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शारीरिक आकर्षण तो रहेगा || आचार्य प्रशांत
Author Acharya Prashant
Acharya Prashant
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आचार्य प्रशांत: लड़की-लड़का साथ रहेंगे, तो उसमें एक सेक्सुअल डायमैन्शन (यौन आयाम) हमेशा रहेगा। इस बात को न नकारने से कोई फ़ायदा है, न इस बात का विरोध करने की कोई ज़रूरत है। ठीक है?

हाँ, अब आपको क्या करना है, आपको याद रखना है कि आप कौन हो, आप सारी सेक्सुअलिटी (कामुकता) के होते हुए भी उसके केंद्र में एक चेतना हो, देह नहीं। ठीक है?

आपकी देह हो सकती है महिला की हो, लेकिन चेतना तो मुक्ति चाहती है न। वो पुरुष होने से भी मुक्ति चाहती है और स्त्री होने से भी मुक्ति चाहती है।

चेतना को पसन्द ही नहीं है कि उसके ऊपर कोई भी पहचान थोपी जाए। आपने चेतना पर पहचान थोप रखी है, वुमन। वुमन चेतना छटपटाती है, कहती है, 'क्यों वुमन बनकर जीना है?'

चेतना को आपने बोल दिया है, 'अमीर-अमीर या गरीब-गरीब, या कुछ भी बोल दिया है। चेतना को किसी भी तरह की पहचान, आईडेंटिटी , परिचय पसन्द ही नहीं है। उसे मुक्ति चाहिए, हर चीज़ से मुक्ति चाहिए। ठीक है?

तो ये याद रखते हुए दोस्ती करनी है। साथ में लेकिन, आप कर लो दोस्ती, आपका इरादा भले ही ये है कि मुक्ति चाहिए। लेकिन दोस्ती करने तो ये शरीर ही गया न। इस ही को लेकर गये हो न?

अपना परिचय देंगी, मैं ये हूँ, ये मेरा नाम है, वो भी अपना परिचय देगा, ये मेरा नाम है। अब वो नाम में ही आपका जेंडर (लिंग) भी आ गया तो क्या करोगे?

यही जो प्रश्न है, ये समूचे दर्शन का, फ़िलोसोफ़ी (दर्शन) का केंद्रीय विषय है। चेतना में और प्रकृति में — प्रकृति माने समझ लो शरीर — चेतना में और प्रकृति में सही सम्बन्ध क्या रखना है? क्योंकि एक ओर चेतना को प्रकृति से मुक्ति चाहिए, दूसरी ओर चेतना प्रकृति के बग़ैर कहीं अकेले घूम-फिर भी नहीं सकती।

आप ये कर सकतीं हैं क्या कि एक लड़के से मिलने जा रही हूँ, तो शरीर घर पर छोड़ दिया, चेतना वहाँ पहुँच गयी, सामने बैठ गयी। अब आप, चेतना को भी जहाँ जाना है, वो आश्रित तो शरीर पर ही है।

आप उसके सामने बैठेंगी, आप जो भी बात कर रही हैं, लेकिन सामने उसका शरीर है, इधर आपका शरीर है और शरीर है तो शरीर अपनी हरकतें भी करेगा। और उसकी हरकतें सिर्फ़ बाहर ही नहीं होतीं, भीतरी भी होती हैं।

शरीर है तो चेतना को भी प्रभावित करता है। हमारी मुक्त चेतना तो है नहीं। हमारी चेतना तो हमारी देह से प्रभावित रहती है। ठीक है।

तो क्या करना है?

दुनियाभर के जितने दर्शन हैं — विशेषकर भारतीय दर्शन — सबने इस प्रश्न पर बहुत गहराई से गौर किया है। पुरुष में और प्रकृति में — पुरुष माने यहाँ पर चेतना, पुरुष माने मेल (आदमी) नहीं — चेतना में और प्रकृति में सही सम्बन्ध क्या होना चाहिए?

तो उनमें (दर्शनों में) आपस में बड़े मतभेद रहे हैं। किसी ने एक तरह की बात करी, किसी ने दूसरे की बात करी। लेकिन एक बात पर सबमें सहमति रही है। क्या? बोले, 'प्रकृति से मुक्ति तो चाहिए, क्योंकि मुक्ति नहीं मिलती, तो बड़ी तकलीफ़ है। लेकिन वो मुक्ति प्रकृति के माध्यम से ही मिलेगी।'

ये हुई बात! जिससे मुक्ति चाहिए, उस ही के माध्यम से मिलेगी।

तो सेक्सुअलिटी (कामुकता) से मुक्ति भी, सेक्सुअलिटी के माध्यम से ही मिलेगी। तो कोई पुरुष है, जिससे आपको मित्रता करनी है, आप ये कामना या ये उम्मीद नहीं रख सकतीं कि आप उससे बहुत मित्रवत् हो जाएँगी।

लेकिन, रिश्ते में कोई सेक्सुअल ऐंगल (यौन कोण) नहीं रहेगा? रहेगा, बिलकुल रहेगा। लेकिन वो जो दूसरा पुरुष है, वो वैसा चुनिए कि सेक्सुअल ऐंगल के रहते हुए भी वो आपको धीरे-धीरे सेक्सुअलिटी से आज़ादी की तरफ़ ले जाए। आप ये कर सकते हैं।

ये बिलकुल तनी रस्सी पर चलने जैसी बात है, बड़ा मुश्किल है। क्योंकि सेक्सुअलिटी ऐसी चीज़ है जो दलदल जैसी भी हो सकती है कि एक बार उसमें कदम रखा तो फिर धँसते ही चले गये।

लेकिन जिन्होंने जाना है, उन्होंने कहा है, 'देखो, उससे बच नहीं सकते, अवोएड (टालना) तो कर नहीं सकते। हाँ, उसको चैनलायज़ (दिशा देना) कर सकते हो। साथी तो तुम चुनोगे।

तुम्हारे भीतर जो, जो ये बैठा हुआ है, देह और ये पशु, और ये प्रकृति, ये तुमको मजबूर कर देगा। तुम्हें जाना तो पड़ेगा ही किसी विपरीत लिंगी की ओर।

लड़की हो तो लड़के की तरफ़ जाओगे, लड़के हो तो लड़की की तरफ़ जाओगे। और जब जाओगे, तो उसमें तुम्हारा छुपा या प्रकट इरादा, सेक्सुअल (कामुक) ही होगा। पाखंड करने की कोई ज़रूरत नहीं है, साफ़-साफ़ मान लो।

जब एक लड़की लड़के की ओर जाती है, जब एक लड़का लड़की की ओर जाता है, तो उसमें कहीं-न-कहीं, एक छुपी हुई सेक्सुअल भावना होती है। ये कोई पाप नहीं हो गया। ये बात प्राकृतिक है, ये बात शरीर की है।

तो जानने वालों ने फिर क्या समझा, उन्होंने कहा, 'ठीक है, तुम्हें जाना ही है किसी लड़के की ओर, तो कम-से-कम ऐसे लड़के की ओर जाओ, भले ही सेक्सुअल मोटिव (कामुक उद्देश्य) से जा रहे हो, पर ऐसे लड़के की ओर जाओ, जो धीरे-धीरे तुमको उस सेक्सुअलिटी (कामुकता) के पार ले जाए।

खोजनी ही है कोई लड़की तो ऐसी खोजो न, जो भले ही देह से लड़की दिखती हो, पर एक मुक़ाम पर आकर तुम्हें देह से जितना ज़्यादा हो सके, उतनी आज़ादी दिला सके।

समझ रहे हो बात को?

लेकिन ये काम मुश्किल होता है। मुश्किल होता है इसीलिए इसमें बहुत कम लोग इसमें सफल हो पाते हैं। लेकिन फिर भी काम क्या है, वो मैंने आपको बता दिया।

ये तो सब छोड़ दीजिए कि मेरी एक महिला मित्र है, लेकिन मेरे लिए वो पुरुष बराबर है। अगर आपकी महिला मित्र है, जिनसे आप पुरुष जैसा ही बर्ताव कर रहे हो, तो आप अपनी मित्र के साथ भी अन्याय कर रहे हो। क्योंकि वो पुरुष नहीं है। वो महिला हैं।

थोड़ा देख समझकर उनसे व्यवहार करो। एक महिला के साथ आप वही व्यवहार नहीं कर सकते जो एक पुरुष के साथ किया जाता है।

यही बात महिलाओं पर लागू होती है। आपके जीवन में जो भी पुरुष है, वो आपकी सहेली नहीं है। आप सहेलियों के साथ पचास तरीक़े की बातें करेंगी, ये करेंगी, वो करेंगी। वो बातें आप पुरुषों के साथ करेंगी, पुरुष भिनभिना जातें हैं।

कहते हैं, 'क्या बोल रही है, क्यों बोल रही है, जो बात है, सीधे बोल न।' उनको नहीं समझ में आता। लेकिन लड़कियों को ये रहता है कि ये मेरी सहेली बन जाए।

और बन्दे बोलते हैं कि लेट हर बी वन ऑफ अस, गाइज़ (उसे हम लोगों में से एक बनने दो)।' वो गाय (लड़का) नहीं बन सकती। वो लड़की है। समझो। तुम कितनी भी कोशिश कर लो।

तुम उसे, तुम उसे सिगरेट पिला दो, तुम उसे लड़कों के परिधान पहना दो। ठीक है। तुम सब कुछ उसका वैसा ही कर दो, व्यक्तित्व में — जैसा कि पुरुषों का होता है, वो तो भी लड़का नहीं बन सकती।

और ये, न तो लज्जित होने की बात है, न इसमें कोई पाप या अपराध हो गया। हम ऐसे हैं। हम गर्भ से ऐसे ही पैदा होते हैं! इसमें कोई घबराने, शर्माने की बात नहीं है।

पुरुष अगर आँसू बहा दे तो उसका एक मतलब होता है। महिला अगर आँसू बहा रही है तो उसका दूसरा मतलब होता है। अब एक छवि अगर बना ली कि आँसू माने ये, तो फँस जाओगे। अन्याय कर दोगे।

बात आ रही है समझ में?

मीरा को ही देखो न। बहुत आगे निकल गईं अध्यात्म में, लेकिन अभी भी श्रीकृष्ण को कह क्या रहीं हैं, पति ही तो कह रहीं हैं। वो जो स्त्री बैठी है, उससे थोड़ी मुक्त हो पाईं।

पर उन्होंने ये कहा कि चलो, स्त्री हूँ, तो पति चाहिए। लेकिन फिर पति श्रीकृष्ण बराबर ही चाहिए। और अगर श्रीकृष्ण मुझे इधर, अपने आसपास, अपने राज्य में, घर-परिवार में नहीं मिल रहे हैं, तो दूर वाला ही सही।

श्रीकृष्ण को पति बनाया ये बात तो ठीक है, पर इस बात पर भी गौर करिए कि श्रीकृष्ण को पति ही बनाया, सहेली नहीं बनाया। क्योंकि सहेली नहीं बना सकतीं, क्योंकि महिला हैं। महिला को पुरुष चाहिए।

तो महिलाओं को पुरुष चाहिए होगा, पुरुषों को महिलाएँ चाहिए होंगी। जब पुरुष चाहिए हों, तो मीरा का याद कर लो कि श्रीकृष्ण चाहिए। पुरुष तो चाहिए लेकिन श्रीकृष्ण से नीचे वाला नहीं।

जब महिला की ज़रूरत पड़े तो भी आप यही याद कर लीजिए कि ठीक है, महिला तो चाहिए, क्योंकि देह की यही पुकार है, महिला चाहिए। महिला चाहिए, लेकिन फिर कोई ऐसी नहीं चलेगी ऐरी-गैरी, नत्थु-खैरी। एकदम होना चाहिए, एक स्तर होना चाहिए। उससे नीचे हम हाथ नहीं रखेंगे।

हम सेक्सुअलिटी को समझते नहीं हैं। हम सेक्सुअलिटी को जीवन का एक छोटा सा हिस्सा मानते हैं। ये ही करते हैं न हम।

किसी से आप मिलते हैं तो उससे ऐसे पूछेंगे, 'सो, हाव इज़ योर सेक्स लाइफ़ (आपकी सेक्स लाइफ़ कैसी है)?' सेक्स लाइफ़ माने कुछ नहीं होता। लाइफ़ इज़ सेक्स (जीवन सेक्स है)। सब कुछ सेक्सुअल ही होता है। सब कुछ।

जो सड़क की परिभाषा है सेक्स की, वो एक ऐक्ट की है, एक कृत्य, एक घटना। वो घटना जब घट जाती है, वो कृत्य जब होता है तो आप कहते हो, सेक्स हुआ। नहीं।

जिन्होंने जाना है, मनीषी हैं, मनोवैज्ञानिक हैं, आप उनसे पूछेंगे, तो वो कहेंगे, 'एव्रीथिंग इज़ सेक्सुअल राइट फ्रोम बर्थ टिल डेथ (सब कुछ कामुक है जन्म से लेकर मृत्यु तक)। एग्ज़िस्टेन्स इट्सेल्फ़ इज़ सेक्सुअल (अस्तित्व स्वयं कामुक है)।'

नब्बे वर्ष का एक व्यक्ति भी सेक्सुअल है। दो महीने का एक बच्चा भी सेक्सुअल है। खाना भी सेक्सुअल है, साँस लेना भी सेक्सुअल है। यहाँ तक कि आप जिनको धार्मिक कृत्य बोलते हैं — सुनने में अटपटा लगेगा — वो भी सेक्सुअल ही हैं। बस वो प्रच्छन्न सेक्सुअलिटी है।

एक शब्द होता है — मुमक्षा के विपरीत होता है — जिजीविषा। जिजीविषा माने क्या होता, जीने की इच्छा। अध्यात्म में जिजीविषा ही कामुकता है। ये जो जीने की इच्छा है न, हाँ, मूल कामुकता इसी में निहित है।

यही लिबीडो (कामलिप्सा) है। द लिबिडिनस अर्ज टू कैरी ऑन, लिव ऑन। (जारी रखने के लिए कामेच्छा सम्बन्धी आग्रह, जीवित रहना)। एग्ज़िस्ट फॉरएवर (हमेशा के लिए अस्तित्व में रहना)।

इस से छूटकर कहाँ जाओगे और क्यों जाना है। भारत इस मामले में बड़ा बेहिचक रहा है। भारत ने कभी सेक्स को, न तो त्याज्य समझा, न अपमान की वस्तु समझा।

कहा, 'ये तो है। उसको छुपाना, दबाना क्या है?' क्यों, क्योंकि भारत में गहराई रही है, भारत में समझ रही है। जो हल्के लोग होते हैं और नासमझ, वो जैसे कुछ नहीं समझते, वैसे ही सेक्स को भी नहीं समझते।

हमने सब समझा है। हमें कोई आवश्यकता नहीं थी कि जीवन की ये जो बिलकुल केंद्रीय बात है, हम उसकी उपेक्षा करें या पर्दा डालें।

आपने अपने अवतारों की मूर्तियाँ देखीं हैं, वो कैसी हैं, सब सुन्दर, सब देह से आकर्षक। कुछ नहीं, बात स्पष्ट है।

आपने अपनी देवियों की मूर्तियाँ देखीं हैं। हमने अपने अवतार, अपनी देवी, अपने देवता कभी वृद्ध दिखाएँ हैं अस्सी साल के? सब युवा और सब अति आकर्षक। छुपाने की क्या बात है, ऐसा ही है। ऐसा ही है।

देवियों को हम माँ बोलते हैं। माँ तो किसी भी आयु की हो सकती है। पर हमने उनको माँ बोलकर भी बहुत युवा दिखाया है। ये बात भारत के बोध की गहराई का द्योतक है। ठीक है।

तो मैंने दो बातें कहीं। पहली, लड़की-लड़के में वैसी दोस्ती नहीं हो सकती जैसी लड़के-लड़के और लड़की-लड़की में होती है। वहाँ तो जब भी आप मित्रता वगैरह करोगे, तो उसका एक नया प्रकार होगा।

और किसी भी तरह की मित्रता में, कैसे भी सम्बन्ध में, सेक्सुअलिटी तो होगी-ही-होगी। वो अनिवार्य है, उससे आप पीछा नहीं छुड़ा सकते।

तो फिर हमें करना क्या है, हमने कहा, ‘सही सलेक्शन (चुनाव) व चैनलायज़ेशन (दिशा निर्देशन)। किसके साथ हो, किसकी संगति में जा रहे हो, उसका चयन ठीक होना चाहिए।

बड़े ही विवेक से होना चाहिए और जिसके भी साथ जा रहे हो, उसके साथ अपने सम्बन्ध को दिशा क्या देनी है, इसमें बड़ा अनुशासन और बड़ी सजगता होनी चाहिए। तो चयन, सलेक्शन और चैनलायज़ेशन। ठीक है।

सेक्स से नहीं बच सकते, उसको बस चैनलायज़ (दिशा देना) कर सकते हो।

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