Acharya Prashant is dedicated to building a brighter future for you
Articles
प्रसन्नता और आनंद में क्या अंतर है? स्वभाव क्या? || आचार्य प्रशांत, कबीर पर (2017)
Author Acharya Prashant
Acharya Prashant
9 min
745 reads

जाके जौन स्वाभाव, छूटे नहीं जीव सो,

नीम ना मीठी होय, सींचै गुड़ घीव सो।।

संत कबीर

प्रश्न : जब स्वभाव बदल ही नहीं सकता तो गुरु किसी मनुष्य को कैसे जगाने में सहायता कर सकता है?

आचार्य प्रशांत : यहाँ पर कबीर जिस स्वभाव की बात कर रहे हैं, वो प्राकृतिक स्वभाव है। प्रकृति है। वो बदल सकता है। वो बदल न सकता होता, तो कबीर भजन लिखते ही नहीं। जिस भजन से आप ये पंक्तियाँ उद्धृत कर रहे हैं, उसकी पहली पंक्ति है – “गुरु शरण जाय के, तामस त्यागिये”, यानी कि तामस को त्यागना सम्भव है। आगे जब वो कह रहे हैं, “जाके जौन स्वाभाव, छूटे नहीं जीव सो”, तो इसको इसी अर्थ में पढ़िए कि संभव है, लेकिन मुश्किल बहुत है। मुश्किल बहुत है। इसीलिए तो बड़ी साधना की ज़रुरत होती है। इसीलिए तो गुरु की शरण जाना पड़ता है।

अभिषेक पूछ रहे हैं कि प्रसन्नता और आनंद में क्या अंतर है, और अगर आनंद एक पूर्ण रिक्तता है तो वहाँ पहुँचा कैसे जाता है?

प्रसन्नता इस पर निर्भर करती है कि आपने अपने आप को, किस बात में, किस चीज़ से प्रसन्न रहना सिखा दिया है। प्रसन्नता स्थिति सापेक्ष है, संयोग सापेक्ष है। और प्रसन्नता सदा निर्भर करती है, किसी घटना पर, किसी वस्तु पर, किसी व्यक्ति पर, किसी विचार पर। ये सब न हो तो आप प्रसन्न नहीं हो सकते। यही कारण है कि एक घटना जो एक व्यक्ति के लिए प्रसन्नता का कारण होती है, दूसरे व्यक्ति के लिए अप्रसन्नता का, दुःख का। एक ही घटना एक व्यक्ति के लिए अभी प्रसन्नता का कारण है, थोड़ी देर में विषाद का। वो आपकी स्थिति पर निर्भर करती है, आपने अपने आप को क्या बना लिया है।

मक्खी को गुड़ में प्रसन्नता है, हत्यारे को हत्या में प्रसन्नता है, शराबी को शराब में प्रसन्नता है, कामी को काम में प्रसन्नता है, लोभी को दाम में प्रसन्नता है। और आनंद है, प्रसन्नता के तनाव से मुक्त हो जाना।

प्रसन्नता हमेशा एक ख़ाहिश है, एक मांग है, “मुझे प्रसन्न होना है।” आनंद है, इस मांग से ही मुक्त हो जाना कि मुझे प्रसन्न होना है। आनंद है, बिलकुल निरभार हो जाना। कुछ चाहिए नहीं, स्वयं को दिलासा देने के लिए, कुछ चाहिए नहीं, स्वयं को पूरा करने के लिए। कुछ चाहिए नहीं, अपने से जोड़ने के लिए। जो ही स्थिति है, उसी में हम साबुत हैं, सलामत हैं, पूर्ण हैं – ये आनंद है।

प्रसन्नता चीज़ मांगती है, घटना मांगती है, आनंद नहीं मांगता, बेशर्त होता है। और प्रसन्नता धोखा देती है, लगातार नहीं टिक सकती। और आनंद चूंकि बेशर्त होता है, इसीलिए लगातार हो सकता है। प्रसन्नता की शुरुआत भी दुःख से है, और अंत भी दुःख में। तुम अगर दुःखी नहीं हो, तो तुम खुश नहीं हो सकते। और जितना गहरा तुम्हारा दुःख है, खुश होने की तुम्हारी सम्भावना उतनी ही बढ़ गयी है।

तुम्हारा बच्चा मिल नहीं रहा दो घण्टे से, तुम्हारे दिमाग में तूफ़ान चल रहे, तुम बौरा गए, पगला गए, दो घंटे से कोई खबर नहीं आयी। और फिर वो तुम्हें अचानक मिल जाता है, तुम्हारी प्रसन्नता का पारावार नहीं रहेगा। दुःख जितना गहरा, प्रसन्नता उतनी ही ऊंची। और प्रसन्नता चूंकि टिकती नहीं है, इसीलिए उसे अंततः फिर दुःख बन जाना है।

जिन्हें प्रसन्नता चाहिए हो, उनके लिए एक साधारण सा नुस्खा है, अपने आप को खूब दुःखी कर लो, थोड़ी ही देर में खुश होना ही पड़ेगा। अनिवार्यता है। कोई सतत दुखी नहीं रह सकता। दुःख को पलट कर सुख बनना ही पड़ेगा। और कोई सतत सुखी नहीं रह सकता, सुख का अंत दुःख में होगा ही।

आनंद है, सुख-दुःख के इस चक्र से मुक्ति। तुम, न अब सुख में सहारा खोज रहे हो, न दुःख के दरिया में डूबे जा रहे हो। सुख आता है, दुःख आता है, दोनों आते हैं, चले जाते हैं, तुम दोनों के प्रति निरपेक्ष हो, दोनों का स्वागत कर रहे हो। दोनों के लिए द्वार खुले हैं। उनके आने के लिए भी, उनके चले जाने के लिए भी। सुख आया, कर लिया सुख का अनुभव, दुःख आया, कर लिया दुःख का अनुभव। तुम उन्हें रोक भी नहीं रहे, कि हमें दुःखी नहीं होना, या हमें सुखी नहीं होना। और हम उन्हें बाँध भी नहीं रहे कि अब सुख आया है, तो टिका रहे। जाता है तो ठीक है, जाए।

श्रोता : सतत सुखी रहना, ये तो मैंने नहीं सुना, लेकिन सतत दुःखी रहना, ये मैंने सुना भी है, और शायद होता भी है। कईयों की ज़िन्दगी इतनी दुःखी हो जाती है, कि वो हँसना भी भूल जाते हैं, और उनकी नींद भी उड़ जाती है। तो लगातार दुःखी होना मुझे लगता है, कहीं न कहीं अस्तित्व रखता है।

वक्ता : जिसे हम सतत दुःख कह रहे हैं, वो सुख और दुःख के सतत चक्र का समग्र नाम है। दुःख तो दुःख है ही, सुख भी दुःख है। इसीलिए तो बुद्ध ने अपना पहला वचन कहा कि “जीवन दुःख है।” अब जीवन में तो दुःख-सुख दोनों हैं। पर बुद्ध ने कहा जीवन दुःख है, निरन्तर दुःख ही दुःख है। क्योंकि जिसको तुम सुख भी कह रहे हो, उसमें तुम डरे हुए हो। क्या डर है तुम्हें?

श्रोतागण : छिन न जाए, चला न जाए।

वक्ता : सुख छिन न जाए। तो दुःख में तो दुःख है ही, सुख भी दुःख है। रही बात इसकी कि कुछ लोग निरंतर दुःखी ही क्यों नज़र आते हैं। वो निरंतर दुखी नज़र आते हैं। अगर कोई निरंतर दुःखी नज़र आए, तो जान लेना कि उसे दुःख में रस है। उसने दुःख के नीचे सुख छुपा रखा है। उसे दुःखी होने में ही, अब कोई अर्थ मिल गया है। दुःखी बने रहने में, उसका अहंकार सम्बल पा रहा है। सुख वहाँ भी मौजूद है।

दुःखी रहने के बहुत फायदें हैं। कोई मुस्कुराता हो, हँसता हो, तुम एक बार को उसकी उपेक्षा कर दोगे। कोई रोता हो, तुम उसके पास चले जाओगे, मदद करने को तैयार हो जाओगे, कुछ उसे दो चार चीज़ें दे दोगे। इतना ही नहीं, सुख की अपेक्षा दुःख आदर का पात्र हो जाता है। इतना ही नहीं, सुख की अपेक्षा दुःख ज़्यादा खरा और ज़्यादा सच्चा लगता है। कोई तुमसे हँस के कुछ मांगे, तुम्हें उसकी नीयत पर कुछ संदेह हो सकता है। कोई रो के तुमसे कहे कि दे दो, मैं बहुत दुखी हूँ, बड़ा ज़रूरतमंद हूँ, तुम्हारी मदद की आवश्यकता है, तुम दे दो। तो दुःख के बड़े लाभ हैं। और हर लाभ क्या है? सुख। तो दुःख के साथ सुख छुपा हुआ है।

दुःख का प्रदर्शन कर के, कितने फायदे हो जाते हैं कि नहीं हो जाते हैं? और लाभ क्या है? सुख। दुःख से क्या मिल रहा है? सुख। तो वहाँ भी दुःख की छाया के रूप में सुख मौजूद है। और वो लाभ अगर किसी दूसरे से न मिले तो अपने आप से मिल जाता है। पूछो कैसे? “मैं बहुत दुखी हूँ”, मैं क्यों दुखी हूँ? मेरी तो गलती होगी नहीं कि मैं दुखी हूँ। तुमने इतना यदि जान लिया कि तुम्हारे दुःख के कारण के रूप में तुम ही खड़े हो, तो दुःख मिट जाएगा। दुःख यदि बना हुआ है, तो निश्चित रूप से तुम्हारी मान्यता ये है कि तुम दुःखी हो दूसरों के कारण। तो मैं दुःखी हूँ, क्योंकि दूसरों ने सताया है। और अगर दूसरों ने सताया है, तो तुम दूसरों से श्रेष्ठ हो गए ना?

वो कौन हो गए, वो हिंसक लोग हो गए। और तुम कौन हो गए? तुम संत आदमी हो गए। दूसरे तुम्हें सताए जा रहे हैं, और तुम उनका सताना सहे जा रहे हो। तो दुःख के साथ गर्व जुड़ गया ना? दुःख के साथ गर्व जुड़ गया कि नहीं? और गर्व में क्या है?

श्रोता : ख़ुशी।

वक्ता : सुख।

दुःख का बड़ा भारी अहंकार होता है।

“साहब हम तो ज़माने भर का दर्द अपने सीने में लिए हुए हैं। आपको पता क्या है, कि लोगों ने हमारे साथ क्या क्या किया? लोगों ने तमाम तरह के धोखे दिए, चोटें दी, पर हमने देखिए किसी को पलट के जवाब नहीं दिया। सारा दर्द हमने सीने में बिठा लिया है।” ये दुःख के साथ क्या जुड़ा हुआ है?

श्रोता : अहंकार।

वक्ता : और अहंकार में क्या मिल रहा है?

श्रोता : सुख।

वक्ता : सुख। दुःख और सुख तो यहाँ भी हैं।

हाँ, बाहर-बाहर से प्रतीत ये होगा कि ये व्यक्ति सतत दुःखी है। ये सतत दुखी तो है, लेकिन दुःख के नीचे, सुख की धारा बह रही है।

श्रोता : बताने का रस।

वक्ता : बताने का रस, अनुभव का रस। फिर जब तुम ये सिद्ध कर देते हो कि दूसरों ने तुम्हें सताया है, तुम्हें भी फिर हक़ मिल जाता है, उन्हें सताने का। उसका भी बड़ा रस है।

श्रोता : जैसे को तैसा।

वो सिखाया ही यही जाता है। शिक्षा-दीक्षा ही ऐसी दी जाती है कि कोई तुम्हें लगाए तो खा के मत आना।

वक्ता : शिक्षा तो और भी दी जाती है। कि कोई एक मारे तो दूसरा गाल आगे कर दो।

(श्रोतागण हँसते हैं)

श्रोता : नहीं हमारी तो …

वक्ता : ये हमारे ऊपर है कि कौन सा याद रखते हैं!

(अट्टाहस)

स्पष्ट है?

आनंद इस छल से मुक्ति का नाम है। सुख भी झूठ है। सुख बोलता है, “कुछ मिल गया या कुछ छिन गया तो तुममें वृद्धि हो जाएगी, तुम बेहतर हो जाओगे।” दुःख बोलता है “कुछ मिल गया या कुछ छिन गया तो तुममें कुछ घट जाएगा।” तुम कमतर हो जाओगे। दोनों झूठी बातें हैं। दोनों ही आत्मा को नकारती हैं। दोनों ही ये मानते हैं, कि जैसे घटनाएँ, लोग, संयोग, तुम में कुछ भेद ला सकते। तुम में कुछ जोड़ सकते हैं? या तुम से कुछ छीन सकते हैं! इसीलिए आध्यात्म ‘समभाव’ की कला है। धूप में, छाँव में, दिन में, रात में, गर्मी में, सर्दी में – समभाव। दुःख में, सुख में, मान में, अपमान में, हार में, जीत में – समभाव।

बाहर बाहर स्थितियाँ बदलती रहे, भीतर का मौसम एक सा।

Have you benefited from Acharya Prashant's teachings?
Only through your contribution will this mission move forward.
Donate to spread the light
View All Articles