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प्रेम और बोध साथ ही पनपते हैं || आचार्य प्रशांत, संत कबीर पर (2014)
Author Acharya Prashant
Acharya Prashant
25 min
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वक्ता: अब लग रहा है कि आप कबीर में डूब ही गये हैं, और वो भी प्रेम पंथ में| पिछले दिन आपने पढ़ा था, ‘कबीर बादल प्रेम का, हम पर बरसा आई’| और आज, ‘राता माता प्रेम का…’

राता माता प्रेम का, पीया प्रेम अघाय| मतवाला दीदार का, मांगे मुक्ति बलाय|

दो रास्ते रहे हैं सदा जिनकी मंजिल एक ही है| ‘ज्ञान’ का और ‘प्रेम’ का|

(मौन)

ज्ञानमार्गी कहता है कि मुझे स्वयं को पाना है और स्वयं को पाने में वो संसार को बाधा मानता है| वो कहता है कि स्वयं को इसी कारण नहीं पा पा रहा क्योंकि मेरी दृष्टि संसार की ओर लगी हुई है| वो अंतर्गमन मांगता है। कहता है, ‘जहां संसार से मुक्ति मिली, तहां अपने को पा लूंगा’| इसी कारणउसके शब्दकोष में, ‘त्याग’ एक बड़ा महत्वपूर्ण शब्द हो जाता है| वो लगातार त्याग की बात करेगा| वो कहेगा, ‘छोड़ना है’| वो अनासक्त होने की बात करेगा, वो वैरागी होने की बात करेगा| ये ज्ञानमार्गी है| वो जानना चाहता है|

और जो दूसरा रास्ता होता है ‘प्रेम’ का, वो कहता है, ‘मुक्ति चाहिए किसको? त्याग करना क्या है? मुझे तो डूबना है’| वो कहता है कि ये संसार छोड़ने के लिये नही है| इसी संसार के माध्यम से, तो उस प्यारे के साथ एक हो जाऊंगा| उसका रास्ता मुक्ति का नहीं है, उसे त्याग नहीं चाहिए| उसे मिलन चाहिए| मंजिल एक ही है, पर भाषा अलग-अलग है| एक कहेगा, ‘दूर हो जाना है’ और दूसरा कहेगा, ‘पास ही आ जाना है’| यही कबीर यहां पर कह रहें हैं, ‘मतवाला दीदार का, मांगे मुक्ति बलाय’| ‘मुक्ति चाहिए किसको? मुझे दीदार चाहिए, मुक्ति नहीं चाहिए’|

आप अष्टावक्र के पास जायेंगे, वो लगातार कहेंगे, ‘मुक्ति चाहिए’| पर मीरा नही कहेगी कि मुक्ति चाहिए और कबीर भी यहां पर नहीं कह रहे हैं कि मुक्ति चाहिए| ‘कैसी मुक्ति, क्या मुक्ति? जिससे मुक्त होना है, वो तो वही है, जो मैं हूं| उससे मुक्त कैसे हो सकता हूं| बल्कि मुक्ति कि कामना ही बंधन है, तो मुझे मुक्त भी नहीं होना है| मुझे तो डूब जाना है, पूरे तरीके से| मुझे कण-कण में वही दिखाई दे| हर छवि में उसी की छवि हो’| और फिर वो कि “हर ज़र्रा चमकता है नूरे इलाही से”, ये बोल हैं प्रेममार्गी के, ये भक्त के बोल हैं| ज्ञानी कभी कहेगा कि मुझे मस्त हो जाना है? पर कबीर कहरहें हैं कि मतवाला दीदार मांगे| ज्ञानी के शब्दकोष में शब्द होगा ‘होश’, वो कहेगा, ‘मुझे होश मे आना है’| और प्रेमी की भाषा होगी ‘बेहोशी’की| वो कहेगा, ‘मुझे मस्त हो जाना है’| बात दोनों एक ही कह रहे हैं| अगर गौर से देखोगे तो दोनों की अवस्थाओं में कोई अंतर नहीं है पर शब्द विपरीत जान पड़ेंगे| एक कह रहा है, ‘मुझे होश में आना है, पूरी तरह जग जाना है, उठ बैठना है’| और दूसरा कह रहा है, इतनी पिलाओ कि बेहोश हो जाऊं’| दूसरा कह रहा है कि इतनी पिलाओ कि ज़रा होश बाकि न रहे| आपने सुना होगा? दोनो ही रुपों में आपने अभिव्यक्तियां सुनी होंगी | और आपको ताज्जुब हुआ होगा कि कहीं तो बात होती है, पूरी जागृति की और दूसरी ओर पर सूफी हैं, संत हैं, प्रेमी हैं वो कहते हैं कि परम का प्याला पीया और ऐसे बेसुध हुए कि सब मिल गया| तो किसी को पूरे होश में मिल रहा है, और किसी को बेसुधी में मिल रहा है, ये कैसे संभव है? दोनो एक ही बात कर रहें हैं, दोनों अलग नहीं कह रहें हैं|

‘उस मय से नहीं मतलब, जो खुद से करे बेगाना| मकसूद है उस मय से, दिल ही में जो खिंचती है’|

वो जब ये भी कह रहे हैं कि मतवाला होना है, तो वो आपकी साधारण शराब की बात नहीं कर रहे हैं| वो उस मय कि बात कर रहे हैं, जो दिल में ही खिचती है| कबीर पियक्कड़ नही थे कि कहीं ठेके पर नजर आयेंगे, मतवाले होने के लिये| पर नशे में हमेशा रहते थे| उस मय की बात कर रहे हैं,जो दिल से ही उठती है| उस मय की बात नहीं कर रहे हैं, जो आपको आप से ही बेगाना कर देती है, जो आपको विषयों की तरफ ले जाती है| भक्त इसी भाषा में बात करता है|

‘पीया प्रेम अघाय…’, इतना पीया, इतना पीया कि…;अघा गए|

‘मतवाला दीदार मांगे’,

ज्ञानी कहता है, ‘समस्त छवियां लुप्त हों जाएं और कोई छवी अब बचे ही ना’| वो कहता है, ‘परिकल्पनाओं, छवियों का होना; यही मेरा बंधन है’| वो कहता है, ‘मुझे छवियों से मुक्ति चाहिए’| और प्रेमी कहता है, ‘एक बार अपनी छवि दिखला जा, एक बार दरस दे दे’| उसे दीदार चाहिये| दोनों, बात अलग-अलग नहीं कह रहें हैं लेकिन जिसका दीदार प्रेमी को चाहिये, उसका दीदार तभी मिलेगा, जब सामान्य इन्द्रियों से जो छवियां बनातीं हैं, मन से जो छवियां बनती हैं जब वो मिटेंगी, तब उसका दरस उठता है| वो कोई सामान्य छवि नही है कि आपने आंख बंद करी और आपके सामने कान्हा बांसुरी लेकर नाचने लगे| ना, ये उस छवि की बात नहीं हो रही है| कबीर लगातार राम का नाम लेते हैं| पर नहीं, धनुर्धारी राम की छवि से कबीर का कोई प्रयोजन नहीं होगा| कबीर कहने भर को छवि कह रहें हैं| कबीर कहने भर को ‘दर्शन’ और ‘दीदार’ शब्द का प्रयोग कर रहें हैं क्योंकि किसी शब्द का तो प्रयोग करना पड़ेगा| जहां पर वो ‘दर्शन’ कह रहें हैं, उसका अर्थ यही है कि ऐसा डूब गया अपने आप में, कि अत्येन्द्रीय| कुछ बोध हो गया| कोई सामान्य छवि नहीं, कोई रूप नहीं, कोई आकार नहीं| ठीक है?

(मौन)

रास्ते दोनों हैं, और आप पर कोई पाबंदी नहीं है कि किसी एक ही पर चलें| दोनों वास्तव में अलग हैं हीं नही| और जीवन क्योंकि पूर्ण है, जीवन क्योंकि वर्जनओं का नाम नहीं है, तो इसीलिये आप भी पूर्ण रहिये| कभी जम के पीजिये और कभी कहिये कि ‘ना, मैला मत कर देना मुझे, छू मत देना मुझे, किसी भी तरीके से ये संसार छू ना जाए मुझे’| और किसी दिन तैरिये उसी संसार में, आप पाएंगे कि अंतर नहीं है| किसी एक सिरे को पकड़ कर मत बैठ जाइयेगा| मारगी बनने की कोशिश मत करियेगा कि हम तो ज्ञानमार्गी हैं| ये जिद मत पकड़ लीजियेगा, इधर को जाएंगे, तो भी मन को सुविधा है, उधर को जाएंगे तो भी मन को सुविधा है| अहंकार मौज मनाएगा कि भाई अब ये तो ज्ञानमार्गी हो गए हैं, तो ज़ रा इनसे कोई मीठी बात मत कर देना| ठीक, अब आपका एक ढर्रा बन गया कि ये तो ज्ञान मार्गी हैं, तो ये ज़रा कडे-कडे रहते हैं, अनासक्त से रहते हैं, इन्होंने अपने नियम कायदे निर्धारित कर रखे हैं, सन्यासी जैसे प्रतीत होते हैं| ये खाते नहीं, वो पहनते नहीं, ऐसी बात नहीं करते, ये नहीं छूते| बढ़िया! अहंकार को ठिकाना मिल गया| अब वो यहीं पर छुपेगा| और दूसरी ओर भी मत बैठ जाइयेगा कि अब ये साहब प्रेममार्गी हैं| इसका क्या मतलब है? इसका मतलब है कि बिल्कुल कड़वा नहीं बोलते किसी से, और इसका मतलब है कि दिन-रात टुन्न रहते हैं|

(सब हंस देते हैं )

और इसका मतलब ये है कि कभी इनसे कोई समझ की बात मत कर देना क्योंकि ये कहेंगे की हम तो दरस के दीवाने हैं, हमसे बुद्धि की बातें मत किया करो| हमसे दिल की बातें किया करो| हमें समझाने कि कोशिश मत करना, हमारे तो बस गले लग जाओ| अब ये आदमी भी खतरनाक हो गया है| इसके अहंकार ने भी ठिकाना खोज लिया है| तो आप दोनों में से किसी भी तरफ जा कर बैठ मत जाईयेगा| आपको सब कुछ उपलब्ध है| आप इधर भी रहिये, उधर भी रहिये| और कबीर भी ऐसे ही हैं| बहुत अच्छी बात है कि आज शुरुआत ही कबीर से हो रही है| कबीर इधर भी हैं, उधर भी हैं|

पाएगा वही जो सर्वत्र है क्योंकि जिसे पाना है वो भी कुछ इसी तरह का है; ‘सर्वत्र’|

पाने का तरीका एक ही है| जिसको पाना है, वैसे ही हो जाओ और पा लोगे| तो जैसे कबीर हैं, वैसे ही हो जाओ| वो इधर भी हैं, उधर भी, आगे-पीछे,दाएं-बाएं, कुछ ऐसा नही है जो कबीर के लिए वर्जित है| आपके लिए भी ना रहे| प्रेमियों में प्रेमी हैं कबीर, और ज्ञानियों में ज्ञानी हैं| वैसेही रहिये| खूब जम के पीजिये, और ऐसा पीजिये, ऐसा पीजिये कि पूरे होश में आ जाएं तब बात बनी| ऐसा पीने से क्या फायदा कि बेहोश हुए| पूरा पी रहे हैं, और ऐसा पी रहे हैं कि होश में आ जाते हैं| प्रेमी भी हैं, ज्ञानी भी| हां, मिलते हैं तुमसे गले, संसार हमारे लिए त्याज्य नही है| पूरे तरीके से तुमसे गले मिलते हैं, शारीरिक सम्बन्ध भी हैं| संसार को भोग भी रहे हैं, पर उस क्षण में भी होश कायम है| प्रेम में भी ज्ञान है, और ज्ञान में भी प्रेम है, तब बनी बात| एक तरफ को बैठ गए, कुछ नही पाएंगे| ज्ञान के शुद्धतम् क्षण में भ मैंने अपने आप को काट नही दिया है| एक सूक्ष्म अहंकार नही बच गया है कि ‘मैं जानने वाला हूं’| तो ज्ञान में प्रेम है| और प्रेम की ताकतवर धारा में, मैं बह नहीं गया हूं| होश अभी भी कायम है, तो प्रेम में भीज्ञान है| दोनों मिलें एक साथ तो मिलेगा जीवन; पूर्णता में| ठीक?

कुंदन पूछ रहें हैं, ‘प्रेम में होश कैसे?’

ज्ञान के साथ विडम्बना ये है कि वो सब कुछ काट देता है, पर काटने वाले को बचा देता है| आप कह दोगे कि जान गया| ‘ये भी त्यागा वो भी त्यागा, मैं समझ गया कि ये सब वस्तुएं हैं| मैं जान गया कि ये जो सारा फैलाव है जगत का, मात्र मानसिक है, तो मैंने इसको सत्य मानना छोड़ दिया, त्याग दिया’| आप उसकी सत्यता को ही त्यागते हो ना? त्याग दिया| लेकिन उसमे विडम्बना ये है कि जो त्यागने वाला है, वो बच जाता है, वहां ये खतरा है| समझियेगा ज्ञान का खतरा| ज्ञान का खतरा ये है कि जिसने त्यागा वो बच जाता है| अहंकार को वहां पर ठौर मिल गया|

प्रेम में भी खतरा है| प्रेम में खतरा ये है कि जिसके प्रेम में आप पडे, भले ही वो परम क्यों ना हो, आपने उसको एक छवि दे दी, रूप दे दिया, आकारदे दिया, और आपने उसको एक वस्तु बना दी| ये प्रेम का खतरा है| जहां ज्ञान में अहंकार शेष रहेगा, वहां ज्ञान प्रेम नहीं बन पाएगा| और जहां प्रेम मेंछवि आ गयी, वहां प्रेम में भी अहंकार को ठिकाना मिल गया| अहंकार ज्ञान में भी ठिकाना खोज सकता है, और अहंकार प्रेम में भी ठिकाना खोज सकता है| यदि अहंकार ना रहे तो ज्ञान प्रेम बन जाएगा| यदि अहंकार ना रहे तो प्रेम ही ज्ञान बन जाएगा|

श्रोता १: सर, प्रेम में छवि बनाने को हम गलत क्यों मानते हैं?

वक्ता: क्योंकि जहां छवि बनेगी वहां विभाजन होगा| जहां छवि बनेगी, वहां आपका प्रेम, मात्र वैसा ही हो जाएगा जिसे आप आसक्ति कहते हो, या आकर्षण| विभाजन ऐसे होगा कि जिसकी छवि है, आप मात्र उसी की ओर जाएंगे| बाकि दुनिया आपके लिए अलग हो जाएगी| फिर ये प्रेम नहीं है| अब यहां पर अहंकार को ठिकाना मिल गया| याद रखियेगा जब तक किसी की छवि से प्रेम है तब तक, प्रेम करने वाला ‘कोई’ मौजूद है| अहंकार को ठिकाना मिला हुआ है| यदि आप ये कह रहीं हैं कि मीरा को कृष्ण की छवि से प्रेम था, तो आप गलत कह रहीं हैं क्योंकि यदि मीरा किसी की छवि से प्रेम कर रही है, तो फिर उसे ‘मीरा’ होना पडेगा| फिर उसे बोध नहीं प्राप्त हो सकता| वास्तविक प्रेम में, ‘मीरापन’ ही विलुप्त हो जाएगा, गल जाएगा| मीरा, ‘मीरा’ होकर कृष्ण को नही पा सकती| मीरा कृष्ण को, ‘ना कुछ होकर’ ही पा सकती है|

तो हमने दो खतरे देखे:

ज्ञान में अहंकार कहां पर छुपता है? कि ‘मैं ज्ञानी हूं, मैंने त्यागा, मैंने जाना’| यहां पर ठिकाना है, ज्ञान में अहंकार का| और प्रेम में अहंकार का कहां ठिकाना है? कि ‘मेरे प्रेम का कोई विषय है’| साधारणतय हम ये कहते हैं कि मेरे प्रेम का विषय है, मेरा बच्चा या मेरे सगे-सम्बन्धी या मेरे दोस्त-यार| पर यदि प्रेम का विषय वो परम भी है, तो भी प्रेम में अभी अहंकार छुपा हुआ है| अब प्रेम ज्ञान नही बन पाएगा|

तो कुंदन ने कहा कि प्रेम में होश कैसे कायम रहे? प्रेम में ऐसे ही होश कायम रहे कि सजगता रहे कि प्रेम के नाम पर, कहीं मैं फिर उसी आकर्षण केखेल में तो नही फंस गया हूं? ये प्रेम है भी क्या? ऐसे होश कायम रहे|

श्रोता 2: ये भी तो अहंकार को पुष्ट ही कर रहा है, किसको, किसको ये ज्ञान है?

वक्ता: हां बिल्कुल, बिल्कुल बात ठीक है| इसलिये दोनो साथ चलें| अगर अभी ये पूछने पर कि ‘किसको ये ज्ञान?’ उत्तर ये मिलता है, ‘मुझको’ तो दिक्कत हो जाएगी| और अब आपको एक मजेदार बात बताता हूं| जब तक ये पूछते रहोगे, ‘किसको’ ये ज्ञान, उत्तर यही मिलेगा कि ‘मुझको’| तो प्रेम तो उस दिन जानना जब ये पूछा-पूछी ही खत्म हो जाए| प्रेम तो उस दिन जानना जब ये भूल ही जाओ कि अरे ये भी तो पूछना था!

श्रोता १: सर, यही तो बोला कि ज्ञान कहां रहा फिर उसमें?

वक्ता: ‘ज्ञान’ कोई संचित संपदा थोड़े ही है कि तुम्हारे पास होगा| ज्ञान का अर्थ ही यही है कि ज्ञानी कोई न रहा| तुम पूछना चाह रहे हो ‘ज्ञानी’ कहां रहा| ज्ञान का अर्थ ही यही है कि ज्ञानी नही रहा, मात्र ज्ञान रहा| तो असली प्रेम भी तभी जानना| क्या कहा था भक्तिसूत्र में?

“मत्तो भवति, स्तब्धो भवति, आत्मा रामो भवति”|

असली प्रेम तभी जानना जब ऐसी स्तब्धता आ जाए कि ये पूछा-पूछी ही गई| किसको प्रेम हुआ है? किससे हुआ है? ऐसा झटका लगे, ‘स्तब्धता’| ऐसी मस्ती छाए, ’मत्तो भवति’| पूछा ही नहीं जा रहा, अरे! भूल ही गए पूछना| कहां से पूछें? कैसे पूछें? अवाक् हो गए हैं| न ज़बान चल रही है, ना मन चल रहा है| तो कौन पूछे, किससे पूछे?

श्रोता ३: सर, ये जो बोल रहे थे ना, संसार में विलीन हो जाना, पूरी तरह से, उसका ठीक-ठीक मतलब क्या है? समझ नहीं आया|

वक्ता: देखो हम संसार में कभी डूब पते नही हैं| सुष्मिता कह रहीं हैं कि ये जो बात है कि प्रेमी संसार में डूब जाता है, इसका अर्थ क्या है? हम कहते भर हैं कि हम भोगी हैं| हम कहते भर हैं, दावा भर करते हैं कि हम भोगी हैं| ईमानदारी से अपने आप से पूछिये, क्या आप भोग भी पाते हो? आप भोग भी तो नहीं पाते ना क्योंकि आपका सारा भोग इस बुनियाद पर खड़ा है कि कुछ ऐसा है जो पाना है, और कुछ ऐसा है जो नहीं पाना है| तो आप भोग भी नहीं सकते संसार को, पूर्णता में| संसार को भोगने का अर्थ ये है कि सब कुछ ही तो भोग्य है| सब कुछ मेरा| दूर क्या होना है? हम बातें तो खूब करते हैं कि संसार में ये मिल जाए और वो मिल जाए, ऐसा हो जाए और वैसा हो जाए पर सच ये है कि हम संसार के भी नही हैं| मात्र इतनी सी बात नहीं है कि हम सत्य के नही हैं, कि हम परम के नही हैं, हम तो संसार के भी नही हैं| हम संसार से भी डरे-डरे, रूठे-रूठे रहते हैं| क्या यही स्थिति नहीं है हमारी? संसार से ज्यादा आपको क्या डराता है, ये बता दीजिये? कोई आकर आपको खा लेगा? सड़क पर चलते हो तो कुत्ता काट लेगा| कोई आकर आपके पैसे चुरा ले जाएगा| कोई आ के आपका पति या पत्नी चुरा ले जाएगा| कोई आकर आपकी इज़्ज़त का हरण कर लेगा| कोई धोखा ना दे दे| और संसार में अंततः मौत तो बैठी ही हुई है, तो सबसे ज्यादा तो वही डराती है| तो हम भोगते भी कहां हैं संसार को?

संसार को भोगने का अर्थ है कि संसार जो कुछ है, उसका सहज स्वीकार; पूर्णता में, द्वैत के दोनो सिरों का स्वीकार| और यही है सूत्र| जिसने संसार को पूर्णता में स्वीकार कर लिया, जिसने द्वैत के दोनो सिरों का स्वीकार कर लिया, वो द्वैत के पार निकल गया| जिसके लिए सर्दी-गरमी, दुःख-सुख दोनों मेहमान हैं, दोनों में से किसी के लिए वो नहीं कह रहा कि तुम्हारे लिये इसके दरवाजे बंद हैं, वो दोनो के पार निकल गया|

(मौन)

जो आप चाहे कितना सम्मान दे दें, और चाहे जितनी बेइज्जती कर दें, एक ही स्थिति में है, वो निकल गया, पार कर गया| ये है संसार को भोगने का अर्थ| संसार को भोगने का ये अर्थ नहीं है कि बिल्कुल बुद्धिहीन होकर, पागल होकर इधर नोच रहें हैं, उधर खसोट रहें हैं, उधर चाट रहें हैं कि कुछ मिल जाए| भोगने को लेकर के मन में छवि कुछ ऐसी ही उठती है| पर ये अर्थ नहीं है भोगने का| भोगने का अर्थ है- ये रहा संसार, और ये पूरा ही मेराहै| इसमें से कुछ ऐसा नहीं है जो ग्रहणीय न हो| जो आएगा, बढ़िया| अब आप हुए संसार के, अब आप भोगोगे|

ठीक है?

श्रोता ४: सर, ज्ञान में जो खतरा है वो तो समझ में आ गया, लेकिन प्रेम में जो खतरा है, वो समझ नहीं आया|

वक्ता: प्रेमी क्या करते हैं? आप पूछ रहें हैं, ‘प्रेम में क्या खतरा है?’ प्रेमी क्या करते हैं? आप अपने चारो तरफ लोगों को पाते हैं, जिनका दावाहै कि वो प्रेमी हैं, वो क्या करते हैं?

श्रोता ४: वो बस किसी एक की तरफ…

वक्ता: बस यही जो ‘खासपन’ है न, यही खतरा है प्रेम का|

श्रोता ४: किसी एक का चुनाव|

वक्ता: हां, और यही फिर एक का चुनाव बन जाएगा|

श्रोता ४: इसमें अहंकार कैसे बचा?

वक्ता: ‘मेरा’ बच्चा|

श्रोता ४: एक्सक्लूसिव (के अतिरिक्त)

वक्ता: ‘मेरा’, एक ‘खास’ बच्चा| ये अहंकार हुआ ना? यही तो ‘मैं’ बचता है, ‘मेरे’ की शरण पा कर के ही तो?

(मौन)

श्रोता ४: सर, ऐसा भी तो हो सकता है कि ‘मैं’ नही बचा, पर कोई विषय है|

वक्ता: द्वैत का एक सिरा, कभी अकेले नहीं जाएगा| ऑब्जेक्ट (वस्तु) बचेगा कैसे, जब सब्जेक्ट (व्यक्ति) विगलित हो गया?

श्रोता ४: इसमे पर्टिकुलर (कुछ विशेष) नहीं बचता| अगर पर्टिकुलर (कुछ विशेष) बच रहा है, तो वो कौन है?

श्रोता ५: सर, ये जो बता रहें हैं, ये उस प्रेम की बात कर रहें हैं, हम लोग जिसे समझते हैं| आप मीरा के प्रेम की बात बता रहे थे, वो तो फिरदूसरी बात हो गई ना? हमारा अहंकार कहां फंसता है, उस चीज को समझा रहे हैं ना?

वक्ता: हां, तो यही हमें जानना होगा ना कि हमारा प्रेम ही हमारे अहंकार की शरणस्थली है| हम जिसको ‘प्रेम’ बोलते हैं साधारणतया, वहीँ पर हम अपने अहंकार को छुपाए हुए हैं| कहा ना मैंने कि प्रेम और ज्ञान बिलकुल साथ-साथ चलें| डूबिये प्रेम में, मस्त हो जाइये और होश कायम रखिये| मौज रहे प्रेम की पर ये होश रहे कि ये हो क्या रहा है| प्रेम के नाम पर कुछ और ही तो नहीं चालू हो गया? वास्तव में ये प्रेम है, या कुछ और? आकर्षण, माल्कियत|

श्रोता ५: सर, हमारे रिश्तों में ऐसा ही होता है, और अगर दिख रहा है तो?

वक्ता: नही, दिख रहा है ‘तो’ का प्रश्न ही नहीं उठता| दिख रहा है, तो बदल गया| एक साथ हैं | यदि दिख ‘ही’ रहा है, तो बदल ‘ही’ गया| समय भी नहीं लगेगा| जिस क्षण दिखा, ठीक उसी क्षण बदला| यदि बदला नहीं तो, दिखा ही नहीं|

श्रोता ५: सर, ज्ञान मार्ग और प्रेम मार्ग, होता क्या है? ज्ञान मार्ग में क्या होता है कि हम संसार पर प्रश्न करना शुरु कर देते हैं| और प्रेममार्ग में किसी विशेष आकर्षण से ही शुरु होता है, एकाएक वास्तविकता का ज्ञान हो जाता है|

वक्ता: ये अच्छा है| ये अच्छा है, कि दोनों शुरू कहां से होते हैं? ज्ञान मार्ग शुरू होता है कौतुहल से, ज्ञान मार्ग ऐसे शुरू होता है कि ‘ये है क्या?’ विज्ञान ज्ञान मार्ग की बड़ी अच्छी शुरुआत है| ‘ये है क्या? मुझे जानना है, मुझे समझना है, मुझे मूढ़ नहीं रहना है’| ये ज्ञान मार्ग की शुरूआत है| और ये आपके संस्कारों पर ही होता है| हर शुरुआत आपकी कंडीशनिंग से ही निकलती है| आपका मन कैसा है? तो एक मन होता है, कौतुहल वाला, इसे आम तौर पर पुरुष मन कहा जाता है| पुरुष आम तौर पर ज्ञान मार्गी होता है| उसे जानना है, खोजी मन है| उसे हर चीज की जानकारी चाहिये| उसे भरना है और; मन को| उसे अपने आप को ये सांत्वना देनी है कि ‘मेरे पास ज्ञान का बल है, मैं जनता हूं’| शुरुआत यहां से करेगा| प्रेम शुरु होता है आकर्षण से, प्रेम मार्ग लेकर के वहीँ जाएगा जहाँ ज्ञान मार्ग लेकर जाता है| पर उसकी शुरुआत होती है आकर्षण से| ज्ञान की शुरुआत होती है कौतुहल से, प्रेम की शुरुआत सदा आकर्षण से होती है| स्त्रियों को आम तौर पर प्रेम मार्गी माना गया है| वो आकर्षित जल्दी होती हैं|

श्रोता ५: क्या ये स्त्रियों में ही होता है?

वक्ता: ऐसा कुछ नही है| पुरुष और स्त्री कोई दो शरीर नहीं हैं, मन की दो अवस्थाएं हैं| एक मन होता है, जो कहता है कि जानूंगा| ये एक प्रकार काआक्रमण होता है कि जानूंगा| वो फूल के पास जाएगा तो कहेगा इसको समझना है, जानना है| वो फूल को काट-पीट के भी जानना चाहेगा| आपने देखे होंगे बच्चे जो खिलौनों को बहुत जल्दी खोल देते हैं| और आपने देखे होंगे बच्चे, जो खिलौनों को अपने साथ बिस्तर पर सुला लेते हैं| ये दो अलग-अलग तरह के मन हैं| एक बच्चा है जो खिलौने को काट कर, उसके अंदर घुस जाना चाहता है कि मामला क्या चल रहा है, ये ज्ञान मार्गी है| और एक बच्चा है, जो खिलौने को सीने से लगा कर के बिस्तर में अपने साथ सुला लेता है, ये प्रेम मार्गी है|

(मौन)

श्रोता ६: सर, जब हम बड़े हो जाते हैं तो ये लिंगभेद महत्व नही रखता| और फिर अगर हम अपने अनुभव से, ज्ञान मार्गी या प्रेम मार्गी कुछ भी हो सकते हैं|

वक्ता: हां हां, मैंने कहा तो ये शरीर की बात नही है, ये मन की दो अवस्थाएं हैं| और ऐसा भी नही है कि आप पूरे-पूरे ही ज्ञान मार्गी रहोगे|वो दोनों प्रकार के मन हर व्यक्ति के भीतर मौजूद हैं, चाहें पुरुष हो या स्त्री| चाहे पुरुष हो या स्त्री, वो दोनों मन हर एक के भीतर मौजूद है| ठीक वैसेही, जैसे चैतन्य महाप्रभु सडकों पर नाच सकते हैं, और ठीक वैसे ही जैसे मैरी क्यूरी वैज्ञानिक हो सकती हैं| उसी तरीके से ये दोनो मन प्रत्येक केभीतर मौजूद है|

श्रोता ६: तो क्या ऐसा होता है कि एक प्रबल होता है और एक..

वक्ता: हाँ, हाँ|

श्रोता ६: तो मतलब कि जब ये महसूस हो कि सबसे दुराव हो जाएगा और सिर्फ हम ही बच रहें हैं, तो ये वास्तविकता ज्ञात हो कि हम एक सिरा पकड़ कर बैठे हैं| और..

वक्ता: नही, आगे बढ़ते रहिये| ये तो आखिरी सवाल होता है कि सब कुछ छोड़ दिया पर कहीं अपने आप को तो नही पकड़ लिया| ये तो आखिरी सवाल है| अभी तो अगर दिख रहा है कि कुछ कचरा है तो कटने दीजिये उसको, ज्ञानी तो काटता है| और यही उसकी ताकत है, यही उसका बल है, यही उसकी परीक्षा भी है कि वो काट पा रहा है या नहीं काट पा रहा है| ये आखिरी सवाल होता है, जो उसे पूछना पड़ता है अपने आप से कि सब कुछ तो काट दिया, पर अपने आप को क्यों ढो रहे हो| अब इस अहंकार को भी काटो| तुम किसी से अब जुड़े हुए नही हो| बात बिल्कुल ठीक है, ‘तो फिर अपने आप से ही क्यों जुड़े हुए हो? उसको भी काटो’| ये आखिरी सवाल होता है उसका|

श्रोता ७: सर अभी हमने विचार-विमर्श किया कि शुरुआत कैसे होती है, अब अगर समझना है कि विकसित कैसे होता है, तो मेरे समझ से, ज्ञान मार्ग में प्रगति प्रश्न करने से होती है|

वक्ता: हाँ हाँ, बढिया|

श्रोता ७: और प्रेम मार्ग में वास्तविकता अपने आप आ जाती है|

वक्ता: ज्ञान मार्ग में प्रगति होती है, संकुचन से, काट-काट कर, काट-काट कर, और प्रेम मार्ग में प्रगति होती है विस्तार से, औरों को अपने प्रेम के दायरे में ला-ला कर, ला-ला कर| ज्ञान मार्गी अपने जीवन से वस्तुओं को घटाता जायेगा, घटाता जायेगा, घटाता जायेगा| और प्रेम मार्गी अपने जीवन को और भरता जायेगा, और भरता जायेगा| वो कहेगा, ‘अब मेरा घर ही मेरा घर नही है, ये पूरा मोहल्ला मेरा’| उसके दायरे बढ़तेजाएंगे, बढ़ते जाएंगे|

(मौन)

श्रोता ७: सर, मैं ओशो की एक किताब पढ़ रहा था, उसमें उन्होंने कहा था कि समय के किसी एक बिंदु पर आपको एक ही मार्ग पर होना चाहिए, क्योंकि अगर आप एक रास्ते पर गए और आप फिर किसी और पर, तो हो सकता है…

वक्ता: देखो, वो बात ठीक कह रहें हैं| अगर तुम किसी प्रक्रिया पर चल रहे हो, तो एक ही प्रक्रिया को पकड़ो| और मैं जिन मार्गों की बात कर रहा हूं, वो वास्तव में मार्ग नहीं हैं, वो प्रक्रियाएं नहीं है, वो मन की अवस्थाएं हैं| उन्होंने ठीक कहा, एक साथ दो नावों पर पावं रखोगे, तो कहीं के नही रहोगे| यदि किसी प्रक्रिया का पालन करना है, यदि किसी बंधे-बंधाए प्रक्रिया पर चलना है, तो उसके साथ छेड़खानी मत करो| जो उसके निर्धारित कदम हैं, प्रक्रिया के, उनका अक्षर- अक्षर पालन करो| ठीक है न? वो प्रक्रियाओं के लिए है| ये प्रक्रियाएं नही हैं| ‘होश’ कोई प्रक्रिया नही है, ‘प्रेम’ कोई प्रक्रिया नही है| ज्ञान यानि होश| ये प्रक्रियाएं नही हैं| ये साथ चलती ही हैं| और पक्का जानना कि जैसे-जैसे तुम्हारा ज्ञान गहरा होगा, तुम्हारा प्रेम बढेगा| ऐसा हो नहीं सकता कि तुम ज्ञान में गहरे होते जाओ, और तुम्हारा प्रेम सिमटता जाए| ऐसा हो नही सकता|

श्रोता ७: वो फिर अहंकार है?

वक्ता: हाँ और ये भी पक्का जान लो कि जैसे-जैसे तुम्हारे प्रेम में मिठास आएगी, वैसे-वैसे तुम ऐसी बातें जानने लगोगे, जो तुम्हें पहले पता ही नही चलती थीं| ज्ञान बढेगा, प्रेम बढेगा, और प्रेम बढेगा तो ज्ञान बढेगा| ये दोनों एक दूसरे के साथ ही चलते हैं| ये प्रक्रियाएं नही हैं| ज्ञानी, प्रेमी होकर रहेगा| ऐसा कोई अगर ज्ञानी मिले जिसके जीवन में मिठास नही, तो उसे फिर अहंकारी समझना| कि कुछ और नही है, ये इनसाइक्लोपीडिया है| और अगर कोई ऐसा प्रेमी मिले, जिसके जीवन से सिर्फ मूढ़ता टपकती हो, वो ये तो बार-बार बोलता हो कि ‘पीया प्याला प्रेम का’, पर होश जैसा कुछ दिखाई ना देता हो, तो उसको समझ लेना कि ये प्रेम नहीं जनता, ये आसक्त आदमी है| एक साधारण भोगी भर है ये| प्रेम और ज्ञान एक साथ ही चलते हैं|

श्रोता ७: सर, कभी-कभी ऐसा होता है कि पढ़ने में जैसे अवधूत गीता लिया या अष्टावक्र गीता लिया, तो थोडा सा मन साफ हो जाता है पर इतना रूखापन आ जाता है, अचानक मन इतना बैठ जाता है कि कहीं मीरा को सुनें, कबीर कोसुनें तो एक बदलाव होता ही रहता है|

वक्ता: हाँ हाँ, अपने आप होगा, अपने आप होगा| अगर आपने उसको पकड़ ही ना रखा हो, तो आप अपने आप समझ जाएंगे कि अब अगला कदम क्या है|

-‘संवाद’ पर आधारित।स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।

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