Acharya Prashant is dedicated to building a brighter future for you
Articles
क्या कर्मफल से मुक्ति सम्भव है? || आचार्य प्रशांत (2014)
Author Acharya Prashant
Acharya Prashant
4 min
109 reads

प्रश्न: महर्षि रमण से किसी से प्रश्न किया कि क्या कर्म का फल मिलना आवश्यक है? तो उन्होंने जवाब दिया कि नहीं। फिर भक्त ने पूछा क्यों? तो उन्होंने कहा की एक स्थिति ऐसी आती है जब आदमी का अहंकार ही समर्पित हो जाता है और वो आत्म ही हो जाता है, और तब अच्छे या बुरे फल से मुक्ति मिल जाती है। इसका शंकर भी वर्णनं करते हैं कि ऐसी एक स्थिति आ जाती है, जब अच्छे या बुरे किसी भी कर्म का फल नहीं मिलता।

वक्ता: फल मिलने के लिए कोई होना चाहिए जिसे फल मिले। जब रमण कहते हैं कि बोध से तीनों प्रकार के कर्मों का विगलन हो जाता है, तो यही कहते हैं कि जिसको सजा मिल सकती थी, वही नहीं रहा। जिसको फल मिलता, वही नहीं रहा। आप ने पूछा था की लोग अपने कर्मफल भुगत रहे हैं। हमने क्या कहा था कि कौन भुगत रहा है कर्मफल? वो जो उन कर्मों को अपना समझता है, वही उन कर्मों का फिर फल भी भुगतेगा। जो उस कर्म के साथ बंधा हुआ है ही नहीं, वो उसके फल से साथ कैसे बंध जायेगा?

ठीक है कल कुछ हुआ था, जो कल समय में था, मुझे उससे कोई आसक्ति है नहीं, तो उसके किये हुए से मुझे कहाँ से आसक्ति हो जाएगी?

इस बात को समझो:- कर्मफल मिलता नहीं है, ग्रहण किया जाता है।

ग्राहता समाप्त हो गयी, कर्मफल समाप्त हो जाएगा। कर्मफल कभी मिलता नहीं है, वो माँगा जाता है। ‘मैं हूँ’, इस फल का वारिस, मुझे दो ये फल।

श्रोता: ग्रहण में ऐसा लगता है कि दूसरा कोई दे रहा है।

वक्ता: हाँ, दूसरा ही कोई दे रहा है।

श्रोता: दूसरा कौन?

वक्ता: स्थितियाँ हैं, आप मांग रहे हो उनसे। मेरे पिता की संपत्ति है, मुझे दो। आप ग्रहण न करो, तो वो फल आपको नहीं मिलेगा। ग्रहण करने वाला मन मौजूद है, इसीलिए कर्म का फल मिलता है। आप मत करो ग्रहण, कोई फल नहीं मिलेगा। कर्म हमारे लिए है क्या? हम तैयार खड़े हैं। हमारे लिए कर्म क्या है? सिर्फ फल पैदा करने का तरीका। हम किसी भी कर्म में क्यों उतरते हैं?

श्रोता: फल के लिए।

वक्ता: ताकि फल मिले उसका, और फल वही जो हमे प्रिय हो। तो हमें जैसे कर्म से आसक्ति है, वैसे ही हमे कर्मफल से आसक्ति है क्योंकि हमारे लिए कर्म है ही कर्मफल की खातिर। आप कर्मफल के ग्राहक बनना छोड़ो, वो आपको मिलेगा नहीं।

श्रोता: इसमें ऐसा लग रहा है कि जैसे कोई हिसाब लिख रहा है, फिर आपका हिसाब किया जाएगा और फिर फल दिया जाएगा। ऐसी धारणा बन गयी है।

वक्ता: धारणा बिल्कुल ठीक है। प्रकृति में फल लगातार है और तुमने जो शब्द इस्तमाल किया है की ‘हिसाब लिखा जा रहा है’, वो भी लिखा जा रहा है। जो मैं खा रहा हूँ, दशमलव के पाँचवे अंक तक इसकी कैलोरी गिनी जा रही है। तो हिसाब तो लिखा जा रहा है। प्रकृति तो है ही कार्य- कारण, सबका हिसाब-किताब, वहां पर तो तुम्हारे एक-एक क्षण का हिसाब लिखा जाता है। प्रकृति स्वयं चित्रगुप्त है। तुम ज़रा सा ईंधन जलाते हो, तो उतने से भी वातावरण में कार्बन डाइऑक्साइड की निश्चित मात्रा बन रही है। छोटे से छोटे कर्म को पकड़ कर लिखा जा रहा है।

अस्तित्व क्या है? अस्तित्व चित्रगुप्त है, कार्यों की लम्बी श्रंखला है। तुम जब तक प्रकृति के हिस्से हो, तब तक जो हुआ है, वो भुगतोगे क्योंकि भुगतने वाला मौजूद है। प्रकृति ही करती है, प्रकृति ही भोगती है। जब तुम वहां हो जाओगे, जहाँ न करना है न भोगना है, तब तुम ग्रहण करने से मुक्त हो जाओगे। तब कर्म लगातार चल रहे हैं, और कर्मों को जो ग्रहण करते हैं, वो ग्रहण कर रहे हैं। तुम वो आसक्ति छोड़ दोगे, कहोगे की हम नहीं करते ग्रहण। इसके लिए तुम्हें कहना पड़ेगा कि कुछ खा रहा है शरीर, फूलेगा शरीर, पर हम नहीं फूल रहे। तुम्हें वहाँ पर स्थित होना पड़ेगा, जहाँ पर शरीर फूलता है, तुम नहीं फूलते। वो अमरता है, क्योंकि अगर तुम शरीर नहीं हो, तो शरीर जलेगा भी तब भी हम नहीं जलेंगे।

– ‘संवाद’ पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।

Have you benefited from Acharya Prashant's teachings?
Only through your contribution will this mission move forward.
Donate to spread the light
View All Articles