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सच एक है, पर व्यक्तियों के चुनाव अलग-अलग हैं || आचार्य प्रशांत, परमहंस गीता पर (2020)
Author Acharya Prashant
Acharya Prashant
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आचार्य प्रशांत: परमहंस गीता, दूसरा अध्याय, तेरहवाँ श्लोक–

क्षेत्रज्ञा आत्मा पुरुषः पुराणः साक्षात्स्वयंज्योतिरजः परेशः। नारायणो भगवान् वासुदेवायः स्वमाययात्मन्यवधीयमानः।।

ये क्षेत्रज्ञ परमात्मा सर्वव्यापक, जगत का आदिकारण, परिपूर्ण, अपरोक्ष, स्वयंप्रकाश, अजन्मा, ब्रह्मादि का भी नियन्ता और अपने अधीन रहने वाली माया के द्वारा सबके अन्तःकरणों में रहकर जीवों को प्रेरित करने वाला समस्त भूतों का आश्रयरूप भगवान् वासुदेव है।

~ परमहंस गीता (अध्याय २, श्लोक १३)

तो कह रहे हैं, ‘नमन आचार्य जी। जब परमात्मा सभी जीवों के अन्तःकरण में विद्यमान हैं, प्रेरित करते हैं, तो यह प्रेरणा सभी मानवों में एक जैसी क्यों नहीं है? यदि प्रेरित करने वाले वासुदेव ही हैं, तो उसकी अभिव्यक्ति व दिशा में इतना अन्तर क्यों? क्या इसमें व्यक्ति के परिवेश की भी कोई भूमिका है? और जब सभी लोगों में एक ही प्रेरणा संचालित है, तो फिर संगति पर इतना ज़ोर क्यों दिया जाता है?’

अरे भाई! मूल प्रेरणा सभी के हृदय में एक ही है, पर जो प्रेरित हो रहे हैं, वो तो सब अलग-अलग हैं न? लाखों, करोड़ों भेद हैं उनमें, विषमताएँ हैं उनमें, विविधताएँ हैं। सत्य एक है; झूठ कितने हैं? झूठ कितने हैं?

चलो, तथ्य के तल पर ही बात कर लेते हैं। तथ्य के तल पर ही बात कर लेते हैं। इस समय, इस जगह पर — सत्य की नहीं, तथ्य की बात कर रहे हैं — बारह बजकर सत्तावन मिनट हुए हैं। ठीक? ये बारह-सत्तावन का आँकड़ा एकमात्र तथ्य है इस जगह के लिए। एकमात्र तथ्य है बारह सत्तावन। अब झूठ बताओ कितने हो सकते हैं? झूठ कितने हो सकते हैं?

श्रोता: अनेक।

आचार्य प्रशांत: उदाहरण दो। बारह-अट्ठावन, बारह-छप्पन, सवा तीन, साढ़े चार। झूठ कितने हो सकते हैं? अनन्त। तो ये तो मैंने बहुत ज़मीनी तल का तर्क दिया है। इसी बात को सत्य पर ले जाओ और समझो — सत्य एक है; झूठों की तो अनगिनत विविधताएँ हैं न? तो ये जो अनगिनत विविधताएँ हैं झूठों की, इन्हीं का नाम है ‘अलग-अलग लोग’। अलग-अलग लोग अलग-अलग दिखते ही क्यों हैं? क्योंकि वो झूठों के अलग-अलग तरह-तरह के सम्मिलन हैं, सम्मिश्रण हैं। प्रकृति के तीन गुण अरबों अलग-अलग तरीक़ों से सम्मिश्रित होकर के, आपस में क्रिया करके अरबों अलग-अलग जीवों का रूप धारण करते हैं। बात समझ में आ रही है?

अगर सब गुण प्रकृति ही हैं, सब गुण माया ही हैं, तो उन गुणों से बने हुए ये सब जीव क्या हैं? माया के अलग-अलग रूप हैं, और क्या हैं! तो मूल प्रेरणा परमात्मा के रूप में, तुमने बिलकुल ठीक कहा, एक होती है; लेकिन लोग बिलकुल अलग-अलग हैं, विविध-विविध हैं। सत्य एक है, पर (दो श्रोताओं की ओर इशारा करते हुए) ये अलग हैं, ये अलग हैं, इसीलिए इसके निजी सत्य भी अलग-अलग होते हैं।

जैसे हम कहते हैं न, ‘ माय पर्सनल ट्रुथ। (मेरा निजी सच।)’ आजकल बहुत चलता है कि, ‘भाई, मल्टीपल ट्रुथ्स (एकाधिक सच)’, और उसको कहा जाता है, ‘ये बात तो डाइवर्सिटी (विविधता) की है, टॉलरेंस (सहनशीलता) की है। यू हैव योर ट्रुथ, आई हैव माइन ट्रुथ (तुम्हारे पास तुम्हारा सच है, मेरे पास मेरा सच है।)’ ये बात भयंकर है। ये बात राक्षसी है। योर ट्रुथ टू यू ऐन्ड माय ट्रुथ टू मी (तुम्हारा सच तुम्हारे लिए और मेरा सच मेरे लिए) — ये बात घोर, गहरे और घटिया अहंकार की है। लेकिन चलता है। इसीलिए चलता है क्योंकि हम झूठ हैं। हम झूठ हैं चूँकि, इसीलिए हम अपना एक निजी और व्यक्तिगत सच भी बना लेना चाहते हैं जो कि कुछ और नहीं होगा, वो झूठ का ही एक रूप होगा, झूठ की ही अभिव्यक्ति होगा। समझ में आ रही है बात?

तो सच एक है, और सब झूठ हैं। और उन झूठों में एक झूठ होता है ‘चुनाव’। क्योंकि सच में तो कोई चुनाव होता नहीं। सच में तो निर्विकल्पता होती है। सच में तो दो ही नहीं हैं, तो चुनोगे कैसे? लेकिन जहाँ झूठ है, वहाँ बहुत कुछ होता है। वहाँ चुनाव होता है। और झूठों में ये जो चुनाव का झूठ बैठा हुआ है, ये जो चुनाव की झूठी आज़ादी बैठी हुई है, वो आज़ादी कहती है, ‘मैं सच को चुन भी सकता हूँ और मैं सच को अस्वीकार और तिरस्कृत भी कर सकता हूँ।’

तो प्रेरणा एक है, लेकिन जो प्रेरित इकाई है, जिसका नाम अहम है, उसके पास हमेशा ये विकल्प है कि वो सच चुने कि न चुने। कोई चुनता है, कोई नहीं चुनता है। तुम कारण मत पूछना। तुम ये मत कहना कि जब सब कुछ परमात्मा चला रहा है, तो कुछ लोग परमात्मा को चुनते हैं, कुछ नहीं चुनते। इसमें तो परमात्मा का भी कोई बस नहीं है। ये तो तुम्हारा अब खेल है; तुम जानो। सत्य जो अधिकतम हो सकता है, वो है। सत्य जो अधिकतम दे सकता है, उसने दे रखा है। लेकिन जहाँ तक हमारी बात है; अस्तित्वमान सिर्फ़ सत्य नहीं है, अस्तित्वमान हम भी तो हैं। अगर अस्तित्वमान सिर्फ़ सत्य होता, तो हमारे गालों पर आँसू क्यों होते भाई? सत्य रोता है क्या? जहाँ तक हमारा सवाल है, जहाँ तक हमारी नज़र है, जहाँ तक हमारी मान्यता है, हम क्या कहते हैं? ‘सच है, और हम भी तो हैं।’

अधिक से अधिक हम ये कह देते हैं, ‘सच है और हम भी हैं और हम सच को मानते हैं, लेकिन हैं तो हम फिर भी। हम हैं फिर भी, और हमने ये अधिकार भी रखा है कि हम सच को मानें, चाहे न मानें।’ यही चुनाव है जो गड़बड़ है। झूठ के पास हमेशा चुनाव उपलब्ध होता है — माने चाहे ना माने। ‘अभी मान रहे हैं। अभी हमारा मन ठीक है। मूड (मनोदशा) बढ़िया है, तो हम सच को मान रहे हैं। मूड उखड़ेगा, मनाना बन्द कर देंगे। दरवाज़े बन्द।’ बात समझ में आ रही है?

हमारे देखे, हमारी दृष्टि में सिर्फ़ सच की ही हस्ती थोड़े ही है। हम भी तो हैं। हम नहीं हैं क्या? हम न हों, तो सच की बात कौन कर रहा हो यहाँ पर? हम न हों, तो ये सवाल-जवाब कौन कर रहा हो यहाँ पर? अब न तो सच सवाल पूछता है, न सच सवाल का जवाब देता है। यहाँ तो जो हो रहा है, वो झूठ का ही खेल है। सवाल पूछने वाला भी सत्य तो नहीं हो सकता, और सवाल का जवाब देने वाला भी सत्य तो नहीं हो सकता। सत्य को क्या पड़ी है कि पूछेगा कि सुनेगा? और कितने सत्य होते हैं कि एक पूछ रहा है, एक सुन रहा है? सत्तू एक, सत्तू दो। ऐसा तो होता नहीं न? तो जहाँ तक हमारा सवाल है; सत्य होगा, पर हम भी हैं। और हम जो हैं प्रकृति के गुणों का सम्मिश्रण, एक झूठ का पुलिन्दा; हमने अपनेआप को ये भी अधिकार दे रखा है कि वो जो सत्य है, उसे हम चाहें तो चुनें, चाहें तो न चुनें। कुछ चुनते हैं, कुछ नहीं चुनते। इसमें किसी और की कोई ज़िम्मेदारी नहीं हैं।

तुमने नहीं चुना, तुम जानो भैया, क्यों नहीं चुना। ये मत कह दीजिएगा, ‘कुछ लोगों के लिए आसान होता है। वो चुन लेते हैं। हम तो बाल-बच्चे वाले लोग हैं।’ तुम्हारे बाल भी तुम जानो, तुम्हारे बच्चे भी तुम जानो। सब कुछ तुम्हारी मर्ज़ी से हो रहा है। ये मत कह देना कि, ‘हम तो अनाड़ी हैं। हम तो कुछ जानते नहीं। भोले-भाले हैं। ये हो गया हमारे साथ। परमात्मा ने ऐसा क्यों किया हमारे साथ?’ नहीं। न तुम भोले-भाले हो, न तुम अनाड़ी हो। जो किया है, तुमने किया है। फ़िज़ूल की बात करके परमात्मा को दोष तो दो मत।

जब मज़े ले रहे होते हो, तो कहते हो, ‘परमात्मा मज़े ले रहा है’? तब तो कहते हो, ‘ आई एम एंजॉयिंग (मैं मज़े ले रहा हूँ‌।)’, और फिर मज़े लेते-लेते जब कुछ कांड हो जाता है, बाल-बच्चे हो जाते हैं, तो कहते हो, ‘हे भगवान! ये तूने क्या किया!’ मज़े जब आ रहे थे, तुमको आ रहे थे। जब कांड हो गया, तो ‘हे भगवान! ये तूने क्या किया!’ ये क्या है? तुम हो जो ये विकल्प रखता है कि कभी मज़ा चुनूँगा और कभी मर्म चुनूँगा, सत्य चुनूँगा।

अधिकांशतः हम मर्म नहीं चुनते, मज़ा चुनते हैं। कुछ नहीं कर सकता कोई परमात्मा यहाँ पर। बेबस है। जिस परमहंस गीत का उद्धरण दे रहे हो, उसी में वर्णित है कि जो तैयार नहीं है, उसके तो उपनिषदों के वाक्य भी काम नहीं आ सकते। जो मानने को, सुनने को, बदलने को राज़ी नहीं है, उपनिषद भी उसके काम नहीं आ सकते। परमात्मा अपनेआप को और किस रूप में तुम्हें भेंट करें? उपनिषदों के रूप में करा है भेंट। उपनिषद और क्या हैं? ‘परमात्मा’ जो शब्द बनकर तुम्हारे हाथ में आ गया। वो भी काम नहीं आएँगे, तुम अगर कह दो मुझे पढ़ना ही नहीं है। परमात्मा ज़बरदस्ती थोड़े ही करेगा तुम्हारे साथ। ज़बरदस्ती क्यों नहीं करेगा तुम्हारे साथ? क्योंकि तुम ‘तुम’ हो। तुम्हारी नज़रों में तुम्हारी एक पृथक हस्ती है। अपनों के साथ ज़बरदस्ती की जाती है न? परायों के साथ थोड़े ही! जब तुमने कह दिया कि मैं ‘मैं’ हूँ, ‘मैं’ हूँ। कभी ये बोलते कि मैं परमात्मा हूँ? तुम बोलते हो, ‘मैं हूँ।’ तो तुमने ख़ुद ही घोषित कर दिया न कि तुम परमात्मा से अलग हो, जुदा हो, पृथक हो। कह दिया न?

जब तुमने ही अपनेआप को अलग कह दिया, तो परमात्मा कहता है ‘ओ.के. भैया। अब मैं नहीं जानता। अपनी तू जान। जब तूने ही इतनी ज़ोर से घोषित कर दिया कि तू अलग है, तो बढ़िया बात। हम नहीं जानते कुछ। अब तुम जानो अपना खेल।’ आ रही है बात समझ में? वो फिर हाथ खींच लेता है वापस। अब तुम्हारी अपनी कहानी चलती है, अब तुम्हारी व्यक्तिगत कहानी चलती है, अब तुम्हारा व्यक्तिगत संसार चलता है।

फिर पूछा है कि अगर प्रेरित करने वाले वासुदेव ही हैं, तो अभिव्यक्ति व दिशा में लोगों की इतना अन्तर क्यों? क्या इसमें व्यक्ति के परिवेश की भी कोई भूमिका है?

बिलकुल भूमिका है परिवेश की, लेकिन भूलिएगा नहीं कि आप पर परिवेश का, माने माहौल का जो असर होता है, आप चुनते हो कि वो आपको किस दिशा ले जाएगा।

समझिएगा — एक आदमी है जो गन्दे परिवेश में ही पैदा हुआ है। उसके आसपास सब ऐसे ही लोग हैं शराबी, कबाबी, कामी। यही सब चल रहा है। इस व्यक्ति के ऊपर दो तरह के असर हो सकते हैं। या कह लीजिए कि उस माहौल में दो बच्चे हैं जो वहीं पैदा हो रहे हैं, वहीं बड़े हो रहे हैं। उन दो बच्चों के दो रवैये को सकते हैं अपने परिवेश को लेकर। एक बच्चा कह सकता है कि चूँकि मैं इस माहौल में पैदा हुआ हूँ तो इसीलिए ऐसा ही हो जाऊँगा। कितनी सीधी बात है कि मैं इस महौल में पैदा हुआ हूँ तो मेरे पास विकल्प उन्हीं क्या है? मैं सही हो जाऊँगा। और दूर दूसरा बच्चा कह सकता है, ‘सौभाग्य है मेरा जो इस माहौल में पैदा हुआ है। मुझे दिख गया है कि कैसा नहीं होना है। मुझे दिख गया कि जो लोग ऐसे हो जाते हैं, उन्हें कितना कष्ट भोगता पड़ता है और कैसा नारकीय उनका जीवन होता है। चूँकि मैं यहाँ पैदा हुआ हूँ, इसलिए मैं कसम खाता हूँ कि मैं ऐसा नहीं रहूँगा।’

एक ही चीज़ है, और देखो कितनी भिन्न-भिन्न प्रतिक्रियाएँ हैं! एक बच्चा कह रहा है, ‘चूँकि मैं यहाँ पैदा हुआ हुआ हूँ, इसीलिए मेरे पास कोई विकल्प नहीं है। मैं ऐसा ही हो जाऊँगा। जैसा मेरा परिवेश, माहौल है, मैं भी वैसा ही हो जाऊँगा।’ और दूसरा कह रहा है, ‘चूँकि मैं यहाँ पैदा हुआ हूँ, इसीलिए अब तो मैं और मुट्ठी भींच कर संकल्प लेता हूँ, ऐसा तो नहीं जीयूँगा।’ तो परिवेश की भूमिका मैं क्या बोलूँ? मैं तो घूम-फिरकर के एक ही शब्द पर आता हूँ — चुनाव। परिवेश कैसा भी हो; चुनाव तो आपका है कि आप उस परिवेश के साथ क्या करेंगे।

फिर कहा, ‘और जब सभी लोगों के हृदय में एक ही परम-प्रेरणा बैठी है, तो फिर संगति पर इतना ज़ोर क्यों दिया जाता है?’ संगति पर ज़ोर प्रेरणा को थोड़े ही बताया जाता है। वो जो हृदय में परम-तत्व बैठा है, उसको थोड़े ही सीख दी जा रही है कि बेटा सही संगति करना। संगति की सलाह किसको दी जा रही है? उसको दी जा रही है जो उस परम-प्रेरणा के रहते हुए भी प्रेरित करने से, प्रेरित होने से इनकार कर देता है।

दो हैं, भूलिएगा नहीं। प्रेरणा तो हृदय में बैठी है; पर वो जो प्रेरित होगा चाहे नहीं होगा, वो खोपड़े में बैठा है। तो वो जो खोपड़े वाला है, उसको सीख दी जाती है कि सही संगति कर लो। सही संगति कर लो, ताकि तुम्हें तुम्हारे हृदय की ओर मोड़ा जा सके। अन्यथा तो तुम इधर-उधर दुनिया-भर में, इधर-उधर विचरण करते रहते हो। बस अपने ही मर्म की ओर, आत्मा की ओर, वो जो आन्तरिक है, कूटस्थ है, उसकी ओर तुम्हारी दृष्टि कभी नहीं जाती।

सही संगति करते हो, तो वो तुम्हारी नज़रों को वापस मोड़ता है, अन्दर की तरफ़ मोड़ता है, और तुमसे कहता है, ‘बाहर देखना बन्द करो। मैं तुमसे कह रहा हूँ, भीतर देखो ज़रा।’ इसलिए सही संगति पर ज़ोर दिया जाता है। तुम्हें संगति की कोई ज़रूरत ही न पड़े, अगर तुम ख़ुद ही ऐसे हो जाओ कि तुम कहो, ‘मुझे तो परम-परमात्मा की संगति करनी है। ख़ुद ही करनी है। मुझे बाहर से कोई चाहिए ही नहीं जो मुझे समझाए, कि बुझाए, कि ज्ञान दे। मेरे स्वयं में ही इतनी तड़प, इतनी प्यास है, इतनी समझदारी है कि मैं ख़ुद ही अपने हृदय की और मुड़ जाऊँगा। मैं ख़ुद ही हृदय की संगति कर लूँगा। मैं ख़ुद ही उस परम-प्रेरणा से अनुग्रहीत होना चाहूँगा।’ फिर तुम्हें किसी संगति की ज़रूरत नहीं पड़ेगी।

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, मेरा सवाल ये है कि अगर कोई चुनौती स्वीकार करता है, तो उसमें भी तो वो यही कहता है न कि मैंने चुनौती ली। तो अगर मैं ले रहा हूँ चुनौती, तो वो भी तो एक छोटे ही अहंकार से ली जा रही है न, जिसके लिए मैं सामना कर रहा हूँ। तो बड़ी चुनौती को कैसे स्वीकार करूँ?

आचार्य: तुम किस चीज़ को चुनौती मानते हो, ये निर्भर भी इस पर करता है कि तुम अपनेआप को क्या मानते हो। चूँकि हम अपनेआप को सही चीज़ नहीं मानते, इसीलिए दुनिया की हर व्यर्थ चीज़, मक्खी, मच्छर, हमें चुनौती लगने लग जाता है। तुमने ऐसे कह दिया, ‘अगर सामने कोई चुनौती है’। तुम्हें कैसे पता वो चुनौती है भी? किसके लिए है चुनौती? कुछ देर पहले कह रहा था न मैं, कि अपनेआप को गुड़ मानते हो, तो हर मक्खी एक चुनौती बन जाएगी। तुम अहंकार के पुलिन्दे हो, तो किसी ने ज़रा सा ताना मार दिया, वो चुनौती बन जाएगा। तुम हो कौन? चूँकि तुम अपनेआप को सत्य जानते नहीं, इसीलिए दुनिया की हर छोटी चीज़ तुम्हारे लिए एक विशाल चुनौती बन जाती है। तुम अपनेआप को छोटा जानते हो, तो हर छोटी चीज़ तुम्हें बड़ी लगने लग जाती है। जो छोटा है, उसके सामने हर छोटी चीज़ कैसी हो जाएगी? बड़ी हो जाएगी। इसीलिए चुनौतियों की बात कर रहे हो। जो आदमी सही जीवन जी रहा है, सही काम में डूबा हुआ है, अधिकांश चुनौतियों का तो उसे पता ही नहीं लगेगा। वो कहेगा, ‘ये कोई बात है? ये कोई चुनौती है? ये कोई मुद्दा है जिसमें हम उलझें? हमारे पास उलझने के लिए बहुत बड़ी चीज़ है। चुनौती कहाँ से आ गई? ये कोई चुनौती है?’ नहीं तो फिर बात-बात में चुनौती है।

‘छज्जन ने चूँटी काट ली, चुनौती आ गई।’ ‘और क्या हुआ?’ ‘वो फलाना खरगोश आज मुझे मुँह चिढ़ा रहा था, चुनौती आ गई।’ ‘और क्या हुआ?’ ‘दाल में आज नमक ज़्यादा था, चुनौती आ गई।’

तुम्हारी चुनौतियों का स्तर तुम्हारे जीवन के स्तर के बारे में सब बता देता है न। तुम किस बात को चुनौती मान रहे हो? बड़े आदमी की पहचान ही यही है कि वो छोटी चुनौतियाँ देख ही नहीं पाता। उसको समझ में ही नहीं आतीं छोटी चुनौतियाँ। उसे उपेक्षा भी नहीं करनी पड़ती। उसे छोटी चुनौतियाँ दिखाई ही नहीं पड़तीं। वो आगे बढ़ जाता है। और छोटे आदमी की पहचान ये है कि वो हर समय बिलकुल बिलबिलाया रहता है। कभी यहाँ से उसे कोई कोंच देगा, कभी यहाँ कोई परेशान कर देगा। बात-बात में आहत होता है, चोट लगती है। और जिस आदमी को मज़बूत होना होता है, आगे बढ़ रहा होता है; पहली बात — उसे छोटी चीज़ों से चोट नहीं लगेगी; दूसरी बात — वो और बड़ी चीज़ें खोजेगा, और उन बड़ी चीज़ों से चोट खाने को तैयार रहेगा। वो कहेगा, ‘जितनी बड़ी चीज़ से चोट खाऊँगा, उतना ज़्यादा मैं सुरक्षित होता जाऊँगा चोट खाने के विरुद्ध।’

कोई आए रोता-कलपता, ‘अरे! बड़ी चोट लग गई! बड़ी चुनौती आ गई!’ मैं तो वही पूछूँगा जो सदा पूछता हूँ, ‘तुम्हें वक्त कहाँ से मिला? फ़िज़ूल बैठे होगे, तभी चोट खा गए।’

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