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मृत्यु का भय क्यों सताता है?
Author Acharya Prashant
Acharya Prashant
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आचार्य प्रशांत: प्रश्नकर्ता बच्चा है छोटा। सवाल कर रहा है कि जब कोई बुरी घटना हो जाती है जैसे किसी की मृत्यु इत्यादि या कोई दुर्घटना, तो फिर वो बहुत दिन तक मन को सताती है, रातों को नींद इत्यादि भी नहीं आती। ऐसा क्यों होता है?

बेटा, ऐसा इसलिए होता है क्योंकि हम डरे हुए लोग हैं। हम लगातार इसी चिंता में हैं कि कुछ छिन जाएगा। मृत्यु ने तुम्हें तब नहीं डरा दिया जब तुमने उसे घटते हुए देखा, तुम जन्म के समय से ही मृत्यु से डरे हुए हो। यही तो जीवेषणा कहलाती है न?

जीव लगातार प्रयत्न कर रहा है कि किसी तरह जीवन और खिंच जाए। जैसे जीव की मूल प्रेरणा ही हो मृत्यु का भय। इसीलिए जब तुम अपने सामने मौत को घटता हुआ देख लेते हो तो बिलकुल सिहर उठते हो। उस घटना ने तुम्हें नहीं डराया। वो घटना तो बस प्रकटीकरण है। वो घटना तो ऐसी है कि जैसे जो तुम सोच रहे थे पहले से ही, वो साकार हो गया हो। जो तुम्हारी चिंता थी वो साकार भले ही तब हुई हो जब तुमने किसी की मृत्यु देख ली, पर चिंता तो मृत्यु की घटना से बहुत-बहुत पहले की है न।

किसी भी आदमी को देख लो वो अपनी ही मौत के विचार में चिंतित रहता है न। तो मृत्यु पहले आती है या चिंता पहले आती है? चिंता पहले आती है।

तो ये न सोचो कि तुम्हें मृत्यु ने डरा रखा है। मृत्यु तो अभी आयी नहीं। लेकिन मृत्यु की चिंता के साथ आदमी पैदा ही होता है। जीव अर्थात वो जो मृत्यु से घबराता है। जीव की यही परिभाषा, यही पहचान। वो जो लगातार मौत से घबराता है। तो तुम पूछ रहे हो, "ऐसा क्यों होता है?" मैं कहूँगा ऐसा इसलिए होता है बेटा क्योंकि तुमने जन्म लिया है। जो जन्म लेगा जीव रूप में, वो डरता-डरता ही पैदा होता है और डरता-डरता ही विदा होता है।

इंसान की अधिकांश गतिविधियाँ और कुछ नहीं हैं मृत्यु का डर हैं। हम मिटने से इतने घबराए हुए हैं कि लगातार दौड़ लगा रहे हैं इधर-उधर। और इस दौड़ लगाने के चक्कर में हम कभी यहाँ पहुँचते हैं, कभी वहाँ पहुँचते हैं, कभी ये खड़ा करते हैं कभी वो खड़ा करते हैं। अधिकांश वो प्रक्रियाएँ जिन्हें तुम उन्नति, तरक्की या विकास का भी नाम देते हो वो और कुछ नहीं हैं मिट जाने के खौफ से निकली हैं। कहीं मिट ना जाएँ तो चलो ये सब कर लेते हैं। ठीक है?

हमारी साँस-साँस में मृत्यु का खौफ है। बस ये है कि वो खौफ आमतौर पर छुपा हुआ रहता है और वो छुपकर के हमारे जीवन का संचालन करता है, हमारे कर्मों का निर्धारण करता है तो हमें पता नहीं लगता। उस समय हम मानते नहीं कि हम जो भी जीवन जी रहे हैं, हम जो भी कर्म कर रहे हैं उसके पीछे मूल प्रेरणा बस मृत्यु है। हम नहीं मानते क्योंकि उस वक़्त मृत्यु का खौफ प्रत्यक्ष नहीं है, छुपा हुआ है। जैसा हमने कहा कि वो छुपकर के पीछे से कठपुतलियाँ नचा रहा है तो हमें लगता है जैसे वो है नहीं।

कभी-कभार ऐसा होता है जब मृत्यु साक्षात खड़ी हो जाती है। अब डर छुपा हुआ नहीं है अब डर प्रत्यक्ष हो गया, साक्षात खड़ा हो गया। अब हमें मानना ही पड़ता है कि हम बहुत-बहुत डरे हुए हैं। मैं तुमसे यही कह रहा हूँ कि तुम अचानक नहीं डर गए, तुम मौत की घटना देखकर नहीं डर गए। जीव का दूसरा नाम ही डर है। डर जैसे हमारी नस-नस में बहता हो, डर जैसे हमारी प्रत्येक कोशिका की सामग्री हो।

जिन्हें डर से आजाद होना हो उन्हें सर्वप्रथम तो देखना होगा कि उनके जीवन में डर कितनी गहराई से बैठा हुआ है। उन्हें अपने आपको इस भुलावे में नहीं रखना होगा कि वो कभी-कभार डरते हैं। हम कभी-कभार नहीं डरते हैं, हम निरंतर डरे हुए ही हैं। बस डर कभी छुपा हुआ है और कभी ज़ाहिर है लेकिन डरे हुए हम लगातार हैं।

जिन्हें डर से मुक्ति चाहिए हो वो डर के छुपे हुए प्रच्छन्न रूपों को भी पहचानें। महत्वाकांक्षा डर का छुपा हुआ रूप है। लोभ-मोह डर के छुपे हुए रूप हैं। जब तुम किसी को महत्वाकांक्षी देखते हो तुम्हें लगता है ये तो बस आगे बढ़ना चाहता है, जीवन में तरक्की चाहता है। उस वक़्त तुम्हें दिखाई ही नहीं देता है कि ये सिर्फ डरा हुआ है। डर से तुम तब तक आजाद नहीं होगे जब तक तुम डर के विभिन्न रूपों को, अलग-अलग विभिन्न नाम देना नहीं छोड़ोगे। तुम्हें इन सारे रूपों को एक नाम देना पड़ेगा, क्या? डर।

हमने डर के अलग-अलग रूपों को बड़े भ्रामक नाम दे रखे हैं और वो सब नाम देकर के हमने स्वयं को ही भ्रमित कर रखा है। कोई किसी का शोषण करता है, कोई हिंसा करता है। हम कहते हैं ये शोषण है और हिंसा है। न वो शोषण है, न वो हिंसा है। जो शोषण कर रहा है और जो हिंसा कर रहा है वो मूलतः डरा हुआ आदमी है। ये डर है, इधर-उधर के नाम मत दो। इन नकली नामों के पीछे असली डर छुप जाता है। तुम्हें पता ही नहीं चलता कि तुम कितने डरे हुए हो।

जीवन में जहाँ-जहाँ डर है उसको देखो। अगर तुमने वास्तव में उसको देख लिया तो तुम्हारी दृष्टि ही तुम्हें डर से मुक्त कर देगी। डर का दर्शन ही तुम्हें डर से मुक्त कर देगा। पर डर को देख पाओ इसके लिए सर्वप्रथम अपने-आपसे झूठ बोलना बंद करना होगा।

प्र२: कर्ण ईर्ष्या में जलता रहा और अपना ही नाश करा लिया। कर्ण को दुर्योधन की कुसंगति मिली, दुर्योधन को शकुनि की मिली। तो आचार्य जी, ईर्ष्या, श्रेष्ठता की दौड़ और कुसंगति के विषय में कुछ कहें। और आपने बार-बार कहा है कि तुम अपनी ही कुसंगति से बचना, कृपया अपनी इस उक्ति का मर्म समझाएँ।

आचार्य: अपनी ही कुसंगति का अर्थ होता है कि तुम जानो कि तुम मन हो, जो या तो अपने ऊपर लदे हुए संस्कारों से अपनी पहचान रख सकता है या अपने भीतर बैठी हुई आत्मा से अपनी पहचान रख सकता है। जीव को ऐसे जान लो जैसे शरीर है।

जीव क्या है? जैसे काया। काया के साथ दो बातें: काया के ऊपर क्या होते हैं? कपड़े और काया के भीतर क्या होता है? हृदय। अब काया के लिए दोनों तरफ की चाल चलना सम्भव है। काया अगर रिश्ता जोड़े तो बाहर के कपड़ों से रिश्ता जोड़ सकती है क्योंकि काया के ठीक बाहर क्या हैं? वस्त्र। तो काया वस्त्रों से तादात्म्य रख सकती है और कह सकती है कि जैसे वस्त्र, वैसी मैं। और वस्त्र किसने दिए तुम्हें? ज़माने ने दिए। और काया के ही ठीक पीछे काया का स्रोत है वो भी काया के संपर्क में है, उस स्रोत को हृदय कहते हैं। काया चाहे तो उससे भी अपना संबंध रख सकती है। कुसंगति का अर्थ होता है कि काया ने भीतर वाले से मतलब नहीं रखा, बाहर वाले से ज्यादा मतलब रख लिया। ये कुसंगति है।

अपनी ही कुसंगति माने अपने ही संस्कारों से तादात्म्य कर लेना और मान लेना कि मैंने जो कुछ जाना है, सीखा है, जिन-जिन तरीकों से मैं शिक्षित, निर्मित और प्रभावित हुआ हूँ, वो मैं हूँ। अपने विचारों को बड़ी गंभीरता दे देना ही अपनी कुसंगति है।

और तुम कह रहे हो श्रेष्ठता की दौड़ और ईर्ष्या के बारे में कुछ कहें। श्रेष्ठता की दौड़ और ईर्ष्या आपस में जुड़ी हुई बातें हैं, और इन दोनों का ही संबंध काया के ऊपर के वस्त्रों से है। दोनों में ही द्वैत बैठा है न?

आत्मा के अतिरिक्त कोई दूसरा तो होता नहीं, वहाँ तो अनन्यता है, अद्वैत है। तो आत्मा किसी दूसरे से तुलना करती नहीं। जब तुलना नहीं तो ईर्ष्या कैसी? जब तुलना नहीं तो दूसरे के प्रति श्रेष्ठता या लघुता कैसी? पर बाहर जो दुनिया है वहाँ पर अद्वैत नहीं है, वहाँ तो द्वैत-ही-द्वैत है। भीतर जो है वो एक है और बाहर कुछ भी एक नहीं है। बाहर तो जिधर देखो उधर ही विविधता है, अनेक-ही-अनेक हैं। जहाँ अनेक-ही-अनेक हैं वहाँ रूप, रंग, आकार हैं। जहाँ रूप, रंग, आकार इत्यादि हैं वहाँ तो तुलना होगी-ही-होगी। कोई चीज़ छोटी होगी, कोई चीज़ बड़ी होगी, कोई हल्की होगी, कोई भारी होगी।

जो बाहर से साझा करके जिएगा, जो दुनिया से अपनी पहचान बनाकर जिएगा, उसे ईर्ष्या में, तुलना में और श्रेष्ठता की अंधी दौड़ में जीना ही पड़ेगा। यही उसकी सज़ा है। क्योंकि बाहर जो कुछ है सब छोटा-बड़ा है। और भीतर जो है वो न छोटा है, न बड़ा है, उसका कोई रूप नहीं, कोई रंग, आकार नहीं।

जिन्हें ईर्ष्या में न जलना हो, वो हृदय में स्थापित होकर जीएँ। और जिन्हें ईर्ष्या में जलना हो, वो ज़माने के साथ जुड़कर जीएँ। वो सदा तरक्की की ही दौड़ में आगे दौड़ते रहेंगे। जब आगे बढ़ेंगे तो डरेंगे कि पीछेवाला आगे न निकल जाए और जब पीछे होंगे तो ईर्ष्या में जलेंगे, भुनेंगे, तमाम तरह की ग्रंथियों के शिकार हो जाएँगे। ठीक है?

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