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स्वयं का विसर्जन ही महादान है || आचार्य प्रशांत, पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद पर (2015)
Author Acharya Prashant
Acharya Prashant
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वक्ता: पैगम्बर हज़रत मोहम्मद का वक्तव्य है कि जो ज़कात छिपी होती है, वो अल्लाह के गुस्से को शांत करती है। तो माहे रमज़ान चल रहा है, अच्छा है, कि इस समय पर ये सवाल आया है। ज़कात का महत्त्व तो साल भर ही होता है। रमज़ान में और बढ़ जाता है। पैगम्बर हमसे कह रहे हैं कि जो ज़कात छिपी होती है, वो अल्लाह के गुस्से को शांत करती है। जो ज़ोर है, वो छिपी शब्द पर है। ज़कात माने दान, ज़कात माने दान। जो ज़ोर है, वो छिपी शब्द पर है। दान को, ज़कात को थोड़ा सा समझेंगे। दान का अर्थ है देना और दान की महत्ता करीब-करीब सारे ही धर्मों में खूब है। इस्लाम में ही नहीं हर जगह। संतों ने , ऋषियों ने, गुरुओं ने, पैगम्बरों ने, दुनिया से लगातार यही कहा है कि बाँटो, दो। क्यों कहा है?

मूल से शुरू करते हैं। क्या है जो तुम संचित करते हो?

तुम वही सब संचित करते हो जो तुम्हें दुनिया से मिला है। उसके अतिरिक्त तुम कुछ संचित कर नहीं सकते।

तुम वही सब संचित करते हो जो तुम्हें दुनिया से मिला है। जो तुम्हें दुनिया से मिला है, तुम्हें ख्याल ये रहता है कि तुमने इकट्ठा किया है। तुम ये भूल जाते हो कि तुमने ये इकट्ठा नहीं किया है, वो तुम हो। क्या तुम कुछ और हो उस सब के अतिरिक्त जो तुमने दुनिया से इकट्ठा कर लिया है? सवाल को पलट के देखो, तो और खुल जाएगा। तुम अपने आप को जो कुछ भी समझते हो क्या उसमें ऐसा कुछ भी है, जो दुनिया से न आया हो? तुम्हारी जितनी भी पहचानें हैं, तुम अपने आप को जिस भी रूप में जानते हो क्या उसमें लेष मात्र भी ऐसा है, जो दुनिया से सम्बंधित न हो? जो दुनिया से तुम्हें ना मिला हो? तुम्हारे विचार तुम्हें दुनिया से मिले हैं, तुम्हारा शरीर तुम्हें दुनिया से मिला है, तुम्हारा पैसा तुम्हें दुनिया से मिला है, तुम्हारी पदवी तुम्हें दुनिया से मिली है, तुम्हारा समस्त संसार ही तुम्हें दुनिया से मिला है। तुम्हारे पास कुछ ऐसा नहीं जो तुम्हारा हो । पाया सब बाहर से ही है लगातार। जब सब दुनिया से ही मिला है और जो दुनिया से मिला है वही तुम बन गए हो, वही तुम्हारा अहंकार है, वही तुम्हारा ‘मैं’ है, तो जब बात होगी दान की तो वास्तव में तुम क्या कर रहे हो? बोलो जल्दी?

श्रोता : जो संचित किया है।

वक्ता: जो संचित किया है वो तो तुम हो। तो जब तुम दान करते हो उसको, जिसको तुमने संचित किया तो तुमने दान क्या कर डाला?

सभी श्रोता: अपने आप को।

वक्ता: अपने आप को। दान वो नहीं जिसमें तुमने कुछ ऐसा छोड़ा, जो तुम्हारे पास है। दान की महत्ता इसलिए है, क्योंकि दान में तुम स्वयं को ही छोड़ देते हो और जिसको तुमने अपना आपा, अपना ‘मैं’, अपना स्वयं घोषित कर रखा है, वही तुम्हारा कष्ट है, वही तुम्हारा अहंकार है। वही तुम्हारे पाओं की बेड़ियाँ और अहंकार का बोझ है। जब तुम दान करते हो तब तुम किसी और पर एहसान नहीं करते। जब तुम दान करते हो, तो अपने आप पर एहसान करते हो क्योंकि जो तुम दान कर रहे हो, वो वास्तव में तुम्हारी बीमारी है। कोई अपना मैल साफ़ करे तो क्या किसी और पर एहसान कर रहा है? तुम जो कुछ भी छोड़ते हो वो मैल है तुम्हारा। वो आया था बाहर से और तुम्हारे ऊपर एक परत बन कर के बैठ गया था।

तुमने किसी को कुछ दे नहीं दिया और ना तुम्हें ये उम्मीद होनी चाहिए कि कोई अनुग्रह मानेगा। तुमने यदि दिया तो एहसान मानो उसका जिसने लिया क्योंकि ले कर के उसने तुमको ये सामर्थ्य दी कि तुम दे पाओ। इसीलिए वास्तव में जो देने वाले होते हैं, वो जब दान करते हैं तो उसे प्रणाम भी करते हैं, जिसको उन्होंने दान दिया कि, ‘’धन्यवाद आपका जो आपने लिया। आप न होते तो देता कैसे?’’ और इसी कारण भारत ने एक और विधि खोज निकाली? हिन्दुओं ने कहा कि यदि कोई नहीं पाते जिसको दे सको, तो तुम ऐसा करो कि जा के किसी अनजान, सुनसान जगह पर दे आओ, छोड़ आओ। जा के किसी पेड़ को दे आओ, जा के किसी नदी में विसर्जित कर आओ क्योंकि महत्वपूर्ण बात ये नहीं है कि किस को दे रहे हो; महत्वपूर्ण बात ये है कि तुम मुक्त हो जाओ। मैल तुम्हारी है, तुम साफ़ करो। महत्वपूर्ण बात ये नहीं है कि तुमने जो साफ़ करा वो मिला किसको; महत्वपूर्ण बात ये है कि तुम अपने मैल से, अपने बोझ से मुक्त हुए कि नहीं हुए। तो कोई नहीं मिलता, तो जा के गंगा को दे आओ। जाओ बहा आओ गंगा में उसी को कहते हैं गंगा में जा के पाप धो आना। गंगा में जा कर पाप ऐसे नहीं धुल जाते कि वहाँ पर कोई जादू है, कि चमत्कार है। वो मन की अवस्था है कि मन पर कुछ भोज लेकर आए थे और मन की शुद्धि हो गई। बात समझ रहे हो?

अब इस पर आते हैं कि पैगम्बर मोहम्मद छिपे दान की वकालत क्यूँ कर रहे हैं। वो क्यों ज़ोरर दे कर के कह रहे हैं कि दान गुप्त हो। कोई बात ज़रूर होगी। समझना होगा।

दान का औचित्य क्या? कि वो तुम्हें हल्का करे। वो तुम्हें तुम्हारे आपे से मुक्त करे। वो तुम्हें इस भावना से मुक्त करे कि तुम कुछ हो।

तभी तो दान का महत्त्व हुआ न? तभी तो दान की विधि सफल हुई न? पर यदि दान किया तुमने और दान करके ये भावना ग्रहण कर ली कि, ‘’मैं दानी’’ तो हुआ ये है कि दान तो तुमने करा दस कौड़ी का और उस दस कौड़ी के बदले में सौ कौड़ी का भोज अपने सर ले लिया। पहले तो तुम्हारे पास पैसा था अब तुमने वो पैसा भले ही दान कर दिया पर उस पैसे से कई ज़्यादा भारी भाव तुमने धारण कर लिया। क्या है वो भाव? मैं दानी। मुक्त किससे होना था? ‘मैं’ से और मुक्त तो हुए नहीं न? मुक्त याद रखना, पैसे से नहीं होना था, मुक्त किससे होना था? ‘मैं’ से। ‘मैं’ से मुक्त होना था, और वो जो ‘मैं’ है वो और सशक्त हो गया। तो ‘मैं’ से मुक्त नहीं हुए; ‘मैं’ और हावी हो गया। दानी का अहंकार बहुत बड़ा होता है। कपटी का, चोर का, पापी का और संग्रही का अहंकार तो फिर भी छोटा होता है, दानी का अहंकार महा अहंकार होता है। हम महा-दानी हैं। हमसे बड़ा दानी कोई नहीं। कोई थोडा सा दान कर दे किसी को, उसको ज़िन्दगी भर याद दिलाता है, ‘’देख! दिया था। देख! दिया था।’’ बात समझ रहे हो ?

देखो, अहंकार तो व्यवसायी होता है। वो देना जानता नहीं। वो लेन-देन जानता है; वो व्यापारी है। वो तो देता भी है तो उसमें मुनाफ़ा देख कर देता है। दान भी करता है, तो कहता है, ‘’ठीक, दान किया इसके बदले में तू मुझे रुपैया नहीं दे पाएगा तो धन्यवाद दे। तू मुझे रुपैया नहीं दे सकता, तो उसके बराबर के मोल का धन्यवाद दे!’’ ये और सूक्ष्म अहंकार बनता है क्योंकि रुपैया तो है स्थूल, रुपैया तो दिखाई पड़ता है कि तुमने ले लिया। अनुग्रह है सूक्ष्म, वो दिखाई भी नहीं पड़ेगा कि तुमने ले लिया और तुमने ले भी लिया। तो ये तुमने लिया भी और कपट से लिया। ये तुमने लिया भी और इसकी कोई लिखा-पढ़ी भी नहीं हुई कि तुमने ले लिया। किसी से रुपैया लोगे, तो कम से कम रसीद पर साइन करोगे! किसी से रुपैया लोगे, तो कम से कम प्रमाण रहेगा कि तुमने रुपैया लिया। जब तुम किसी से धन्यवाद लेते हो, तब तो ले भी लिया और कोई रसीद भी नहीं। वो बेचारा सिद्ध भी ना कर पाएगा कि तुम उसका क्या ले गए । तुमने खा-पी भी लिया और कोई निशान भी नहीं छोड़ा।

इसिलए ज़ोर दे कर के कह रहे हैं मोहम्मद कि प्रकट ना हो दान। दान दो तो ऐसा दो कि एक हाथ से दो, तो दूसरे को पता न चले। बात आ रही है समझ में? इसी से सम्बंधित एक और मुद्दा है, विचारणीय है, उसको भी ले लेते हैं। कि क्या देना हमेशा लेन-देन के भाव में ही हो सकता है? मन व्यापारी है; जब भी देगा, क्या साथ में लेने की भावना होगी ही होगी? हाँ, सामान्यतः तो ऐसा ही होता है। पर ज़रूरी नहीं है ऐसा हो। जब कभी भी प्रेम होगा, जब कभी भी आतंरिक पूर्णता होगी, तब आप दोनों हाथ बांटोगे और हिसाब भी नहीं रखोगे। बात समझ में आ रही है? वो महा-दान है। तीन तरह के दान हुए: एक जो सबसे निम्न कोटि का है, वो कौन सा हुआ? जिसमें तुम देते हो और अपेक्षा करते हो कि बदले में कुछ मिले। क्या देते हो? कोई भौतिक चीज़ ही देते हो। रुपैया ,पैसा ,कपड़ा। एक उससे ऊपर का दान है, जिसकी धर्मों ने पैरवी की है। उसको उन्होंने कहा है कि ठीक है रुपैया, पैसा ही दो, ज़कात दो, पर छुप के दो। बिना उम्मीद के दो। लेकिन इसमें भी तुम दे क्या रहे हो? दे कोई पदार्थ ही रहे हो। दे कोई भौतिक चीज़ ही रहे हो। खाना दे दो ,घर दे दो, यही सब तो दे रहे हो ना? कुछ पदार्थ ही दिया।

फिर इससे भी ऊपर आता है महा-दान। महा-दान में, तुम अपना मैल नहीं दान करते। याद रखना नीचे के दोनों दानों में तुमने जो कुछ भी दिया है, वो तुम्हारा अहंकार था, मैल था। तुमने उसको विसर्जित किया ताकि तुम्हें लाभ हो, ताकि तुम हल्के हो जाओ। महा-दान में तुम अपना मैल नहीं दान करते। महा-दान में, तुम्हारे माध्यम से सत्य बटता है। इसीलिए कबीर बार-बार तुमसे कहते हैं गुरु से बड़ा दानी कोई नहीं होता। गुरु से तुम्हें कोई रुपैया पैसा नहीं मिलेगा लेकिन उससे तुम्हें जो मिल रहा है, वो अमूल्य है। वो महा-दान है। वो जीवन का ही दान है। जैसे कोई ज़िन्दगी दे दे तुम्हें, अब क्या कीमत लगाओगे? और वो तुम्हें ज़िन्दगी इसलिए नहीं दे रहा कि उसे अपना अहंकार कम करना है, वो तुम्हें ज़िन्दगी इसलिए नहीं दे रहा कि उसके पास कोई मैल है जो उसे साफ़ करना है, वो बस दे रहा है क्योंकि सत्य का स्वभाव है बटना, कि रौशनी का स्वभाव है फैलना ,क्यूँकि सुगंध का स्वभाव है बिखरना। समझ में आ रही है बात ?

तो हमारे लिए क्या सार निकला? सबसे पहले तो ये कि यदि हम बस निम्न कोटि का दान करते हों, तो उससे बाज़ आएँ। सबसे निम्न कोटि का दान क्या है? जहाँ दे कर के लेने की उम्मीद हो। उससे ऊपर आएँ तो वो दान है, जिसमें दान दे रहे हैं पर ये उम्मीद नहीं बाँध रहे कि कुछ मिलेगा। और यदि हम इस पर अटल रह सकें तो हम जल्दी ही पाएँगे कि महा-दान स्वतः होने लगा है। तीसरी कोटि से दूसरी कोटि पर आना हमारा काम है। ज्यों ही आप दूसरी कोटि पर आएँगे वहीँ आप छिपी ज़कात करने लगेंगे। आप पाएँगे कि बिना चाहे, बिना कोई आयोजन किए आप महा-दान स्वयं ही करने लग गए हैं। आप जहाँ होते हैं आपके माध्यम से एक हल्कापन विस्तीर्ण हो जाता है। आप जहाँ जाते हैं, आपके साथ प्रेम की सुगंध फ़ैल जाती है। आपके होने भर से हिंसा, स्वार्थ और क्षुद्रता विसर्जित होने लग जाते हैं। महा-दान होने लग गया और आप कर नहीं रहे, होने लग गया। आपकी मौजूदगी भर से होने लग गया पर याद रखिएगा कि ये महा-दान करा नहीं जाता; ये होता है। पर आपको इसके लिए किसी प्रयास की ज़रुरत नहीं है, आप तो बस इतना कर लें कि अपने आप को तीसरे पायदान से उठा कर के दूसरे पायदान तक ले आएँ। पहले की फ़िक्र छोड़ें, पहला अपने-आप होगा। ठीक है?

ज़रा मुश्किल लगता है न कि बिना चाहे कुछ दे कैसे दें? क्यों? उस क्षण में मुश्किल लगेगा, फिर नहीं लगेगा। कृष्ण को याद कर लिया करो, तुम क्या ले कर आए थे जो अब देने से डर रहे हो? सिकंदर को याद कर लिया करो। क्या? अर्थी पर दोनों हाँथ खोल कर के ही लेटा था और अगर ज़रा ज़्यादा व्यापारी बुद्धि है, तो ये देख लिया करो कि दुनिया भर की सम्पदा के सामने तुम जो दे रहे हो वो क्या है? कितना बड़ा है? ऐसे ही कर लो।

तुम गणित के आलावा अगर कुछ सोच ही नहीं पाते, तो गणित ही लगा लो। आसान हो जाएगा देना, छोड़ दो। कष्ट होता है, मैं इनकार नहीं कर रहा उस क्षण में कष्ट होता है क्योंकि मन तो यही कहता है न, ‘’मिला क्या?’’ पर मन से ज़रा बातचीत कर लो, दो-चार बातें बोल लो, समझा लोगे। और तब भी न माने तो उससे कहना कि, ‘’ना देकर के क्या मिल रहा है तुझे? इस मुद्दे को पकड़े रह कर के क्या मिल रहा है तुझे? तू अपने लिए ही तो और झंझट खड़ी कर रहा है न? देख झंझट खड़ी कर के, झंझट से चिपक कर के तू खो क्या रहा है? भाई, तुझे नफ़े-नुक्सान की ही तो बात करनी है? देख तू इस मुद्दे से चिपक गया। दूँ , ना दूँ? दूँ तो कितना दूँ? तू इस बात से बिलकुल। जितना समय लगाया ये पूरा हिसाब करने में उतने समय में तूने क्या खोया? क्या खोया? शांति गई ना? उसकी क्या कीमत है? क्या कीमत है?’’ तो तरीका खोज लो कोई समझाने का। मन तो मन है। तुमसे बड़ा मन नहीं है, चाहोगे तो समझा लोगे। नहीं? दिल तो पागल है!

श्रोता: यानी कि किसी और को पता न चले, पर हमें पता चल ता है। और हमें लगता है, ‘’अरे! इससे तो अच्छा थर्ड वाले से सैकंड वाले पर पहुँच जाएँगे’’ क्यूँकि हर चीज़ में अगर मैं रिज़ल्ट ओरिएंटेड हूँ, तो इसमें कैसे नहीं होऊंगा?

वक्ता: फिर से बोलो।

श्रोता: बात ये है कि अगर किसी और दूसरे आदमी को न पता चले, मुझे तो पता चल रहा है। तो उसमें मुझे ये लगेगा कि, ‘’मैं अभी तीसरे वाले से दूसरे वाले पर पहुँच रहा हूँ, और उसमें मेरा डेवेलपमेंट होगा?

श्रोता: मतलब ये कह रहे हैं कि दे तो दिया है, भूल नहीं रहे हैं हम, दिमाग में अभी भी है। बार-बार आ रहा है कि मैंने दिया है।

वक्ता: हाँ, तो फिर तो तुम दानी हो गए। तुम तो हो गए दानी।

श्रोता: फर्स्ट केटेगरी नहीं आई न अभी?

श्रोता: सर,क्योंकि हम हर चीज़ में रिज़ल्ट ओरिएंटटेड रहते हैं। दान करते ही नहीं बनता है।

वक्ता: हाँ। इसीलिए तो थोड़ा। भाई, ज़कात विधि है। ज़कात जो है विधि है, इसी लिए तो है वो कि ज़िन्दगी में कुछ तो करें ऐसा कि जिसमें तुम्हें…

श्रोता: रिटर्न नहीं चाहिए।

वक्ता: हाँ। हर चीज़ तुमने आज तक मुनाफ़े के लिए की है। कुछ तो करो ऐसा, जिसमें मुनाफ़ा नहीं चाहिए। स्वाद तो लो थोड़ा। क्या पता वो स्वाद तुममें क्या क्रान्ति ला दे। कहाँ के दरवाज़े खोल दे लेकिन तुम्हें ये भी पता है कि समय सब का एक साथ नहीं आता। इसीलिए रामज़ान बारहों महीने नहीं होता। कहते हैं कि जिसको जब स्वाद आ गया होगा, उसका जब समय होगा तो वो आगे की यात्रा पर निकल लेगा। तीन से दो पर लाया जाता है, कुछ होते हैं जो एक की यात्रा पर निकल लेते हैं और कुछ होते हैं जो दो से वापस तीन पर आ जाते हैं। ये तो फिर ईश्वर की अनुकम्पा है। पर हाँ, ये अवसर सबको दिया जाता है। तीन से दो पर आने का अवसर सबको दिया जाता है। अब दो से तुम एक पर भी जा सकते हो और वापस तीन पर भी जा सकते हो, वो तुम जानो।

श्रोता: ये तीन नंबर पर आना जो है, वो ऑटोमैटिक होता है? तो जो है, उसमें स्टेबिलिटी कैसे आ गई? चाहे भी नहीं, फिर भी हो गया?

वक्ता: देखिए, उसके लिए आपको ये पूछना पड़ेगा कि तीन आया कहाँ से? जो अब ऑटोमैटिक लगने लगा है, और हो भी गया है, वो कैसे हो गया ऑटोमैटिक? जिस राह पर चल कर के तीन पुख्ता हुआ, उसी पर वापस जाना पड़ेगा।

श्रोता: उसी रास्ते पर वापस चल के।

वक्ता: जिस रास्ते पर चल कर आप तीन को मज़बूत कर बैठे, उसी राह पर वापस जाना पड़ेगा।

श्रोता: तो सर, पहले रास्ता मज़बूत होगा तब हम तीन पर पहुँचेंगे।

वक्ता: तीन पर तो पहुँच गए हैं। हम सब तीन पर ही तो रहते हैं, वहीँ के तो वासी हैं। हम सब जो निम्नतम कोटि है जीवन की, वही तो जीते हैं। तो प्रश्न फिर ये है कि वहाँ तक हम पहुंचे कैसे? जो बच्चा पैदा होता है देखिये, बच्चा परिग्रही नहीं होता या होता है? बच्चे को आपने कभी चिंता करते नहीं देखा होगा कि उसके बैंक अकाउंट में कितना पैसा है। जो उसकी तात्कालिक ज़रूरतें हैं, उसके अलावा वो इकट्ठा भी नहीं करता और भूल भी जाता है, इकट्ठा करके भूल भी जाएगा। हो सकता है, उसने दस-पाँच शंख इकट्ठा कर भी लिए हों और फिर भूल भी गया कि रखे कहाँ थे। सुबह का खेला शाम को भूला। ठीक। सवाल ये उठता है कि वो बच्चा इस स्थिति में पहुँच कैसे गया कि बिलकुल निम्न कोटि का मन हो गया उसका? कैसे हुआ?

श्रोता: सर, उसका तो यही कारण होगा न कि उसको संसार की हवा नहीं लगी होगी।

वक्ता: हाँ। बहुत बढ़िया। तो संसार की एक प्रकार की हवा थी, जिसने मन को निम्नतम तल पर ढकेल दिया। यही हुआ था ना? और जब तक आपका संसार और माहौल वैसा ही रहेगा, तब तक तो आप उसी तल पर रहेंगे। वो माहौल बदलना पड़ेगा। जिन लोगों के साथ उठ-बैठ रहे हैं, खा-पी रहे हैं, जो साहित्य पढ़ रहे हैं, जो आपकी दिन चर्या है, वो बदलनी पड़ेगी। इसी लिए सत्संग का महत्त्व है।

श्रोता: सोच?

वक्ता: सोच बदलेगी नहीं क्योंकि सोच आपकी होती नहीं। आप जैसा अभी इस कक्ष में सोच रहे हैं, वैसा आप अपने ऑफिस में नहीं सोच सकते क्योंकि सोच माहौल से आती है। तो आपको संसार से जो मिला है, उसको बदलने के लिए संसार को ही बदलना पड़ेगा क्यूँकि अगर संसार आपके आस-पास का वैसा ही है, तो वो आपको घूम-घूम कर, दोबारा-दोबारा, पुनः-पुनः वही विचार देता रहेगा।

श्रोता: संसार को धीरे-धीरे करके टू एन एक्सटेंट छोड़ना पड़ेगा?

वक्ता: जितनी आपकी सामर्थ्य हो। छोड़ना मत कहिए अभी आप यहाँ बैठे हैं तो आपने छोड़ नहीं दिया है? ये भी संसार ही है। पर आज जैसे जो हमने पहली बात करी तो हम सुन्दर और कुरूप में अंतर देख रहे थे; दोनों जगत के भीतर के ही थे न? हमने कहा वाट इज़ ब्यूटीफुल इन द वर्ल्ड एंड वाट इज़ अगली इन द वर्ल्ड? यही कह रहे थे न? इन द वर्ल्ड। दोनों जगत के भीतर ही है ना? जगत में एक प्रकार के प्रभाव हो सकते हैं जो आपको निम्नतम तल पर ढकेल दें और इसी जगत में अवसर है, ऊपर उठ जाने का । अब ये आपकी बुद्धि पर है कि आप इस जगत से क्या चुनते हैं? इस जगत से वही सब चुनते रहेंगे जो अब तक चुना, तो वही रहेंगे जहाँ आज तक रहे। चुनाव बदल दीजिये, ज़िन्दगी बदल जाएगी। इसी लिए तो कहता हूँ कि जो भी तुम कहते हो कि जो तुम्हारे हफ्ते भर के काम हैं, या जो भी हैं, तुम्हारी तमाम तरह की व्यस्थताएँ हैं, दिन में आधे घंटे शास्त्रों का अध्ययन मत छोड़ो। हफ्ते में एक बार यहाँ आ कर के साथ में चर्चा करना मत छोड़ो क्योंकि जो तुम कर रहे हो, हफ्ते भर उससे तो तुम्हें वही मिला है जैसे तुम हो। वही आ कर-कर के बार-बार तुम बदल नहीं जाओगे।

एक ही गोले में बार-बार घूम कर के तुम गोले से बाहर नहीं निकल जाओगे।

कुछ ऐसा करना पड़ेगा, जो तुम्हारे ढर्रे से बाहर का हो। समझ रहे हो ना? तो रमज़ान का महीना आता है, वो ढर्रे से बाहर का होता है। कि साल भर जैसे-जैसे तुम ग्यारह महीने जीते हो, इस महीने थोड़ा अलग जीयो ना। ज़रा अपनी इन्द्रियों पर काबू रख कर दिखाओ और आसान नहीं होता है कि जून का महिना हो और तप रहा हो और जो खाना है वो सुबह साड़े चार से पहले खा लो, नहीं तो शाम को साड़े सात तक कुछ मिलेगा नहीं। आसान नहीं है और दो चार दिन नहीं तीस दिन। लगातार। तो अपने आप को शारीरिक रूप से जितना नियम बद्ध कर सकते हो, करो, और साथ में दान भी दो। रमज़ान तुमसे सिर्फ़ इतना ही नहीं माँगता कि तुम खाना ही नहीं खाओ दिन में। तुम्हारे विचार शुद्ध होने चाहिए। रमज़ान के महीने में तुम किसी से लड़ाई नहीं कर सकते। किसी को कटु वचन नहीं बोल सकते। कुछ तुमको ऐसा दिया जा रहा है जो तुम्हारे ढर्रों को तोड़ देता है। और अगर तुम पर ईश्वरीय अनुकम्पा है, तो जो तुमने इस महीने में पाया, अब वो तुम्हारे साथ साल भर चलेगा।

दो ही तरह के मुसलमान होते हैं: एक वो जो ईद के दिन के बाद दोबारा वैसे ही हो जाते हैं जैसे वो रमज़ान के महीने से पहले थे। उनके लिए पूरा महीना व्यर्थ गया और दूसरे वो जो ईद के बाद भी वैसे ही रहते हैं, जैसे वो रमज़ान में थे सिर्फ़ उनके लिए रमज़ान सार्थक हुआ।

शब्द-योग’ सत्र पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।

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