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क्या प्रबोध (enlightenment) निजी अनुभव की कोई घटना होती है? || आचार्य प्रशांत (2020)
Author Acharya Prashant
Acharya Prashant
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प्रश्नकर्ता: जब आपसे लोग पूछते हैं कि क्या आप एनलाइटेंड (प्रबुद्ध) हैं, तो आप बार-बार एक ही जवाब देते हैं, न हूँ, न कभी होने वाला हूँ। कहीं ये वही बात तो नहीं कि हमें किसी चीज़ का अनुभव न हो, तो हम कह दें कि वैसी कोई चीज़ होती ही नहीं है।

आचार्य प्रशांत: जो कुछ भी अनुभव के दायरे में आ सकता है, वो अनुभव ही है न। मूल बात पर ग़ौर करिए। सब अनुभव किसको होते हैं? — अगर कोई कहे उदाहरण के लिए — कि मुझे मुक्ति का, मोक्ष का, एनलाइटेनमेंट (प्रबोध) का अनुभव हुआ, तो कुछ सवाल पूछने ज़रूरी हैं न। किसको हुआ वो अनुभव? आपको जो भी अनुभव होते हैं दिन-रात, उन अनुभवों को ग्रहण करने वाला कौन होता है, वो अनुभोक्ता कौन है, उसका क्या नाम है? उसी का नाम अहंकार है।

आत्मा को तो कोई अनुभव होता नहीं, आत्मा तो अद्वैत है, है न। अद्वैत का मतलब उससे बाहर कुछ है ही नहीं, कोई दूसरा है ही नहीं। जब कोई दूसरा है ही नहीं तो आत्मा को किस चीज़ का अनुभव होगा, वो तो पूर्ण है। अनुभव होने के लिए माने अपूर्णता ज़रूरी है, ठीक। आत्मा का कोई अनुभव नहीं हो सकता क्योंकि आत्मा पूर्ण है।

अहंकार को ही सारे अनुभव होते है क्योंकि अहंकार अपूर्ण है, ठीक है। तो जो अपूर्ण है उसे ही अनुभव हो सकते है। और जिस तरीके से — साधारणतया हम एनलाइटेनमेंट वगैरह की परिभाषा करते हैं — एनलाइटेनमेंट का अर्थ होता है पूर्णता मिल गयी।

अब हम क्या कह रहे हैं, कि वो बचा ही हुआ है जो अपूर्ण है, क्योंकि उसे अनुभव हो रहे हैं। अनुभव होने के लिए शर्त ही यही है कि आप में अपूर्णता होनी ज़रूरी है। तो हम कह रहे हैं कि वो बचा हुआ है जो अपूर्ण है, लेकिन फिर भी उसे पूर्णता मिल गयी।

आपको दिख नहीं रहा ये बात अपनेआप में कितनी विरोधाभाषी है, अंतर्विरोध से भरी हुई है। दुनिया में आपको सब तरह के अनुभव हो सकते हैं। पूर्णता का अनुभव कुछ नहीं हो सकता, सत्य का कोई अनुभव नहीं होता।

लेकिन लोग चले आते हैं, वो कहते हैं हमें सत्य के अनुभव हुए हैं, हमें मुक्ति के अनुभव हुए हैं, हमें मोक्ष के, निर्वाण के अनुभव हुए हैं, हमें एनलाइटेनमेंट हुआ है; उसका बड़ा अनुभव हुआ है हमको।

जो कोई बोले, ‘उसे सत्य का अनुभव हुआ है या मुक्ति का अनुभव हुआ है।‘ उसने ये बोलकर ही स्थापित कर दिया कि उसकी अभी बहुत साधना बची हुई है। बहुत यात्रा अभी करनी है उसे, उसे अभी कुछ मूलभूत बातें ही नहीं समझ में आ रहीं।

हर तरह के अनुभव आपको हो सकते हैं, फिर कह रहा हूँ, ‘सत्य का अनुभव नहीं हो सकता।’ मुक्ति कोई अनुभव नहीं होती, अनुभवों से मुक्ति चाहिए होती है। इन दोनों बातों का अन्तर ही नहीं समझ पाते हम। हम कहना शुरू कर देते हैं, हमें मुक्ति का अनुभव हो गया। मुक्ति का अनुभव हो गया।

अध्यात्म का अर्थ है अनुभवों से मुक्ति, मुक्ति का अनुभव नहीं। तरह-तरह के रसीले रंगीन अनुभव लेने के लिए कौन आतुर रहता है, अहंकार। क्योंकि वो भूखा है, अपूर्ण है, बेचैन है। तो उसे लगता है कोई नया अनुभव मिल जाए, तो क्या पता बेचैनी दूर हो जाए, पूर्णता मिल जाए।

बात समझ रहे हैं?

सब अनुभव अहंकार को ही होते हैं। और सत्य का अनुभव थोड़ी हो जाएगा अहंकार को। सत्य का अनुभव होने से पहले अहंकार मिट जाएगा न। अनुभव करने के लिए कोई बचेगा ही नहीं। तो क्या बताएगा कोई अपना अनुभव?

कोई कहे मुझे मुक्ति का अनुभव हुआ, ये वैसी सी बात है कोई आकर के अपनी मौत का अनुभव बताए आपको। कोई आपको अपनी मौत का अनुभव बता सकता है क्या? मौत का अनुभव कैसे बताओगे, तुम तो मर गये।

ठीक उसी तरीक़े से एनलाइटेनमेंट का या सत्य का या मुक्ति का कोई अनुभव नहीं होता, हो ही नहीं सकता। बाक़ी सब अनुभव हो सकते हैं, इसका नहीं हो सकता।

अध्यात्म में लेकिन रसीले, रंगीन अनुभवों का बड़ा बाज़ार है। दो आध्यात्मिक लोग मिलेंगे, वो कहेंगे चलिए एक-दूसरे से अनुभव साझा करते हैं, एक्सपीरियंस शेयरिंग (अनुभव साझा करना) करेंगे।

एक बताएगा, मुझे न, ध्यान में बैठा था, आज से अठारह साल पहले, तो इधर पेट में दाएँ तरफ़ गुड़गुड़ाहट होनी शुरू हुई। फिर वह गुड़गुड़ाहट उठने लगी, उठने लगी, और जब वो गले तक पहुँची, तो गुड़गुड़ाहट के साथ मैं भी उठने लगा। और मैं ज़मीन से करीब पौने दो फीट ऊपर उठ गया।

और सुनने वाला कहेगा, ‘अच्छा! वो बड़ा प्रभावित होगी होकर कहेगा, क्या ज़बरदस्त अनुभव बताये इन्होंने अध्यात्म का। जिसके पास जितने इस तरीक़े के फेंकू अनुभव हों, वो उतना आध्यात्मिक आदमी हो जाता है।

और दूसरा कहेगा हम भी पीछे काहे को रहें। तो कहेगा अब हम बताते हैं अपने अनुभव। हम जा रहे थे एक बार एक जंगल में, तो हम लोटा लेकर बैठे। लम्बी यात्रा थी, फिर उठे तो देखा कि नीचे मल की जगह पीले रंग का साँप बैठा हुआ है। वो दैवीय साँप था, ज़बरदस्त साँप था। अरे ग़ज़ब! फिर क्या हुआ?

फिर कुछ नहीं, वो साँप उड़ा, और जाकर के वहाँ पेड़ पर बैठ गया। बोले, ‘ये तो बढ़िया है, माने साफ़ करने की ज़रूरत नहीं पड़ी फिर? नहीं, नहीं वो उड़ गया। बढ़िया! चलिए। जंगल में कहाँ वैसे भी पानी, टॉयलेट पेपर? बढ़िया है, साँप ही निकला, सीधे उड़ गया, पेड़ पर आकर बैठ गया। फिर क्या हुआ?

बोले, ‘फिर वो, उसने ऊपर से हमें पुकारा, तो हम जाना तो नहीं चाहते थे, लेकिन हमारे भीतर से हमारी आत्मा निकली। वो भी साँप के साथ जाकर बैठ गयी। और हम देख रहे हैं कि हमारी आत्मा निकलकर वहाँ साँप के साथ जाकर बैठ गयी है।‘ फिर क्या हुआ?

बोले, ‘फिर हमारी आत्मा और वो साँप दोनों एक हो गये। ये क्या था? बोले, ‘यही तो आत्मा का परमात्मा से मिलन था। यही तो एनलाइटेनमेंट है। बजाओ, बच्चा लोग ताली! बच्चा लोग ने बजानी शुरू कर दी ताली।

ये देखो महाराज एनलाइटेंड हैं, और क्या कहानी सुनायी है। ये क्या है? ये अध्यात्म, ये विक्रम बेताल की कहानियाँ हैं। ये अलीबाबा चालीस चोर सुना रहे हो, ये क्या है? सतत साधना है अध्यात्म।

अहंकार को समझना पड़ता है, अपने ही मन में प्रवेश करना होता है, अपनी ही वृत्तियों से परिचित होना होता है, यही आत्मज्ञान कहलाता है।

उसके बाद देखना होता है, पूछना होता है, चुनाव करना होता है कि ये सबकुछ जो मुझे अपने भीतर दिख रहा है, मुझे ऐसे ही चलने देना है? मुझे इससे तादात्म रखना है या मुझे ज़रा दूर होकर के विश्राम करना है।

इस सवाल का सही जवाब देना ही आध्यात्मिक साधना है और ये साधना निरन्तर करनी पड़ती है, निरन्तर, आजन्म, ताउम्र। अब ये जो बात बोल दी कि निरन्तर साधना करनी पड़ती है, ये बड़ी रसहीन लगती है न, बोरिंग। कह रहे:- इसमें कुछ नाटकीय तो हुआ ही नहीं, आत्मा वगैरह तो उड़ी नहीं, कान से कबूतर निकले नहीं। कुछ ऐसा बताइए जिसमे कुछ मज़ा आये।

नहीं, तुम्हें अपनेआप से पूछना होगा ये कौन है भीतर, जो लगातार मज़ा माँगता रहता है। जो अध्यात्म के नाम पर भी मज़ेदार कहानियाँ माँगता रहता है। उसी का नाम अहंकार है, उसी का नाम अनुभोक्ता है। क्योंकि तुम अध्यात्म के नाम पर भी मज़ा माँगते हो, इसीलिए तुम्हें फिर मज़ेदार गुलफ़ाम कहानियाँ पकड़ा दी जाती हैं।

बहुत सीधी-सादी चीज़ है अध्यात्म। उसमें क़िस्सागोई के लिए कोई स्थान नहीं है।

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