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पुनर्जन्म किसका होता है, और कहाँ? || (2019)
Author Acharya Prashant
Acharya Prashant
23 min
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प्रश्नकर्ता: प्रणाम आचार्य जी, आज हमने शिविर में रीडिंग करते हुए पुनर्जन्म के बारे में पढ़ा। हमने आपका एक वीडियो भी देखा जिसमें आपने बताया है कि आत्मा का कोई जन्म या मरण नहीं होता, प्रकृति का जन्म-मरण बार-बार होता रहता है और मनुष्य एक ही बार जीता है और फिर मर जाता है। फिर हमने श्रीमद्भागवत गीता के कुछ श्लोकों को पढ़ा। अध्याय छह के इकतालिसवें श्लोक में श्रीकृष्ण जी कहते हैं —

प्राप्य पुण्यकृतां लोकानुषित्वा शाश्वतीः समाः। शुचीनां श्रीमतां गेहे योगभ्रष्टोऽभिजायते।।६.४१।।

शब्दार्थ: योगभ्रष्ट पुरुष पुण्यवानों के लोकों को प्राप्त होकर उनमें बहुत वर्षों तक निवास करके फिर शुद्ध आचरण वाले श्रीमान पुरुषों के घर में जन्म लेता है।

आचार्य जी इस श्लोक में दो जन्मों के बीच एक निरंतरता की बात की गई है, वो भी व्यक्ति विशेष के लिए। कृपया इस सूत्र का अर्थ समझाने की कृपा करें।

आचार्य प्रशांत: हम दो होते हैं। एक वो जो निश्चित रूप से पत्थर-पानी है, माँस-लकड़ी है, रक्त है, वायु है। एक वो हैं हम, पंचभूत का पुतला। और कुछ और हैं हम। वो जो दूसरा है वो क्या है? वो दूसरा जो है वो भौतिक तो नहीं है क्योंकि सब पंचभूतों को तो हमने एक तरफ़ रख दिया। हमने कहा दो हैं हम जिसमें से जो कुछ भी भौतिक है उसको तो रखो एक तरफ़, हड्डी-माँस-मस्तिष्क सब उसी में आ गए।

और एक दूसरी भी कुछ पहचान है हमारी जो ऐसी दुनिया की बात करता है जो भौतिक है ही नहीं।

हम ही हैं फिर जो कभी तो बात करते हैं कि, "मुझे पैसा चाहिए" और कभी कहते हैं कि, "मुझे प्यार चाहिए"। जब कहते हैं कि पैसा चाहिए तो कौन हैं हम? वो जिसका संबंध पैसे से है क्योंकि पैसे का संबंध तो भौतिक चीज़ों से ही होता है न। लेकिन हमेशा हम ये नहीं कहते हैं कि खाना चाहिए, रुपया चाहिए, पैसा चाहिए, घर चाहिए, गाड़ी चाहिए। भौतिक चीज़ों की ही बात नहीं करते। कभी-कभी हम अजीब बातें करने लग जाते हैं। हम कहते हैं हमें मुक्ति चाहिए, हमें प्रेम चाहिए, हमें सत्य चाहिए। अब ये भौतिक हैं क्या? प्रेम का रंग-रूप-आकार कुछ होता है? या सत्य का? या मुक्ति का?

तो दो हैं हम। अजीब हैं हम। एक ऐसी चेतना जिसे माँग है पराभौतिक की। वो भौतिक पिंजड़े के साथ तादात्म्य बना बैठी है, ऐसे हैं हम। एक चेतना जिसे माँग है पराभौतिक की, उसने संबंध किससे बैठा लिया है? एक भौतिक पिंजरे से। ये दो हैं हम।

और इन दोनों ही पहचानों से आप इनकार नहीं कर सकते। ना तो कोई ये कह सकता है कि वो देह नहीं है और ना ही कोई ये कह सकता है कि वो चेतना नहीं है। जो कहे कि वो देह नहीं है चेतना मात्र है। उससे हम कहेंगे, "आज से तुम्हारा खाना-पानी बंद। काहे कि देह तो तुम हो नहीं तो करोगे क्या कपड़ा माँग कर, कि रुपया माँग कर, कि खाना-पानी माँगकर? यह सब तो भौतिक चीज़ें हैं, हटाओ! तुम तो देह हो ही नहीं।"

कुछ ऐसे आते हैं चेतनावादी। उन्होंने नए-नए धर्म ग्रंथ पढ़ लिए होते हैं, वो कहते हैं "देह तो मैं हूँ ही नहीं।" ऐसों का सबसे पहले खाना-पानी बंद होना चाहिए और फिर कुछ आते हैं देहवादी वो कहते हैं "मैं देह मात्र हूँ।" ऐसों का जहाँ कहीं भी प्रेमपूर्ण रिश्ता हो वो टूटना चाहिए क्योंकि तुम तो देहभर हो न, और प्रेम तो पदार्थ होता नहीं। देह भौतिक होती है, देह का वज़न होता है। तुम तो कह रहे हो तुम देहभर हो, तो बताओ देह के किस हिस्से को प्रेम चाहिए, नाक को? कान को? हड्डी को? आँत को? बालों को?

अगर तुम बस देह होते तो तुम्हें माँग भी बस किस चीज़ की होती? खाने की, पीने की, रुपय की, पैसे की यही सब चीज़ें देह को चाहिए होती हैं। ये देह मुक्ति कब से माँगने लग गई? देह मुक्ति का करेगी क्या? तो निश्चितरूप से तुम देह के अलावा भी कुछ हो जो मुक्ति माँगता है। ये दो हैं हम अलग-अलग। इसमें कोई संदेह तो नहीं? कोई संदेह नहीं न? हम ये दोनों ही हैं।

अब समझिए कि पुनर्जन्म की बात क्या है। ये जो भौतिक पक्ष है हमारा वो तो आ रहा है सीधे-सीधे प्रकृति से और प्रकृति और समय एक हैं, उनका खेल चलता रहता है। समय का मतलब ही है परिवर्तन, माने मृत्यु। जिस हद तक हम भौतिक हैं, हम आते रहेंगे जाते रहेंगे, आते रहेंगे जाते रहेंगे। और जिस हद तक हम वो हैं जिसे सत्य की तलाश है, अमृत की तलाश है, हम अमर रहेंगे। कोई हमारी मृत्यु ही नहीं है, कोई हमारा जन्म ही नहीं है तो कोई पुनर्जन्म कैसे हो सकता है। यदि आत्मा हैं हम तो पुनर्जन्म तो छोड़ दीजिए जन्म भी नहीं हुआ है।

अब अगर प्रकृति हैं हम तो प्रकृति की धारा में बहते रहेंगे, वहाँ जन्म भी है और मृत्यु भी है। लेकिन किसका? वहाँ बार-बार जन्मता है आदमी, बार-बार मरता है। पर ये जो जनम रहा है और मर रहा है ये है कौन? क्या ये आप हैं? आप अपने बारे में जो कुछ जानते हैं, आप जिन-जिन चीज़ों से नाता जोड़े बैठे हैं वो सब तो इस विशिष्ट देह से संबंधित हैं। वो इस देह के साथ ही राख हो जाएँगी। आपकी पत्नी का संबंध आपकी इस देह से है। इसी देह से है। इस देह की अगर एक कोशिका भी ना बचे तो कौन पति और कौन पत्नी, बताइएगा ज़रा? आपके माता-पिता का और आपके बच्चों का संबंध इस देह से है जो अभी आपके पास है। देह ही जब नहीं बचेगी, राख हो जाएगी तो कौन किसका बाप? कौन किसकी माता? लेकिन आप जो बाप हैं भले ही चले जाएँ, लेकिन बाप बचा रहेगा। वो बाप जिसका नाम शेखर था वो चला गया लेकिन बाप तो बचा रहेगा न। बाप का पुनर्जन्म होता रहेगा, शेखर का कोई पुनर्जन्म नहीं है। बाप का पुनर्जन्म होता रहेगा लगातार, शेखर का कोई पुनर्जन्म नहीं होगा।

तो हमारे पास तीन भेद आ गए हैं ध्यान से समझिएगा — आत्मा हैं अगर आप तो आपका जन्म ही नहीं है पुनर्जन्म छोड़िए। शेखर हैं यदि आप तो एक ही जन्म है आपका, ये जो चल रहा है। और अगर आपने पहचान कर ली है मूल अहमवृत्ति से तो वो अहमवृत्ति बार-बार जन्म लेगी, बार-बार मरेगी। पर आपने अपनी पहचान मूल अहमवृत्ति से थोड़े ही बनाई है। आपने अपनी पहचान शेखर के साथ बनाई है न। आप ये थोड़े ही कहते हैं कि, "मैं बाप हूँ"; आप कहते हैं "मैं बाप हूँ जिसका नाम शेखर है।" अगर आप सिर्फ़ ये कहते कि "मैं बाप हूँ", तो दुनिया भर के सारे बच्चे आपके बच्चे हो जाते। लेकिन जब आप कहते हैं कि, "मैं शेखर बाप हूँ", तो बस आपके गुड्डू और पिंकी आपके बच्चे होते हैं। अंतर समझ रहे हैं?

अगर आप कहते कि "मैं बाप हूँ" या "मैं माँ हूँ" तो दुनिया के सब बच्चे आपके बच्चे हो जाते। पर नहीं, आप तो कहते हैं "मैं शेखर बाप हूँ" या "शीला माता हूँ।" अगर आप शेखर बाप या शीला माता हैं तो बस आपके गुड्डू और पिंकी ही आपके बच्चे हैं और दुनिया के बच्चे आपके बच्चे नहीं हैं। ठीक है? बात समझ में आ रही है? तो जिस दिन शेखर बाप या शीला माता सिधारेंगे उस दिन उनका कुछ बचने वाला नहीं है। हाँ, बाप का बचेगा, माँ का बचेगा। बाप आते रहेंगे, अभी और आएँगे, अभी और आएँगे। करोड़ों सालों से बाप आ रहे हैं अभी और आएँगे, करोड़ों सालों से माताएँ आ रही हैं अभी और आएँगी लेकिन ये जो माता थी शीला, ये नहीं आएगी।

लेकिन शीला को बड़ा ग़ुमान है, बड़ी ग़लतफ़हमी है और बड़ा लालच है उसे ये सोचने का कि शीला लौट कर आएगी। 'माँ' लौट कर आएगी, 'शीला' लौट कर नहीं आएगी। शीला के जाने के बाद भी करोड़ों माताओं का जन्म होगा, माँ बनेंगी, न जाने कितनी स्त्रियाँ माँ बनेंगी, न जाने पशुओं में भी कितनी मादाएँ माँ बनेंगी पर शीला फिर लौट कर नहीं आने वाली।

दिक्क़त ये हो गई है ख़ासतौर पर भारत में कि शीला और शेखर को लगने लगा है कि उनका पुनर्जन्म होगा। भाई, तुम्हारा थोड़े ही पुनर्जन्म होना है। तुम्हारे पास तो एक ही जन्म है इसीलिए तो संतो ने बार-बार कहा है कि "अवसर बार-बार नहीं आवे।"

अगर शीला और शेखर को ही बार-बार लौटना होता तो संत क्यों समझाते कि "अवसर बार-बार नहीं आवे"? क्योंकि शीला और शेखर के पास तो एक ही अवसर है, थोड़ा-सा ही समय है, उन्हें उसी समय का सदुपयोग करना है। हाँ, माँ और बाप चलते रहेंगे। प्रकृति में बहुत जन्म होंगे बहुत मृत्यु होंगी, तुम्हारी नहीं होंगी। कोई ये मान कर ना बैठे कि अभी तो हमें एक मौका और मिलेगा। तुम्हें नहीं मिलने वाला, तुम्हारा ये पहला और आख़िरी मौका है।

तो पुनर्जन्म की जो बात है वो बहुत सूक्ष्म है लेकिन दुर्भाग्य से उसे समझने वाले लोग बहुत कम हैं। क्या पुनर्जन्म होता है? निश्चितरूप से होता है अगर आप ये समझे कि पुनर्जन्म किसका होता है। शीला और शेखर का नहीं होता। ना आत्मा का पुनर्जन्म होता है क्योंकि आत्मा तो अजन्मी है और अमरी है, उसका कहाँ से जन्म हो जाएगा भाई? आत्मा तो सत्य है, जो ना आता है ना जाता है। ना आत्मा का पुनर्जन्म होता है। आत्मा का क्यों नहीं होता? क्योंकि उसने जन्म ही नहीं लिया, मृत्यु ही नहीं हुई तो पुनर्जन्म क्या होगा। शीला और शेखर का भी पुनर्जन्म नहीं होता। उनका पुनर्जन्म किसी और कारण से नहीं होता। उनका कारण क्या है? कि एक बार मरे तो मरे, अब वो लौट कर नहीं आने वाले। एक तीसरी इकाई है जिसका पुनर्जन्म निश्चितरूप से होता है, उस तीसरी इकाई को समझिए। शीला माँ मर गई, 'माँ' नहीं मरी; माँ लौटेगी। शेखर बाप मर गया, 'बाप' नहीं मर गया; 'बाप' लौटेगा।

समुद्र की एक लहर गिर गई है, अन्य बहुत लहरें उठेंगी और सब लहरों में गुण वही होंगे जो पूर्ववर्ती लहरों में थे। पुरानी ही लहरों का पानी वापस समुद्र में गया और वो नई लहर बन कर खड़ा हो गया। तो एक तरह से पुरानी ही लहर का पुनर्जन्म हो गया लेकिन तुम ये नहीं कह पाओगे कि पुरानी ही लहर वापस लौट आई है।

ये जो किस्से-कहानियाँ चला करते हैं कि फलाने गाँव का बिल्लू मरा और बगल के गाँव में गब्दू बनकर पैदा हो गया, ये झूठ हैं, भ्रामक हैं, मनगढ़ंत हैं, और धोखा देने के लिए रची गई कपोल-कल्पनाएँ हैं। येड़ा गाँव का बिल्लू मर कर पेड़ा गाँव का गब्दू नहीं बनने वाला। लेकिन इस तरह की कहानियाँ खूब चलती हैं। इतना ही नहीं होता गब्दू फिर कहानी भी सुनाएँगे कि "मुझे सब याद है येड़ा गाँव का।" ये सब बेकार की बात है।

ये बातें वही करेंगे जिन्होंने कभी श्रीकृष्ण की बात को गहराई से समझा ही नहीं और ये बातें अहंकार को बहुत जमती हैं। ये बातें हमारे भीतर के अँधेरे को बहुत पसंद आती हैं। क्यों? "जीवन अगर व्यर्थ भी जा रहा है तो श्रम करने की ज़रूरत क्या है, हमें तो एक मौका और मिलेगा; काहे कि हम हिंदू हैं और हिंदुओं में पुनर्जन्म होता है भाई। ज़िन्दगी अगर बर्बाद जा भी रही है तो जाने दो अभी तो एक मौका और मिलेगा न।"

तुम्हें नहीं मिलेगा। जिसका पुनर्जन्म होता है वो कोई और है। पुनर्जन्म निश्चितरूप से होता है पर जिसका होता है उसका नाम ना शीला है ना शेखर है। तुम तो चेत जाओ, होश में आओ, सावधानी बरतो। तुम्हारे पाँच-दस-बीस साल और बचे हैं, ज़रा उसको किसी सार्थक उद्यम में गुज़ार लो। राम नाम ले लो। सच की सेवा कर लो। सुधर जाओ, कुछ पाप काट लो। और ये सब करने की जगह तुम खाट तोड़ रहे हो कि "अभी तो पाँच-दस जन्म तो और मिलेंगे ही मिलेंगे।"

मोहल्ले का सरकारी स्कूल समझ रखा है? कि कितनी भी बार फेल होते रहोगे निकाले नहीं जाओगे। ये प्रकृति की पाठशाला है, यहाँ एक मौका मिलता है। उत्तीर्ण हो गए तो ठीक, नहीं उत्तीर्ण हुए तो दूसरा कोई अवसर है ही नहीं। राख हो गए, अब किसको मौका मिलना है।

और चूँकि हमने पुनर्जन्म की बात को कभी गहराई से नहीं समझा इसीलिए हमने अपना बड़ा नुकसान भी किया। पुनर्जन्म की बात गहरी-से-गहरी और सूक्ष्म-से-सूक्ष्म है। अगर उसको नहीं समझा, उसको विकृत कर दिया तो वो एक ग़ैर-ज़िम्मेदार जीवन जीने का बहाना बन जाती है।

किसीसे पूछो — क्या हुआ भाई तुम इतनी तक़लीफ में क्यों हो? कुछ करते क्यों नहीं? ग़रीबी तुम पर छाई हुई है, हालत तुम्हारी खराब है। हर तरह की तुम्हारी दुर्दशा है कुछ करते क्यों नहीं? तो वो कहेगा, "अरे! ज़रूर पिछले जन्म का कोई पाप है वही भुगत रहे हैं भैया। अब जब तक वो पाप कटेगा नहीं तब तक वैसे भी कुछ सुधर सकता नहीं।"

और कहो — ये क्या कर रहे हो तुम? क्या कर रहे हो? यह ग़लत है अगले जन्म में कुत्ते बनोगे। तो जवाब होगा, "चलो कोई बात नहीं अगले जन्म में बनेंगे न। अभी तो मज़ा ले लेने दो।"

सब कर्मों का फल मिलता है—गीता को ध्यान से समझिए—और अभी मिलता है, तत्काल मिलता है। अगले जन्म में नहीं मिलेगा। इतनी सुविधा आपको नहीं है कि आप अभी जो कर रहे हैं उसका फल अगले जन्म में मिलेगा। वास्तव में आध्यात्मिक बात ये है कि फल पहले आता है, कर्म बाद में आता है। हम सोचते हैं कि कर्म करने के बाद कर्मफल मिलता है। उल्टी बात! कर्म का स्रोत और कर्म का परिणाम एक होते हैं। जहाँ से कर्म उठ रहा होता है, कर्म का फल भी ठीक वही होता है। तो कर्म का स्रोत कर्म से पहले होगा न? और मैं कह रहा हूँ स्रोत ही परिणाम है। जहाँ से कर्म आया है वैसा ही फल देगा।

अहंकार से अगर कर्म आया है तो दुःख से आया है। अहंकार तो दुखी ही है हर समय, हालत नहीं देखते उसकी? परिणाम पहले आ जाता है, कर्म तो फिर भी बाद में होगा। हम क्या सोच रहे हैं कि अभी मज़े ले लेंगे और क्रेडिट-कार्ड की तरह बिल बाद में चुकाएँगे? ऐसा नहीं है।

और हम अच्छी तरह जानते हैं कि बहुत होनहार लोग घूम रहे हैं जो अभी मज़े ले करके क्रेडिट-कार्ड का बिल चुकाने के समय चंपत हो जाते हैं। अब ऐसों को अगर तुम कर्मफल का सिद्धांत बताओगे तो वो कहेंगे "ये तो बढ़िया चीज़ बताई आपने। माने कि हम जो कुछ भी करेंगे उसका अंजाम करीब पचास-साठ साल बाद भुगतना पड़ेगा न? तो देखिए अभी हम जवान हैं पच्चीस-तीस साल के हैं। और मान लीजिए कि अभी जिएँगे अस्सी साल, तो साठ का तो यही पर मज़ा आ गया। फिर दोबारा कहीं पैदा-वैदा होंगे तो तीस-चालीस साल वहाँ बिता देंगे। माने एक शताब्दी बाद कर्मफल भुगतना पड़ेगा। अरे! इतना कौन सोचता है? मज़ा मारो रे! ऐश करो!" बात समझ में आ रही है?

और भी बहुत घातक परिणाम हुए हैं कर्मफल की बात ना समझने से। एक घर में एक बच्चा पैदा हुआ, दूसरे घर में दूसरा बच्चा पैदा हुआ। यहाँ जो पैदा हुआ है उसको आपने कह दिया ब्राह्मण है। वहाँ जो पैदा हुआ है उसको आपने कह दिया शूद्र है, म्लेच्छ है, कुछ कह दिया। और कोई आया और उसने उत्सुकता करी "एक बात बताओ यार — बच्चा तो बच्चा है। तुम एक बच्चे की परवरिश चाँदी के चम्मच से घी-हलुआ खिला कर कर रहे हो और दूसरे बच्चे को तुम मूलभूत शिक्षा का अधिकार भी नहीं दे रहे; ये ग़लत है न? नाईंसाफ़ी है न?"

तो पंडित जी ने जवाब क्या दिया? "अरे, ये अपने पिछले जन्मों के कर्मों का फल भुगत रहे हैं भाई। ये जो गब्दू हमारे यहाँ पैदा हुआ है ये पिछले जन्म का ऋषि था। तभी तो ब्राह्मण परिवार में पैदा हुआ है। तभी तो पैदा होते से ही इसको सब सुख-सुविधाएँ मिलने लग गईं। और वो बगल में जो चंपू पैदा हुआ है, अरे वो पिछले जन्म का पापी है, हत्यारा है तभी तो उसने नीच कुल में जन्म लिया है।"

(आचार्य जी व्यंग्य करते हुए) अहा, पंडित जी ने पूरी बात को तर्कसंगत बना दिया। अब लगने लग गया कि जाति प्रथा तो ठीक ही है। जिन्होंने भाई पिछले जन्म में अच्छे काम करे होते हैं वो उच्च वर्ण में पैदा होते हैं और जो पिछले जन्म के पापी इत्यादि होते हैं वो निम्न वर्ण में पैदा होते हैं।

तो एक बात जो सीधे-सीधे अन्याय की है उसको हमने जायज़ ठहरा दिया, उसको हमने तर्कसंगत बना दिया। किस सिद्धांत का सहारा लेकर? कर्मफल के सिद्धांत का सहारा लेकर।

क्या श्री कृष्ण ने ये बात कहनी चाही थी गीता में? बिलकुल भी नहीं। पर हमारी नासमझी ऐसी है, हमारा अज्ञान ऐसा और हमारा अहंकार ऐसा है कि हम अवतारों की बात को भी अपने स्वार्थ के लिए तोड़-मरोड़ लेते हैं। बात आ रही है समझ में?

अब इसी बात में थोड़ा और सूक्ष्मता से दृष्टि डालेंगे। हमने कहा प्रकृति की धारा में निरंतर परिवर्तन हो ही रहा है और वहाँ पर कुछ बनता है, कुछ बिगड़ता है। वहाँ लगातार जन्म और मृत्यु है। तो पुनर्जन्म निश्चितरूप से हो रहा है वहाँ पर। हो ही रहा है। क्रोध का पुनर्जन्म हो रहा है, कामवासना का पुनर्जन्म हो रहा है, हो रहा है इन सब का पुनर्जन्म कि नहीं हो रहा है? मोह का पुनर्जन्म हो रहा है, अहंकार का पुनर्जन्म हो रहा है, प्रकृति की धारा में हर चीज़ दोबारा नए-नए रूपों में, नई-नई शक्लों में पैदा हो रही है और लगातार सामने आ रही है। इसका मतलब समझ रहे हैं? इसका मतलब ये है कि पुनर्जन्म को शारीरिक मृत्यु की भी प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ती। माने ये जो प्रकृतिगत पुनर्जन्म है वो ऐसा नहीं है कि तब होगा जब एक देह मर जाएगी। ये जिसको हम कहते हैं एक मानव देह का सत्तर-अस्सी साल का जीवन, इसमें भी उसके न जाने कितने पुनर्जन्म हो जाते हैं। क्योंकि आप लगातार ही तो बदल रहे हैं न।

अब इससे आप समझ जाएँगे वो जो श्लोक आपने उद्धृत करा उसका अर्थ क्या है। क्या समझाना चाहते हैं श्री कृष्ण? आप अभी जो हो, दो घण्टे बाद वही रहोगे? आप अभी जो हो, दो घण्टे पहले वही थे क्या? यही पुनर्जन्म है। और अभी से अगले घण्टे तक आप क्या हो जाओगे उसमें आपका चुनाव है। तो समझाने वालों ने कहा कि सही कर्म करो ताकि उच्च जन्म मिले आगे। अभी जैसे हो वो निर्धारित करता है कि अगले पल तुम कैसे हो जाओगे। बात समझ में आ रही है?

तो पुण्य क्या? जो अगले पल आपके मन को शांत कर दे। और पाप क्या? जो आपको आगे के लिए और तनाव में, अवसाद में ढकेल दे।

भाई हम शक्ल-सूरत और नाम इत्यादि से तो एक ही इंसान लगते हैं न। अन्यथा आप अपनी आज की तस्वीर देखिए और आज से चालीस साल पहले की कोई तस्वीर देखिए, कोई समानता है? बोलिए? आपने किसी को न बताया कि वो आपकी ही तस्वीर है चालीस साल पहले की, तो कोई पहचानेगा भी? मान लीजिए आज आप पैंतालीस के हैं और आपकी पाँच वर्ष की आयु की आपको तस्वीर दिखाई जाए। बड़ा मुश्किल होगा लोगों के लिए कह पाना कि यही आदमी है, है न?

पाँच और पैंतालीस के बीच ये जो बदलाव है ये कब आया? और बदलाव ज़बरदस्त है। हम कह रहे हैं पाँच की उम्र में जो इंसान था वो पैंतालीस की उम्र में है ही नहीं, और ये पैंतालीस वाला पाँच की उम्र में बिलकुल नहीं था। पाँच की उम्र में हो सकता है आप बड़े मासूम रहे हों, पैंतालीस की उम्र में हो सकता है आप दुनिया के सबसे दुर्दांत अपराधी हों। पैंतालीस की उम्र में जो दुनिया के सबसे ख़तरनाक अपराधी भी होते हैं वो पाँच की उम्र में कैसे थे? मासूम ही रहे होंगे भाई, तो ज़बरदस्त बदलाव आया। ये कब आया?

अच्छा अगर मैं पूछूँ कि क्या आप इस बात को मानेंगे कि पाँच वर्ष वाले का पुनर्जन्म ही हो गया, पैंतालीस साल वाले से उसकी कोई समानता नहीं है, पाँच साल वाला मर गया और ये जो पैंतालीस साल वाला है ये बिलकुल अलग ही आदमी है तो आप कह देंगे, "बिलकुल ऐसी ही बात है। वो जो पाँच साल वाला था उसके तो कोई लक्षण, कोई अवशेष, कोई चिन्ह ही नज़र नहीं आते इस पैंतालीस साल वाले में।" कह देंगे न? मान लेंगे न? तो पाँच और पैंतालीस में तो आप देख लेते हैं कि इतना अंतर आ गया, ये अंतर आया कब? कब आया? एक दिन अचानक रात में जब वो पैंतीस साल का था, वो सो कर उठता है तो वो पाता है कि वो मासूम से दरिंदा हो गया है? ऐसा हुआ था? लगातार ही परिवर्तन आ रहा था न।

हाँ, तो अगर सूक्ष्म दृष्टि से देखेंगे तो इसे ही पुनर्जन्म जानिए।

मन के बहुततक रंग हैं, छिन-छिन बदले सोय।

हाँ, हमारी नज़र स्थूल रहती है और ये जो परिवर्तन है ये भीतर-भीतर हो रहे होते हैं, सूक्ष्म हो रहे होते हैं। तो हमें पता नहीं चलता कि आज सुबह जो आदमी बिस्तर से सो कर उठा है, ये वो आदमी नहीं है जो पिछली सुबह सोकर बिस्तर से उठा था। घर वही है, नाम वही है, कपड़े भी वही हैं, चेहरा-मोहरा भी पुराने जैसा ही लगता है तो हम कह देते हैं, "वही आदमी ही तो है।" ये वही आदमी नहीं है। कुछ बदल गया है। समझ में आ रही है बात?

कुल मिलाकर के पुनर्जन्म के सिद्धांत का उद्देश्य कर्ताभाव की ओर आपका ध्यान आकृष्ट कराने का है। अगर आप कर्ता हैं तो आपको भोक्ता भी होना पड़ेगा, ये कहता है कर्मफल का सिद्धांत। जो करेगा वो करेगा ही इसीलिए क्योंकि उसे भोगना है और वो भोगना इसलिए चाहता है क्योंकि वो दुखी है। दुखी है तभी तो भोग करके अपना दुःख मिटाना चाहता है। पर उसने जो कुछ करा है वो करता इस तरीके से है कि उसका परिणाम उसे भविष्य में मिलेगा। ठीक? हमारे तो सारे काम इसी तरह आयोजित होते हैं। हमें लगता है अंजाम इसका भविष्य में आएगा।

अगर भविष्य में आपको अंजाम मिलना है तो वो अंजाम चखने के लिए आपको भविष्य तक बचे रहना पड़ेगा। किसको बचे रहना पड़ेगा? जो अभी दुखी है। दुखी है तभी तो उसने भोगने के लिए कर्म करा। माने अगर आप भोगने के लिए कर्म कर रहे हो तो आपको अपने दुखी स्वरूप को ही बचा कर रखना पड़ेगा। कर्ता को भोक्ता होना ही पड़ेगा और भोक्ता होने के लिए कर्ता को अपना कर्तृत्व बचा कर रखना पड़ेगा। कर्तृत्व बचा कर रखने का मतलब है मूल अहंता, मूल दुःख बचा कर रखना।

कर्मफल की बात हमें ये बताने के लिए की गई है कि हम ग़लत केंद्र से जितने निर्णय लेते हैं, जितने कर्म करते हैं वो कर्म हमें शांति नहीं देते, वो हमें एक भविष्य देते हैं। एक उपद्रवी भविष्य। शांति तो तत्काल मिलती है। हम ऐसे काम करते ही नहीं जो तत्काल शांति दे दें। हम हमेशा ऐसे काम करते हैं जो हमें भरोसा दिलाते हैं कि भविष्य में शांति मिलेगी। समझ में आ रही है बात?

भविष्य की शांति के लिए आप जो भी काम करोगे वो वास्तव में वर्तमान की अशांति बचाने के लिए किया गया काम है। काम करने ही वाला कौन है? वो जो अशांत है। वो जो अशांत है उसकी मजबूरी ये है कि वो जो कुछ भी करेगा वो अपने लिए और अशांति ही पैदा करेगा। तो फिर वो क्या करे? वो एक ही काम कर सकता है कि जो जो काम करने की उसकी इच्छा होती है उन कामों में तत्काल कूद ना पड़े। उसे पता होना चाहिए कि वो मौलिक रूप से अशांत हुआ पड़ा है। और अशांत है, कुछ करेगा, अशांति और बढ़ेगी। वो उस अशांति को आगे और भोगेगा और अशांत होता जाएगा। गिरता जाएगा, गिरता जाएगा, अशांति में और धँसता जाएगा।

ये कुचक्र है — कर्ता, कर्मफल, भोक्ता।

और भोगा तो क्या मिला? दुःख़।

और दुःख मिला तो और क्या किया? कर्म।

कर्म किया तो क्या मिला? कर्मफल।

कर्मफल को क्या करा? भोगा।

भोगा तो और क्या मिला? दुःख।

दुःख मिटाने के लिए और क्या किया? कर्म।

कर्म का क्या मिला आगे? कर्मफल।

कर्मफल को क्या करा? भोगा।

भोगने से और क्या मिला? दुःख।

ये इंसान की ज़िंदगी है, यही इंसान की ज़िंदगी है। हम ऐसे जीते हैं। तो इसका उपाय क्या बताते हैं श्री कृष्ण? वो कहते हैं, "भोगने के लिए कुछ मत करो अर्जुन!" यही गीता का केंद्रीय संदेश है, "भोगने के लिए कुछ मत करो। भोगने के लिए तुम जो कुछ करोगे, वो तुम्हें भारी पड़ेगा। तुम जो कुछ करो मेरे लिए करो। अपने सब कर्म अर्जुन मुझे अर्पित कर दे।"

वही तरीक़ा है अपने निजी कर्तृत्व से बाहर आने का और कोई तरीका नहीं है। अपने लिए तुम जो कुछ भी करोगे वो तुम्हारे लिए और दुःख का कारण बनेगा। जो कुछ करना है वो अपने से आगे की, अपने से पार की किसी सत्ता के लिए करो जिससे तुम्हारा कोई व्यक्तिगत संबंध ना हो।

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