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रामायण-महाभारत की घटनाओं को सच मानें कि नहीं?
Author Acharya Prashant
Acharya Prashant
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प्रश्नकर्ता: सर नमस्कार! रामायण और महाभारत में जो कहानियाँ हैं, क्या वो सत्य घटनाओं पर आधारित हैं?

आचार्य प्रशांत: घटनाएँ सत्य या असत्य नहीं होतीं, घटनाएँ तथ्य कहलाती हैं। ठीक है?

उदाहरण के लिए - कोई एक घर से निकला और सड़क का इस्तेमाल करके आधे किलोमीटर दूर किसी दूसरे घर में चला गया। इसको सत्य घटना नहीं बोलते। इसमें सत्य क्या है?

मार्मिक दृष्टि से देखो, अध्यात्म की दृष्टि से देखो तो न वो घर सत्य है, न वो इंसान सत्य है, न वो सड़क सत्य है, न वो आधा किलोमीटर दूर जिस घर में चला गया वो सत्य है, न उसने यह फासला तय करने के लिए जो समय लिया वो समय सत्य है।

सत्य की क्या परिभाषा होती है?

सत्य की परिभाषा होती है - वो जो कभी बदले न। ‘वो जो कभी बदले न।‘ यह जिस घर से निकला, क्या वो कभी नहीं बदलेगा? ‘बदलेगा’ किस सड़क पर चला वो कभी नहीं बदलेगी? यह जो इंसान है, क्या यह बदल नहीं रहा?

समय?

‘वो तो बदलते ही रहता है।‘

और वह जिस घर में जाकर घुस गया, वो घर भी बदल रहा है लगातार। तो ये जो पूरी घटना घटी, सत्य तो इसमें वैसे भी कहीं नहीं है। हाँ, जो हमारी साधारण भाषा होती है, उसमें बहुत गहराई नहीं होती। प्रचलित भाषा में हम इस तरह की बातें कह देते हैं कि फलाना प्रकरण एक सत्य घटना पर आधारित है।

अध्यात्म कहता है - कोई घटना सत्य होती ही नहीं।

ये जो घटनाओं की गतिशीलता है, यह समय का प्रवाह है, यह अपने आप में असत् है। संसार मात्र असत् है। असत् माने - तो ठहरेगा नहीं। असत् माने - जो अधिक से अधिक प्रतीत हो सकता हो, गहराई से देखो तो पता चले कि प्रतीत होता है, है नहीं। सब कुछ ही असत् है, वहाँ सत्य घटना क्या घटेगी? समझ में आ रही बात?

तो रामायण और महाभारत तथ्यों से ऊपर की बातें हैं। बहुत लोग खासतौर पर हिंदू धर्मावलंबी यह सिद्ध करने की कोशिश में लगे रहते हैं कि रामायण और महाभारत सच्ची घटनाएँ हैं। अरे भाई! जिन्होंने हमें रामायण और महाभारत दी, उन्हें अगर यही साबित करना होता कि ये घटनाएँ यथार्थ हैं, इन घटनाओं में कोई तथ्य है, तो कम-से-कम यह तो बता देते कि यह सब कुछ किस शताब्दी में हुआ? किस वर्ष में हुआ?

और भारत का गणित सदा से ही मजबूत रहा है। ऐसा नहीं है कि घड़ी में हमें समय देखना नहीं आता था या हमारे पास कैलेंडर नहीं था जिसमें हम माह या वर्ष देख पाए। निश्चित रूप से इस बात की गणना भी की जा सकती थी और इस बात का साफ-साफ इतिहास में उल्लेख भी किया जा सकता था कि किस वर्ष में राम या कृष्ण पैदा हुए। नहीं किया क्योंकि इस बात को अमहत्वपूर्ण माना गया। कहा, ये बच्चों की बातें हैं, कौन इन बातों में पड़े कि ये कब पैदा हुए, कब मरे? क्यों? क्योंकि वो कब पैदा हुए, कब मरे; यह बात तो उनको साधारण भौतिक मनुष्य बना देगी न?

भाई! जीता कौन है, मरता कौन है? ‘एक साधारण देहधारी जीता है, मरता है।‘ तो रामों के और कृष्णों के न तो जन्म के और न ही मृत्यु के वर्ष कहीं भी अंकित, संचित किए गए। इस बात का कोई लेख ही नहीं रखा गया कि यह कब पैदा हुए, कब कहाँ गए, कब क्या किया? कब क्या किया? कहीं बताना भी पड़ा कि वर्ष चल रहे हैं या कोई अंतराल, कोई अवधि बीत रही है तो उस बात को काव्यात्मक तरीके से बता दिया। लेकिन कभी साफ-साफ नहीं बताया गया। साफ-साफ नहीं बताया गया, उसके पीछे एक बड़ी ऊँची, बड़ी सुंदर वजह है, वो पकड़ो। वजह ये है कि जिनकी बात हो रही है, वो, वो लोग हैं जो समय की सीमा से तुमको बाहर ले जाने वाले हैं। उनका काम है कि वो तुमको कालातीत कुछ लाकर दे दे। एक सामान्य आदमी अपना पूरा जीवन समय के भीतर बिताता है। अवतार वो है जो अपना जीवन इस तरह बिताता है कि वह स्वयं भी समय से बाहर खड़ा है और तुमको भी समझ से बाहर ले जाए। समझ से बाहर ले जाए माने क्या? समय का मतलब है परिवर्तन। समझ से बाहर खड़े होने का मतलब हुआ कि वो कुछ ऐसा पा लेता है जो अपरिवर्तनीय है, जो बदल नहीं सकता। चूँकि वो समय से बाहर खड़ा है तो इसीलिए उसके जीने और मरने के समय का निर्धारण नहीं किया गया। वो बात बचकानी हो जाती कि एक ओर तो हम कह रहे हैं कि ये जो हैं, यह कालजयी हैं, यह कालातीत हैं या अकाल मूर्ति हैं और उसके बाद हम बताएँ कि इनका जन्म हुआ था फलाने वर्ष में, तो वो बात हास्यास्पद हो जाती है, तो इसलिए नहीं बताया गया।

लेकिन आजकल हम पुरजोर साबित करने में लगे हुए हैं कि नहीं साहब! इस सन में पैदा हुए थे, यहाँ रहते थे, इस नदी किनारे खेले-खाए थे, इस जगह उनका महल था और ये सारी बातें। इस बात से कोई इनकार नहीं कर रहा कि वो निश्चित रूप से ऐतिहासिक पात्र थे; कि मनुष्य रूप में वो निश्चित रूप से धरती पर विचरण करते थे; कि श्री राम और श्री कृष्ण का निश्चित रूप से कभी न कभी जन्म हुआ था मनुष्य योनि में, और यह भी कि उन्होंने समाधि भी ग्रहण की थी। उनकी भी देह के तौर पर मृत्यु हुई थी, अवसान हुआ था। यह बात निश्चित रूप से है।

रामायण और महाभारत कोई कपोल कल्पनाएँ नहीं हैं कि किसी ने यूँ ही बैठे-बैठे सपना लिया और लिख दिया। तो ये ऐतिहासिक चरित्र निश्चित रूप से थे, राम भी, कृष्ण जी और तमाम जो पात्र हैं जिनको अवतार माना गया, वो सब भी। वो ऐतिहासिक चरित्र निश्चित रूप से थे। लेकिन मुद्दे की बात ये नहीं है कि वो ऐतिहासिक थे कि नहीं थे। मुद्दे की बात ये बिल्कुल नहीं है कि वो किस समय थे या किस समय नहीं थे। मुद्दे की बात है कि उन्होंने जो सीख दी है वो तुमको समय से पार ले जाती है। असली बात को पकड़ो।

वो किस समय थे ये मत पूछो, क्योंकि ये प्रश्न महत्वहीन है। असली प्रश्न ये है कि उनकी सीख को जानकर, उनकी सीख पर अमल करके तुम खुद भी समय से बाहर निकले या नहीं निकले? तुम्हें भी कुछ ऐसा मिला कि नहीं मिला जो नित्य और अविनाशी है?

जो कुछ भी समय में है उसका तो विनाश हो जाता है न? जो समयातीत है मात्र वही अविनाशी है। तो श्रीराम के योगवाशिष्ठ से, श्रीकृष्ण की श्रीमद्भगवतगीता से तुम्हें कुछ ऐसा मिला या नहीं मिला जो अपरिवर्तनीय, कालातीत और अविनाशी है?

अगर तुम्हें मिला तब तो तुमने रामों और कृष्णों से कुछ सीखा, कुछ जाना। और अगर तुम उनको ऐतिहासिक चरित्र ही बनाते रह गए तो फिर यह तुम्हारा अपना अहंकार मात्र है। तुम फिर बस यह कर रहे हो कि तुम श्रीराम और श्रीकृष्ण को भी सामान्य राजाओं की श्रेणी में खड़ा कर रहे हो।

जो सामान्य राजा वगैरह होते हैं उनके जीने-मरने के सब सवाल बिल्कुल हमें साफ-साफ पता होते हैं। उन्होंने कौन-सी लड़ाई, किस दिन लड़ी, किस सन में लड़ी, सब पता होते हैं। वो कोई सामान्य राजा थोड़े ही थे। उन्हें यूँ ही अवतार नहीं बोला जाता, कोई विशेष कारण है। उस विशेष कारण को समझो।

भारत में इतनी बुद्धि, इतना बोध हमेशा से था कि कुछ बातों के साथ समय का धागा न जोड़ा जाए। इसलिए इन लोगों के साथ समय का धागा नहीं जोड़ा गया। ये बार-बार पूछना कोई बुद्धिमानी की बात नहीं कि, “क्या रामायण महाभारत सत्य घटनाएँ हैं? क्या पुष्पक विमान वास्तव में उड़ता था?” अरे बाबा! रामायण का महत्व इसमें नहीं है कि पुष्पक विमान वास्तव में उड़ता था कि नहीं उठता था, रामायण का महत्व राम के चरित्र में है।

‘राम तुम्हारा चरित्र स्वयं ही काव्य है, कभी कोई बन जाए सहज सम्भाव्य है’, अब राम का चरित्र तो तुमने गुना नहीं, तुम्हारी सारी ऊर्जा लग रही है इसी प्रश्न से उलझने में कि भारत और लंका के मध्य सेतु बना था कि नहीं बना था? और हम उस सेतु को खोज के निकालेंगे। तुम्हारी सारी ऊर्जा लग रही है यही पता करने में कि पुष्पक विमान कैसे उड़ता था, और जो ये ब्रह्मास्त्र था यह किस ऊर्जा से काम करता था? यह प्रश्न ही महत्वहीन है।

जो असली बात है वह यह है कि श्रीराम का पूरा वृत्त तुम्हारे सामने है, तुम्हारे भीतर कुछ रामत्व उतरा या नहीं उतरा? रामत्व तुम्हारे भीतर एक धेले का नहीं उतरा, लेकिन तुम लगे हुए हो रामसेतु की बात करने में। ये क्या पागलपन है! अरे! मान लो वो सेतु है भी, मान लो वो तुमने पा भी लिया, उससे तुम्हारे जीवन पर क्या अंतर आ जाना है?

अवतार इसलिए आते हैं कि उन्होंने पीछे जो अपने ऐतिहासिक अवशेष छोड़े हो तुम उनकी खुदाई करो या अवतार इसलिए आते हैं ताकि उनसे सीख ले के तुम अपना जीवन परिवर्तित करो? जीवन परिवर्तित करने में तुम्हारे अहंकार को कोई रुचि नहीं है। क्योंकि जीवन परिवर्तित करने में अहंकार को चोट लगती है। हाँ, ये कहने में कि मेरे धर्म के देवी देवता हैं। यह देखो, इनके बारे में ये चीज निकली; इनके इस जगह अवशेष मिलते हैं; इनकी खुदाई में यह मिल गया; इनका फलाने देश में बड़ा भव्य मंदिर है। यह सब करने में अहंकार को बढ़ा बल मिलता है। और बल क्या मिलता है; भाई मैं इस धर्म का मानने वाला हूँ न, “मैं हिंदू हूँ। मैं हिंदू हूँ तो मेरे आराध्य को बड़ा होना ही चाहिए न।“ तुम यह नहीं कह रहे हो कि मेरा आराध्य बड़ा है, तुम अपने आराध्य को बड़ा बनाना चाहते हो क्योंकि वो तुम्हारा आराध्य है। अंतर को समझना।

भाई मैं इतना बड़ा आदमी हूँ , तो मेरे देवता छोटे कैसे हो सकते हैं? और अगर मेरे देवता छोटे साबित हो गये, तो फिर मैं बड़ा आदमी नहीं कहला पाऊँगा न। अहंकार इस तर्क पर चलता है। मैं, मेरे जैसे महान आदमी का देश तो बहुत महान होगा ही होगा न? तो फिर मैं बोलूँगा, “मेरा देश महान है”, इसलिए नहीं तुम यह बोल रहे कि तुम्हें देश से थे वास्तव में कोई सम्मान या प्रेम है। इसलिए बोल रहे हो कि तुम उस देश के वासी हो। तुम कह रहे हो कि मेरे जैसे बड़े आदमी का देश छोटा कैसे हो सकता है? मेरे जैसे महान हिंदू का आराध्य छोटा कैसे हो सकता है?

राम और कृष्ण भी तुम्हें देखेंगे तो हँस पड़ेंगे कहेंगे, “वाह रे! हम अवतरित होकर के आ गए, हम वैकुंठ छोड़कर के पृथ्वी पर आ गए तुमको कुछ बातें समझाने के लिए, लेकिन वहाँ रे अनाड़ी! तुम वो बातें समझे नहीं।“ तुम इन्हीं प्रश्नों में उलझे हुए हो कि कौन-सा देश कहाँ था? कितने किलोमीटर दूरी नापी? बाण वास्तव में थे कि नहीं थे?

कोई अभी आया था वो बता रहा था कि देखिए, ये इतनी जो बातचीत होती थी, इतनी दूर-दूर तक लोग बिखरे हुए थे, निश्चित रूप से जंगल में वाईफाई था। और ये तो हमारी अनमोल पुरातन भारतीय संस्कृति है। जंगल में वाईफाई न हो, ऐसा हो ही नहीं सकता।

मैं फिर पूछ रहा हूँ तुमसे, तुमने श्रीराम से त्याग सीखा? तुमने श्रीराम से सम-भाव सीखा? तुमने श्रीराम से प्रत्याहार सीखा और समर्पण सीखा? बोलो, ये सब तुमने उनसे नहीं सीखा, तुमने न उनसे मर्यादा सीखी, न उनसे कर्तव्यशीलता सीखी, तुम बस लगे हुए हो अपने अहंकार के पीछे राम का भी नाम बदनाम करने में। तुमने कृष्ण से गीता सीखी, निष्काम कर्म सीखा?

बताओ जरा मुझे।

क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग समझाना, विभूतियोग समझाना, विकर्म-अकर्म में अंतर क्या है, समझाना।

यह सब नहीं सीख रहो हो श्रीकृष्ण से, जो उनकी अमूल्य कालातीत देन है, उससे तुम कोई संबंध ही नहीं रखना चाहते। हाँ, इधर-उधर की ऐसी बातें जो अपेक्षतया महत्वहीन है, उनसे उलझे हुए हो। स्वयं श्रीकृष्ण को ये बात न पसंद आए।

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