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कुछ भी खाओ, हिंसा है तो क्या कुछ न खाएँ? || आचार्य प्रशांत, वेदांत महोत्सव (2022)
Author Acharya Prashant
Acharya Prashant
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प्रश्नकर्ता: प्रणाम आचार्य जी। मेरा प्रश्न यह है कि माँसाहार पर आपने काफ़ी कुछ बोला है, जैसे चिकन (मुर्गे का माँस) और मीट (बकरे का माँस) नहीं खाना चाहिए। अक्सर अपने परिवार में और दोस्तों को भी माँसाहार पर आपके वीडियोज़ साझा करता रहता हूँ। मैं एक किसान परिवार से हूँ, तो हम लोग खेती में जो कीटनाशक डालते हैं, क्या वो भी एक तरीक़े की हिंसा ही है? और कहीं-न-कहीं अपने घर में हम लोग कॉइल (मच्छर मारने वाली सर्पिल अगरबत्ती) लगा रहे हैं, तो क्या मच्छर को मारना भी हिंसा ही है?

आचार्य प्रशांत: बढ़िया! बैठिए। देखिए, हिंसा क्या है, हिंसा की परिभाषा क्या है? जहाँ आपके पास चुनाव का विकल्प मौजूद था, वहाँ भी आपने अपने स्वार्थ की खातिर दूसरे को मारने का चुनाव करा, ये हिंसा है।

जहाँ आपके पास विकल्प ही मौजूद न हो, वहाँ हिंसा की कोई बात ही नहीं क्योंकि वहाँ आपकी चेतना का कोई योगदान ही नहीं। ये पहली बात हुई। दूसरा, किसको मार रहे हो, वो कौन है जिसको मारा। और तीसरा, वजह क्या थी मारने की?

आप इसके दो टुकड़े कर दें (रूमाल को दिखाते हुए), क्या आप इसको हिंसा कहेंगे? आप एक जीव के दो टुकड़े कर दें, उसको हिंसा क्यों कहते हैं? अभी हम दूसरी बात कर रहे हैं, किसको मारा। इसके (रूमाल के) दो टुकड़े कर देना हिंसा क्यों नहीं है? जीव को मार देना हिंसा क्यों है? जीव में चेतना है। ठीक?

तो इसी तरीके से चेतना के भी विभिन्न तलों से निर्धारित होता है कि आप कितनी हिंसा कर रहे हो। जिस जीव में चेतना बिलकुल शून्य बराबर है, उसको मारना न्यूनतम श्रेणी की हिंसा है। जिसकी चेतना जितनी ऊँची हो, उसको मारना उतना बड़ा अपराध होता है।

सबसे पहली बात तो ये कि जहाँ आप दूसरे को मारने के विषय में न सोच रहे हो, न चाह रहे हो, पर दूसरे की मृत्यु बिलकुल संयोगवश हो जा रही है या अस्तित्ववश हो जा रही है। उदाहरण के लिए, आप साँस लेते हो, छोटे-छोटे जीवाणु आकर के आपकी नाक में फँसकर मर गये। इसको हिंसा नहीं माना जाएगा क्योंकि इसमें न आपकी सोच सम्मिलित है, न आपके पास चुनाव का कोई अधिकार था। ये तो बस हो गया, आप चाहकर भी इसको रोक नहीं सकते थे।

उसके बाद बात वहाँ आती है जहाँ पर चुनाव का अधिकार होता है। वहाँ पर प्रश्न ये पूछा जा रहा है कि जो तुम्हारे द्वारा मारा जा रहा है वो कौन है, वो किस तल का है। पेड़ है, पौधा है, मच्छर है, पशु है या मनुष्य ही है? इसी कारण से मनुष्य को मारने पर बड़ी भारी सज़ा का विधान होता है। जानवर को मारने पर उससे कम सज़ा का और पेड़-पौधों को मारना जीवन की एक अनिवार्यता है, उस पर सज़ा का विधान नहीं होता।

हालाँकि जो चैतन्य व्यक्ति होगा वो पेड़-पौधों को खाने में भी न्यूनतम हिंसा करेगा। ये कहते हुए हमें ये स्वीकार करना चाहिए कि आप यदि पेड़ को काट रहे हो, तो उसमें भी हिंसा निहित है। वहाँ पर भी पूरी सावधानी रखनी चाहिए कि जो न्यूनतम हिंसा सम्भव है उतनी करी जाए। और न्यूनतम की बात क्यों हो रही है, शून्य की क्यों नहीं? क्योंकि ये तो आपकी देह का तकाज़ा है कि आप जियोगे ही कुछ-न-कुछ हिंसा करके। आप चल भी रहे हो तो आपको नहीं पता आपके पैर से दबकर के किसकी मृत्यु हो गयी।

आप कितनी भी सावधानी रख लो, तो भी मृत्यु हो जाती है और इसी बात को ध्यान में रखते हुए जैनों ने यहाँ तक विधान करा कि अपने कदम का भी खयाल रखो, हरी घास पर भी मत चलो, बरसात के मौसम में चलने-फिरने से परहेज़ करो। क्योंकि वो देख रहे थे कि हम जिस तरीके से रचे गये हैं, हम जैसे पैदा होते हैं, जैसी हस्ती ही है हमारी, हम अगर चलते भी हैं तो हिंसा हो जाती है। वो कह रहे हैं, ‘उसको भी कम-से-कम करो।‘ पर तुम कम-से-कम कर सकते हो, शून्य तो तब भी नहीं कर सकते। शून्य नहीं कर सकते इसका मतलब ये नहीं है कि कम नहीं करना है। कम-से-कम करना है, उसे न्यूनतम तल पर लाना है। और जितना आप उसे कम कर दो उतना आपके लिए ही अच्छा है।

तो लोग ये तर्क देते है कि पेड़-पौधों में भी तो जान होती है। हाँ, बिलकुल ठीक बात है जान होती है। पाखंड होगा ये कहना कि पेड़-पौधों में जान नहीं होती या पेड़-पौधा तो बस मृत है, उसे मारा जा सकता है। लेकिन भाई क्या करें, या तो हम पैदा ही न होते।

प्रकृति ने जो शरीर दिया है वो भोजन कुछ तो माँगता है न। तो अगर मुझे चुनना है कि मैं बकरा खाऊँ या सेब खाऊँ तो मैं सेब को चुनूँगा और ये मैं जानता हूँ कि अगर मैं पेड़ से फल भी तोड़ रहा हूँ तो थोड़ी सी हिंसा तो वहाँ भी है और अगर मैं पेड़ ही काटे दे रहा हूँ तो और ज़्यादा हिंसा है। लेकिन मैं ये भी जानता हूँ कि बकरा काटने में और कई गुना हिंसा है इसलिए बकरा नहीं काटूँगा।

दूसरी बात, बकरा अगर मैं खाता हूँ तो बकरे का एक किलो माँस बनता है बीस किलो अन्न की कीमत पर। तो अगर मैं ये भी कहूँ कि देखो, आप गेहूँ या चावल खाते हो उसमें भी तो हिंसा हो ही रही है। तो साहब, बकरा खाने में बीस गुना ज़्यादा हो रही है न, क्योंकि जब मैंने गेहूँ खाया तो एक किलो गेहूँ ही खाया। पर जब मैंने बकरा खाया तो बकरे का एक किलो माँस बना था बीस किलो गेहूँ खाकर।

तो अगर हम ये भी तर्क देते है कि गेहूँ का जो पौधा होता है उसको भी तो बचाना चाहिए, उसमें भी तो जान होती है, तो गेहूँ का पौधा भी अगर बचाना चाहते हो तो बकरा मत खाओ, क्योंकि बकरे का तो एक किलो (माँस) बीस किलो गेहूँ से आता है। तो ये तर्क भी उल्टा पड़ेगा उनको जो कहते हैं पेड़-पौधों में भी तो जान होती है। तो उनसे हम कहेंगे कि पेड़-पौधों की ही खातिर तुम बकरा मत खाओ। क्योंकि जब बकरा खाते हो तब सबसे ज़्यादा पेड़-पौधों का नुकसान होता है। तो ये दूसरी बात हुई कि जिसको आप मार रहे हो उसकी अपनी चेतना का स्तर क्या है।

और फिर तीसरी बात ये हुई कि जिसको आप मार रहे हो, क्या वो चेतना का नुकसान करने जा रहा था। क्योंकि मूल बात क्या है, जीवन किसलिए है? जीवन चेतना की खातिर है, कॉन्शियसनेस की खातिर।

तो एक मनुष्य है जिस पर एक शेर हमला कर रहा है। अब बिलकुल ठीक है कि आप शेर को मार दो क्योंकि दोनों में ऊँची चेतना किसकी है? मनुष्य की। दूसरी बात, हमला शेर कर रहा था। आप अपने शौक और खेल की खातिर शिकार करने जाओ तो वो बात अक्षम्य है, पर शेर आप पर हमला करता है और अब स्थिति ये है कि दोनों में एक ही बचेगा, या तो शेर बचेगा या आप बचोगे, तो फिर अब मजबूरीवश आपको ये अधिकार है कि आप शेर को मार दो।

हाँ, बिना मारे आप किसी तरह से बच सको, बिना मारे आप किसी तरह से उसको रोक सको तो फिर मारना नहीं चाहिए। अगर ये सम्भव हो कि शेर को बस डरा ही दो और वो आपको न मारे और दोनों की जान बच जाए तो फिर उस विकल्प का इस्तेमाल होना चाहिए। पर अगर ऐसी स्थिति आ जाती है कि शेर आपके ऊपर कूद रहा है और अब कोई तरीका ही नहीं है बचने का, तो शेर को आप मार सकते हो।

यही बात मच्छर पर भी लागू होती है। आप मच्छर का पीछा करके उसको मारो, इस बात की कोई माफ़ी नहीं है। मच्छर अपनी ज़िन्दगी जी रहा है, मच्छर का अपना कुनबा है, खानदान है, मच्छर जा रहा है कहीं पर हॉलिडे (छुट्टी) करने। आप उसका पीछा कर रहे हो और आपने उसको मार दिया, ये क्या बात है?

पर आप एक ऊँची चेतना के जीव हो, मच्छर एक निचली चेतना का जीव है और मच्छर आपके ऊपर बैठ गया और डेंगू, मलेरिया, आपको कुछ भी लगा सकता है। ये मच्छर ने आप पर आक्रमण करा है न। नीची चेतना ने ऊँची चेतना पर आक्रमण करा है। पहले तो तेरी चेतना नीची, दूसरे तू आक्रमण कर रहा है मेरे ऊपर। तो अब आपको हक़ है कि आप मच्छर को मार दो।

उसमें भी प्रयास ये होना चाहिए कि मारने की ज़रूरत न पड़े, उड़ा ही दो, भगा ही दो, ‘चल भई, भाग जा।’ या कुछ इस तरह का धुआँ वगैरह कर दो कि वो आपकी खिड़की से निकल जाए, मारने की ज़रूरत न पड़े। पर जब कोई विकल्प न बचे, आपने ताली बजाकर देख लिया, आपने हवा चलाकर देख लिया, आपने पंखा चला लिया, आपने धुआँ जला लिया। वो तब भी लगा ही हुआ है कि आपको खा ही जाएगा, तो अब आपने उसको मार दिया तो आपने कोई बड़ा अपराध नहीं कर दिया।

कुल बात समझ रहे हो न?

तो ये सब बड़ी बच्चों वाली दलीलें होती हैं कि अच्छा! हम बकरा काटते हैं, हम भैंसा काटते हैं पर तुम भी तो मच्छर मारते हो न, तो तुम मच्छर मत मारा करो। ज़्यादा माँसाहार करने से इस तरह के तर्क निकलने लगते हैं खोपड़ी से, क्योंकि खोपड़ी जानवर जैसी हो जाती है। जिनकी बुद्धि थोड़ी भी शुद्ध होगी, वो इस तरह की दलीलें नहीं दे सकते।

माँसाहार जो है, खोपड़ी को भयानक रूप से तामसिक बना देता है। फिर उसमें से ऐसे विचित्र तर्क निकलते हैं कि पेड़-पौधों में भी तो जान होती है, मच्छर भी मत मारा करो न। एकदम छोटी हो जाती है बुद्धि। बात समझ में आ रही है?

अब आते हैं कीटनाशक वाली बात पर। बिलकुल, आप फसल उगा रहे हो, उसमें कीटनाशक डाल रहे हो, उसमें तो हिंसा है ही। उससे बड़ी हिंसा तो फसल उगाने में ही हो गयी, आप कीटनाशक डालो चाहे न डालो। क्योंकि आप जहाँ पर अपना फसल उगा रहे हो वहाँ पहले क्या था? पहले क्या था? जंगल था। तो खेत ही पहली हिंसा है। पर उस खेत की ज़रूरत क्यों पड़ रही है? इतने लोग पैदा हुए हैं। तो मूल हिंसा फिर क्या है? अब इतने लोग अगर पैदा कर लिये हैं तो उनको खाने को भी देना पड़ेगा क्योंकि इंसान जो पैदा हुआ है वो तो सुरक्षा का अधिकारी है न। क्योंकि सर्वोच्च चेतना का जीव कौनसा है? इंसान। तो एक बार वो पैदा हो गया, फिर तो उसकी देखभाल करनी ही पड़ती है। जब देखभाल करोगे तो कीटनाशक भी डालोगे, वो हिंसा वहाँ निश्चित रूप से है।

पहली हिंसा हुई थी जब खेत बनाया था, दूसरी हिंसा है जब उसमें तुम कीटनाशक डाल रहे हो। खेती अपनेआप में वास्तव में बड़ी हिंसा का काम है, कोई छोटी-मोटी हिंसा उसमें नहीं है। पर तुम खेती रोक कैसे दोगे जब तक आबादी इतनी ज़्यादा है। इसलिए मैं आबादी के खिलाफ़ इतना बोला करता हूँ। आबादी माने हिंसा।

लोग अपनेआप को शाकाहारी बोलते हैं, कोई अपनेआप को जैन बोल रहा है, कोई और कुछ बता रहा है कि ब्राह्मण हैं हम, कोई अहिंसक बोल रहा है अपनेआप को, कोई वीगन बोल रहा है अपनेआप को और बच्चे हैं चार। तुम कौनसी तरह के वीगन हो, चार बच्चे पैदा कर लिये? इससे बड़ी हिंसा कुछ हो सकती है?

बात समझ में आ रही है?

हिंसा क्या है दोहराइए। हिंसा तब है जब आपके पास किसी ऊँची चेतना को बचाने का विकल्प था, उसके बाद भी आपने उसे बचाया नहीं। उदाहरण के लिए, मैं बैठा हूँ, मेरे पास विकल्प है मैं पत्ता भी खा सकता हूँ, मैं माँस भी खा सकता हूँ। विकल्प मौजूद है। और अब मै चयन करूँ मैं पत्ता नहीं खाऊँगा, मैं माँस खाऊँगा स्वाद की खातिर, तो ये हिंसा हो गयी। और ये तो कहिएगा मत कि पोषण की खातिर माँस खाया है क्योंकि पोषण बराबर का मिल जाता है शाकाहार में भी।

देश में किन राज्यों में सबसे कम माँसाहार है आप जानते हैं न? पंजाब, हरियाणा, राजस्थान और गुजरात, ये चार राज्य हैं जहाँ सबसे कम माँसाहार है और इनमें से गुजरात को हटा दीजिए तो सबसे ज़्यादा सेना में इन राज्यों से नौजवान जाते हैं। औसत कद इन तीन राज्यों का सबसे अधिक है — पंजाब, हरियाणा, राजस्थान। औसत ऊँचाई सबसे ज़्यादा यहाँ है। बॉक्सर (मुक्केबाज) यहाँ से निकलते हैं, पहलवान यहाँ से निकलते हैं, जैव्लिन थ्रोअर (खेलों में भाला फेंक) भी यहीं से निकलते हैं और सबसे ज़्यादा शाकाहार यहीं पर हैं।

तो जो लोग ये दलील लेकर आते हैं कि अरे! माँस खाएँगे नहीं तो शरीर कैसे बनेगा, ये बिलकुल मूर्खता का तर्क है, अवैज्ञानिक। ऐसों को किसी हरियाणवी बॉक्सर के सामने खड़ा कर दो जो ज़िन्दगी में कभी अंडा, माँस कुछ न खाता हो और वहाँ ऐसे ही होते हैं सब। ओलम्पिक्स में ये जो हमारे मेडल लेकर आ रहे हैं, ज़्यादातर शाकाहारी हैं। और देश में माँसाहार सबसे ज़्यादा कहाँ होता है, अब उन लोगों की कद-काठी कैसी होती है, थोड़ा विचार कर लीजिएगा। कहाँ होता है? बिहार, झारखंड, बंगाल और फिर दक्षिण भारत। बंगाल से कितने पहलवान निकलते हैं? और वहाँ माछ (मछली) के बिना काम ही नहीं चलता। माँसाहार से शरीर बनता है क्या? माँसाहार से पोषण आता है क्या? औसत ऊँचाई किसकी होती है ज़्यादा, पंजाबी की या बंगाली की?

श्रोतागण: पंजाबी की।

आचार्य: पर माँस तो सारा बंगाली ने खाया था। तो शरीर क्यों नहीं बना फिर? अभी बड़ा मज़ा आया था, विम्बलडन जो फाइनल हुआ था — हम विम्बलडन फाइनल की बात कर रहे हैं — उसके दोनों फाइनलिस्ट्स पता है न क्या थे? वीगन। हम विम्बलडन के फाइनल की बात कर रहे हैं। नेट के इस तरफ़ और उस तरफ़ दो लोग खड़े हुए हैं जो माँस छोड़ दो, दूध भी नहीं छूते और विम्बलडन फाइनलिस्ट्स हैं दोनों। और उनमें से एक शायद अपना करियर खत्म करते-करते सर्वाधिक ग्रैंड स्लैम का कीर्तिमान अपने नाम करेगा।

फ़ेडरर जा चुके हैं, नडाल को चोट लग चुकी है, तो सबसे ज़्यादा ग्रैंड स्लैम तो किसके पास बचेंगे? तो आप जितने भी तर्क दोगे माँसाहार के पक्ष में वो आधी बुद्धि के ही तर्क हो सकते हैं। थोड़ा सा भी आप उसमें अगर विचार करोगे तो आपको दिखेगा कि इतना बचकाना तर्क है कि मैं न ही दूँ तो बेहतर है।

बात आ रही है समझ में?

हिंसा क्या है? जब चेतना को ऊँचाई देने का या ऊँची चेतना को बचाने का विकल्प हो और आपने नहीं बचाया। अपने प्रति हिंसा क्या हुई फिर? अपने प्रति हिंसा क्या हुई? अपनी चेतना को ऊँचाई न देना अपने प्रति हिंसा हो गयी। तो आप घोर हिंसक हैं अगर आप ऐसी ज़िन्दगी जी रहे हैं जिसमें आप अपनी चेतना को बढ़ा नहीं पा रहे।

हिंसा का सम्बन्ध चेतना से है, चेतना को न उठाना ही हिंसा है।

मनुष्यों में भी दो मनुष्यों को बचाना हो, दो में से एक ही बच सकते हैं, कोई ऐसी स्थिति आ जाए। एक बिलकुल उदात्त चेतना वाला, आसमान जैसी ऊँचाई है उसमें और एक जिसने अब तय ही कर लिया कि ज़िन्दगी बर्बाद करनी है। हो सके तो दोनों को ही बचाओ क्योंकि जिसने तय भी कर लिया है, सुधरने की कुछ सम्भावना तो अभी भी उसमें होगी, शून्य तो नहीं हो गयी उसके भी बचने की सम्भावना। पर अगर स्थिति ऐसी आ गयी कि दोनों में से एक ही बच सकता है, तो बोलो किसको बचना चाहिए?

श्रोतागण: ऊँची चेतना वाले को।

आचार्य: बस, इसी सूत्र से जीवन में निर्णय करने हैं। हमेशा उस तरफ़ को चलो जहाँ चेतना की ऊँचाई है। राम और रावण की लड़ाई में इसलिए हम चाहते हैं कि राम जीतें। हो सके तो रावण भी बच जाए क्योंकि रावण भी कोई हल्का व्यक्ति तो था नहीं, ज्ञानी था। और ज्ञानी न भी हो तो भी सुधरने की और बढ़ने की गुंजाइश तो सबमें ही बची रहती है। तो काश ऐसा हो सकता कि रावण शान्तिपूर्वक ही मान जाता, पर अगर ऐसी हालत हो ही गयी है कि दोनों में से एक ही बचेगा, राम और रावण में से, तो राम को बचना चाहिए। क्यों बचना चाहिए, कारण स्पष्ट हो गया? अगर ऐसी हालत आ गयी है कि मनुष्य और जानवर में से एक ही बच सकता है तो किसको बचना चाहिए?

श्रोतागण: मनुष्य को।

आचार्य: पर हम पूरी कोशिश करेंगे, जान लगा देंगे कि जानवर को भी बचा सकें। यही मनुष्यता की निशानी है, जो जानवर के लिए भी अपनेआप को कुर्बान करने को तैयार हो जाए। मनुष्य वो नहीं है जो अपनी धारणाओं और मान्यताओं की खातिर जानवर को कुर्बान कर दे, वो मनुष्य है ही नहीं। मनुष्य वो है जो जानवर को बचाने की खातिर अपनेआप को कुर्बान कर दे।

समझ में आ रही है बात?

ये सूत्र अगर आप याद रखेंगे कि मूल बात है चेतना तो फिर आपको बिलकुल स्पष्ट रहेगा कि माँसाहार में क्या बुराई है और माँसाहार से सम्बन्धित जितने भी कुतर्क आते हैं, आप तत्काल उनका उत्तर भी दे पाएँगे। इतना ही नहीं फिर बात सिर्फ़ आहार से सम्बन्धित नहीं रह जाएगी कि क्या खा रहे हो, फिर बात जीवन की हो जाएगी कैसे जी रहे हो। क्योंकि सिर्फ़ खाने में हिंसा नहीं होती, हिंसा हमारे जीवन के हर कोने में है, हिंसा हमारे समय के हर पल में है। खाना तो बस हिंसा का एक रूप है। हमारे जीवन में ही हिंसा है। जिस भी चौराहे पर आपने गलत मार्ग चुन लिया, आपने हिंसा कर दी।

अब बताओ, दूसरे की चेतना को उठाने के लिए उसको थप्पड़ मारना पड़ गया, ये हिंसा है या अहिंसा? ये अहिंसा है। और आप दूसरे से मीठी-मीठी रस भरी बातें बोले जा रहे हो और उसकी चेतना वैसी-की-वैसी पड़ी है, बल्कि और डूब रही है, ये हिंसा है कि अहिंसा? हिंसा। तो हिंसा क्या है, सच्चाई से पहचानो। दूसरे से मीठा बोलना अहिंसा नहीं होती। कई लोग सोचते हैं अहिंसा का यही तो मतलब है — किसी का दिल मत दुखाओ। न, ये बहुत मूर्खतापूर्ण परिभाषा है कि किसी का दिल मत दुखाओ यही अहिंसा है। अगर दिल दुखाने से उसका भला होता है, तो दिल दुखाना ही अहिंसा है।

समझ में आ रही है बात?

तो आहार सम्बन्धी बात क्या है वो समझिए, फिर ये भी समझिए कि हिंसा आहार से बहुत आगे की बात है।

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