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क्रोध या बेईमानी? || आचार्य प्रशांत (2017)
Author Acharya Prashant
Acharya Prashant
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आचार्य प्रशांत : अहंकार कहता है कि मैं जैसा हूँ, वैसा होते हुए मुझ में ये पात्रता है कि जो मैं चाह रहा हूँ, वो मुझे मिल जाए। अहंकार में इतनी समझ और इतना लचीलापन नहीं होता कि उसे दिखाई दे कि वो बित्ता भर का नहीं है, और मांग रहा है असीम को। तो, उसको बुरा लगता है जब नहीं मिलता। उसको ये लगता है कि मेरी तो योग्यता थी, मेरी तो पात्रता थी, मेरा हक़ था, और मुझे मिला नहीं। और जब ये लगता है कि मेरा हक़ था और मुझे मिला नहीं, तो गुस्सा आता है।

आदमी के तेवर विद्रोही जैसे हो जाते हैं, क्योंकि आदमी कहता है कि मुझे वो चीज़ नहीं मिली जो हक़ था मेरा, अधिकार था मेरा। फिर गुस्सा आता है। गुस्सा अहंकार को तभी आता है, जब उसे अपनी हैसियत का एहसास नहीं रहता। कटोरा समुन्दर मांगने निकला है, और समुन्दर समा नहीं रहा तो गुस्सा आ रहा है।

और गुस्साए जा रहा है, क्योंकि समुन्द्र घुस ही नहीं रहा है कटोरे में।

कहानी इस बारे में है, कि जब उस युवा संन्यासी को बताया गया कि जो ये पेड़ पर इतने पत्ते हैं, इतने जनम लगेंगे; तो उसने उसको ये नहीं कहा कि इतने जनम लगेंगे, उसने उसको कहा कि क्या मात्र इतने ही जनम लगेंगे? “अरे मैं जैसा हूँ, इतना सा, तो मुझे अगर इतने ही जनम लग रहे हों, तो बड़े कम हैं।” ऐसी सी बात है कि एक की संख्या को एक करोड़ तक पहुँचना है, तो उसे कितने फेरे लगाने पड़ेंगे अपने? एक करोड़। उसको पता है कि मैं जितना छोटा हूँ, अगर मुझे करोड़ तक पहुँचना है तो मुझे अपने ही एक करोड़ फेरे लगाने पड़ेंगे। एक से दो होऊँगा, दो से तीन होऊँगा, तीन से चार होऊँगा, तब पहुँचूंगा?

श्रोता : एक करोड़ पर।

वक्ता : ऐसे में आप उसे बता दें कि बेटा एक करोड़ नहीं सिर्फ एक लाख फेरे लगाने हैं, तो उसे गुस्सा आना चाहिए या हर्षित हो जाना चाहिए? तो ऐसी दशा थी उस युवा संन्यासी की। उसने कहा कि मैं तो ये माने बैठा था, कि करोड़ों फेरे लगाने पड़ेंगे, और नारद जी आपने बता दिया कि सिर्फ उतने जितने पेड़ पे पत्ते हैं, एक लाख, ये तो बड़ी ख़ुशी की बात है। पर ये ख़ुशी की बात तब हो जब ‘एक’ को एहसास हो कि वो ‘एक’ है। अगर ‘एक’ अपनी हेंकड़ी में ये माने बैठा है कि वो एक हज़ार है, तो अपनी दृष्टि में उसे क्या लगता है कि उसे कितने फेरे लगाने चाहिए? एक हज़ार है, तो एक करोड़ होने में कितने फेरे लगाने पड़ेंगे?

श्रोतागण : दस हज़ार।

वक्ता : दस हज़ार! अब आप उसे अगर बताओगे कि एक लाख लगाने हैं, तो कहेगा बड़ा अन्याय है। हम तो जी हक़ की लड़ाई लड़ते हैं। हमारे तो जी दस ही हज़ार लगने चाहिए थे, हमसे कहा जा रहा है, एक लाख लगाओ। अब वो नारेबाज़ी करेगा। अब वो झंडा फेहराएगा। बड़ा अन्याय हुआ हमारे साथ। इसीलिए क्योंकि, ‘एक’ को अपनी हैसियत नहीं पता है। ‘एक’ ने कभी देखा ही नहीं गौर से कि वो अपने आप को कितनी क्षुद्रता में डाल चुका है।

ऐसा नहीं कि ‘एक’ की हैसियत एक हज़ार की है। हैसियत तो उसकी करोड़ की ही है, पर डाल उसने अपने आप को बड़ी क्षुद्रता में दिया है। और ऐसी क्षुद्रता में डाला है कि उसे अब ये एहसास भी नहीं है कि वो कितना छोटा हो गया है। वो जितना क्रोध दर्शाता है, कि सत्य नहीं मिलता और ये नहीं होता, उतना ही ज़्यादा ये स्पष्ट हो जाता है कि नशे में है। और नशा कोई उसको अस्तित्व ने नहीं दिया है, नशा उसकी अपनी ही आदत है। उसकी अपनी अकड़ है। नशा तो कभी भी उतर जाए। एक बात बताओ, तुम्हारा नशा कितना भी गहरा हो, कितनी देर चलता है?

आप में से जो लोग पीते-पिलाते हों, उन्हें पता होगा मैं क्या पूछ रहा हूँ। आप दो बोतल भी चढ़ा लीजिये, नशा कितनी देर कायम रहेगा? दो दिन? बहुत बोल रहा हूँ दो दिन। कोई भी नशा स्वयं उतरने को ततपर रहता है। अगर आप पाएँ कि आप लगातार नशे में हैं, तो इसका अर्थ क्या है?

श्रोता : बार बार।

वक्ता : आप बार बार खुद पी रहे हैं, और उसके बाद जा के भरे बाज़ार शिकायत कर रहे हैं, कि मुझे तो होश मिलता नहीं। होश तो आने को तैयार है, और नशा जाने को तैयार है। क्योंकि नशा स्वभाव नहीं। होश स्वभाव है। नशा तो चढ़ाना पड़ता है, कृत्रिम है, बनावटी है, बाहरी है। नशा चढ़ा भी लो कितना, तो भी तुम ये कभी पक्का नहीं कर सकते, कि नशा चढ़ा ही रहेगा। शराबियों की समस्या ही यही रहती है, वो कितना भी चढ़ाते हैं, उतर जाता है। बार बार नशा चढ़ेगा, बार बार यही लगेगा कि एक नहीं एक हज़ार है।

जान लो कि अपनी पात्रता को खुद कितना संकुचित करे बैठे हो। तो उसके बाद अगर कोई ये समाचार भी देगा कि अभी बहुत तपस्या है, बहुत साधना है, पेड़ के पत्तों जितना समय, उतने जन्म, चाहिए, तो लगेगा कि धन्य भाग। तो भी यही लगेगा कि किसी ने वरदान दे दिया।

अपनी क्षुद्रता का, अपनी वर्तमान पात्रता का, पता कैसे लगे? अपने जीवन को देख करके। देखो ज़िन्दगी को, सुबह से शाम तक क्या आज? देखो, पिछले चार दिन क्या किया? देखो, पिछले तीस साल क्या किया। तुम अपने एक घंटे को भी अगर गौर से देख लो, ईमानदारी से साफ़ साफ़ देख लो, तो उसके बाद दोष देने के लिए न अध्यात्म बचेगा न बाज़ार बचेगा। उसके बाद यही पाओगे कि मेरा ही हठ है। उसके बाद ये ही पाओगे कि मैं ही अड़ा हुआ हूँ, व्यर्थ अड़ा हुआ हूँ। हठ छोड़ने की देर है, जिस चीज़ के लिए मैं इतना उतावला हो रहा हूँ, मिल जाएगी।

फिर कहता हूँ, नशा चढ़ाना पड़ता है या होश चढ़ाना पढ़ता है? बाहर से क्या चढ़ाते हो?

श्रोतागण : नशा।

वक्ता : और अगर बाहर से नींम्बू पानी भी पीते हो, नशा उतारने के लिए, तो वो नशा उतारने के लिए पीते हो, होश चढ़ाने के लिए नहीं। दोनों अलग अलग बाते हैं। नशे को उतारना और होश को चढ़ाना एक बात नहीं है।

नशा उतारने की दवाईयाँ आती हैं। आपको बहुत चढ़ गयी है, दर्द हो रहा है, हैंगओवर हो गया है, आप गोली ले लीजिये, उतर जायेगा। पर वो गोली क्या आपको होश देती है? या सिर्फ नशा उतारती है? नशा उतरने दो ना। जो भी नशा तुम्हारे पर चढ़ा है, तुम्हारे समर्थन के बिना बहुत समय तक नहीं चलेगा। तुम उससे, ज़रा सा वैराग्य ले लो, दो कदम दूर हो जाओ। हर नशा स्वयमेव उतर जाएगा। तुम्हें कोई और श्रम नहीं करना है। इतना चिपक के न बैठो अपने आप से, कि मैं ये हूँ, मैं वो हूँ। ज़रा सी दूरी बनाओ, सब हो जाएगा।

फिर तुम्हें न बाज़ार चाहिए, न अध्यात्म चाहिए, काम अपने आप हो जाता है। काम कुछ है ही नहीं होने को। काम क्या है? स्वभाव को काम थोड़े ही बोलते हैं। जो तुम्हें मिला ही हुआ है, जो जन्मसिद्ध, बल्कि जन्म पूर्व अधिकार है तुम्हारा, उसको काम थोड़े ही बोलते हैं। जो कुछ तुम्हें तुम्हारी हस्ती द्वारा प्रदत्त है, उसको ये थोड़े ही कहते हैं, कि अर्जित करना है? ज़मीन पर आ जाओ। ज़रा ज़मीनी हक़ीक़त से वास्ता रखो। अपने रोज़मर्रा के जो तथ्य हैं, उनसे मुँह मत मोड़ो। ईमानदारी से उसका सामना करो। जैसे हो, उसको स्वीकारो, कि भई ऐसा हूँ। और इस स्वीकार में बड़ी जान होती है। सब बदल जाएगा। जो जलने लायक है, सब जल जाएगा।

उसके बाद ये रोष, द्वेष, कुंठा, आक्रोश इसकी कोई आवश्यकता ही नहीं रहेगी।

मात्र इतने पत्ते हैं, समझ रहे हो। उसने ये नहीं सुना कि इतने जन्म लगेंगे, उसने कहा, “मात्र इतने जन्म? ये तो बड़ा सस्ता है। इतनी बड़ी चीज़ मिल रही है, उसके लिए तो ये सौदा बहुत सस्ता है।” अगर करोड़ जन्म लग रहे हैं, तो चीज़ अरबों की है। अरबों की चीज़ करोड़ों में मिले तो सस्ती हुई की नहीं हुई?

एक जगह पर मैंने पूछा है, कि ज़्यादा बुरा क्या है? दस बार धोखा खाना या ग्यारहवीं बार विश्वास न कर पाना?

श्रोता : दस बार धोखा खाना।

वक्ता : वो आप देखिए। हो सकता है बाजार में ने तुमको बार-बार धोखा दिया, पर धोखा खाने के लिए तैयार तो तुम ही थे ना? बिना तुम्हारी रज़ामंदी के, बिना तुम्हारी सहभागिता के कौन धोखा देगा?दस बार धोखा खाया और ग्यारहवीं बार यकीन ही नहीं कर पा रहे। तो ये जो ग्यारहवीं बार जो घटना घट रही है, वो ज़्यादा त्रासद है।

एक फोटो ले लो अपनी, इस पेड़ के पत्तों के साथ

श्रोता : इतने जनम लगेंगे।

वक्ता : इतने जनम भी लगें तो कम हैं। चीज़ इतनी बड़ी है कि इतने जनम भी लगें तो कम हैं।

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