानी है।

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