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शरीर के इरादे कुछ हैं, तुम्हारे कुछ और || आचार्य प्रशांत (2019)
Author Acharya Prashant
Acharya Prashant
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प्रश्नकर्ता: मेरा शरीर यादों से भरा हुआ है। यहाँ तक कि मैं अपने बालों के रंग, अपनी आँखों के रंग को भी स्मृति ही कहूँगा। और ये स्मृतियाँ मुझे पुरानी पीढ़ियों से मिली हैं क़रीब-क़रीब विरासत के तौर पर।

तो हम इन मेमोरीज़ को, स्मृतियों को फॉरमैट कैसे कर सकते हैं? ठीक वैसे ही जैसे हम किसी कम्प्यूटर को या किसी अन्य गैज़ेट को फॉरमैट करते हैं। ये कह रहे हैं, मैं इसलिए इन स्मृतियों को इसलिए विस्मृत करना चाहता हूँ या फॉरमैट करना चाहता हूँ या फैक्ट्री सेटिंग्स रिस्टोर करना चाहता हूँ ताकि मैं जल्दी से कुछ नयी चीज़ें सीख सकूँ।

आचार्य प्रशांत: इसके पहले दो लव्ज़ क्या कह रहे हैं? (श्रोताओं से पूछते हुए) पहले।

श्रोतागण: शरीर।

आचार्य: अरे, पहले दो।

श्रोतागण: मेरा शरीर।

आचार्य: हो गयी गड़बड़। हो गयी न गड़बड़? बाक़ी सब तो ठीक बता दिया कि शरीर यादों का, प्राकृतिक संस्कारों का पिंड मात्र है। पुरानी एक धारा है जैविक विकास की जो बही आ रही है। और अभी वो आपके रूप में प्रकट होकर के सम्मुख है हमारे। सबकुछ पुराना ही पुराना है जिस्म में। बात तो ठीक है। पर जिस्म ही कह देते तो चलता, ये क्यों कह दिया ‘मेरा जिस्म’?

जिस्म में सब पुराना है और वो पुराना ही रहेगा। यहाँ तक कि ये हसरत भी कि जो पुराना है वो मिटे जिसको तुम फॉरमैटिंग के नाम से अभिव्यक्त कर रहे हो, ये हसरत भी बहुत पुरानी है। तो ये मत समझ लेना कि जिस्म में जो कुछ है वो कभी भी नया हो सकता है। यहाँ तो सारा खेल ही आदिकालीन है। पुराने को अगर हटाओगे जो कि तुम हटा सकते हो तो पुराने को तुम पुराने द्वारा ही दोबारा भर दोगे।

पुराने का विकल्प बनेगा पुराना। पुराना स्थानान्तरित हो गया और जो खाली जगह मिली, उसको भरने भी कौन आया? पुराना। एक पुरानी की जगह, दूसरा पुराना और दूसरे पुराने को बेटा नया नहीं बोलते। तुम्हारे पास दो पजामें हो छः-छः साल पुराने और एक को हटाकर तुम दूसरा पहन लो तो कहोगे कि मैंने नया पहन लिया?

ये तो तुम ने ठीक कहा कि पुराना पजामा हटाया, लेकिन ये तुमने झूठ बोल दिया न कि पुराने को हटाकर नया आ गया। पुराना तो हटा, पर उस का स्थान लिया बराबर के ही पुराने वाले ने। नया कुछ नहीं। इस शरीर में कुछ नया नहीं होता। इसीलिए अध्यात्म शरीर को सुधारने का नाम नहीं है। लेकिन जो लोग शरीर के ही तल पर जीते हों वो तुमको ये बात कभी नहीं बताएँगे और ऐसे गुरु भी बहुत है जो बात ही मात्र शरीर की करते हैं।

अध्यात्म की एक बड़ी प्रचलित और प्रबल धारा है आजकल, जिसमें सारी बात होती ही शरीर की है। ये कहकर के कि शरीर कैसे ठीक करना है, शरीर में क्या क्रियाएँ की जाएँ, स्वस्थ कैसे रखा जाए। इन्हीं सब चीज़ों को योग का नाम दे दिया जाता है। इन्हीं सब बातों को अध्यात्म भी कह दिया जाता है।

न।

अध्यात्म का अर्थ है सबसे पहले ये जान लेना कि शरीर शरीर है और तुम तुम हो। और तुम जिस हसरत को पूरा करने के लिए शरीर से जुड़े बैठे हो उस हसरत को शरीर कभी पूरा कर नहीं पाएगा।

तुम्हारी हालत कुछ उस आदमी की है जो अपनी कार के भीतर ही लॉक हो गया हो और जाना है उसे चाँद तक, जाना है चाँद तक और उसने अपनेआप को क़ैद कर लिया है अपनी कार में। और अब कार में क़ैद होकर वो क्या कर रहा हैं? वो हठयोग कर रहा है। वो कह रहा है, ‘कार को ही और बेहतर कर देता हूँ।’ कार को चला चलाकर ले जाता है, कभी डेंटिंग कराता है, कभी पेंटिंग कराता है, कभी कहता है, ‘इंजिन बदल दो।’ तुम कुछ भी कर लो इस कार में, ये तुम्हें चाँद तक नहीं ले जा पाएगी। लेकिन अगर तुम ने ये धारणा बना ही ली है कि तुम्हें कार के ही भीतर जीवन बिताना है, तुमने ख़ुद ही अपनेआप को कार के भीतर क़ैद कर लिया है तो डेंटर और पेंटर की कमाई अब गाड़ी होगी। क्योंकि तुम जीवनभर अपनी कार को सर्विस स्टेशन और वर्कशॉप और डेंटिंग और पेंटिंग इन्हीं जगहों पर घुमाते रहोगे। और इतना ही नहीं वर्कशॉप वाले, डेंटिंग , पेंटिंग वाले, तुमको ये भरोसा भी देते रहेंगे कि कार को खूब चमका लो। एक दिन यही कार तुमको ले जाएगी चाँद तक।

मैं तुमसे कह रहा हूँ तुम कुछ भी कर लो इस कार के साथ। तुम चाहो तो इसमें नकली पंख भी चिपका लो। ये कार तुमको ज़मीन से एक इंच भी ऊपर नहीं ले जा पाने वाली। हाँ, तुम्हें ज़मीन पर कहीं जाना हो तो इस कार का तुम खूब उपयोग कर सकते हो। लेकिन देखो, जो तुम चाहते हो तुम्हें ज़मीन पर तो मिलेगा ही नहीं इश्क़ तो तुम्हें चाँद से है।

इश्क़ है चाँद से घूम रहे हैं कार में। ये ज़्यादातर आध्यात्मिक साधकों की हालत है। लगे हुए है शरीर चमकाने में। कोई बता रहा है कि किस तरह के बर्तनों में खाना खाओ, कोई बता रहा है कैसा आसन लगाओ। और तुम कह रहे हो, ‘बिलकुल ठीक।’ कार को चमकाते हैं। आध्यात्मिक चर्चा हो रही है और उसमें ज़िक्र हो रहा है ताँबे और पीतल का। ये वैसी ही बात है कि तुम्हें कोई कहे कि अपनी कार के नये अलौए (मिश्रधातु) टायर लगवा लो। ताँबे के टायर लगवा लो। तो ताँबे के टायर तुमको उड़ाकर चाँद तक ले जाएँगे।

अरे तुम ताँबे के लगवा लो या पीतल के लगवा लो, तुम दुनिया की महँगी से महँगी और हल्की-से-हल्की अलौए के टायर बनवा लो, वो तुमको उड़ाकर नहीं ले जा पाने वाले। तुम कार की पूजा करवा लो। तुम कार के अन्दर दस रुद्राक्ष की माला लटका दो। कार तो कार है न। चाँद के सामने बेकार है।

बात समझ में आ रही है?

शरीर शरीर ही रहेगा, आशीष (प्रश्नकर्ता)। तुम क्यों नाहक उसके पीछे पड़े हुए हो? पैदा हुआ है मरेगा। मुक्ति का अर्थ ये नहीं होता कि शरीर चमका मारा। मुक्ति का अर्थ होता है — शरीर को छोड़ दिया उसके हवाले जो शरीर की वास्तविक माँ है शरीर की माँ है प्रकृति। वहाँ से आया है। प्रकृति को देखने दो शरीर कैसे चलेगा। तुम अपना काम देखो, शरीर अपना काम देखें। तुम्हें चाहिए मुक्ति और शरीर को चाहिए प्रकृति।

तुम्हारे और शरीर के रास्ते अलग अलग है। ये बात तुम्हें अजीब लगेगी पर ऐसे ही है। तुम्हें चाहिए मुक्ति, शरीर को नींद चाहिए ठीक अभी भी। और अभी नींद नहीं आ रही है तो अभी जब तुम्हें दो घंटे सुनाऊँगा तब देखना। तुम भले ही कह रहे होगे कि मुझे मुक्ति चाहिए, मुझे सुनना है, मुझे जागरण करना है; शरीर क्या कह रहा होगा? ‘मुझे सोना है।’

उदित (स्वयंसेवक) को मैंने पहले ही बोल दिया है, ‘बेटा, चाय तैयार रखो (श्रोतागण हँसते हैं), बारह बजे नहीं कि लोग लगेंगे झूमने। और मेरी आदत कि मैं दिखाना चाहता हूँ तुम्हें कि तुम झूमते हो इसीलिए सब सत्र मेरे आधी रात के बाद के होते हैं। नहीं तो तुम्हें पता कैसे चलेगा कि तुम्हारे इरादे और हैं और शरीर के इरादे और हैं।

तुम्हें स्पष्ट होना चाहिए कि शरीर तुम्हारा साथी नहीं है। तुम्हें स्पष्ट होना चाहिए कि जो तुम चाहते हो शरीर वो नहीं चाहता। तुम्हें मुझसे प्रेम है, तुम्हारे शरीर को नहीं।

श्रोता: आचार्य जी, इसका मतलब हम जो ग्रहण कर रहे हैं इस समय भी, वो तो शरीर ही कर रहा है।

आचार्य: शरीर कर रहा है तुम कुछ ग्रहण नहीं कर रहे। तुम कुछ ग्रहण नहीं कर रहे। जब तक तुम इस भाव में जी रहे होंगे, तुम कुछ ग्रहण कर रहे हो तुम उन के ग़ुलाम बने रहोगे जिनसे ग्रहण कर रहे हो क्योंकि शरीर तो तत्काल उनका ग़ुलाम हो जाना चाहता है जो उसे भोजन दें। शरीर तो पशु है जो उसे रोटी दिखाएगा उसके पीछे जाएगा। क्या तुम भी ऐसे ही हो? तुम वो नहीं हो। अन्तर करना सीखो। शरीर को ज़्यादा कुछ नहीं चाहिए, शरीर को चाहिए आराम, सोने को मिल जाए। शरीर को चाहिए भोजन और शरीर को चाहिए सेक्स। इसके अलावा शरीर कुछ माँगता नहीं। तुम भी यही माँग रहे हो अगर, तो फिर अध्यात्म में क्या करने आये हो? लेकिन तुम भली-भाँति जानते हो कि तुम्हारी माँग इन सब प्राकृतिक माँगों से ऊपर की है। इन सब प्राकृतिक माँगों से हटकर है।

है या नहीं?

तुम्हें खूब आराम दे दिया जाए, खूब दाना पानी दे दिया जाए, सेक्स भी तुम जितना माँगो उतना उपलब्ध करा दिया जाए, उसके बाद भी तुम्हें चैन तो नहीं पड़ेगा या पड़ जाएगा? पड़ता हो तो आज़माकर देख लो।

हो सकता है कुछ काल तक कहो कि बढ़िया चल रहा है सब मस्त। थाईलैंड में कोठी हैं जितनी चीज़ें चाहिए सब मिल रही है। थाईलैंड में कोठी है और बैंक अकाउंट दे दिया गया है उसमें। पाँच-सात करोड़ डाल दिये गए हैं तो आराम भी बहुत है। विश्राम भी बहुत है और काम का इंतज़ाम भी बहुत है। लेकिन फिर भी छटपटाओगे, चिल्लाओगे। कुछ रहेगा जीवन में जो कहेगा, ‘हमें ये नहीं चाहिए। हमें कुछ और चाहिए।’ अध्यात्म उसके लिए है। अध्यात्म उस छटपटाहट का इलाज करता है।

शरीर तो संस्कारित ही रहेगा। पदार्थ है पदार्थ तो संस्कारित ही होता है। शरीर ही नहीं, जगत में जो कुछ है सब संस्कारित है। तुम विज्ञान से पूछोगे तो वो तुमको बताएगा कि पदार्थ की मूल इकाइयों को छोड़कर बाक़ी सबकुछ मेमोरी लिए हुए चलता है। तुमने कहा न कि शरीर में मेमोरी भरी हुई है। बात तो बिलकुल ठीक है, भरी हुई है पर मेमोरी सिर्फ़ शरीर में थोड़े ही भरी हुई है, इस कुर्सी में भी भरी है। ये कुर्सी क्या है? इसको याद है कि एक दिन इसको ये आकार दिया गया था और ये उस आकार को पकड़े है, ये उस याद को पकड़े है। तभी तो आज जैसे कुर्सी देख रहे हो, ऐसे ही कुर्सी तुम्हें दिखाई देती है कल क्योंकि आज जो तुमने इसके साथ कर दिया इसने उसकी याद को पकड़ लिया। तो ये कुर्सी जैसी आज है, जैसी अभिकल्पित हुई थी जैसी संरचित हुई थी, वैसी ही कुर्सी आज भी है, कल भी है। पाँच-दस साल ऐसे ही रहेगी। धीरे धीरे इसकी याद धुँधली पड़ती जाएगी। तो फिर ये गिरती जाएगी, नष्ट होती जाएगी।

तुम्हारे शरीर का भी ऐसा ही है। धीरे धीरे उसकी याद धुँधली पड़ती जाती है फिर वो बदलता जाता है। इस दीवार को याद है कि कभी इसे सफ़ेद रंग से पोता गया था। तो ये पकड़े हुए है वो सफ़ेद रंग को। पदार्थ के जगत में जो कुछ है वो स्मृति बद्ध ही है, मेमोरी बेस्ड ही है। ये कोई बड़ी बात नहीं हो गयी। तुम्हें ही नहीं याद है कि तुम्हारे बालों का रंग काला है, तुम्हारी आँखों का रंग काला है, पौधों को भी तो याद है। क्या पौधों को नहीं याद कि उनकी पत्तियों का क्या रंग रहना चाहिए, बोलो?

आज के नाइट्रोजन के एक ऐटम (परमाणु) में कितने इलेक्ट्रॉन होते हैं? कितने होते हैं? और आज से दस हज़ार साल पहले नाइट्रोजन में कितनी इलेक्ट्रॉन होते थे? ये कैसे हो गया? नाइट्रोजन भूला क्यों नहीं? भूला क्यों नहीं भाई? क्यों नहीं भूला? क्योंकि प्रकृति का मतलब ही है याददाश्त। प्रकृति का मतलब ही है एक बहाव। बहाव माने जो पीछे था वहीं आगे भी है। हिमालय से जो परमाणु चला था पानी का, वही परमाणु बंगाल तक पहुँचेगा। यही कहलाती है याददाश्त।

पूरी प्रकृति एक बहाव है। बहाव माने याददाश्त। तुम वो हो जिसे बहना नहीं। तुम वो हो जिसको बहाव पीड़ा देता है। तुम्हें बहाव से बाहर आना है। तुम्हें तटस्थ हो जाना है। इसी तटस्थता को अध्यात्म कहते हैं। ज्ञान की भाषा में ये तटस्थता कहलाती है साक्षित्व। प्रेम की भाषा में ये तटस्थता कहलाती है मिलन या योग।

जिसे तटस्थ होना है उसके लिए ये तो ठीक है कि पूछे कि इस बहाव से बाहर कैसे आऊँ। ‘देह का एक प्रबल बहाव है, आवेग है और मैं उसके साथ बहता रहता हूँ।’ देखा है न सुबह नींद से उठना चाहते हो, उठ नहीं पाते, अलार्म भी लगाते हो वो ख़ुद ही बन्द करके सो जाते हो। ये एक आवेग हैं। अतीत का एक मोमेंटम है, गति वेग है। तुम इसको समझ सकते हो इसलिए नहीं कि इसको सुधार सको, इसलिए कि इससे बाहर आ सको। इन दोनों बातों में बहुत बहुत अन्तर है। जलता हुआ घर है तुम्हारा ये तन। तुम्हें इसको सुधारना नहीं है, तुम्हें इससे बाहर आना है। तुम्हें ये बात समझ में ही नहीं आ रही?

डूबता हुआ जहाज़ हो तुम। हाँ, वो इतनी धीरे धीरे डूब रहा है कि तुम्हें पता नहीं चलता। उसको डूबने में कभी साठ साल लगते हैं, कभी अस्सी साल लगते हैं जिसको तुम अपनी उम्र बोलते हो। पर जो चीज़ मरने के लिए ही पैदा हुई हो, उसे डूबता हुआ जहाज़ न बोलो तो क्या बोलो? डूबते हुए जहाज़ का क्या मतलब है कि अभी तो है थोड़ी देर बाद नहीं होगा और ये शरीर क्या है? वो भी तो यही है न कि अभी तो है, थोड़ी देर बाद नहीं होगा। तो तुम्हारा शरीर भी एक डूबता हुआ जहाज़ है। अब इस डूबते हुए जहाज़ का तुम रंग-रोगन करना चाहते हो? तुम इस डूबते हुए जहाज़ को और सुधारना चाहते हो? और वो भी तब जब डूबता हुआ जहाज़ तुम्हारा घर नहीं है। तुम फँस गये हो उसके भीतर। जैसे कि कोई कार के भीतर क़ैद हो जाए। पुराना उदाहरण याद है न?

इस जहाज़ के भीतर तुम व्यर्थ ही क़ैद हो गये हो। घर तुम्हारा दूसरा है। अब तुम इस जहाज़ की ही बातें करे जा रहे हो कि जहाज़ में एक बार भी है (श्रोतागण हँसते हैं), जहाज़ के अन्दर स्विमिंग पूल है, जहाज़ में जिम, जहाज़ की कैंटीन में कितने प्रकार के व्यंजन तैयार होते हैं। जहाज़ से तुमने नेह लगा लिया है। जहाज़ को ही तुमने अपना संसार बना लिया है। तो अब जो भी सवाल करते हो यही करते हो कि बेहतर कैसे करें? बेहतर नहीं करो। इस जिस्म की बेहतरी तुम नहीं करोगे, प्रकृति करेगी। और जब मैं कह रहा हूँ प्रकृति तो मेरा आशय बाहरी प्रकृति से ही नहीं है। मेरा आशय इस जिस्म की प्रकृति से भी है। कौन करेगा इसकी देखभाल, तुम्हें ये ख़याल करने की ज़रूरत नहीं है, इसका ख़याल करने के लिए गुरुत्वाकर्षण है, हवा है, पानी हैं, धूप है। ये सबकुछ क्या तुम्हारी मर्ज़ी से है?

तुम्हारे शरीर का ख़याल वास्तव में कौन रख रहा है, ये तुमने कभी देखा ही नहीं। हवा का दबाव तुम्हारे शरीर पर पड़ता है सात-सौ-साठ मिलीमीटर मरकरी। ठीक? और उससे थोड़ा ऊपर-नीचे हो जाए तो अभी खून बहाना शुरू कर दोगे। सात-सौ-साठ की जगह छः-सौ हो जाए तो नसें फटने लगेंगी, फट-फट-फट, खून बहेगा; जैसे कि पहाड़ों पर ऊपर चले जाओ तो होता है, क्यों नाक फट जाती है? खून बहने लगता है पहाड़ों के ऊपर चले जाओ तो? हवा का दबाव कम हो जाता है। भीतर का उतना ही रहता है। बाहर का कम हो गया तो चीज़ फट जाती है। और अगर बढ़ जाए यही दबाव तो क्या होगा तुम्हारा? तुम्हारी वही हालत होगी जो किसी गुब्बारे को दबा दो तो उसकी होती है। बाहर का दबाव इतना बढ़ गया गुब्बारा दबेगा दबेगा और फट जाएगा।

कोई है जिसने तय कर रखा है, अनुशासित कर रखा है कि सात-सौ-साठ माने सात-सौ-साठ। वो बाप है तुम्हारा, वो माँ है तुम्हारी वो तुम्हारी देखभाल कर रहा है। इस जिस्म की देखभाल वो कर रहा है वो बाहर एटमॉसफ़ेरिक प्रेशर बनकर बैठा है, भीतर डीएनए बनकर बैठा है। कौन संचालित कर रहा है तुम्हारी धड़कनों को? बोलो। उसे प्रकृति माँ बोल सकते हो वो देख रही है। और प्रकृति न चलाए तुम्हारी धड़कन को, तो कौन डॉक्टर चला लेगा ज़रा बता देना। बताओ।

गुरुत्वाकर्षण नौ-दशमलव-आठ-एक मीटर प्रति स्क्वेर से बढ़ जाए और घट जाए। उसके बाद मुझे बता दो कौनसा डॉक्टर तुम्हारे काम आएगा? डॉक्टर फिर ख़ुद को ही न बचा पाए, तुम्हारी क्या मदद करें? ग्रैविटी अभी हो जाए बारह फिर तो तुम नौ दो ग्यारह भी नहीं हो पाओगे। चिपक के रह जाओगे ज़मीन से एक-एक क़दम उठाना भारी पड़ेगा।

ये तुमने नहीं किया है। ये अध्यात्म ने नहीं किया, ये योग ने नहीं किया, ये विज्ञान ने भी नहीं किया है, किसी डॉक्टर ने नहीं किया है। ये प्रकृति माँ ने करा है। वो फूल खिलाती है। तुम्हारे बाल भी उसी ने खिलाये है, ये दाढ़ी-मूँछ उसी ने दिये हैं। तुम्हारे डीएनए में न मौजूद हो तो न विज्ञान, न योग, न अध्यात्म, न गुरु, न वैज्ञानिक, कोई तुमको कुछ नहीं दे सकता।

फिर तुम कहोगे लेकिन हम कुछ तो कर ही लेते हैं न शरीर को सुधारने के लिए। जो तुम कर लेते हो शरीर को सुधारने के लिए वो भी तुम नहीं कर रहे हो, प्रकृति कर रही है। कैसे कर रहे हो तुम? मस्तिष्क के माध्यम से। मस्तिष्क क्या है? प्रकृति ही तो है ना? विज्ञान भी और कुछ नहीं है। प्रकृति का ही खेल है। प्रकृति प्रकृति को बदल रही है। इसको विज्ञान कहते हैं। कुत्ते को देखा है कभी? कुत्ता भी गर्मियों में गड्ढा खोदता है। अब कुत्ते को तो विज्ञान नहीं पता, लेकिन वो भी ज़मीन को बदलने की कोशिश कर रहा है अपने शरीर के मतलब से। वो भी अपने लिए घर बना रहा है। बया पक्षी को देखो कितना सुन्दर घर बनाती है।

पक्षी को तो प्रकृति ही मानते हो न? देखो, प्रकृति ने घर बना दिया न? पक्षी ने जब घोंसला बनाया तो तुम उसको अप्राकृतिक घटना तो नहीं बोलते। पक्षी ने घोंसला बनाया, इसमें तुम पक्षी को कहते हो कि पक्षी है प्रकृति और घोंसलें को भी तो मानते हो कि घोंसला है प्राकृतिक। ठीक?

उसी तरीक़े से तुम भी जब घर बनाते हो तो ये एक प्राकृतिक घटना ही है। इसको अप्राकृतिक मत समझ लेना।

श्रोता: फिर मैन-मेड वर्ल्ड (मानव-निर्मित संसार) जैसा शब्द किसलिए है?

आचार्य: ग़लत है वो शब्द। पक्षी घोंसला बनाए, उसको तुम प्राकृतिक बात बोलते हो। इंसान घर बनाए तो तुम उसको बोल देते हो ये अप्राकृतिक चीज़ है, ये तो मैन-मेड है, आर्टिफिशियल है कुछ नहीं। ये भी तुम्हारा घर वैसा ही है जैसे पक्षी का घर। कुछ अलग नहीं है। इसीलिए ये भी पूरे तरीक़े से प्राकृतिक घटना है। तुम जाओगे श्रीकृष्ण के पास, गीता में उनसे पूछोगे तो वो कहेंगे प्रकृति मेरी दो तरह की है। परा प्रकृति और अपरा प्रकृति। पक्षी जब घोंसला बनाता है तो वो बस अपरा प्रकृति है। तुम जब घर बनाते हो, तो ये परा प्रकृति है, लेकिन है प्रकृति ही।

तो प्रकृति को कौन सम्भाल रहा है? स्वयं प्रकृति। प्रकृति का ख़याल कौन रख रहा है? स्वयं प्रकृति। तुम्हारे जिस्म का ख़याल चाहे गुरुत्वाकर्षण रखता हो, चाहे सूरज की किरणें रखती हो, चाहे हवा की लहरें रखती हो या चाहे तुम्हारे मस्तिष्क की बुद्धि रखती हो, ले-देकर इस प्राकृतिक शरीर का ख़याल रख रही है प्रकृति ही। जब इस प्राकृतिक शरीर का ख़याल सूरज की किरणें रखें और नदियों का पानी रखे तो तुम कह सकते हो शरीर का ख़याल रख रही है अपरा प्रकृति और जब इस शरीर का ख़याल वैक्सीनेशन के टीके रखें और एयर कंडिशनर रखें और लेबोरेट्री (प्रयोगशाला) के रिसर्च (शोध) रखें तब तुम कह सकते हो कि इस शरीर का ख़याल रख रही है परा प्रकृति।

लेकिन दोनों ही स्थितियों में चाहे तुम्हारे शरीर को लाभ हो रहा हो सूरज की किरणों से, चाहे तुम्हारे शरीर को लाभ हो रहा हो फार्मेसी की गोलियों से दोनों ही स्थितियों में तुम्हारे इस प्राकृतिक शरीर का ख़याल रखने वाली है प्रकृति। तो लो हो गया खेल ख़त्म, शरीर की झंझट छोड़ दो। शरीर का ख़याल प्रकृति रख लेगी, क्योंकि शरीर किसकी संतान हैं? प्रकृति की संतान हैं वो देख लेगी।

कुछ काम तुम हवाओं पर, चाँद-तारों पर, सूरज पर छोड़ दो। और बाक़ी काम तुम अंतःकरण पर छोड़ दो, मस्तिष्क पर छोड़ दो, बुद्धि पर छोड़ दो, स्मृतियों पर छोड़ दो, वो जानते हैं।

अब रही बात तुम्हारी। तुम्हें क्या करना है? शरीर का मसला तो हल हो गया। तुम्हें क्या करना है? तुम्हें अपनी मुक्ति का आयोजन करना है। तुम्हें अपनेआप को वो स्थितियाँ देनी है, जिनमें तुम समर्पित हो सको। तुम्हें अपनेआप को माहौल देना है जिसमें तुम शरीर के झंझटों से ऊपर उठकर के अपने असली प्रयोजन की सोच सको। बात समझ में आ रही है?

शरीर को तो तुम ज़रा अलग रखो उसके साथ तो जितनी कम छेड़खानी करोगे उतना अच्छा है। ज़्यादातर बीमारियाँ तो होती ही इसलिए है कि तुम शरीर के साथ छेड़खानी करते हो। आदमी की अपेक्षा जानवरों में पाँच-प्रतिशत भी बीमारियाँ नहीं पायी जातीं। और जानवरों की कई बीमारियाँ तो उन्हें आदमियों से लगती हैं। या आदमियों के संसर्ग से लगती हैं। जंगल के जानवर कम ही बीमार पड़ते हैं। हमारी भी ज़्यादातर बीमारियाँ इसलिए है क्योंकि हमने अपनेआप को शरीर समझ लिया है।

जैसे कि कोई आदमी अगर कार के भीतर ही क़ैद हो जाए। और कह दे, ‘मैं कार ही हूँ।’ तो फिर वो कार को गंदा भी बहुत करेगा अन्दर से। सोच के देखो किसी भी काम के लिए वो कार से बाहर तो आ नहीं सकता। अब उसकी कार घिनाएगी, गंधाएगी। एक आदमी एक कार के भीतर बीस साल से क़ैद है। उस कार से दूर ही दूर रहना। अब उस कार के भीतर न जाने क्या-क्या होगा, कैसे-कैसे उसमें कीड़े और विषाणु और जीवाणु होंगे। शरीर को छोड़ दो, वो अपना ख़याल रख लेगा। शरीर जानता है कि उसे कितना खाना है।

पर जब तुम अपनेआप को शरीर ही समझ लेते हो तो तुम शरीर के माध्यमों से अपनी मुक्ति की इच्छा पूरी करना चाहते हो। तुम सोचते हो मुझे जो चाहिए वो मुझे शरीर के माध्यम से मिलेगा। फिर तुम लग जाते हो अपने स्वाद कोशिकाओं को सन्तुष्ट करने में। तुम कहते हो बढ़िया खाना खा लिया तो जो सुकून मिलता है उसकी बात ही क्या है? तुम वास्तव में बढ़िया खाने के माध्यम से परमात्मा नाम का सुकून तलाश रहे हो। तुम माँस में और मसाले में और चाट में और चटकारे में परमात्मा ढूँढ रहे हो। और जब तुम माँस-मसाले और चाट-चटकारे में परमात्मा को ढूँढोगे तो शरीर की कितनी दुर्गति होगी बताओ?

अध्यात्म तो तुम्हें कुछ पता ही नहीं तो फिर तुम क्या कोशिश करोगे? तुम कहोगे खाना ले आओ, खाना खाने में स्वाद तो मिलता है। मैं सुकून की तलाश में हूँ। कुछ सुकून तो मिलता है न खाने में। तो तुम लगोगे धमाधम खाने। और भुगतेगा फिर कौन? शरीर। तो जो शरीर के माध्यम से परमात्मा को पाना चाहता है, वो अपने शरीर को ही बर्बाद कर देता है। कोई बन जाता है अस्पताल का बीमार मोटी तोंद लेकर, कोई बन जाता है सौन्दर्य का बीमार। उसको यही काम रह जाता है कि दिन-रात अपना चेहरा चमकाऊँ और बाल चमकाऊँ और शरीर बनाऊँ। क्योंकि इन सब चीज़ों में भी कुछ सुकून तो है ही न। लोग तुम्हारी तारीफ़ कर गये ‘क्या आँखें हैं! क्या चेहरा है! क्या ज़ुल्फ़ें हैं!’ कोई आकर बोल गया, ‘शाबाश! क्या तुमने माँसपेशियाँ अपनी बनायी हैं!’ अब तुम शरीर की दुर्गत कर रहे हो। लगाये पड़े हो मुँह पर रसायन-ही-रसायन। तमाम तरीक़े के पदार्थ तुमने शरीर में घुसेड़ दिये हैं कभी बूटोक्स करा रहे हो, कभी कुछ।

ठीक।

इसी तरीक़े से कोई बन जाएगा सेक्स मैनीएक (उन्माद) क्योंकि वो भी यही सोच रहा है कि शरीर के माध्यम से परमात्मा मिल जाएगा और इस तरह की शिक्षाएँ भी आजकल बहुत प्रचलित है कि बेटा तुम तो सम्भोग करो, योग अपनेआप हो जाएगा।

अब ये ढूँढ रहे हैं किसी तरीक़े से शरीर की किसी गुफा में परमात्मा के दर्शन हो जाएँ। और उसकी जगह मिलता क्या है? दुर्गन्ध, सेक्स जनित बीमारियाँ। और बहुत सारी निराशा। आठ-दस साल से एक ही साधना करी थी सम्भोग साधना। लगे हुए थे पूरी जान से। पहाड़ पूरा खोद डाला। लेकिन रोशनी अभी भी नहीं मिली। ऊर्जा पूरी चूक जाएगी, रहोगे अन्धेरे में ही।

पहली चीज़ जो तुमको तुम्हारे चाहने वाले बड़े बाप-दादाओं ने सिखायी वो यही थी — प्रकृति से परे हो तुम। देह नहीं हो तुम। किन झंझटों में फँस गये? इसका मतलब देह का तिरस्कार नहीं है। इसका मतलब ये नहीं है कि देह को हेय समझ लो। इसका मतलब है देह को देह का काम करने दो। उलझो मत, वो अपना काम करना जानती है। यहाँ तक कि जब तुम सो भी रहे होते हो तो देह तो अपना काम कर रही होती है न? या फिर तुम्हारा इंतज़ार करती है कि बड़े मालिक उठेंगे और बताएँगे कि खाना कैसे पचाना है तो पचेगा? तुम्हारे शरीर के ज़्यादातर काम तब होते हैं जब तुम सो जाते हो, तुम्हें पता है? जैसे देह भी इंतज़ार करती है कि मूर्ख सोने जाए तो हम कुछ काम निपटाएँ। (श्रोतागण हँसते हैं)

मान लो इस बात को देह सही में इंतज़ार करती है कि तुम सो जाओ तो वो अपना काम शुरू करे। खाना ज़्यादा पचता है सोते वक्त। तुम्हारा क़द बढ़ता है जब तुम सो जाते हो। तुम्हारी चोटें और बीमारियाँ ठीक होती है जब तुम सो जाते हो। शरीर की पूरी हीलिंग ऐक्टिविटी (उपचार गतिविधि) जब तुम सो जाते हो तब चरम पर पहुँचती है। आँखों की थकान, मन की थकान, पुरानी कोशिकाओं का हटना, नयी कोशिकाओं का बनना, स्प्लीन (प्लीहा) में रक्त कोशिकाओं का उत्पादन, ये सबकुछ तुम्हारे सोते वक्त बढ़ जाता है। तुमसे पूछकर बढ़ता है? शरीर अपना काम करना जानता है। जब तुम नहीं होते तो वो अपना काम बेहतर करता है। तुम हटो। और ये बात सबको पता है। इसीलिए जब तुम्हारा ऑपरेशन हो रहा होता है तो पहले तुम्हें सुला दिया जाता है। ये अगर जागते रहे तो कुछ नहीं हो पाएगा। इन्हें हटाओ पहले। इनका हटना ज़रूरी है तभी कुछ होगा।

तुम सवाल बदलो अपना। तुम पूछो, ‘मैं कौन हूँ? मैं कैसे आकर चिपक गया इस देह से? और चिपक गया हूँ तो क्या पा रहा हूँ? और जो पा रहा हूँ अगर उससे चैन नहीं है तो आज़ादी कैसे मिलेगी? शरीर से कैसे मिले आज़ादी? और जो मुझे चाहिए जिसकी चाह में मैं शरीर से घिर गया था, वो कैसे मिले?’ ये तुम्हारा सवाल होना चाहिए। ये पूछा करो।

शरीर के भीतर से तुम झाँक रहे हो। शरीर नहीं हो तुम। इस मकान की खिड़की से तुम बाहर झाँकने लग जाओ तो तुम मकान हो गये? ठीक वैसे ही इन आँखों के पीछे से तुम झाँक रहे हो। आँखें नहीं हो तुम। तुम झाँकने वाला हो। जब कोई खिड़की से तुम्हें ताक रहा होता है तो तुम जाकर खिड़की को चूमने लगते हो? बताओ। ये मुझे चश्मे के पीछे से देख रहा है। तो माने ये चश्मा हो गया? चश्मे के पीछे से ये देख रहा है न मुझको? ठीक उसी तरीक़े से आँखों के पीछे से जो देख रहा है वो हो तो। और मैं नहीं कह रहा हूँ आत्मा हो तुम। तुम्हारी आँखों के पीछे वो बैठा है जो आँखों के माध्यम से टुकुर-टुकुर निहार रहा है कि बाहर पिया कब मिलेंगे। आत्मा कहीं नहीं निहारती। आत्मा को संसार को देखने से कोई प्रयोजन नहीं है। वो मस्त है, अपने में पूर्ण है।

तुम तो एक वियोगी चेतना हो, एक तड़पती हुई धुन हो तुम किसको गीत नहीं मिल रहा है पूरा। एक बूँद हो जो बादलों से तो चल पड़ी है, पर सागर तक पहुँचने में बड़ा विलम्ब कर रही है। न शरीर हो तुम, न आत्मा हो तुम। तुम कुछ और हो। तुम्हारे सामने रास्ते दो हैं, एक रास्ता है शरीर का, एक रास्ता है आत्मा का। तीन है अब — एक शरीर, आत्मा और तुम।

तुम वो हो जिसे चुनना है, चाहो तो शरीर को चुन लो, चाहो तो आत्मा को चुन लो, शरीर को तो चुन ही बैठे हो। क्या पाया? कुछ और चुनकर देखो। क्या पता कुछ मिल ही जाए। आज़माने में क्या जाता है? तुम्हारे हाथ में ही है चुनाव। शरीर कुछ चुनता नहीं है और आत्मा को चुनने से कोई प्रयोजन नहीं। तुम वो हो जो लगातार चुनता ही रहता है। तुम वो हो जो सदा दोराहे पर ही खड़ा है, कभी यहाँ जाए, कभी वहाँ जाए। जाऊँ कहाँ?

शरीर कुछ नहीं चुनता क्योंकि शरीर पूरे तरीक़े से संस्कारित है। तुम ऐसे भी कह सकते हो कि शरीर को जो चुनना है वो शरीर ने पहले ही तय कर रखा है। हवा समूची भीतर जाएगी, शरीर उसमें से ऑक्सीजन ले लेगा, नाइट्रोजन छोड़ देगा। ये बात सदियों से तय है। शरीर को नया कुछ चुनना नहीं।

तुम अपने शरीर की जाँच भी कराने जाते हो पैथोलॉजी में। तो उनको भलीभाँति पता है कि तुम्हारे रक्त में व्हाइट ब्लड सेल (श्वेत रक्त कणिकाएँ) कितनी होनी चाहिए, रेड ब्लड सेल (लाल रक्त कणिकाएँ) कितनी होनी चाहिए, उन्हें पता है तुम्हारे लिवर में कौनसा इंज़ाइम कितना होना चाहिए। उन्हें पता है कि शरीर का सही चुनाव क्या है। शरीर को चुनने से कोई मतलब नहीं। वो सबकुछ चुन चुका, उसका सारा चुनाव अतीत में ही हो गया। उसको प्रकृति ने बताकर भेजा है कि बेटा तुझे ऐसे ऐसे रहना है तो शरीर को चुनने से कोई मतलब नहीं।

और आत्मा? वो तो अकर्ता है, न कर्ता है, न भोगता है, वो चुन के क्या करेगी और किसको चुनेगी? आत्मा के आगे न पीछे कोई। आत्मा के सामने कोई दो रास्ते नहीं, आत्मा के अतिरिक्त कुछ है ही नहीं। वो कहाँ चुनने जाएगी और किसको? उसमें कोई अपूर्णता नहीं। चुनाव करके वो पाएगी क्या? तुम हो जिसे चुनना होता है या जिसे चुनने का भ्रम होता है तो तुम सही चुनो।

श्रोता: हम आत्मा भी नहीं हैं, हम शरीर भी नहीं हैं।

आचार्य: तुम कुछ और हो।

श्रोता: आचार्य जी, आत्मा क्या है?

आचार्य: जिसके लिए ये सवाल पूछ रहे हो। इस सवाल का अगर तुमको बहुत सुन्दर उत्तर मिल जाए तो सवाल मिट जाएगा न, क्या शेष रहेगा? वो आत्मा है। आत्मा वो है जिसके लिए तुम्हारी सारी गतिविधियाँ हैं। इस सवाल के साथ-साथ सबकुछ तुम्हारा जिसके लिए है उसका नाम है आत्मा। जिसकी हसरत में कभी इधर बढ़ते हो, कभी उधर बढ़ते हो, कभी ये करते हो, कभी वो करते हो, उसका नाम है आत्मा।

करते तो बहुत कुछ हो। पर बड़े उचट तरीक़े से करते हो एकदम ऊँटपटाँग। तो करते बहुत कुछ हो, पाते कुछ नहीं। करे जा रहे हो बस।

तुम आत्मा होते तो ये हालत होती तुम्हारी? (श्रोता हँसते हैं) तुम्हें ज़रा सा शक भी कैसे हो गया कि तुम आत्मा हो? मुँह लटका हुआ है, कह रहे हैं, ‘हम आत्मा हैं।’ थोड़ी देर में अभी सोकर वहीं गिरोगे, कह रहे हो, ‘हम आत्मा हैं।’ मैं कह रहा था, मेरे निकट आओ, तुम वहाँ गद्दा लगाकर बैठ गये कह रहे हैं, ‘हम आत्मा हैं।’ ये आत्मा की करतूतें हैं? (श्रोतागण हँसते हैं)

और शरीर भी तुम नहीं। क्योंकि अगर तुम शरीर मात्र होते तो ये सब सवाल नहीं करते। शरीर के तो अगर सवाल भी होंगे तो बस तीन मुद्दों पर होंगे। क्या मुद्दे? खाना, सोना और सेक्स। तुम्हारे तो सवाल कुछ और है, इसका मतलब तुम शरीर भी नहीं हो, तुम तो बेटा कोई तीसरी ही बला हो। अपना पता लगाओ, तुम हो कौन।

सस्ता जवाब है कि तुम आत्मा हो, बहुत सस्ता जवाब है। इस जवाब से बचना। झूठा जवाब है। तुम्हें बहुत पसन्द आता है। तुम्हारा जीवन इस बात की गवाही दे रहा है क्या कि तुम आत्मा हो? अभी शाम को दो रुपये के लिए भिड़ गये थे तुम, वहाँ टोल टैक्स वाले से। अरे आज शाम को नहीं तो कल शाम को भिड़े होंगे। उसको बावन रुपये लौटाने थे। और पचास रुपये ही लौटा पा रहा है। दो रुपये के लिए तुमने पीछे की सौ गाड़ियों को इंतज़ार करवाया। आगे बढ़ने को राज़ी नहीं थे। कहते, ‘और देख कहीं बाप-दादा के ज़माने की चवन्नियाँ पड़ी हो। गिनकर दे दे।’ पीछे से गाड़ियाँ हॉर्न मार रही हैं, मार रहीं हैं। तुम आगे बढ़ने को तैयार नहीं। दो रूपया कैसे छोड़ दें। तो थोड़ा आगे जा के बोल रहे हैं, “अहं ब्रह्मास्मि”। ये दो रुपये वाला ब्रह्म कौनसा है भाई? दो रुपये, दस रूपये, बीस रुपये! इन्हीं झंझटों में उलझे हो और नारा लगाते हो कि आत्मा हैं हम और ब्रह्म हैं हम। लाज नहीं आती?

श्रोता: क्या आत्मा का अनुभव किया जा सकता है?

आचार्य: कौन करेगा?

श्रोता: वो तीसरा जो आप हो।

आचार्य: अगर आत्मा पूर्ण है तो उसका अनुभव करने के लिए कोई कैसे बचेगा?

श्रोता: फिर करना क्या है? (श्रोतागण हँसते हैं)

आचार्य: ये तुम बताओ कि रोज़ करते क्या हो सुबह से शाम तक। जब जानते नहीं कि क्या करना है सवाल मुझसे पूछ रहे हो इतनी मासूम शक्ल बनाकर कि करना क्या है? तो कल सुबह से शाम तक क्या कर रहे थे और क्यों कर रहे थे? पगलाए हो? अलार्म लगाकर उठते हो, जान लगा के भागते हो। दन-दनाकर कोल्हू के बैल की तरह काम करते हो। पता नहीं है करना क्या है तो इतना करते क्यों हो?

श्रोता: अभी यहाँ पर दो विकल्प हैं तो दूसरा विकल्प कोई क्यों लेना चाहेगा?

आचार्य: तो ऑफिस में पाने क्या जाते हो आत्मा को? तुम पहला विकल्प ही लेते रहो, तुम शरीर वाला ही विकल्प लेते रहो, उससे जो मिलता हो ले लो। तुम शरीर को ही आज़मा लो, जितना आज़माना हो। उससे अगर तुम्हारी क्षुधा शान्त होती है तो।

छोटे बच्चे होते हैं। वो जब क्रिकेट खेलने जाते हैं तो बॉलर से कहते हैं, ’ट्रायल बॉल दे न, ट्रायल बॉल।’ तो ट्रायल बॉल आती है। फिर वो कहते हैं, ‘और दे ट्रायल बॉल’ , तो एक ट्रायल बॉल और आ जाती है। ‘एक और दे न,’ तो फिर बॉलर कहता है, ‘हो तो गया ट्रायल।’ बहुत कहते हैं, ‘यार डाल-डाल।’ तो एक ट्रायल बॉल और आ जाती है। हद-से-हद फिर एक और आ जाएगी। छोटे बच्चों को भी पता है कि आज़माने के लिए प्रयोग के लिए चार गेंदें बहुत होती हैं।

तुम तीस साल से ट्रायल बॉल ही खेले जा रहे हो, तुम्हारी पारी शुरू कब होगी? तुम प्रयोग ही करते रहोगे? अभी तक तुम्हें पिच का अंदाज़ा नहीं हुआ, न गेंद का हुआ? रोज़ तो तुम ट्रायल बॉल ही खेलते हो, अभी तुम्हें पता नहीं चला कि हक़ीक़त क्या है? पिच की हक़ीक़त नहीं पता चल रही? संसार पिच है तुम्हारी। स्टंप्स नहीं पता चल रहे कहाँ पर हैं? ऑफ़ स्टंप्स पता नहीं लगा पा रहे अभी तक? अट्ठाइस साल से खेल रहे हो अभी भी तुम्हें अपने ऑफ़ स्टम्प , लेग स्टम्प का अंदाज़ा नहीं हुआ। गार्ड नहीं ले पा रहे? राज़ नहीं खुल रहा है क्या कि मामला क्या है?

श्रोता: आचार्य जी, कई बार असली बॉल खेलने की हिम्मत नहीं होती।

आचार्य: अरे! तुमको असली बॉल खेलनी है, राष्ट्रीय टीम के स्तर के बॉलर की, और ट्रायल बॉल तुम खेल रहे हो अंडर फाइव टीम के बॉलर की। तुम देख नहीं रहे कि ये ट्राइल बॉल खेल-खेलकर ही तुममें ये डर पैदा हो गया है? तुम्हें वास्तव में गेंद झेलनी है डेल स्टेन की। और तुमने नेट प्रैक्टिस के लिए बुला लिया है झुन्नुलाल को और झुन्नुलाल की उम्र पौने पाँच साल है। (श्रोतागण हँसते हैं) और तुम उनकी गेंदें खेल-खेलकर, खेल-खेलकर उन्हें मारे डाल रहे हो, तू ट्राइल डाल और डाल। तुम झुन्नुलाल से कितनी भी गेंदबाज़ी करवा लो, तुम इस लायक़ थोड़े ही बन जाओगे कि डेल स्टेन को झेल लो। बल्कि जितनी गेंदे तुम झुन्नुलाल की खेलोगे, डेल स्टेन को खेलने के लिए तुम उतने न क़ाबिल होते जाओगे, हो जाओगे की नहीं?

सर्वप्रथम तो झुन्नुलाल को खेलना बन्द करो। झन्नू भी चिल्ला रहा है रोज़ मुझे शिकायत करता है कि आप इन लोगों को बाद में मुक्ति दीजिएगा। पहले मुझे इनसे मुक्ति दिलवाइए। ये मेरा उपयोग कर रहे हैं। ये मेरा उपभोग कर रहे हैं। मेरा शोषण कर रहे हैं।

झुन्नुलाल का नाम है संसार। तुम संसार के साथ लिप्त हो हो के सोच रहे हो कि तुम्हें उस बड़ी चुनौती को झेलने की ताक़त मिल जाएगी जो तुम्हें वास्तव में झेलनी चाहिए।

नहीं।

तुम छोटी चुनौतियों के साथ उलझे हुए हों और छोटी चुनौतियों के साथ उलझ, उलझ के तुमने अपनी वो ताक़त खो दी है कि तुम बड़ी चुनौती को झेल पाओ। सुबह जो तुम दफ़्तर जाते हो, बड़ी छोटी चुनौती है, टुच्ची चुनौती है। तुम्हें जो तुम्हारे मासिक लक्ष्य मिलते हैं, मंथ्ली टार्गेट्स वो टुच्ची चुनौतियाँ हैं। पर तुम टुच्ची चुनौतियों से इतने लिप्त हो गये हो कि अब तुम इस क़ाबिल नहीं बचे कि बड़ी चुनौती उठा सको।

यही वजह है कि मेरे पास ज़्यादातर लोग वही हैं जो छोटी चुनौती में लिप्त हो जाते इससे पहले ही मैंने उन्हें बुला लिया। जिसने एक बार ये ऑफिस-ऑफिस खेलना शुरू कर दिया और एक-आध साल इस धन्धे में पड़ गया उसको फिर मैं अपने पास बुलाता नहीं क्योंकि अब वो इस क़ाबिल ही नहीं बचा कि वास्तविक चुनौती का सामना कर सके। अब तो उसको झुन्नुलाल की अंडरआर्म खेलने की आदत पड़ गयी है। उससे कहो, ‘गेंद खेलो’ तो वो तैयार हो जाएगा कि अंडरआर्म आ रही होगी, पालथी मारकर बैठ जाएगा।

कहेगा वहां से चलेगी गेंद, धीरे धीरे पिच पर लुढ़कते लुढ़कते आएगी। झुन्नुलाल ऐसे ही डालते थे। अब उसे मैं खड़ा कर दूँगा डेल स्टेन के सामने। तो कहेगा, ‘ये रॉकेट था, ये अन्तरिक्ष यान था, स्पेसशिप था।’ तुम कहोगे कि नहीं, ये क्रिकेट की गेंद थी, लाल रंग की थी, बहुत ज़्यादा इसकी नहीं गति थी। सौ मील प्रति घंटा अधिक से अधिक। वो कहेगा, ‘न। ये तो प्रकाश की गति से निकली। हमें तो पता भी नहीं चला।’ अरे सब पता चल जाता, तू इतने दिनों से झुन्नुलाल के साथ क्यों लिपटा हुआ था?

झुन्नुलाल समझ रहे हो? वो सारी जगहें जहाँ पर तुम रोज़-रोज़ लिप्त होते हो उनका नाम है झुन्नूलाल। ये जो तुम दो रुपये, दस रूपये के लिए बहसें करते हो, ये जो तुम दफ़्तर के ही मसलों को बहुत बड़ा मसला बना लेते हो। ये जो तुम घर परिवार में छोटी-छोटी, टुच्ची-टुच्ची लड़ाईयाँ करते हो। टुच्ची लड़ाई करने का दुष्परिणाम ये होता है कि तुम किसी बड़ी लड़ाई के क़ाबिल नहीं बचते।

जब भी किसी छोटे से उलझो तो अपनेआप को ये याद दिला देना — छोटे से उलझ लिए अब बड़े से नहीं उलझ पाऊँगा। ठीक वैसे ही जैसे कोई पहलवान अगर अपने ही बेटे से कुश्ती लड़ने लग जाए। तो अब वो अखाड़े में उतरने के क़ाबिल नहीं बचेगा। पहलवान का बेटा है चार साल का और पहलवान साहब उसी के साथ कुश्ती का अभ्यास करते हैं। अब ये किसी अखाड़े में उतरने के क़ाबिल बचे? नहीं बचे। तुम यही कर रहे हो तुम अपने से छोटे वालों से ही उलझते रहते हो। अब तुम जीवन की वास्तविक चुनौती कैसे उठाओगे और जीवन की वास्तविक चुनौती का नाम है मुक्ति।

छोटी चुनौतियों में उलझना छोड़ो। बड़े काम का बीड़ा उठाओ। तुम्हारे लिए यही बहुत बड़ी चुनौती है कि अगले महीने तक अपनी कम्पनी का मुनाफ़ा साढ़े-चार-प्रतिशत और कैसे बढ़ाना है और ये साढ़े-चार-प्रतिशत का आँकड़ा भी तुम्हें तुम्हारे सीनियर ने थमा दिया है। और तुम इसी में लगे हुए हो, पूरा महीना तुम्हारा इसी में जा रहा है। जीवन तुम्हारा इसी में जा रहा है। जाए फिर। तुम अब इसी के क़ाबिल बचे हो और कुछ अब तुम कर भी नहीं पाओगे, यही करो।

एक कैम्प में एक सज्जन पहुँचे नहीं। तो हमारी ओर से उन्हें फ़ोन किया गया, ‘कहाँ हैं? आये क्यों नहीं?’ बोले, ‘बच्चे के पोतड़े ही नहीं थे।’ ‘तो?’ ‘और अगले दो दिन त्योहार पड़ रहे हैं। दुकान, बाज़ार सब बन्द रहती। और बच्चा छोटा है। तो मेरी पत्नी यानी उसकी माँ घर से निकलती नहीं है, मुझे ही लाने हैं। अब आज ही लाने ज़रूरी थे। अगले दो दिन तक सब दुकानें बन्द थीं। और आज पोतड़े लाने गया तो फ्लाइट मिस हो गयी।’

यह तुम्हारे जीवन की चुनौतियाँ हैं। इन बातों का ख़याल तुम्हारे दिमाग में घूमता रहता है पोतड़े ख़रीदने है। तुम्हें मुक्ति मिलेगी?

पोतड़ों और मुक्ति में कोई बैर नहीं है। लेकिन जब तुम्हारे मन में मुद्दा ही पोतड़े है तो तुम्हें मुक्ति क्यों मिले? तुम्हें जो चाहिए वो तुम्हें मिलता है। तुम्हें इकट्ठा करने हैं कर लो। एक-से-बढ़कर-एक मेगा मार्केट्स हैं, शॉपिंग मॉल हैं, वहाँ न जाने कितनी चीज़ें मिलती हैं, तुम्हारे लिए ही तो मिलती हैं, जाओ वो सब ख़रीद लाओ। वही इकट्ठा करो। और काहे के लिए कमाते हो।

श्रोता: आचार्य जी, फिर ताक़त कैसे बढ़ेगी?

आचार्य: तुम झुन्नुलाल को माफ़ करो। सबसे पहले देखो। कर दिया? बेचारे गरीब को छोड़ दो। फिर ताक़त लौटेगी। किसी ऐसे से जा भिड़ों जो कम-से-कम तुम्हारे क़द का हो। वर्जिश करने भी जाते हो तो आधा किलो का वजन उठाते हो? जवान आदमी हो, अपने जिस्म को देखते हो। कहते होओगे, ‘डोले बनाने हैं तो कुछ नहीं तो दस किलो तो दोनों हाथ में होना चाहिए।’ ऐसी चुनौती उठाओ जो ज़रा कठिन हो फिर ताक़त बनेगी।

कठिन चुनौती तो बेटा एक ही होती है और कुछ कठिन नहीं है बाक़ी सब आसान। बाक़ी सब के लिए तो बस कुछ संसार गत अनुशासन चाहिए। तुम्हें अगर प्रक्रियाओं का पालन करना आता है तो सब हो जाता है। बड़ी-से-बड़ी कम्पनियाँ तुम्हें क्या लगता है बड़ी सृजनात्मकता, इन्नोवेशन या क्रिएटिविटी पर चलती हैं? कुछ नहीं। अनुशासन पर चलती हैं। जिसको तुम इन्नोवेशन बोलते हो, उसका भी एल्गोरिदम है कि ऐसे-ऐसे, ऐसे-ऐसे, ऐसे-ऐसे करो इन्नोवेशन हो जाएगी लो। स्ट्रक्चर्ड इनोवेशन (सुव्यवस्थित सृजनात्मकता)। सब हो जाता है। वो कोई चुनौती ही नहीं है। कोई बड़ी बात ही नहीं हैं।

बड़ी बात तो यही है, मुक्त होकर दिखाओ।

तुम्हें क्या करना है? तुम्हें कोई बड़ा इनाम जीतना है साहित्य में, विज्ञान में? तुम्हें किसी खेल का चैंपियन बनना है? हर चीज़ का एल्गोरिदम है, फैक्ट्रियाँ हैं। फैक्ट्रियाँ हैं जहाँ से टेनिस चैंपियन पैदा हो रहे हैं। और मामला बिलकुल तय है। तुम्हें बस अनुशासन के साथ प्रक्रिया का पालन करना है पालन कर ले गये तो तुम भी चैंपियन बनकर निकलोगे। ये कोई चुनौती ही नहीं हुई। यहाँ तो बस अनुशासन चाहिए। यहाँ तो बस ये चाहिए कि तुम किसी के पीछे-पीछे चलते रहो, तुम भी पहुँच जाओगे ऊपर। मुक्ति पीछे चल-चलकर नहीं आती।

मुक्ति आँखें बन्द कर-करके अनुशासन का पालन करने से नहीं आती। मुक्ति तो बड़ी बला है। जब तुम्हें कोई बन्धन ही नहीं अनुभव हो रहा तो सो ही जाओ। जैसे कि चूहे दानी का चूहा पूछे, ‘मुक्ति माने किससे मुक्ति?’ पगले, जिसके अन्दर तू फँसा हुआ है और किससे मुक्ति?

जहाँ-जहाँ फँसे हुए हैं वहाँ से मुक्ति और कहाँ से मिलेगी मुक्ति? और लगता ही नहीं है कि फँसे हुए हो तो चूहेदानी के अन्दर ही भंगड़ा करो। बहुत चूहे हैं। उन्होंने चूहे दानियों के अन्दर ही फ़ोर बीएचके बना लिये। वहाँ उनका पूरा कुनबा बढ़ रहा है। भीतर से सजा दिया है उन्होंने चूहे दानियों को। चूहा-चूही प्यार से खेले, नन्हा चूहू खेल करे।

तुम्हारे भीतर कभी ये सवाल उठता ही नहीं कि ये मैं क्या कर रहा हूँ? नहीं उठता?

श्रोता: इसके अलावा मैं कुछ कर भी नहीं सकता क्योंकि जॉब तो करनी ही है।

आचार्य: तो मतलब। ठीक है फिर।

श्रोता: आचार्य जी, यदि मैं अपनी ज़िम्मेदारियों को छोड़कर अकेली मुक्ति की ओर बढ़ती हूँ, तो क्या ये अपनों के प्रति हृदयहीनता नहीं होगी?

आचार्य: आप अभी भी केयर के नाम पर क्या करते हो? केयर का मतलब होता है दूसरे की भलाई। चूहेदानी के भीतर चूहों का कुनबा है। उनकी क्या भलाई की जा सकती है? जल्दी बताओ।

श्रोता: कि वो बाहर निकलें।

आचार्य: कि वो बाहर निकलें। तुम जिसकी भी भलाई करती हो और भलाई के नाम पर जो जो करती हो उसमें उनकी मुक्ति निहित है क्या? बताओ। ये जो तुम बोलते हो कि आइ एम केरिंग फॉर सच एंड सच पर्सन , (मैं इन-इन लोगों का ख़याल रख रही हूँ), तुम केयर के नाम पर उनको चूहेदानी में और क्या क़ैद रख रहे हो या चूहेदानी से आज़ाद कर रहे हो? पर जब तुम्हें यही नहीं पता कि तुम्हारे लिए क्या अच्छा है। जब तुम सेल्फ़ केयर ही नहीं जानते, तो तुम्हें ज़ाहिर सी बात है ये भी नहीं पता कि दूसरों के लिए क्या अच्छा है। जब तुम ख़ुद क़ैद हो चूहेदानी में और तुम्हें बाहर निकलने की कोई तलब ही नहीं, तो फिर तुम वो दूसरा जिससे संबंधित हों जिससे तुम्हारा प्यार का दावा है, उसको भी कभी बाहर निकलने का तोहफ़ा देने की सोचते भी नहीं।

ये ऐसी बात है कि जहाज़ डूबने वाला है और डूबते जहाज़ से बच निकलने के साधन उपलब्ध हैं। छोटी नौकाएँ तैयार हैं। मेहनत करने वाला चाहिए जो नौकाओं को समुद्र में उतारे। और फिर मेहनत से उनको खेकर के किनारे पर आ जाए। लेकिन तुम्हें अपने लिए नौकाओं का कुछ पता नहीं, तुम दूसरों को भी कैसे प्रेरणा और प्रोत्साहन दोगे कि चलो बचो ये जहाज़ डूब रहा है। तुम क्या कर रहे हो केयर के नाम पर? ‘जानेमन मैं तुम्हारे लिए गुलाब के फूल लाया हूँ’, जहाज़ डूब रहा है। और जहाज़ की डेक पर खड़े होकर तुम जानेमन की चुम्मी ले रहे हो और उसे गुलाब का फूल दे रहे हो, ये तुम्हारी केयर है। और एक वृद्धजन हैं, उनको ले जा करके तुम सेब दे रहे हो। ‘डैडी सेब खाइए आपका कोलेस्ट्रॉल बढ़ा हुआ है।’ अरे, जहाज़ डूब रहा है। डैडी भी डूबेंगे और ये सेब भी डूबेगा।

पर जब तुम ख़ुद ही आतुर नहीं हो इस डूबते जहाज़ से कूदकर भागने को तट पर सुरक्षित जाने को तो तुम जिनकी देखभाल भी करते हो तुम देखभाल के नाम पर अधिक-से-अधिक तुम उन्हें सेब दे देते हो, सेब खाओ।

जब टाइटैनिक डूब रहा था तो नायक ने नायिका को केलों का एक अदद गुच्छा भेंट किया? ‘ये मेरे प्यार की निशानी, प्रिये। तुम केले खाओ। क्योंकि अब मैं तो रहूँगा नहीं।’ अगर प्रेम था तो उस पिक्चर के नायक ने क्या किया था अपनी प्रेमिका के लिए? उसे केला दिया था या मुक्ति दी थी? पिक्चर नहीं देखी क्या?

श्रोता: उसको बचाकर स्वयं डूब गया था।

आचार्य: हाँ, ये केयर कहलाती है। ये थोड़े ही है कि जाकर उसे केला दे आये कि जहाज़ डूब रहा है, तू केला ले। यह तुम्हारी केयर है और कुछ करती हो केयर के नाम पर? (श्रोतागण हँसते हैं)

‘डैडी जी , मॉर्निंग का केला, डैडी जी दोपहर का सेब लो।’ ये तुम्हारी केयर चल रही है। और डैडी के मन में आग लगी हुई है, नाक और कान से धुआँ निकल रहा है उसकी तुम्हें कोई परवाह नहीं। तुम्हारी पूरी केयर इतनी है कि इनको समय पर दवाइयाँ दे दो। और इनको सेब केला दे दो। तुम्हारे लिए तो पिक्चर भी यही बननी चाहिए बिलकुल। दूसरा टाइटैनिक बनेगा — ‘डूबता जहाज़ और केला बाज़ी।’

फिर कहानी भी कौन सुनाएगा? वो कहानी भी सुनाने के लिए जब प्रियतमा बची रह गई थी तो पिक्चर बनी। ये ही तो था। न तुम बचते हो, न तुम्हारे प्रियजन बचते हैं। ऐसी है तुम्हारी केयर। ‘जानेमन हम तो डूबेंगे, तुम्हें भी डुबोएँगे केला खिला-खिलाकर।’

केले बुरे नहीं हैं, पर जब जहाज़ डूब रहा है तब केलो का क्या काम बच्चे? सबकुछ अच्छा चल रहा हो तो तुम्हारे केले शोभा दें। अभी सबकुछ अच्छा चल रहा है? और तुम्हारी ज़िन्दगी में सेब और केले से बढ़ के कोई मुद्दा ही नहीं है। तुम्हारी हालत ऐसी है कि टाइटैनिक का टिकट कटाया था। और एक उसमें सवारी थी जिसके दस रूपये बाक़ी रह गये थे। टाइटैनिक में भी कोई कंडक्टर रहा होगा मान लो। तो कंडक्टर दस रूपये लिखकर बैठा हुआ था और उसने टिकट के पीछे लिख दिया था दस रूपये, जैसा हिन्दुस्तान में होता है कि बाद में आकर दस रूपये ले जाना, ये तुम्हारा टिकट के पीछे लिख दिया है दस। अब जब देखा कि टाइटैनिक डूब ही रहा है तो सेठजी ढूँढ रहे हैं कंडक्टर को कि दस रूपये चाहिए और डूब रहा था कंडक्टर। गले तक डूब चुका था। उसने उसको पकड़कर बाहर निकाला सेठ जी ने कहा, ‘तू डूब कहाँ से रहा है ससुरे? दस रूपये, दस रूपये दो।’ (श्रोतागण हँसते हैं)

ये तुम्हारी केयर है। तो उसने एक भीगा हुआ सड़ा हुआ नोट निकालकर सेठ जी को दिया और कहा, ‘ये आपके दस रूपये। सेठ जी ने कहा, अब ठीक है। जा, ठीक है। तुझे मैंने जल देवता को समर्पित किया। “वरुणाय नमः”।’ ये तुम्हारी केयर है।

सारी समस्या ये है कि पिक्चर में टाइटैनिक दो घंटे में ससुरा डूब ही गया था पूरा। तुम्हारा शनैः-शनैः (धीरे-धीर) डूब रहा है तो तुम्हें पता ही नहीं चलता। ज़रा फास्ट फॉरवर्ड में सबकुछ हो जाए तो तुम्हें कुछ पता भी चले। सब धीरे-धीरे हो रहा है इसलिए तुम्हें धोखा बना रहता है कि समय अभी बहुत है। ‘कोई बात नहीं अभी तो जवान हैं।’ देखते हैं बेटा कितने दिन जवान रहते हैं।

प्रेम और केयर का मतलब समझ लो अच्छे से। जिससे प्यार करते हो उसको डूबते जहाज़ से बचा लो। उसको फूल मत दो, उससे मीठी-मीठी बातें मत करो। टाइटैनिक को याद करो क्या करा था नायक ने। न उसने फूलों का तोहफ़ा दिया था न मीठी-मीठी बातें करी थी ख़ुद मर गया था। उस लड़की को बचा गया था। ये केयर कहलाती है।

जिससे प्रेम करते हो उसे मुक्ति दो। और कुछ प्रेम होता ही नहीं। ये थोड़े ही है कि हमें प्रेम तुमसे इतना है डार्लिंग कि हमारे पीछे पीछे तुम भी चली ही आना। पूरे गाँव को बोल गये हैं कि इसको सती कर देना। वहाँ अकेले हमारा जी नहीं लगेगा।

पुराने जमाने में जो राजा वगैरह होते थे मिस्र में, ईजिप्ट में उनके जब मकबरे, ताबूत सब खोले जाते हैं तो उसमें राजा ही भर नहीं मिलता। उसमें राजा मिलेगा, राजा के पसंदीदा पकवान मिलेंगे, राजा के पसंदीदा वस्त्र मिलेंगे, राजा के पसंदीदा पालतू पशु-पक्षी मिलेंगे, और उसमें राजा की पसंदीदा रानियाँ मिलेंगी। ये राजा का प्रेम था कि हम जब मरें तो हमारे साथ ये जो चार हैं, इनको हमारे ही साथ दफ़न कर देना।

‘वो तोता बहुत जिगरी है हमारा।’ और वो तोता सुन रहा है तोता आँख फाड़कर कि क्या-क्या-क्या कह रहे हो कौन जिगरी है तुम्हारा? हमें तुम फूटी आँख नहीं सुहाते। हमारे बारे में कुछ मत बोलो। (श्रोतागण हँसते हैं)

अब तोते की सुने कौन? यहाँ बुढ़ऊ उड़े। और वहाँ तोते ने सर धुना कि लो। अच्छा होता कि हम दो टूक इनको बता ही देते कि इनसे नफ़रत करते हैं।

श्रोता: आचार्य जी, फिर आत्मा और प्रकृति का मिलन इसलिए होता है ताकि आत्मा को मुक्ति मिल सके?

आचार्य: आत्मा का किसी से मिलन नहीं होता। आत्मा असंग है। आत्मा कभी किसी से मिलती नहीं।

श्रोता: जैसे मेरी प्रकृति या मैं..

आचार्य: तो तुम जाकर मिल गये हो शरीर से, प्रकृति से आत्मा किसी से नहीं मिलती। आत्मा को मिलने-जुलने से कोई सरोकार नहीं है। वो अपने में मस्त है।

तुम इधर उधर मारे मारे फिरते हो, कभी इससे मिलते हो, कभी इससे नाता जोड़ते हो, कभी उससे सम्बन्धित हो जाते हो। तुम द्वार-द्वार खटखटाते फिरते हो, ये मिल जाए, वो मिल जाए, आत्मा को कोई मतलब नहीं है इन सब से।

श्रोता: ये तुम कौन है?

आचार्य: (प्रश्नकर्ता की ओर इशारा करते हुए) उसे सिर्फ़ उसके आचरण द्वारा कर्मों द्वारा जाना जा सकता है।

श्रोता: तो क्या आत्मा एक ही होती है?

आचार्य: एक भी नहीं होती है।

श्रोता: अद्वैत

आचार्य: बाक़ी तो आपकी कृपा पर हैं। आप डुप्लिकेट (नक़ली) कितना भी खड़ा कर दो।

श्रोता: हम अपने को कैसे जानें?

आचार्य: अपनी हरकतें देखकर। अभी तो बताया अपने आचरण को देखो अपने कर्मों को देखो समझ में आ जाएगा कि तुम कौन हो।

श्रोता: वो तो शरीर कर रहा है।

आचार्य: शरीर से तुम करवा रहे हो, शरीर को छोड़ दो तो शरीर ये सब थोड़े ही करेगा।

श्रोता: मन

आचार्य: ठीक है। उसको जानोगे कैसे? म और न बोल देने से ऐसे परिचय थोड़े ही हो गया। तुम कौन हो ये जानने के लिए देखो कि क्या कर रहे हो? तुम वो हो जो जगह जगह शान्ति तलाश कर रहा है और उसे मिल नहीं रही। कुछ प्रेत किस्म की वस्तु हो तुम। कहते है न भटकता भूत। कभी इस पेड़ से लटकता है, कभी उस पेड़ से लटकता है उसे कुछ चाहिए जो उसे हासिल नहीं हो रहा है। वो हो तुम। कभी इस कम्पनी में नौकरी करी, कभी वहाँ जाकर कुछ आजमाया, कभी इस छोकरी को पकड़ा, कभी उस छोकरे को पकड़ा, कभी इस घर में आये, कभी ये कपड़ा पहना, कभी वो कपड़ा पहना, कभी ये मुद्दा छेड़ा, कभी यहाँ घूमकर आये, कभी वहाँ जा के घर बसाया, यही सब तो कर रहे हो और क्या कर रहे हो जीवन में?

सदा तुम्हें किसी नयी चीज़ की, किसी अप्राप्त वस्तु की तलाश बनी रहती है। वो हो तुम। अपनी हरकतों को देखो, समझ जाओगे कि तुम कौन हो। प्रेत हो प्रेत। न आत्मा, न शरीर।

श्रोता: आचार्य जी, प्यासे के लिए क्या उचित है?

आचार्य: जो उसे चाहिए वो उसे मिल जाए। कुछ ऐसा उसे करना होगा कि जो उसे चाहिए वो उसे मिल जाए। अरे, प्यासे के लिए सही कर्म क्या है? जहाँ पानी हो सीधे उधर को जाओ न। ये गोल-गप्पे क्या खा रहे हो? और प्यासा कभी आता है पूछने मेरे लिए सही कर्म क्या है? उसको पता है प्यास लगी है तो एक ही वस्तु चाहिए। तुम वो जिसे लगी है प्यास और पी रहा है पेट्रोल।

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