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न एकाग्रता, न नियंत्रण, मात्र होश || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2014)
Author Acharya Prashant
Acharya Prashant
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प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, मन को नियंत्रित कैसे करें? मन को अपने अधीन कैसे करें? मन को संयम में कैसे लाएँ? और उसी से सम्बंधित अगली बात कि एकाग्र कैसे हो जाएँ?

आचार्य प्रशांत: एक-दो बातें समझनी पड़ेंगी। मन को नियंत्रित करने की जो चाह है वो भी उसी मन से निकल रही है जिसको तुम नियंत्रित करना चाहते हो।

मन को जब तक एक आकार मिला हुआ है, मन पर जब तक बाहरी प्रभाव डेरा जमा करके बैठे हुए हैं, तब तक वो वैसे ही चलेगा जैसा उन प्रभावों को उसको चलाना है।

मन को संयमित नहीं किया जा सकता, साफ़-साफ़ कह रहा हूँ। और इस बात को समझ लो, क्योंकि तुम ही नहीं, बड़े-बड़े विद्वान और बड़ी उम्र के लोग भी इस तरह की बातें करते हैं; मन का नियंत्रण, आत्म-संयम, और ये सब। ये अर्थहीन बातें हैं क्योंकि तुम जो बन गए हो, तुमने अपनी जिस छवि के साथ तादात्मय बना लिया है, अब वो तो अपने रंग दिखाएगी ही। तुमने जो खाना खा लिया है, उसके जो प्रभाव शरीर पर पड़ने हैं, वो तो पड़ेंगे ही।

तुम ऐसा ही सवाल पूछ रहे हो, कि तुम ख़ूब सारा ऐसा भोजन कर लो जो शरीर में गर्मी पैदा करता है, और फिर कहो कि, “अब तापमान नियंत्रित कैसे करें?” अब नहीं हो सकता कुछ भी। सोडियम पर पानी पड़ गया है, अब जो होना है, वो होकर रहेगा; विस्फोट होगा। पर तुम्हारी गहरी-से-गहरी इच्छा ये है कि सोडियम पर पानी पड़ता भी रहे, और विस्फोट भी ना हो।

तुम दोनों हाथों लड्डू रखना चाहते हो। तुम कहते हो कि, “हम जिस प्रकार का जीवन जी रहे हैं, ऐसा जीवन जीते भी रहें, उसके मज़े भी लूटते रहें, और मन भी वैसा ही चले जैसा मन की मर्ज़ी है।” नहीं ऐसा नहीं हो पाएगा। कर्मफल तो भुगतना ही पड़ेगा।

एकाग्रता का प्रश्न भी इससे जुड़ा हुआ है, समझना इस बात को।

हम सबके मन संस्कारित हैं, हम सबके मन को एक आकार दे दिया गया है; उस सब पर कुछ रंग चढ़ा दिए गए हैं। जैसे हमें संस्कार दे दिए गए हैं, वैसी ही हमारी एकाग्रता हो गई है। तुम भूल कर रहे हो अगर तुम सोचते हो कि तुम एकाग्र नहीं हो सकते। तुम सब गहरी-से-गहरी एकाग्रता को पाते हो, लेकिन उस एकाग्रता के विषय वही होते हैं, जो तुम्हें तुम्हारे संस्कारों ने सिखाए हैं।

मैं अभी यहाँ पर पीछे एक चित्रों का एक संग्रह लगा दूँ, जिसमें सौ प्रकार के चित्र हों, और उसी में बीच में कहीं पर एक छोटा-सा ऐसा चित्र हो जो तुम्हारे मन को खूब रुचता हो, तुम एकाग्र हो जाओगे। इतने बड़े चित्रों के समूह में तुम वो छोटा-सा चित्र ढूँढ निकालोगे, और उसी पर तुम्हारी आँखें और मन दोनों जम जाएँगे।

इतना विशाल भंडार है इंटरनेट, तुम उस में से वही खोज निकालते हो जो तुम्हें चाहिए, और पूरी तरह एकाग्र हो जाते हो वहाँ पर। तब तुम कभी पूछने नहीं आते कि, “वो वाली साइट मिल तो गई है, पर एकाग्र नहीं हो पा रहे हैं।” मैंने कभी ऐसा सवाल पूछते तुम्हें सुना ही नहीं।

दुनिया की जितनी बेहूदगियाँ हैं, उन पर तुम पूर्णतया एकाग्र हो जाते हो। कोई दिक़्क़त ही नहीं होती। तो कभी मत कहो कि—“हम एकाग्र हो नहीं पाते”, बल्कि पूछो अपने आप से कि, “मन ऐसा कैसे है कि उसने यही विषय चुन लिए हैं एकाग्रता के?”

ये कमरा है, ये पूर्णतया साफ़ है, चमक रहा है। पर अभी इसी कमरे में एक मक्खी आ जाए, तो पूरी एकाग्रता से अपने लिए कोई ऐसा स्थान चुन लेगी जो गन्दा हो। मक्खी के सामने कोई विकल्प ही नहीं है। यदि तुम मक्खी हो गए, तो तुम्हें गन्दगी पर ही एकाग्र होना पड़ेगा, तुम सफ़ाई पर एकाग्र नहीं हो पाओगे। तो प्रश्न ये पूछो कि, “मैं मक्खी हुआ क्यों?”

मक्खी हो जाने के बाद अब कोई चुनाव बचा ही नहीं है। घोड़ा हो जाने के बाद अब घास दिखते ही एकाग्र हो जाओगे। इतना ऊँचा उड़ती है चील, और बड़ी एकाग्रता से ज़मीन पर पड़े हुए छोटे-से-छोटे माँस के टुकड़े को पकड़ लेती है। अगर चील हो गए तो माँस के छोटे से टुकड़े पर एकाग्र होना ही पड़ेगा। पूछो, “मन हुआ क्यों मक्खी? मन हुआ क्यों चील जैसा?” असली प्रश्न वो है।

हम चील नहीं थे सदा, हम मक्खी नहीं थे सदा। बच्चा काफ़ी कुछ साफ़, खाली, निर्दोष ही पैदा होता है। हाँ कुछ संस्कार होते हैं, पर बहुत कुछ साफ़ होता है। तुम पूछो कि, “ये सब मैं अपने ऊपर क्या लिखकर के बैठा हुआ हूँ?” और जो तुम लिखकर के बैठे हो, मन उधर को ही जाएगा। तुम नहीं कर पाओगे उसको संयमित।

जो तुम्हारे मन ने धारणा बना ली है कि—‘यह महत्त्वपूर्ण है’—मन उसी पर एकाग्र हो जाएगा। तुम मन को नहीं रोक पाओगे। लड़ ज़रूर लोगे, और लड़ते तुम लगातार ही रहते हो मन से। उस लड़ाई को तुम कभी जीत नहीं सकते।

तुम मन का दमन कर लोगे, अधिक-से-अधिक यही करोगे कि मन कहीं पर भागना चाहता है, और तुम मन के साथ ज़बरदस्ती करके उसको चुप कर दो। ज़बरदस्ती चुप कर भी दिया तो क्या? वो कुलबुलाता रहेगा, और तुम कष्ट में रहोगे।

पर बहुत कम हुआ है कि मुझसे लोगों ने कहा हो कि, “हम अपना सम्पूर्ण कायाकल्प करने में उत्सुक हैं। हमें धो ही डालना है इस मन को, हमें कुछ शेष नहीं रखना। हमें नहीं लगाव है कि हमने ये जान लिया, ये पढ़ लिया, ये संस्कार है, ये धारणाएँ हैं।”

ऐसा कोई मिलता ही नहीं बहादुर जो कहे कि, “मैं तैयार हूँ अकेला खड़े होने को, धारणाओं को पीछे छोड़कर।” हाँ, लोग ये सवाल पूछते ज़रूर मिल जाते हैं कि, “देखिए, बीमार तो हमें पूरी तरह रहना है, क्योंकि हमने ये मान ही रखा है कि बीमारी हमारा स्वभाव है। पर ये बताइए कि बीमार रहते हुए भी हमें बुख़ार कैसे ना आए?”

अब ये तुम असम्भव की माँग कर रहे हो। तुम असम्भव की माँग कर रहे हो। तुम कह रहे हो कि, “बीमार तो हमें रहे ही आना है, पर बीमार रहते हुए भी हम सहज-सहज सा, स्वस्थ-स्वस्थ सा कैसे अनुभव करें? कोई नुस्ख़ा दीजिए।” ऐसा कोई नुस्ख़ा कभी हुआ ही नहीं है। हाँ, ऐसा नुस्ख़ा देने वाले नकली हक़ीम बहुत हैं बाज़ार में, पर वो तुम्हें धोखा ही दे रहे हैं।

बीमारी जाएगी तो पूरी जाएगी, स्वास्थ्य आएगा तो पूरा आएगा। पर तुम्हारी माँग ये है कि हम बीमार तो बने रहें, हमें कुछ इधर-उधर की बातें और बता दीजिए।

वो वैसा ही है कि जैसे कोई कैंसर का मरीज़ आए और उससे कहा जाए कि, “देखो, कैंसर है। तुम्हारे पूरे शरीर का रेचन करना पड़ेगा”, और वो कहे कि, “नहीं-नहीं, कुछ थोड़ा-बहुत बता दीजिए, कहिए तो बाल साफ़ करा लूँ, इतना मुझे स्वीकार है।” अब सिर के बाल घुटवा लेने से कैंसर तो नहीं ठीक हो जाएगा।

“अच्छा बताइए, ज़रा एक-आध, दो मील दौड़कर आ जाऊँ, पर कैंसर नहीं छोड़ूँगा। क्यों? क्योंकि कैंसर बड़ा प्यारा है, विरासत में मिला है। खानदानी कैंसर है, कैसे छोड़ दूँ? कैंसर नहीं छोड़ सकता, और बताइए क्या करना है? दाँत साफ़ कर लूँ?” दाँत साफ़ करने से कैंसर नहीं जाएगा। वो ज़हर तुम्हारे रेशे-रेशे में भरा हुआ है। कैसे हो जाओगे एकाग्र?

तुम कहते हो, “पढ़ाई पर एकाग्र नहीं हो पाता।” तुम्हें तुम्हारी पूरी शिक्षा ने बस ये सिखाया है कि, “उधर को जाओ जिधर सुख मिलता हो।” तुमसे कहा जा रहा है कि, “तुम पढ़ो इसलिए ताकि अंततः नौकरी मिल जाए, तुम जीवनयापन कर सको” – सुख। “तुम पढ़ो इसलिए क्योंकि खूब पढ़े-लिखे होओगे तो तुम्हारी अच्छी शादी हो पाएगी” – सुख। “तुम पढ़ो इसलिए क्योंकि जो पढ़ा-लिखा होता है उसे सम्मान मिलता है” – सुख।

तो जब पूरी शिक्षा तुम्हें यह कह रही है कि शिक्षा का उद्देश्य ही सुख की प्राप्ति है, तो जब तुम पढ़ने बैठे हो, उसी समय सुख अगर किसी और दरवाज़े से आ रहा है, तो तुम उधर को क्यों ना जाओ? अंततः बड़ा क्या है? सुख।

अब मैं पढ़ने बैठा हूँ, और उसी समय खिड़की से बाहर मेरा दोस्त मुझे बुला रहा है कि, “आ क्रिकेट खेलते हैं”, तो सुख जिधर दिखता है मैं क्यों ना जाऊँ उधर? मेरी सारी एकाग्रता तो सुख के पीछे है, और मैं जा रहा हूँ सुख के पीछे। मेरी शिक्षा ने ही मुझे यही सिखाया है—“सुख के पीछे दौड़ो।”

तुम्हें आज पता चल जाए कि जो तुम पढ़ रहे हो वो करके नौकरियाँ नहीं लगनी हैं, तो तुम पढ़ना छोड़ दोगे। या तुम्हें ये पता चल जाए कि कॉलेज आने के लिए, यूनिवर्सिटी आने के लिए अब अटेंडेंस की कोई आवश्यकता नहीं है, तुम कॉलेज आना छोड़ दोगे।

तो तुम्हारी शिक्षा ने जो दूसरी चीज़ सिखाई है, वो है डर। और डर पर मन बड़ा एकाग्र होता है। तुम्हारे सामने एक शेर खड़ा हो, तुम्हारी सारी एकाग्रता शेर पर चली जाएगी। मौत जब सामने आ रही हो, तो तुम इधर-उधर की फ़िज़ूल बातें नहीं सोचोगे, तुम्हारा पूरा मन एकाग्र हो जाएगा मौत पर।

मन दो ही जगह एकाग्र होता है, या तो सुख की तरफ़, या दुःख की तरफ़। या तो लालच की तरफ़, या भय की तरफ़। और तुम्हारे मन को इन्हीं विचारों से परवरिश ने, शिक्षा ने, और संस्कारों ने भर दिया है, कि जो करो वो लाभ के लिए करो। ‘लाभ’ अर्थात सुख। तो जिधर ही तुम्हें सुख दिखता है, तुम उधर को ही भाग लेते हो।

तुम पढ़ने बैठे हो और आँखों पर नींद सवार है, अब सोने में तुम जानते हो कि बड़ा सुख है। तो जब सुख ही पाना है, तो सो ही जाते हैं। इसमें अब ताज्जुब क्या बचा? तुम क्यों कहते हो कि, “हम एकाग्र नहीं हो पाते?”

मन पूरे तरीके से दूषित है। एकाग्रता वो जानता है, पर एकाग्रता के जो उसने विषय चुने हैं वो अपने दूषण से चुने हैं।

उत्सुक हो अगर मन का पूरा शोधन करने में, तो अपने जीवन को सुबह से शाम तक देखो—आज का ही दिन देख लो, चाहे कल का, चाहे बीते हुए कल का, और चाहे परसों का। और देखो कि मन कहाँ-कहाँ जाकर के बैठ जाता था। ऐसा नहीं है कि ये पक्षी कहीं बैठना जानता नहीं है। पर ये सबसे गन्दी डालें चुन रहा है बैठने के लिए।

पक्षियों को लेकर के ही कबीर का एक दोहा है, बड़ा सुन्दर है।

पहले ये मन काग था, करता आतम घात। अब तो मन हंसा भया, मोती चुन-चुन खात।।

तो मन जब कौए जैसा हो गया है तो गन्दी-से-गन्दी जगह जाकर के बैठ जाता है; वही उसकी एकाग्रता है। और कहा है कबीर ने कि मन को हंस जैसा कर लो, जिसका गन्दगी की ओर ध्यान ही ना जाए। जो गन्दगी में से भी बस मोती चुन-चुन के खाए।

उसके लिए तैयार हो क्या? उसके लिए बहुत कम लोग तैयार होते हैं। लोग कहते हैं कि—“नहीं, कौआ तो हमें रहना है। हम खानदानी कौए हैं। कौआ रहते हुए भी हमें मोती चुगने हैं।” नहीं, वो नहीं हो पाएगा। कौआ तो आत्मघात ही करेगा, और ये बात बड़ी पुरानी है। जिन्होंने भी जाना है, इस बात को जान लिया है—अपना पूर्ण पुनर्सृजन करना पड़ेगा, तब बात बनेगी।

सवाल सिर्फ़ ये नहीं है कि जब किताब के साथ बैठ रहे हो तब क्या हो रहा है। पूरे दिन का सवाल है, और पूरे जीवन का सवाल है। मैंने कहा कि पूरे दिन को देखो। सुबह उठते हो, तो मोबाइल में क्या देखते हो? किधर को जा रहे हो? अखबार में कौन-सी खबरें हैं जिनकी ओर जाते हो? किन लोगों को तुमने अपना दोस्त बना रखा है?

और जैसे-जैसे पूरे जीवन में परिवर्तन आना शुरू होगा, तुम पाओगे कि तुम्हारी एकाग्रता भी बदलने लगी है। वो एक पूर्ण बदलाव होगा, जीवन के किसी हिस्से में आंशिक बदलाव नहीं। तुम पाओगे कि तुम्हारे निर्णय, तुम्हारी पसंद, पूरी-पूरी बदल रही है।

तुम एक किताबों कि दुकान में जाते हो, तुम्हें कौन-सी किताब पसंद आती है, ये बात बदल गई है। तुम टी.वी. खोलते हो, तुम्हें कौन-सा धारावाहिक पसंद आ रहा है, वो बदल गया है। तुम्हारी एकाग्रता का पूरा केन्द्र ही बदल गया है। किस प्रकार के दोस्तों को तुम अपने क़रीब लाते हो और किनसे कहते हो, कि, “क्षमा आपके साथ ना हो पाऊँगा।” सब बदल रहे हैं।

तुम्हारे सारे निर्णयों में परिवर्तन आएगा। तुम्हारे खाने-पीने, उठने-बैठने में परिवर्तन आएगा। वो तुम्हारा पूरा कायाकल्प होगा।

छोटी-सी बात मत माँगो, कि, “हम वही रहे आएँ जो हम हैं, और साथ-ही-साथ हम पढ़ें ऐसा कि हमारे अंक भी अच्छे आ जाएँ।” नहीं, ये नहीं हो पाएगा। जैसा पूरा जीवन है, पढ़ाई भी वैसी ही होगी। जब पूरा दिन अव्यवस्था में गुज़रता है, जब पूरा दिन भय और लोभ में गुज़रता है, तो मात्र पढ़ाई के क्षण में तुम दूसरे नहीं हो पाओगे। इस कमरे के बाहर जो तुम थे, और इस कमरे के भीतर जो तुम हो, वो कोई नया अवतार नहीं हो सकता। जो घर से निकला है, और जो कॉलेज मैं है, ये दो नहीं हो सकते। जो खेल के मैदान पर है, और जो पुस्तक के साथ है, ये दो नहीं हो सकते। जीवन एक है, पूर्ण है। पूरे जीवन पर ही ध्यान देना होगा।

और, इस काम को बहुत भारी मत समझ लेना, कि तुम कहो कि, “हमने तो छोटी-सी चीज़ माँगी थी, ‘एकाग्रता’, और इन्होंने कह दिया कि पूरा जीवन ही बदलो।” नहीं, तुम जिसे छोटी-सी चीज़ कह रहे हो, वो छोटी नहीं है, क्योंकि तुम उसे जीवन भर माँगते रहे हो, और तुम्हें मिली नहीं है। वो एक असम्भवता है। मैं तुमसे जो कह रहा हूँ, वो सुनने में शायद तुम्हें अभी बड़ी लगे, पर वो बात बड़ी सहज है।

जो भी कर रहे हो उसी पर ध्यान दो। अभी बैठे हो, तो बैठने पर अपना ध्यान दो। देखो कि ये हो क्या रहा है। देखो कि तुम्हारे बैठने में क्या गुणवत्ता है। बात करते हो तो उस पर ध्यान दो, होश में जियो। और जब तुम होश में जीने लगोगे, तो तुम पाओगे कि अब तुम्हें एकाग्रता की ज़रूरत ही नहीं रही, क्योंकि एकाग्रता भी एक प्रकार का संयम है, एकाग्रता भी एक प्रकार का खिंचाव है।

तुम कहोगे कि, “एकाग्रता अब चाहिए किसको, अब तो मन नदी की तरह हो गया है, जो अपने आप ठीक दिशा में ही बहता है। उसको कोई दिशा दिखाई नहीं जाती, वो खुद जानता है कि सागर किधर है, और अपने आप बहता है।”

सरल है, बहुत सरल है। ठीक अभी से शुरुआत कर सकते हो। और जैसे-जैसे इसमें आगे बढ़ते जाओगे, जैसे-जैसे इसमें डूबते जाओगे, जैसे-जैसे तुम्हें इसका स्वाद मिलता जाएगा, वैसे-वैसे तुम कहोगे, “वाह! ये पहले क्यों नहीं हुआ?” कभी-भी हो सकता था, बड़ी साधारण-सी बात है। कुछ विशेष करना ही नहीं है। बस होश में रहे आना है।

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