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सनातन धर्म को बचाना हो, तो एक सीधा उपाय || आचार्य प्रशांत, बातचीत (2022)
Author Acharya Prashant
Acharya Prashant
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प्रश्नकर्ता: मेरा एक सवाल आपसे है आचार्य जी कि आज कि समय में कौन असली हिन्दू है? उसके बारे में आप मुझे ज़रा बताइए। किसको मैं असली हिन्दू बोलूँ?

आचार्य प्रशांत: जो मुक्ति मात्र को जीवन का लक्ष्य बनाता है, वेदान्त में दीक्षित है वो हिन्दू है। उनके अलावा जो अपनेआप को हिन्दू बोलते हैं, कोई नहीं हिन्दू हैं। मैं जहाँ से देखता हूँ, इस समय भारत देश में अगर हज़ार भी हिन्दू हों, तो बहुत बड़ी बात है। भारत देश में इस समय एक हज़ार भी हिन्दू नहीं होंगे और तुर्रा ये कि हिन्दू लोग शोर मचाते हैं कि हिन्दू धर्म ख़तरे में है।

प्र: जी, मैं आपसे पूछने ही वाला था कि क्या हिन्दू धर्म सच में ख़तरे में है या कोई भी धर्म ख़तरे में है क्या?

आचार्य: हिन्दू धर्म है कहाँ जो ख़तरे में होगा? कुछ होना चाहिए न ख़तरे में होने के लिए? मैं पूछता हूँ है कहाँ? वैसे ही आप कहते हैं हिन्दू धर्म ख़तरे में है, मैं कह रहा हूँ हिन्दू धर्म है कहाँ? रीति-रिवाज़ हैं, मान्यताएँ हैं, अन्धविश्वास हैं, एक खिचड़ी सी, अधपकी सी संस्कृति है, जिसको लोग सर पर बैठाए रहते हैं। हिन्दू धर्म है कहाँ? हिन्दू होना कोई सस्ती बात होती है क्या?

हिन्दू होने के लिए बड़ी पात्रता चाहिए। ऐसे ही नहीं हिन्दू हो जाते आप कि शर्मा जी और वर्मा जी के घर में लड़का पैदा हुआ है, तो हिन्दू हो ही गया है, काहे कि बाप का नाम शर्मा है। वर्मा जी की लड़की तो हिन्दू हो ही गयी क्योंकि बाप का नाम वर्मा है। ऐसे नहीं हिन्दू हो जाते।

जन्म से तो शरीर मिलता है और शरीर तो पशुओं को भी मिलता है। जन्म से धर्म कैसे मिल सकता है? धर्म तो पाना पड़ता है और बहुत कम हिन्दू हैं; मैं कह रहा हूँ देश में अगर एक हज़ार भी निकलें, तो मुझे बड़ी प्रसन्नता होगी, राहत होगी; जिन्होंने सचमुच हिन्दू होने का सौभाग्य अर्जित किया हो। हिन्दू होना तो जैसे एक पदवी है, एक प्रशस्ति-पत्र है जो अर्जित करना पड़ता है।

कहाँ? कोई मतलब ही नहीं है। अब कोई कैसे बोलता है कि वो हिन्दू है? कहता है, ‘देखिए साहब, हम दिवाली पर पटाखे फोड़ते हैं, होली पर रंग खेलते हैं, राखी पर धागा बाॅंधते हैं, तो हम हिन्दू हैं।’ ऐसे थोड़े ही हिन्दू हो जाते हैं।

प्र: जी। तो क्या हिन्दू ख़तरे में है? उसके बारे में बताइए।

आचार्य: बहुत ख़तरे में है और अपनेआप से ही ख़तरे में है। जब आप हिन्दू पैदा ही नहीं कर रहे हैं, तो हिन्दू बचेगा कौन? घर में बच्चा पैदा होता है, हम उसको वेदान्त पढ़ा रहे हैं क्या? नहीं पढ़ा रहे हैं तो हिन्दू कहाँ बचा?

प्र: आप कोई कारण देखते हैं कि क्यों हिन्दुओं के घरों में जो है आपको वेद नहीं मिलेंगे या फिर उन्हें उपनिषदों के बारे में पता नहीं होगा?

आचार्य: क्योंकि एक संस्कृति चल रही है जो कह रही है, हिन्दू होने के लिए वेद पढ़ना ज़रूरी नहीं है। हमारे धर्म की सबसे बड़ी दुश्मन हमारी संस्कृति है और गन्दी-से-गन्दी, ख़तरनाक-से-ख़तरनाक बात ये है कि हम उस संस्कृति को पूजते हैं, हम कहते हैं, हिन्दू संस्कृति। ये जो हिन्दू संस्कृति है, यही हिन्दू धर्म की सबसे बड़ी दुश्मन है।

जिसको आप हिन्दू संस्कृति कहते हैं और आजकल तो खूब चल रहा है न सांस्कृतिक, राष्ट्रवाद, वगैरह। ये जिसको आप हिन्दू संस्कृति कह रहे हैं, यही हिन्दू धर्म को ख़त्म कर रही है। आपकी संस्कृति में ये है क्या कि वेदान्त पढ़ना चाहिए?

नहीं, आपकी संस्कृति में ये है, ‘बड़ों के पाँव छू लो, नमस्ते कर लो, सुबह नहा लो, ये कर लो, वो कर लो, जनेऊ धारण कर लो, फ़लाने काम कर लो। ये सब तो है।’

आपकी संस्कृति में वेदान्त कहाँ है? आपकी संस्कृति में जीवन्मुक्ति कहाँ है? आपकी संस्कृति में ये तो है कि दिवाली पर पटाखे फोड़ लो। इसको आप कहते हो, इट्स पार्ट ऑफ़ इंडियन कल्चर (ये भारतीय संस्कृति का अंश है)। आपकी संस्कृति में राम का योगवाशिष्ठ है कहीं पर?

राम के नाम पर आप पटाखे फोड़ते हो जो कि अभी सौ-दो सौ साल पहले की प्रथा है, बस। उसको आप कहते हो मेरा कल्चर है और कल्चर को लेकर आप बहुत एग्रेसिव (आक्रामक) हो गये हो आजकल।

कल्चर , मेरा कल्चर और राम पर मैं पूछूँ कि रामचरितमानस भी पढ़ी है? तो पता नहीं। वाल्मीकि रामायण इसलिए नहीं बोल रहा क्योंकि वो तो संस्कृत में है। रामचरितमानस तो समझ में आएगी, वो भी नहीं पढ़ी और अभी मैं और आगे पूछूँ, योगवाशिष्ठ सार? कोई मतलब ही नहीं। हिन्दू है कहाँ? हिन्दू कहाँ है?

बस यूँही घूम रहे हैं। कह रहे हैं, ‘भगवा पहन लिया है, तिलक लगा लिया है, चोटी कर ली है कि जनेऊ डाल लिया है तो हम हिन्दू हैं।’ ऐसे हिन्दू हो जाते हैं? ऐसे तो नाटक करा जाता है। भाई एक व्यक्ति जब कोई चरित्र अभिनीत करता है, रोल प्ले करता है, तो वो ये सब कर सकता है न? ये तो रोल प्लेइंग है, ऊपर-ऊपर कोई भी कर सकता है।

ये तो कोई भी कर सकता है न कि मैं ये-ये चीज़ें करता हूँ, मैं इस तरीक़े से बैठकर खाना खाता हूँ, मैं इस भाषा में बात करता हूँ, मैं तिलक लगाता हूँ, मैं ये करता हूँ, मैं वो करता हूँ, मैं फ़लानी तरह की पगड़ी पहनता हूँ, मैं फ़लानी-फ़लानी मान्यताओं में विश्वास करता हूँ।

ये सब तो ऊपरी बातें हैं, सतही बातें हैं। इनसे कोई व्यक्ति धार्मिक थोड़े ही हो जाता है। धार्मिक होने के लिए आध्यात्मिक होना पड़ता है। है न? धर्म के केन्द्र में अध्यात्म बैठा है न? कौनसा हिन्दू आध्यात्मिक है, बताइए तो? जो अपनेआप को धार्मिक बोलते हैं, विशेषकर वो तो बिलकुल ही आध्यात्मिक नहीं हैं।

जन्माष्टमी मना रहे हैं, गीता आज तक पढ़ी नहीं। जब गीता तुमने आज तक पढ़ी नहीं, तो तुम्हें कृष्ण का महत्व कैसे पता? जब तुम्हें कृष्ण का महत्व ही नहीं पता, तो तुम कृष्ण का जन्म मना किसलिए रहे हो? स्वांग है न? पाखंड है बस।

जब तुमने गीता आज तक समझी ही नहीं तो तुम्हें कैसे पता कि कृष्ण पूजनीय हैं? और जब तुम्हें पता ही नहीं कि कृष्ण पूजनीय हैं, तो तुम जन्माष्टमी काहे को मना रहे हो? किसका तुम फिर उत्सव मना रहे हो?

उत्सव तो किसी मूल्यवान के होने का मनाया जाता है न? कृष्ण का मूल्य तो गीता में निहित है। गीता मुझे बताइए कितने लोगों ने पढ़ी है? कितने हिन्दुओं ने पढ़ी है? और थोड़ा-बहुत वो जो महाभारत आती थी टीवी पर; ‘कर्मण्येवाधिकारस्ते’ उतना लोगों को पता होता है।

उससे ज़्यादा भी नहीं। कितने उपनिषद् हैं पूछ लो, नहीं पता होगा। चार उपनिषदों के नाम? नहीं पता होंगे। गीता के एक श्लोक से दूसरा श्लोक बता दो। नहीं पता होगा। अध्याय कितने हैं, नहीं पता होंगे।

एक अध्याय और दूसरे अध्याय में सम्बन्ध क्या है? नहीं बता पाऍंगे। जो तथाकथित गीता के पंडित हैं, विद्वान हैं, वो भी गीता का अनर्थ करते हैं। उनसे आप पूछ लीजिए, ‘अच्छा, ये श्लोक ये बात कह रहे हैं, वो श्लोक वो बात कह रहा है, ज़रा बताना ये दोनों बातें विरोधाभासी कैसे नहीं हैं?’ एकदम फॅंस जाऍंगे और क्रोधित हो जाऍंगे। कहेंगे, ‘देखो, ये सब प्रश्न-प्रतिप्रश्न हम नहीं देखते।’

तो हिन्दू तो सचमुच ख़तरे में है और हिन्दुओं को ख़तरा किसी बाहर की ताक़त से नहीं है, हिन्दुओं को ख़तरा अपने अज्ञान से है और उस संस्कृति से है जो ग्रन्थ पढ़ने पर ज़ोर नहीं डालती। ग्रन्थ पढ़ने पर ज़ोर नहीं है।

बस ये है कि कल्चर-कल्चर-कल्चर। और कल्चर माने क्या? पिछले सौ-दो सौ साल में जिस तरीक़े से हमारे बाप-दादा जी रहे थे, वही तो कल्चर कहलाता है। तो अगर पीछे का ही तुमको रीति-रिवाज़ चलाना है, तो सौ-दो सौ साल पहले का ही क्यों चला रहे हो? छ: सौ साल पहले का चलाओ। छ: सौ साल पहले का तुमसे झेला नहीं जाएगा, वो तुम चला नहीं पाओगे।

अहंकार है बस। सौ साल पहले दादा जी इस-इस तरीक़े से जीते थे, हमें भी वैसे ही जीना है। बस ये कल्चर है, कुल मिलाकर के संस्कृति माने इतना ही। ठीक? हमारे दादा और परदादा जैसे जीते थे, उसके पीछे नहीं जाऍंगे। वैसे हमको जीना है। क्यों? क्योंकि सच्चाई से डर लगता है। परम्परा में, मान्यता में, प्रथा में सुरक्षा की भावना आती है, डर कम हो जाता है।

ये सब चल रहा है भारत में। हिन्दू धर्म तो सचमुच ख़तरे में है और उसको अगर बचाना है, तो तरीक़ा तो उपनिषद् और गीता ही हैं, अन्यथा तो नहीं बचने का।

प्र: हमने यहाँ पर बात करी हिन्दू धर्म के बारे में कि हिन्दू धर्म को जो है ख़तरा है या नहीं है, हमने उस बारे में भी बात करी। मैं आपसे ये जानना चाहूँगा कि आज के हिन्दुओं को क्या ऐसा करना चाहिए कि वो अपने धर्म से दोबारा जुड़ सकें?

आचार्य: स्वीकार करना चाहिए कि उपनिषद्, गीता उनके केन्द्रीय धर्मग्रन्थ है। गीता को बहुत गम्भीरता से लेना होगा। अगर सभी सात सौ श्लोक नहीं तो कम-से-कम चुनिंदा पचास-सौ श्लोक स्कूल के समय में ही पढ़ाने होंगे। नौवीं-दसवीं, ग्यारहवीं-बारहवीं, यहाँ पहुँचते-पहुँचते मन इतना परिपक्व होने लगता है कि गीता का आरम्भिक ज्ञान उसको दिया जा सकता है।

इसी तरीक़े से वेदान्त समझने के लिए ज़रूरी नहीं है कि सारे उपनिषद् ही पढ़ाये जाऍं। जो प्रमुख श्लोक हैं और महावाक्य हैं, लगभग ऐसे पचास वाक्यों की और श्लोकों की और श्लोकों के अंशों की एक सूची बनायी जा सकती है और वो अनिवार्य होनी चाहिए, सब भारतीयों के लिए। और मैं ये नहीं कह रहा हूँ सब हिन्दुओं के लिए। सब भारतीयों के लिए।

क्योंकि उसमें जो बात है, वो मूलतः धार्मिक है, उससे फिर धर्म को ख़तरा कैसे हो सकता है? कोई बोले कि मैं किसी और धर्म का हूँ या मज़हब का हूँ, इस वजह से मुझे उपनिषद् से ख़तरा है। ये बात बिलकुल भी ठीक नहीं है। तो ये जो शिक्षा है, अन्दरूनी, भीतरी शिक्षा, स्वयं की शिक्षा जीवन-शिक्षा; ये सभी के लिए अनिवार्य होनी चाहिए। और इतना ही पर्याप्त है। ये खुशख़बरी है, इससे बहुत ज़्यादा नहीं करना है।

मनुष्य का सबसे बड़ा दुश्मन झूठा ज्ञान होता है और झूठे ज्ञान की काट होता है, आत्मज्ञान। तो आत्मज्ञान अगर आठवीं-नौवीं से शुरू करके कॉलेज के वर्षों तक मिला है किसी छात्र को, छात्रा को तो फिर जीवन में उसके भटकने की सम्भावना बहुत कम हो जाती है। जीवन भटके नहीं, मुक्ति की अपनी मन्ज़िल की ओर लगातार बढ़ता रहे, इसी को तो धर्म कहते हैं न?

तो धार्मिक शिक्षा का अर्थ ही है, जीवन को भटकाने वाली वृत्तियों की शिक्षा देना और वो सब बातें मैंने कहा कि गीता के माध्यम से, सन्तवाणी के माध्यम से, उपनिषदों से और बहुत सारे अन्य वेदान्त विषयक ग्रन्थ हैं, जैसे अवधूत गीता, अष्टावक्र गीता, ऋभु गीता इनके माध्यम से बहुत आसानी से दी जा सकती है। और बस इतना बदलाव कर दिया जाए, बहुत चीज़ें बदल जाऍंगी।

प्र: हमने बात करा कि द्वैत में किस तरह से परमात्मा और जीव के बारे में बात की जाती है कि एक ऊपर है जिसने सृष्टि को रच दिया, लेकिन अद्वैत में ऐसा कुछ नहीं। तो मैं यहाँ पर आपसे पूछना चाहूँगा, आचार्य जी, क्या आप भगवान में विश्वास रखते हैं?

आचार्य: ब्रह्म सत्य है। ब्रह्म को आप भगवान का नाम देना चाहते हैं, कोई समस्या नहीं है। पर किसी छवि को दुनिया से सम्बन्धित, किसी भी तरीक़े से दुनिया से सम्बन्धित किसी कहानी को आप भगवान का नाम देना चाहते हैं, तो वो बात बचपने की, बालक बुद्धि की बात है। ब्रह्म सत्य है।

देखिए, चेतना का खेल है ये सारा। ठीक है? चेतना जब अशुद्ध होती है तो व्यक्ति को पचास तरीक़े की चीज़ें भी दिखती हैं और उन चीज़ों में सार्थकता भी दिखती है। शुद्ध चेतना को ही ब्रह्म कहते हैं। जीवन का उद्देश्य है, चेतना को शुद्ध करना और ब्रह्मस्थ हो जाना। उसी को श्रीकृष्ण कहते हैं, “ब्राह्मी स्थिति को प्राप्त करना।”

ब्रह्म उपासना बिलकुल अलग चीज़ होती है। ब्रह्म उपासना का अर्थ होता है जो कुछ भी इन्द्रियगत और अहंकारगत झूठ हैं, मुझे वो काटना है। मुझे मात्र सत्य से प्रयोजन है, दुनियादारी से नहीं। ये है ब्रह्म उपासना।

आप ब्रह्म को भगवान कहना चाहें, तो कोई समस्या नहीं। कुछ साल पहले तक मैं गॉड (भगवान) शब्द का इस्तेमाल कर लेता था। जब मैं गॉड बोलता था तो उससे मेरा आशय ब्रह्म ही होता था। अब उसकी वजह से लोगों को थोड़ा संशय होने लग गया, तो मैंने गाॅड शब्द भी हटाया, अब मैं सिर्फ़ ट्रुथ (सत्य) बोलता हूँ।

तो अगर भगवान माने ब्रह्म या भगवान माने आत्मा, तो ठीक है। पर अगर भगवान माने सृष्टि का रचयिता वगैरह, तो साहब यहाँ ये सृष्टि ही नकली है। सृष्टि ही कौनसी है? जो चीज़ है नहीं, उसको रचने वाला कहाँ से असली हो गया?

प्र: यहाँ पर मेरा एक सवाल है आपसे कि श्रीकृष्ण और श्रीराम की बात की हमने थोड़ी देर पहले, तो श्रीकृष्ण और श्रीराम में आपको सबसे ज़्यादा प्रिय कौन हैं?

आचार्य: दोनों एक हैं। फिर हम भेद कैसे कर सकते हैं? भेद अगर कर रहे हैं तो हम उनको प्रकृति का हिस्सा बनाये दे रहे हैं न। सारे भेद, सारी विविधताऍं प्रकृति के आयाम में ही पायी जाती हैं। तो राम और कृष्ण में भी हमने अगर भेद कर दिया, तो हमने उन्हें प्रकृति का पदार्थ बना दिया।

हमने उनको भी फिर भौतिक, सांसारिक बना दिया। राम कौन हैं? आप सन्तों की बात सुनेंगे, तो वो कहेंगे, राम चार होते हैं और आम आदमी जो सबसे निचले तल के राम हैं बस उन्हीं के साथ ही सम्बन्ध बना पाता है, जो ऊँचे राम हैं, उनसे सम्बन्ध नहीं बना पाता है।

एक राम दशरथ का बेटा, एक राम घट-घट में बैठा। एक राम का सकल पसारा, एक राम त्रिभुवन से न्यारा।। ~संत कबीर

तो सबसे जो आरम्भिक तल के राम हैं, वो दशरथ के बेटे हैं, माने व्यक्ति। जो उनसे ऊपर के राम हैं, वो हैं प्रत्येक जीव के भीतर जो अहंकार होता है जो ‘मैं’ बोलता है, वो राम हैं। और फिर उनसे भी ऊपर जो राम हैं वो हैं, वो अहम् वृत्ति जो कि व्यक्तिगत अहंकार बनती है अलग-अलग जीवों में। और फिर जो वास्तविक राम हैं जो असली राम हैं, वो हैं आत्मा, सत्य मात्र।

सत्य मात्र। जो कि सबसे निराले हैं। जिनको कोई स्पर्श नहीं कर सकता जो व्यक्ति नहीं हैं, जो व्यक्तित्व नहीं हैं, जो वृत्ति भी नहीं हैं। और जिनकी कोई छवि नहीं हो सकती, जिनका कोई नाम नहीं हो सकता, जिनके बारे में कुछ कहा ही नहीं जा सकता, वो राम हैं। और यही बात श्रीकृष्ण अपने बारे में बोलते हैं गीता में कि मैं वो हूँ जो चिन्तन से परे है, जो मनन से परे है, जो इन्द्रियों से परे है, मैं वो हूँ अर्जुन।

तो कृष्ण और राम एक हो गये न। सत्य दो तो होते नहीं। राम सत्य हैं, कृष्ण सत्य हैं, तो राम और कृष्ण एक ही तो हुए। तो फिर मुझे समझ में नहीं आता, ये कौनसे लोग हैं जो कृष्ण और राम में भी भेद कर लेते हैं और तुलना कर लेते है और इसके भी गुण बता देते हैं, उसके भी गुण बता देते हैं। स्वयं बोल रहे हैं दोनों ही। आप योगवाशिष्ठ में जाइए, वहाँ आपको राम का वृत्त मिलेगा, आप भगवद्गीता में जाइए, वहाँ कृष्ण की बात।

दोनों स्वयं ही बोल रहे हैं कि भाई! हमको शरीरी ही मत मान लेना। हमको प्राकृतिक, माने सगुण मत मान लेना। हम निर्गुण निराकार ब्रह्म हैं। वो स्वयं बोल रहे हैं। अब ब्रह्म तो एक ही होता है। ब्रह्म में कहाँ से आपने भेद ला दिया? तो राम और कृष्ण एक ही हैं मेरे लिए। और सत्य से मुझे प्रेम है तो राम, कृष्ण, शिव सबसे मुझे प्रेम है।

कभी एक धुन लग जाती है तो मैं राम-राम-राम-राम बोले जाता हूँ। कभी ऐसा होता है कि महीने भर बस शिव मात्र सत्य हैं, पर मैं कभी शिव बोलूँ, कभी राम बोलूॅं, बात एक ही होती है। एक ही है जिसकी धुन लगी रहती है उसी को मन जपता है, उनमें कोई भेद नहीं करना चाहिए।

प्र: अब यहाँ पर न आपने बहुत इंट्रेस्टिंग (रोचक) चीज़ बोली कि कोई भेद नहीं करना चाहिए, दोनों में। लेकिन लोग जो हैं, ये इष्टदेवों वाला कॉन्सेप्ट लेकर आते हैं कि मेरा तो इष्टदेव जो है, ये है।

आचार्य: इष्ट माने क्या होता है? इच्छा। जो पसन्द हो।

अरे भाई! दैवीयता की पहचान ये है कि वो आपको, आपकी पसन्द और नापसन्द से मुक्त कराती है। तो ये इष्टदेव की क्या बात है? कृष्ण कहते हैं भगवद्गीता में कि तुम जिन भी देवी-देवताओं की ओर जाते हो न, वास्तव में जाते तो मुझे खोजते हुए हो। खोजते मुझे हो, फॅंस मेरी माया में जाते हो।

तुम्हारी कोई भी कामना हो, किसी भी दिशा में; किसी भी दिशा में तुम्हारी कोई भी कामना हो, वास्तव में तुम कृष्ण की ही कामना कर रहे हो। बस तुमको समझ नहीं है, बोध नहीं है, तो कामना कृष्ण की कर रहे हो, लेकिन फॅंस कृष्ण की माया में गये हो। तो इष्ट वगैरह कुछ नहीं।

बस निष्काम कर्म। और निष्काम कर्म का आधार क्या होता है? आत्मज्ञान। भीतर आत्मज्ञान है तो बाहर निष्काम कर्म है, यही कुल अध्यात्म है।

प्र: हम बात करते हैं, चार युगों की। सतयुग, त्रेता, द्वापर और कलियुग जो अभी चल रहा है। इनकी हम बात करते हैं तो इनसे कुछ कहानियाँ आप मुझे बता सकते हैं, जिनसे जनमानस जो है बहुत सारी चीज़ें सीख सके या फिर कलियुग आख़िर में है क्या? उसके बारे में बताइए।

आचार्य: नहीं ये चारों युग अपनेआप में बस एक कहानी हैं। युग वगैरह कुछ नहीं होता।

बोलते हैं, सतयुग सत्रह लाख अट्ठाईस हज़ार साल था। वो पैलियोलिथिक एज (पुरापाषाण काल) था, प्रागैतिहासिक। वो तब था जब इंसान के पास न भाषा थी, न सभ्यता थी, न संस्कृति थी। तब सतयुग कैसे हो सकता है? कौनसा सतयुग?

तो ये सब ऐसे ही हैं, बेकार की बातें। ये कहीं वेदों-उपनिषदों में वर्णित भी नहीं हैं। ये सब आप कहाँ पाते हो? ये आप पाते हो मनुस्मृति में और ये महाभारत में वर्णित है। मत्स्य पुराण में है, भागवत पुराण में है। ये इन जगहों पर ये सब बातें आती हैं। इनका जो उल्लेख है, वो आप किसी उपनिषद् में थोड़े ही पाओगे। उपनिषदों का सम्बन्ध काल की धारा से है ही नहीं। उपनिषदों का जो सम्बन्ध है, वो कालातीत से है, अकाल से है जो काल के बाहर है।

किसी ने पूछा था इसी विषय में। मैंने कहा था जो अहंकार में जी रहा है, उसके लिए कलियुग है जो सत्य में जी रहा है उसके लिए सतयुग है। सतयुग, कलियुग, त्रेता, द्वापर ये सब बाहर कैलेंडर पर घटने वाली घटनाएँ नहीं है। ये सब आपकी मनोस्थिति के नाम हैं। समय क्या है? मन ही समय है, मन ही समय है न?

प्र: जी।

आचार्य: तो ये सब युग क्या हुए? मन हुए; जब मन ही समय है, ठीक है?

काल-काल सब कोई कहे, काल न चिन्हे कोय। जेती मन की कल्पना काल कहावे सोय।। ~संत कबीर

आचार्य: तो काल बराबर मन। महानारायण उपनिषद् का है, “नाहम् कालस्य, अहमेव कालम्।” मन ही काल है। काल माने समय।

तो जितने युग हुए, युग माने भी? मन?

प्र: मन ही है।

आचार्य: हाँ, तो सतयुग माने सत मन। कलियुग माने?

प्र: काला मन।

आचार्य: कलि मन। तो जैसा मन है, वैसा युग चल रहा है। यहीं बैठे-बैठे किसी के लिए सतयुग चल रहा है, किसी के लिए द्वापर चल रहा है, त्रेता चल रहा है। जो जैसा है, उसके लिए वैसा युग चल रहा है। भई! सतयुग में अवतार हुए। हम चारों युगों के साथ चार अवतारों के सम्बन्ध बनाते हैं। ठीक है?

प्र: जी। चार अवतार।

आचार्य: अच्छा! तो राम के ही युग में हनुमान भी हैं, रावण भी है। कृष्ण के ही युग में, अर्जुन भी हैं और शकुनी भी है। कृष्ण के होने भर से युग बदल गया क्या? अर्जुन के लिए एक युग चल रहा है, अर्जुन को गीता मिल रही है। वहाँ शकुनी बैठा है, उसके लिए तो कलियुग ही चल रहा है। कृष्ण सामने हैं, लेकिन चल रहा है?

प्र: कलियुग।

आचार्य: आप ये थोड़े ही कहोगे कि द्वापर, त्रेता चल रहे हैं। कृष्ण सामने होंगे, लेकिन चल रहा है कलियुग। राम सामने होंगे, पर शूर्पणखा के लिए और रावण के लिए क्या चल रहा है?

प्र: कलियुग।

आचार्य: उनके लिए तो कलियुग ही चल रहा है न?

प्र: बिलकुल।

आचार्य: तो युग कहीं बाहर नहीं होता। ये द्वैत में बड़े-से-बड़ा भ्रम है। यही तो अद्वैत आपको समझाता है। काल यहाँ है (मन की और इशारा करते हुए), काल माने समय; यहाँ है। बाहर नहीं है। वो जो घड़ी टिक-टिक-टिक-टिक कर रही है, वो घड़ी बाहर नहीं है, वो यहाँ है।

कैलेंडर बाहर नहीं है, कैलेंडर यहाँ है। ये बात समझ में नहीं आती। ये आम अनुभव की बात नहीं है न? तो आप किसी से बोलेंगे तो वो कहेगा, ‘पागल हो गये हो क्या?’ समय तो चल ही रहा है मौसम बदल रहे हैं, दिन-महीने बीत रहे हैं, तो समय तो बाहर ही चल रहा है न? नहीं-नहीं। अध्यात्म में इसी बात को तो गूढ़ चिन्तन-मनन, निदिध्यासन-अभ्यास से समझना पड़ता है।

समय बाहर नहीं है, समय भीतर है। असल में जो बस इतनी सी बात समझ गया न कि समय बाहर नहीं है, समय भीतर है वो आध्यात्मिक हो गया और जो आदमी अभी तक समय को बाहरी वस्तु मान रहा है, वो कहीं से आध्यात्मिक नहीं है। वो बहुत स्थूल संसारी है। तो सतयुग वगैरह सब यहाँ हमारे भीतर की अवस्था के नाम हैं और अगर सत्य को समर्पित हैं आप, तो सतयुग में जी रहे हैं। बस इतनी सी बात है।

प्र: आचार्य जी, आप किन लोगों के लिए काम कर रहे हैं? क्या आपका लक्ष्य है? वो कौन लोग हैं, जिनके लिए आप काम कर रहे हैं, जिनके लिए अद्वैत फाउंडेशन (संस्था) है?

आचार्य: हर वो व्यक्ति जो ख़ुद भी बेवजह दुख में है और दूसरों के लिए भी दुख का कारण बन रहा है। हर वो व्यक्ति जो स्वयं का भी नाश कर रहा है और पूरी पृथ्वी का, पर्यावरण का, सब प्रजातियों का, पशुओं का, पक्षियों का, नाश कर रहा है। मैं उनके लिए काम कर रहा हूँ।

इसी बात को और व्यवस्थित तरीक़े से आप देखेंगे, तो संस्था ने वेबसाइट पर लिख दिया है कि आचार्य जी काम करते हैं, पशुओं-पक्षियों के लिए। क्योंकि उनके लिए काम करने वाला कोई नहीं। और उनके पास पैसा नहीं होता। तो कोई उनके लिए काम क्यों करे?

वो वोट भी नहीं डाल सकते, तो उनके लिए कोई काम क्यों करे? उनके पास ज़बान भी नहीं होती। तो कोई उनके लिए काम क्यों करे? तो एक तो उनके लिए काम करना ज़रूरी है।

दूसरा जो वर्ग है, वो है युवाओं का। जो ज़िन्दगी के बड़े नाज़ुक चौराहों पर खड़े होते हैं, एक के बाद एक जिन्हें कठिन निर्णय लेने होते हैं और वो बहुत सारे निर्णय ऐसे होते हैं, जिनको अगर ठीक न लिया जाए तो ज़िन्दगी तबाह कर देंगे।

और उन पर भी बहुत ध्यान नहीं दिया जाता क्योंकि युवा हैं, तो अधिकांशतः तो बेरोज़गार हैं, तो उनसे भी किसी को क्या ही आर्थिक लाभ वगैरह होगा? इसी श्रेणी में फिर एक वर्ग महिलाओं का भी आ जाता है। ख़ासतौर पर भारत में जो महिलाऍं हैं, वो अशक्त ही हैं। बहुत कम महिलाएँ हैं जो कमाती हैं। महिलाओं में शिक्षा का स्तर भी पुरुषों से कुछ कम ही होता है।

गृहणियाॅं हैं बहुत ज़्यादा। एक बहुत बड़ा प्रतिशत गृहणियों का, हाउस वाइव्स का है, वो कभी घर से ही नहीं निकलीं। उन्हें दुनिया का कुछ नहीं पता। सामान्य ज्ञान की भी कमी होती है, व्यवहारिक ज्ञान की भी कमी होती है महिलाओं में। और शोषण उनका खूब होता है। क्योंकि भावप्रधान उनका चित्त होता है। तो भावुकता में बहती रहती हैं और अज्ञान भरपूर है तो भावुकता और अज्ञान ये दोनों बड़ा विस्फोटक मेल होते हैं।

और फिर हमारा काम है, उनके लिए जो सचमुच मुक्ति चाहते हैं। जो सचमुच चाहते हैं कि जीवन सुधरे, चेतना शुद्ध हो। लेकिन जो इधर-उधर, ऊटपटांग गुरुओं और पद्धतियों और क्रियाओं और मान्यताओं और अन्धविश्वासों में फॅंसे हुए हैं, तो उनको साफ़-सुथरी बात बताना, नीट-क्लीन अध्यात्म, विशुद्ध मुक्ति की ओर प्रेरित करना।

ये हमारा उनके लिए काम है। तो इसी तरीक़े से हमने कितने चार-पाॅंच वर्ग हैं, उनका नाम ले लिया, उनके लिए मैं काम कर रहा हूँ। पशु, पक्षी, पर्यावरण, युवाजन, महिलाएँ और सच्चे आध्यात्मिक साधक।

प्र: इन पाॅंच लोगों के लिए आप काम करते हैं। यहाँ पर आपने महिलाओं की जब बात करी तो बहुत सारी जो महिलाएँ हैं वो देख रही होंगी, उन्हें लगेगा कि आपने उन्हें अज्ञानी बोल दिया। तो क्या इसको आप कुछ क्लैरिफाई (स्पष्टीकरण) करना चाहेंगे कि आपने किस तरह से उनको, ऐसे डिफ़ाइन किया है, उसको थोड़ा व्यवस्थित तरीक़े से बताइए।

आचार्य: अज्ञानी दोनों हैं। महिला भी अज्ञानी है, पुरुष भी अज्ञानी है। महिला के अज्ञान में सांसारिक अनुभव की कमी और जुड़ जाती है।

देखिए, जो ये पुरुष सत्ता है और ये जो पितृसतात्मक समाज है, इसने महिलाओं को तथ्यों से बड़ा वंचित रखा है। ज़िन्दगी क्या चीज़ है, उनको जानने नहीं दिया है। उनको रसोई में और शयनकक्ष में, इन दो जगहों पर क़ैद किया है।

तो बाज़ार क्या है, महिलाओं को नहीं पता, कमाया कैसे जाता है व्यापार में, महिलाओं को नहीं पता, अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति कैसे चलती है, नहीं पता, अन्तर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था कैसे चलती है, नहीं पता। जीवन क्या है नहीं पता, मौत क्या है ये भी महिलाओं को नहीं पता। उनको श्मशान तक नहीं जाने देते।

तो उन्हें कुछ पता नहीं है। और उनकी शारीरिक संरचना ऐसी होती है कि उनमें भावुकता बहुत होती है। प्रकृति ने उन्हें भावुकता दी है ताकि बच्चे का पालन-पोषण वो कर सकें।

तो भावुकता उनमें होती है, ममता होती है और सांसारिक ज्ञान की होती है कमी। तो इस कारण महिलाओं का शोषण बहुत होता है, बहुत ज्य़ादा। और कई बार तो वो स्वयं ही अपना शोषण कर लेती हैं, जीवन में उल्टे-पुल्टे ग़लत निर्णय लेकर के। तो मानव-जाति का पचास प्रतिशत माने महिलाएँ। तो ये पचास प्रतिशत तो अपने शरीर का और समाज का एकदम मारा हुआ है।

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