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महात्मा बुद्ध ने अपने भिक्षु को माँस खाने की अनुमति क्यों दी? || आचार्य प्रशांत (2019)
Author Acharya Prashant
Acharya Prashant
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प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, भगवान बुद्ध के जीवन से एक कहानी है कि एक भिक्षु के पात्र में माँस का टुकड़ा चील के मुँह से गिर गया और भगवान बुद्ध ने उस भिक्षु को वो माँस खाने के लिए कह दिया। इसी प्रकार रामकृष्ण परमहंस भी मछली खाते थे और जीसस को लेकर भी कुछ ऐसा है। मेरे लिए ये बात समझनी बहुत मुश्किल हो रही है कि बुद्ध माँस खाने का समर्थन कैसे कर सकते हैं।

आचार्य प्रशांत: देखो, गुरु के जीवन और गुरु के शर्त में हमेशा दो हो होते हैं। भूलना नहीं कि तुम जिनकी बात कर रहे हो वो अपने-अपने समय के जीव हैं। वो अपने-अपने समय के जीव हैं।

कुछ बातें उनकी ऐसी होती हैं जो उनके समय और उनके जीवधर्म से ही सम्बन्धित होती हैं। वो बातें सब समय सापेक्ष होती हैं, स्थान सापेक्ष होती हैं। उन बातों का सम्बन्ध सिर्फ़ उस समय से होता है। वो बातें अमर नहीं होतीं। वो बातें सदा के लिए नहीं होतीं। और गुरु के चरित्र में और ग्रन्थों में बहुत बातें ऐसी होती हैं जो सदा के लिए होती हैं, जो काल-निरपेक्ष होती हैं, कालातीत होती हैं। जो स्थान-निरपेक्ष होती हैं, स्थिति निरपेक्ष होती हैं। वो बातें अजर-अमर होती हैं।

दोनों ही तरह के बातें तुम हर गुरु के जीवन में पाओगे। और हर गुरु के साहित्य और शास्त्र में पाओगे। और सभी ग्रन्थों में पाओगे।

बहुत आवश्यक हैं कि जो बातें सिर्फ़ किसी समय से सम्बन्ध रखती थीं उन बातों को आज के समय में उपयुक्त न किया जाए। वो बातें बस उस काल के लिए थीं, आज के लिए नहीं हैं। वो बातें बस उस स्थान से सम्बन्धित थीं, उस जीवन-काल से सम्बन्धित थीं, उस जीव से सम्बन्धित थीं। वो बातें सार्वभौम नहीं हैं।

तुम क़द्र बस उन बातों की करो जिनको तुम जानते हो कि सार्थक हैं, शाश्वत हैं। आदमी उल्टा करता है। जो बातें क्षणिक होती हैं, जो बातें काल-सापेक्ष होती हैं उनको पकड़ लेता है। और जो बातें कालातीत होती हैं उनकी उपेक्षा कर देता है। ये भूल मत कर देना।

प्र: आचार्य जी, कई लोग इसको माँस खाने का बहाना बना लेते हैं।

आचार्य: हाँ, माँसाहारी होने का बहाना बनाते हैं। बिलकुल। तो यही तो गलती है न। उनको ये नहीं दिखाई देता कि बुद्ध ने कितना करुणामयी जीवन बिताया। वो इस बात को पकड़ लेते है कि बुद्ध ने कहा था न कि अगर जानवर तुमने नहीं मारा तो उसका माँस खा सकते हो। नतीजा ये है कि तमाम बौद्ध जम कर माँस कहते हैं। वो बास एक शर्त रखते हैं कि जानवर हमारे सामने मत मारना।

हुआ क्या था कि एक बार एक भिक्षु के पात्र में ऊपर से आकर के कुछ माँस गिरा, मरा हुआ चूहा या कोई मरा हुआ पक्षी। ऊपर कोई गिद्ध, चील लेकर के या कोई कौआ लेकर के जा रहा होगा तो आकर के थोड़ा सा माँस गया उसके पात्र में। अब बुद्ध की आज्ञा थी कि तुम निर्विकल्प जीवन जीना। और निर्विकल्पता में ये भी आता है कि पात्र में जो दे दिया विधि ने, हम वहीं खा लेंगे। तो अब भिक्षु साँसत में पड़ा। वो बुद्ध के पास गया, बोला, ‘माँस।’

बुद्ध की दृष्टि इसमें ये थी कि अगर मैंने एक अपवाद खड़ा कर दिया तो फिर सब भिक्षुओ को निर्विकल्पता का मैंने जो पाठ पढ़ाया है, ये उससे मुकर जाएँगे। ये कहेंगे, ‘अगर एक स्थिति में अपवाद खड़ा किया जा सकता है तो अन्य स्थितियों में भी अपवाद हो सकता है।’ तो बुद्ध ने विचार करके कहा, ‘नहीं, अब आ ही गया है माँस तो खा लो। वैसे भी इसको तुमने मारा नहीं।’

अब बौद्ध इस बात का बहाना बनाते हैं। वो कहते हैं, ‘बाज़ार में जो माँस लटका हुआ है, हमने तो मारा नहीं। तो हम उसे खाएँगे।’ ये मत कर लेना। ये मत कर लेना। ज़रा ईमानदारी रखना। ग़ौर से देखना कि कौनसी बातें केन्द्रीय हैं और कौनसे बातें पारिधिक हैं। कौनसी बातें बास यूँही हैं जो बस किसी समय पर बोल दे गयी थीं और आज उनका कोई महत्व नहीं है।

गीता हो, क़ुरान हो, गुरुओं की, सन्तों की जीवनी हो; सबका दुरुपयोग किया गया है, इसी तरीक़े से किया गया है। जो बातें अलग रख देनी चाहिए थीं, जिन बातों की उपेक्षा कर देनी चाहिए थीं उन्हीं बातों को उभार दे दिया गया है। और जो बातें केन्द्रीय हैं उन बातों की अवहेलना कर दे गयी है। ये मत कर लेना।

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