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कितने तेज़, स्मार्ट, होशियार हो (लेकिन टाइटैनिक में छेद हो चुका है) || आचार्य प्रशांत (2022)
Author Acharya Prashant
Acharya Prashant
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प्रश्नकर्ता: प्रणाम, आचार्य जी। वैसे ज़्यादा समय हुआ नहीं, कुछ गत महीने ही हुए होंगे जब से आपकी वीडियोस देख रहा हूँ यूट्यूब पे तो पहला ही मौका मिला है आपसे संगति करने का। तो असल में दो मिले-जुले से सवाल थे। एक तो उद्देश्य, ऑब्जेक्टिव का था; ये पूरा संसार, यह ब्रह्माण्ड भी जो चल रहा है इसका कुछ उद्देश्य है या जो हम साइंस (विज्ञान) में पढ़ते आते है बस वैसे ही है।

बिगबैंग हुआ, उसके बाद चल रहा है इवाल्यूशन (विकास) या ड़ीवाल्यूशन (हस्तांतरण) जो भी चल रहा है, कहीं सिद्ध होगा या कुछ न मानें, कि नहीं होगा; जैसा भी चल रहा है चलता रहेगा। और दूसरा पात्रता को लेकर है; हम जैसे एक इंसान को देखें और बाकी सारे जीवों को एक तरफ़ देख लें तो जो आईक्यू मिला, इंटेलिजेंस (ज्ञान) मिला, जो भी क्रिएटिविटी (रचनात्मकता) मिली वो उन्नीस-बीस का फ़र्क़ नहीं है। इंसान में इतनी ज़्यादा है और बाकी किसी और जीव-जंतु में नहीं है। तो उसको इस परिप्रेक्ष्य में कैसे देखें कि वो क्यों मिली हमें?

क्योंकि अगर मैं इतिहास देखूँ, रिपोर्ट कार्ड, ट्रैक रिकॉर्ड देखूँ इंसान का तो हमने उसका ज़्यादातर दुर्व्यवहार ही किया है। जिस फॉर्म (रूप) में हमें मिली थी धरती, मैं अपना भी जीवनकाल देखूँ; चालीस साल पहले जो थी धरती, चालीस साल बाद तो कुछ-न-कुछ दुर्गति हुई है।

तो ये जा किस तरफ़ रहा है? मैं लायक भी हूँ मतलब इंसान होने के नाते हम इस लायक भी हैं या अनॉमलि है कि हमे ये ग़लती से मिल गयी है और हम ज़्यादातर कुछ नहीं हैं, हम एक भस्मासुर हैं। जैसे बाकी जीव किसी को खा रहा हो तो वो भी ठीक है बात है। हमें मालूम है, हम इसी तरह खाते रहे तो हम अपना ही नाश करेंगे, फिर भी हम खाए जा रहे हैं।

आचार्य प्रशांत: जब हम कहते हैं कि ‘क्या ब्रह्माण्ड का कोई उद्देश्य है, पूरे अस्तित्व का कोई उद्देश्य है’ तो वो उद्देश्य किसके लिए — ये बात कभी नहीं भूलनी चाहिए। बात तो हम ही कर रहे है न ब्रह्माण्ड की! ब्रह्माण्ड स्वयं तो आया नहीं है पूछने कि मेरा उद्देश्य बता दो। तो ब्रह्माण्ड का कोई उद्देश्य होगा भी तो उसी के लिए होगा न जो उसके उद्देश्य के बारे में जिज्ञासा कर रहा है। तो ब्रह्माण्ड का उद्देश्य निश्चित रूप से है और वो क्या है? उसका उद्देश्य है आपको आपकी मुक्ति में सहायता देना। लेकिन हम कह दें कि ये ब्रह्माण्ड का उद्देश्य है तो बात पूरी तरह ठीक नहीं है क्योंकि उद्देश्य होने के लिए पहले चेतना होनी चाहिए।

जहाँ चेतना नहीं है वहाँ क्या उद्देश्य होगा? पत्थर का क्या उद्देश्य होगा?

उसका अपना तो कुछ उद्देश्य होता नहीं। आप पत्थर को किस तरह इस्तेमाल करते हैं इसमें आपका उद्देश्य होता है, पत्थर का अपना तो कोई उद्देश्य होता नहीं। तो आप पर निर्भर करता है फिर कि आप अपने जीवन के उद्देश्य को पहचानते हैं या नहीं। आप यदि पहचानते हैं तो ब्रह्माण्ड सहायक हो जायेगा, आप नहीं पहचानते तो वही ब्रह्माण्ड आपके लिए माया बनकर आपको भटकाए रखेगा।

तो बात अपनेआप को और फिर अपने जीवन के उद्देश्य को पहचानने की है। आप स्वयं को जान गए, अपने उद्देश्य को जान गए तो हितैषी है, मित्र है, ब्रह्माण्ड। आप स्वयं को नहीं जानते तो पूरा संसार और आपका जीवन आपका ही दुश्मन बन जायेगा।

उपनिषद कहते हैं न कि आपका बड़े से बड़ा मित्र भी आप स्वयं हैं और बड़े से बड़ा शत्रु भी आप स्वयं है। सही प्रयोग करना जानो तो जो कुछ भी है सामने वो काम ही आयेगा, सदुप्युक्त ही होगा और सही उपयोग नहीं करना जानो तो सामने कोई अमृत का कटोरा भी रख देगा तो वही कटोरा उठा के अपना सर फोड़ लोगे। अमृत फेंक दोगे और कटोरा उठाओगे और अपना सर फोड़ लोगे।

तो ये हम पर निर्भर करता है। भूलियेगा नहीं कि ब्रह्माण्ड के द्रष्टा आप हैं। ब्रह्माण्ड है भी, इसके अनुभोक्ता सिर्फ़ आप हैं। ब्रह्माण्ड जैसी कोई हस्ती है — इसको परमाणित करने वाले सिर्फ़ आप हैं। तो ब्रह्माण्ड का कोई उद्देश्य है भी तो सिर्फ़ आपके लिए। और अन्यथा, अपने लिए, ब्रह्माण्ड का तो कोई अस्तित्व ही नहीं है तो उद्देश्य क्या होगा। भूलियेगा नहीं कि ब्रह्माण्ड अपनेआप में कोई स्वतंत्र, आज़ाद, ऑब्जेक्टिव (उद्देश्य्गत) तथ्य नहीं है। आप हैं तो ब्रह्माण्ड है; चेतना नहीं तो ब्रह्माण्ड नहीं। तो ब्रह्माण्ड का उद्देश्य है भी तो किसके लिए? फिर आपके लिए, आपकी चेतना के लिए।

ये एक बहुत भिन्न दृष्टि है पूरी दुनिया को देखने की।

जब आप दुनिया को देखते हैं कि ये मेरे भोग की वस्तु है तो आपका एक रिश्ता बनता है दुनिया से — दुनिया माने ब्रह्माण्ड, संसार, मैं जो भी बोलूँगा वो सब समानार्थी ही समझिये; विश्व बोल दूँ वो भी वही बात है। जब आप कहते है कि दुनिया मेरे भोग के लिए बनी है तो दुनिया से आपका एक रिश्ता बनता है और जब आप समझ जाते है कि ये जन्म आपका, पूरा जीवन और पूरा संसार आपकी मुक्ति में सहायता करने के लिए है तो आपका स्वयं से, जीवन से, समय से, संसार से, सब संसाधनों से एक बिलकुल अलग सम्बन्ध बनता है। फिर आप ये नहीं कहते कि ‘मैं दुनिया में आया हूँ दुनियाँ को भोगने, लूटने, नोचने-खसोटने के लिए।‘ फिर आप तलाशते हो कि यहाँ ऐसा क्या है जो मुझे सच्चाई की ओर ले जायेगा, यहाँ ऐसा क्या है जो मुझे मेरे भ्रमों से और बन्धनों से आज़ाद कराएगा।

समझ में आ रही है बात?

लेकिन जैसा कि स्पष्ट है, ज़्यादातर लोग कोई अंतर्दृष्टि रखते नहीं। उनके लिए ब्रह्माण्ड बिलकुल वही चीज़ होता है, जो वो है ही नहीं। वो ब्रह्माण्ड को एक वस्तुगत तथ्य, एक ऑब्जेक्टिव रियलिटी की तरह देखते हैं — यही द्वैत है। वो कहते हैं, ‘मैं हूँ और ये दुनियाँ है और मैं कुछ दिनों के लिए इस दुनियाँ में हूँ। उसके बाद मैं चला भी जाऊँगा, तो ये दुनिया तो रहेगी। मेरे आने से पहले भी दुनिया थी, मेरे जाने के बाद भी थी; कुछ दिनों के लिए आया हूँ। चलो, जल्दी से मज़ा मार लो। भोग लो, भोग लो!”

ये नतीजा है विचार न करने का; ये नतीजा है दर्शन में, फिलोसफी में न पैठने का। ये अचिंतन का नतीजा है; ये नतीजा है अध्यात्मिक न होने का।

विचार, फिर दर्शन और फिर अध्यात्म — ये तीनों एक ही श्रृंखला में होते हैं और आम आदमी के पास इस श्रृंखला की पहली कड़ी भी नहीं होती। आम आदमी तो विचारक भी नहीं होता। बहुत कम लोग होते हैं जो अपने बारे में, जीवन के बारे में गहराई से सोचते है। जहाँ विचार नहीं, वहाँ दर्शन नहीं, जहाँ दर्शन नहीं वहाँ अध्यात्म नहीं।

तो हमें जब कुछ नहीं पता होता तो फिर हम दुनिया के प्रति सिर्फ़ एक क्रूर, हिंसक, भोग की दृष्टि रखते है और वही वजह है कि आपने कहा कि पिछले चालीस साल में हमने पृथ्वी की उतनी दुर्गति कर डाली जितनी पिछले दस लाख साल में नहीं हुई थी। चाहे वो वातावरण में कार्बन डाई ऑक्साइड का अनुपात हो — जो कि चालीस साल में लगभग डेढ़ गुना हो गया है — पिघलते ग्लेशियर हो, प्रदूषण हो। आप जहाँ बैठे हैं, वहाँ का ऐक्यूआई आपको पता हैं न कितना है? एयर क्वालिटी इंडेक्स (वायु गुणवत्ता सूचकांक)।

कितना है?

चार सौ; हाँ, चार सौ।

और स्वस्थ स्तर कितना होता है? पचास से नीचे। पचास से नीचे का स्तर होता है और आप चार सौ पर बैठे हैं, खुद ही करके और फिर हम कहते हैं कि हमारे पास बुद्धि है। (मुस्कुराते हुए) हम कहते हैं हम विशेष है।

ये सब प्रकृति के गुण हैं, इनमें कुछ विशेषता नहीं हैं।

मनुष्य कि विशेषता यदि है भी तो अधिक से अधिक एक सम्भावना की तरह होती है, तथ्य की तरह नहीं। सिर्फ़ कोई मनुष्य है, इस तथ्य के कारण आप उसको विशेष या जानवरों से श्रेष्ठ नहीं बोल सकते। उसमें अगर कुछ विशेष माने अलग, कुछ खास है भी तो ये कि उसके पास एक सम्भावना भर है ऐसी जो अन्य जीवों के पास नहीं होती। वो सम्भावना क्या है? आत्मज्ञान की। लेकिन साथ ही साथ उसमें एक और सम्भावना है जो अन्य जीवों के पास नहीं होती; वो ये है कि अगर आत्मज्ञान नहीं होगा तो ये आदमी राक्षस बन जायेगा।

तो हमें जो विशिष्ट सम्भावना दी गयी है मनुष्य जन्म लेने पर, वो दोनों दिशाओं में है। एक सम्भावना ये है कि आप दैवियता को प्राप्त हो जाओ, जग जाओ और उसका माध्यम मैंने बता ही दिया — चिंतन, दर्शन, अध्यात्म; और दूसरी सम्भावना ये है कि आप जानवरों से भी बदतर जानवर बन जाओ। और शर्त ये रख दी गयी है हमारी हस्ती में कि अगर पहली सम्भावना को प्राप्त नहीं होओगे तो दूसरी सम्भावना निश्चित है।

आप ये नहीं कह सकते कि मैं न देवता हूँ, न दानव हूँ, मैं तो बस इंसान हूँ। पशु बिलकुल कह सकता है कि मैं, हाँ …. न भगवान् हूँ, न शैतान हूँ, मैं तो बस जानवर हूँ — और बिलकुल ठीक है। ये बात पशु पर बिलकुल उपयुक्त है कि भई, मैं बहुत ऊँचा नहीं उठ सकता तो मैं बहुत नीचा भी नहीं गिरा हुआ हूँ; मैं जैसा पैदा हुआ था, मैं पशु हूँ। गाय गाय है, कुत्ता कुत्ता है, शेर शेर है, हिरन हिरन है, वो अपनी-अपनी प्रकृतिगत व्यवस्था के अनुसार व्यव्हार करते रहते है।

कभी आपको कोई बहुत गिरा हुआ शेर नहीं मिलेगा, कभी आपको कोई बहुत उठा हुआ हिरन नहीं मिलेगा। नहीं मिलेगा कोई शेर जो आत्मज्ञान के लिए अपनी गुफा में बैठ गया, धुनी रमा करके। कोई आपको विचारक मगरमच्छ नहीं मिलेगा, साथ ही साथ कोई ऐसा मगरमच्छ भी नहीं मिलेगा जो होलोकोस्ट (प्रलय) करने पर उतारू हो। मार ही दूँगा जिन लोगों को पसंद नहीं करता, उनकी पूरी प्रजाति का सफाया कर दूँगा। मिला कोई ऐसा मगरमच्छ? वो मछली खाता है, मछलियों के साथ रहता है लेकिन ऐसा तो हमने कहीं नहीं सुना कि सारी मछलियाँ खा के साफ़ कर दीं; कह रहा, ‘मैं ही, मैं रहूँगा।‘

तो पशु दोनों ओर से सम्भावनाओं से मुक्त है। इसको आप ऐसे भी कह सकते हो कि पशु दोनों ओर से संभावनाओं से हीन हैं। उनको न उठने की सम्भावना दी गयी है, न गिरने की सम्भावना दी गयी है — ये तो मस्त हैं। उनको बीच में एक सुरक्षित स्थान दे दिया गया है जहाँ उनकी प्राकृतिक पशुता रहती है और उसके अनुसार वो स्वछंद आचरण करते हैं।

मनुष्य को दोनों ओर की संभावनाएँ दे दी गयी हैं, वही उसका वैशिष्ट है। बहुत उठ भी सकते हो और बहुत गिर भी सकते हो। इसीलिए फिर संतों ने गाया है कि बार-बार मनुष्य जन्म नहीं मिलता है; भाई, तुम इसका सदुपयोग कर लो, मनुष्य जन्म विशेष है।

तो जब वो कहते हैं कि मनुष्य जन्म विशेष है तो हमारे अहंकार के कारण हमको बड़ा भ्रम हो जाता है। हम सोचते है अच्छे अर्थ, ऊंचे अर्थ में ही तो विशेष है मनुष्य जीवन। मनुष्य जीवन दोनों अर्थो में विशेष है। यहाँ उठने की उद्दाम सम्भावना है तो पतन की भी अपार सम्भावना है।

और अब सुनिए कि दोनों संभावनाओं का अनुपात क्या है। दोनों संभावनाओं का अनुपात है एक और नौ सौ निन्न्यांवे। अब बताइए, मनुष्य जन्म वरदान है या अभिशाप? उठने कि सम्भावना है एक बटा एक हज़ार और जानवरों से भी बदतर गिर जाने की सम्भावना है नौ सौ निन्यानवे बटा एक हज़ार। अब बताओ, तुम्हारे साथ बड़ा भला हुआ या बुरा हुआ कि इंसान पैदा हुए? तो बाज़ी ले गए कुत्ते।

कुत्ते कहीं बेहतर हैं। कुत्ता कुत्ता ही रहेगा, वो कुत्ता होने से नीचे तो नहीं गिरेगा न कम से कम!

इंसान कुत्तों से भी बदतर गिर सकता है और हज़ार में से नौ सौ निन्यानवे लोग कुत्तों से भी बदतर जीवन ही जीते हैं। कोई एक होता है जो पशु क्या, मनुष्य से भी ऊपर उठ जाता है, कभी कृष्ण, कभी बुद्ध कहलाता है। पर वो हज़ार में एक होता है। और हज़ार में किसी एक का उदहारण लेकर के, प्रमाण ले कर के, हम ये नहीं कह सकते कि पूरी मनुष्य जाति विशेष है, किसी ऊँचे अर्थ में।

हज़ार में से एक आदमी है जो मनुष्यता कि विशिष्ट सम्भावना का सदुपयोग कर पता है। हज़ार में से नौ सौ निन्यानवे लोग तो दुरूपयोग ही करते है; बहुत बुरा गिरते हैं। तो इंसान पैदा होना तो बहुत-बहुत ख़तरे की बात है।

समझ में आ रही है बात?

इंसान ने वही करा है। चूँकि वो जानता नहीं खुदको, जो ऊँची सम्भावना थी, साकार करी नहीं तो जो सबसे निचली चीज़ हो सकती थी वो कर रहा है — आत्मघात। और इस आत्मघात में वो सिर्फ़ अपना ही नहीं नाश कर रहा, खा गया पूरी पृथ्वी को, इतनी प्रजातियों को।

मैं इतनी बार आपसे ये आंकड़ा पूछता हूँ आपको अब तक तो याद भी हो गया होगा।

जानते हैं न प्रतिदिन कितनी प्रजातियाँ विलुप्त हो रही हैं?

अनुमान कहते हैं लगभग दस हज़ार। दस हज़ार प्रजातियाँ प्रतिदिन विलुप्त हो रही हैं। जो लोग कहते हैं नहीं, इतनी नहीं कुछ कम भी हो रही हैं वो भी स्वीकार करते है कि दस हज़ार नहीं तो भी हजारों में ही संख्या है उन प्रजातियों की जो प्रतिदिन विलुप्त हो रही हैं। ये दिमाग चकरा जाए ऐसा आंकड़ा है, होश उड़ जाए ऐसा आंकड़ा है। प्रतिदिन हम इतनी प्रजातियाँ खा गए। कुछ उसमें से ऐसी हैं जो प्राकृतिक कारणों से विलुप्त हो रही हैं। जो प्राकृतिक कारणों से विलुप्त हो रही हैं वो इन में से सिर्फ़ दो-चार प्रतिशत हैं, बाकी सब हमारी करतूतों से, हमारे अत्याचार और हमारी क्रूरता से विलुप्त हो रही हैं। प्रजातियों की विलुप्ती की दर को हमने सौ गुना बढ़ा दिया हैं।

प्रकृति के साधारण प्रवाह में भी प्रजातियाँ आती-जाती रहती हैं लेकिन जिस दर से वो मिटती हैं, हमने उस दर को सौ गुना, लगभग हज़ार गुना बढ़ा दिया है। हमने उनकी नदियाँ ख़राब कर दीं, वो कैसे जियें? आपको पता भी नहीं चलता, वो विलुप्त हो जाते हैं। आपने उनकी हवा ख़राब कर दी, आपने उनके जंगल, उनके पेड़ काट डाले। आपने उनकी ज़मीनें खोद डाली और आपने उनकी ज़मीनों को खोद-खोद कर उनमें ज़हर डाल दिया, वो मिट गए, वो बचे ही नहीं, उनका इतिहास ही ख़त्म हो गया है।

एक राक्षस था — तो कहते हैं, पौराणिक कहानी हैं — उसने महादेव की आराधना करी तो वो प्रसन्न हुए बोले, क्या चाहिए? बोला, ‘जिसके सर पर हाथ रखूँ वो भस्म हो जाए।‘ आपने असुर का उल्लेख किया था। जहाँ हाथ रख दूँ वो ही भस्म हो जाए, मिल गयी उसको एक विशेष शक्ति और क्या करा उसने उस विशेष शक्ति का? वो महादेव के ही पीछे दौड़ा। बोला, ‘इन्हीं को सबसे पहले ख़त्म करूँ।‘ उस असुर का नाम इंसान हैं, जिसे शक्ति तो मिली हुई है लेकिन शक्ति को संचालित करने वाला कोई सुन्दर प्रकाशित केंद्र नहीं मिला है। वो है राक्षस ही भीतर से, बाहर-बाहर शक्ति पा गया है। और एक राक्षस के हाथ जब शक्ति लग जाती है तो इससे ख़तरनाक बात, दुर्भाग्यपूर्ण बात हो नहीं सकती। हम वही राक्षस हैं जिसके हाथ शक्ति लग गयी हैं। लेकिन फिर होता क्या है ऐसे राक्षस का? वो भाग रहा है।

तो कथा कहती है कि शिव गए विष्णु के पास। बोले, ‘ये नयी आफत खड़ी हो गयी, ये मुझे ही दौड़ा रहा है।‘ विष्णु बोले, ‘रुको, कुछ करते हैं, आप थोडा इधर छुप जाइये।‘ तो विष्णु ने एक आकर्षक स्त्री का रूप ले लिया, मोहिनी और उसके सामने गए — तो प्रसन्न हो गया। बोला, ‘मैं तो हूँ ही बड़ा आदमी, ये देखो मुझसे मिलने आई है।‘ तो वो पूछता है, बताओ क्या चाहिए? बोलता है, ‘कुछ नहीं, वो मैं शिव को दूँढ़ रहा था, मारना है।‘ बोले, ‘अरे! शिव तो ऐसे ही हैं। शिव ने वरदान दे दिया और तुमने मान ही लिया कि उसके वरदान में कुछ दम होगा। शिव में कुछ है ही नहीं, कोई वरदान वगैरह नहीं है, कहीं हाथ रखोगे कोई भस्म थोड़े ही हो जाएगा?’ तो बोला, ‘हाँ, ये बात।‘

जाँचों पहले तो, कि ऐसा कुछ है भी कि नहीं। बोला कैसे जाँचें? बोले, ‘अरे! अपना ही सर है न, हाथ रखो देखो एक बार, कुछ होता भी है?’ तो उसने रख लिया हाथ, अपने सर पे। उसमें उसके प्रति भी श्रद्धा नहीं, जिससे उसको मिली है शक्ति। उसे शिव पर ही संदेह हो गया; ये मनुष्य है, ये राक्षस नहीं हैं। जिससे उसे सब कुछ मिला पहले वो उसे मारने दौड़ रहा है फिर उसपे संदेह कर रहा है और तमाम तरह के भोग को लेकर, उसमें खूब आकर्षण हैं तो उसने अपने ही सर पे हाथ रख लिया और कथा कहती है वो खुद ही भस्म हो गया।

बहुत प्रतीकात्मक है न कहानी ये! यदि आपके केंद्र में शिवत्व नहीं होगा तो आप अपना ही नाश कर लेंगे, अब तो कर लिया है।

तालकटोरा में जब दिवाली पर बात हुई थी तो उसमें मैंने विस्तार में बताया था कि अब हम, जहाँ तक जलवायु परिवर्तन माने क्लाइमेट चेंज की बात है तो हम इर्रिवर्सिबल् नेगेटिव फीडबैक लूप्स (अपरिवर्तनीय नकारात्मक प्रतिक्रिया के जालों) में प्रवेश कर चुके हैं; अब बच नहीं सकते। अब हम मास एक्सि्टन्क्शन (सामूहिक विनाश) की रपटीली ढलान पर उतर चुके हैं। अब रुके रहना या वापस ऊपर चढ़ जाना या बच पाना संभव नहीं है, अब तो आप नीचे को ही फिसलते जायेंगे और नीचे फिसलने की दर भी साल दर साल बढती जाएगी।

मैं इस विषय में दस साल से बोल रहा हूँ। अभी कोई दस-एक साल पुराना विडियो था तो उसमें मैं चिल्ला-चिल्ला के सबको आगाह कर रहा था कि पृथ्वी का औसत तापमान लगभग शून्य दशमलव सात, शून्य दशमलव आठ डिग्री बढ़ चुका है, जल्द ही एक डिग्री हो जायेगा — जागो-जागो! जानते हो आज कितना बढ़ चुका है? और मैं तब कह रहा था शून्य दशमलव सात-आठ बढ़ चुका है, क्या कर रहे हो? उठो। और मेरे चिल्लाते-चिल्लाते, देखते-देखते जितना बढ़ा हुआ था, उससे दूना बढ़ गया।

मैं यही बहुत बड़ी बात समझ रहा था कि कहीं एक डिग्री न बढ़ जाए औसत तापमान। एक डिग्री से बहुत आगे बढ़ गया वो हमारे देखते-देखते और ये ढाई-तीन डिग्री पर भी रुकने वाला नहीं है। पहले मुझे लगता था कि रिसर्च (अनुसंधान) रिपोर्ट्स पढ़ के या अंतर्राष्ट्रीय कंवैन्शंस् देख कर के कि हम कितनी भी बुरी इसमें परफॉरमेंस (प्रदर्शन) दिखा दे, कितने भी अक्षम तरीक़े से व्यवहार कर लें लेकिन हम जो कार्बन डाई ऑक्साइड वगैरह का उत्सर्जन रोकने के लिए कदम उठा रहे हैं, उससे भाई ये दो-ढाई डिग्री पर तो रुक ही जायेगा। और अब मुझे लगभग ये निश्चित हो रहा है कि ये तीन डिग्री पर भी नहीं रुकने वाला। ये चार, पाँच और शायद छः डिग्री तक जायेगा और छः डिग्री का तो मतलब ही ये है कि एक जीव नहीं बचेगा; कम से कम इंसान तो नहीं बचेगा। हम महा प्रलय में पूरी तरह से प्रविष्ट हो चुके हैं।

पहले भी पाँच बार जब प्रजातियों का समूल विस्तृत नाश हुआ तो पाँच में से तीन बार जो कारण था वो कार्बन डाई ऑक्साइड ही था। और जब हम कहते हैं समूल नाश तो उसका मतलब ये नहीं होता कि कुछ करोड़ लोग मर जायेंगे, उसका मतलब होता है कि पृथ्वी पर नब्बे प्रतिशत जो प्रजातियाँ हैं वो पूरी साफ़ हो जाएँगी और मनुष्य तो बहुत जल्दी साफ़ होगा क्योंकि मनुष्य प्राकृतिक रूप से बहुत असुरक्षित प्रजाति है। मनुष्य का बच्चा जितना कमज़ोर पैदा होता है उतना और कोई नहीं। अगर जो हमने ढाँचागत व्यवस्थाएँ बना रखी हैं, वो व्यवस्थाएँ ढह गयीं तो मनुष्य का बच्चा जी ही नहीं सकता। और शरीर से मनुष्य जितना कमज़ोर है, बहुत कम प्राणी हैं जो उतने कमज़ोर है।

हमने अपनी प्राकृतिक क्षमताएँ बहुत हद तक खो दी हैं। अब हम अपने कृत्रिम अविष्कारों पर, स्वयं द्वारा निर्मित बैशाखियों पर निर्भर हैं जीने के लिए। आपकी खाल उदहारण के लिए, न धूप बर्दाश्त कर सकती है न जाड़ा। आपको कपड़े नहीं मिलेंगे, आप बहुत जल्दी मर जाएँगे। जानवरों की खालें अभी भी ऐसी हैं कि उन्हें कपड़े वगैरह नहीं चाहिए।

अगर महा प्रलय की स्थिति बन रही है तो उसमें ये हो गया कि कपड़े वगैरह उपलब्ध नहीं है ठीक से, हम ऐसे ही मर जाएँगे।

गाय का बच्चा पैदा होता है, उसको कितने दिन लगते हैं अपने पाँव पे चल पड़ने में? लगभग तत्काल। कई बार जिस दिन पैदा होता है, उसी दिन वो चलने लग जाता है, खड़ा हो जाता है। हाँ! और मनुष्य के बच्चे को चलने में कितना समय लगता है? मनुष्य का बच्चा सबसे कमज़ोर बच्चों में से होता है। दस साल, बारह साल, पंद्रह साल उसको संरक्षण की ज़रूरत पड़ती है, तब वो जी पाता है। उसको आप जंगल में छोड़ दीजिये; आप एक हज़ार बच्चे पैदा हों, उनको जंगल में छोड़ दीजिये, एक हज़ार में एक नहीं बचेगा। आप भले उनको उनकी माओं के साथ छोड़ दीजिये, भले ही वो बच्चे अब माँ का दूध न पीते हों, साल भर से ऊपर हो गए हों, फिर छोड़ दीजिये। तो भी नहीं बचेंगे, हम इतने कमज़ोर हैं।

और ये जो क्लाइमेट चेंज होगा ये हमारी सभ्यता को हर तरीक़े से छिन्न-भिन्न कर देगा। पूरी अर्थव्यवस्था ढह जानी है, पूरे के पूरे शहर डूब जाने हैं। जिन सामानों के बिना, जिन उत्पादों के बिना, चीज़ों के बिना आप जी नहीं सकते, उन चीज़ों की सप्लाई लाइन्स (आपूर्ति की पंक्तियाँ) बाधित हो जानी हैं। आपके पास कोई भी सामान ऐसे ही थोड़ी आ जाता है; वो दस-बीस नोड्स से होकर गुज़रता है। उसमें से एक नोड भी बाधित हो गयी तो वो सामान आप तक नहीं पहुँच सकता। और हम ऐसे आश्रित हो गए हैं कि उन सामानों के बिना हम जीवन की कल्पना भी नहीं कर सकते अब। उदहारण के लिए अगर कोल् फायर प्लांट तक कोयला नहीं पहुँचा तो मुझे बताइए, आप बिजली के बिना कितने दिन जी पाओगे? यूरोप कितने दिन जी पायेगा बिजली के बिना? अभी रूस-यूक्रेने वॉर (युद्ध) हो गया, उन तक गैस नहीं पहुँच पा रही हैं; जाड़े में हालत ख़राब। अब आ रहा है जाड़ा, आ चुका हैं वहाँ तो। क्योंकि इतनी गैस जलानी होती है, इतनी गैस जलानी होती है, सिर्फ़ जीने के लिए।

तापमान जाता है शून्य से दस नीचे, बीस नीचे तो वो फिर आयल (तेल) जलाकर और गैस जलाकर किसी तरह जीते हैं। और यही ऑइल-गैस पहुँचना बंद हो जायेगा तो जियोगे कैसे? सब मर जाओगे। एक-एक दिन में करोड़ों मरेंगे। और जैसे हम है राक्षस, हम नरभक्षी और हो जायेंगे। हम अपनों को ही खायेंगे कि उससे क्या पता दो-चार दिन अतरिक्त मिल जाए जीने को।

एक कहानी मैंने पढ़ी थी — नाम नहीं याद आ रहा, खोजेंगे मिल जाएगी — जिसमें एक व्यक्ति है और शायद रूस की, हाँ, रूस में ही है उसका। जाड़े के दिन है और उसको एक जगह से दूसरी जगह जाना है और उसको बार-बार चेताया जा रहा है कि दिन रहते चला जा, बर्फ़ बहुत पड़ रही है। जाड़े के दिन हैं और तापमान एकदम दस-बीस-तीस डिग्री नीचे है शून्य से और उसको बोला जा रहा है — तू जा। और वो किसी कारणवश देर कर देता है, आलास में, मस्ती में। फिर वो निकल पड़ता है, उसे पैदल जाना है और बर्फ़ का ऐसा क्षेत्र है कि वहाँ गाँव भी निर्जन है। वहाँ जिस रास्ते से निकल रहा है वहाँ कोई नहीं। बस वो अपने कुत्ते को साथ लेकर निकल रहा है और वो निकल पड़ता है। थोड़ी देर में वो पाता है, अँधेरा हो रहा है और ठण्ड बहुत बढ़ रही है और रास्ता दो-तीन घंटे का है। वो एक-डेढ़ घंटे की यात्रा कर चुका है, वापस लौटने में भी कोई समझदारी नहीं। वापस लौटने में भी उतना ही समय लगेगा जितना आगे पहुँचने में।

अब उसका सारा आत्मविश्वाश डगमगाने लगता है। उसको दिखने लगता है कि ठण्ड इतनी बढ़ गयी है कि कुछ अनिष्ट ही होने जा रहा है। बात साधारण नहीं रही, बात मज़ाक से बहुत आगे जा चुकी है। और ठण्ड बढती ही जाती है और ठंडी हवाएँ भी चलने लगती हैं और फिर वो अंततः समझ जाता है कि आज अब बच नहीं सकते, तो एक पेड़ के नीचे बैठ जाता है।

कहानी में बड़ा विषद विवरण है कि किस तरह से उसके पास एक दिया-सलाई का पैकेट होता है और उनको जलाने की कोशिश करता है। पेड़ के तनों से कुछ उतारता है, खाल, पत्तियाँ जलाने की कोशिश करता है। सब कुछ कर लेता है पर बर्फ़ इतनी पड़ रही है कि सारे प्रयत्न असफल जाते है, उसका पूरा शरीर बर्फ़ से ढक गया है। तो उसके पास कुत्ता बैठा हुआ है उसका, वो अंततः कुत्ते की ओर ऐसी नज़र से देखता है कि कुत्ता दूर हो जाता है। कुत्ता समझ जाता है कि इस व्यक्ति के पास अब एकमात्र गर्म चीज़ मेरा शरीर है और अब ये मरने ही वाला है तो अब ये आख़िरी कोशिश करेगा, इसके पास एक चाकू भी है। ये आख़िरी कोशिश करेगा कि मेरे शरीर को फाड़ कर थोड़ी देर के लिए मेरे शरीर के माध्यम से गर्मी पा ले। लेकिन वो व्यक्ति जिस नज़र से कुत्ते को देखता है, कुत्ता पहचान जाता है कि ये क्या करने वाले हैं। जानवरों में ये प्राकृतिक इन्ट्यूटिव (सहज ज्ञान युक्त) शक्तियाँ होती हैं, इसी के दम पर वो ज़िन्दा रहे हैं — वो आपकी नज़र देख करके जान जाते हैं कि आप क्या हो।

आप पाएँगे कि माँसाहारी लोगों के पास अक्सर जानवर आते ही नहीं हैं। आपकी शक्ल से, आपकी नज़र से, आपकी गंध से वो पहचान जाएँगे कि कुछ गड़बड़ है, ये इंसान ठीक नहीं है, इससे दूर रहो। तो कुत्ता दूर भाग जाता है और कुत्ते का कोई नुक़सान नहीं हो रहा। कुत्ते को फर मिला हुआ है, उसी प्राकृतिक फर के दम पे वो बर्फ़ पार कर जाता है, वो अगले गाँव पहुँच जाता है; ये इंसान वहीं मर जाता है, पेड़ के नीचे, ठण्ड में।

इससे जो हमारी अक्षमता और असुरक्षा है, उसका भी पता चलता है और हमारी क्रूरता का भी। पहली बात तो हम बहुत कमज़ोर लोग हैं, हम जी पाने वाले नहीं। क्या आपके पास अब ये क्षमता है कि आप जाकर के जंगल से खाना जुटा लें? वो तो बाज़ार से अब हम अन्न भी नहीं लाते, सीधे आटा लाते है। क्या आम आदमी में ये अब ताक़त बची है कि वो जानवरों की तरह जंगल पर अब अपना निर्वाह कर ले?

तो ये जो मास एक्सि्टन्क्शन होगा इसमें अस्सी-नब्बे प्रतिशत प्रजातियाँ विलुप्त हो जाती हैं; जिसमें मनुष्य की तो निश्चित रूप से होगी। जो थोड़ी बहुत कुछ बच भी जाएँगी, उनमें मनुष्य प्रजाति तो नहीं होगी और ये सब कुछ बहुत जल्दी होगा, हम उसमें आ चुके हैं। हम चाहे भी तो अब उसको रोक नहीं सकते। भस्मासुर से थोड़ा बहुत मिलता-जुलता जो एक मुहावरा अंग्रेजी में चलता है, वो क्या है? ‘फ्रैनकैनस्टीनियन मोंस्टर’ — हम वो हैं। और मज़े की बात ये है कि हम अभी भी मौज में हैं। हमें लग रहा है, जीवन अपनी साधारण, सामान्य गति से ही तो चल रहा है। कुछ खास थोड़े ही हुआ है?

हमारे टाइटैनिक में छेद हो चुका है, बचने की अब कोई सम्भावना नहीं। लेकिन मैं अभी भी देखता हूँ, बड़ी गंभीरता से दूसरे मुद्दों पे बात की जा रही है। कोई भी व्यक्ति बहुत गंभीरता से बात कर रहा हो और उस बात में क्लाइमेट चेंज शामिल न हो तो उस इंसान को पागल जानिएगा, अपराधी जानिएगा। और बहुत गंभीरता से दूसरी बातें की जा रहीं है। ये बात, वो बात, उन बातों में लम्बे-लम्बे लेख होते है, मैं कहता हूँ, इसमें क्लाइमेट चेंज कहाँ है? ये ऐसी सी बात है कि टाइटैनिक में छेद हो चुका हो और बड़ी गंभीरता से बात की जा रही है कि कल कौन सी सब्ज़ी बने। अरे! तुम कल देखने के लिए ज़िन्दा रहोगे कि कल कौन सी सब्ज़ी बने? तुम्हें कुछ होश है कि इस वक़्त कौन सा मुद्दा प्रधान है? और बहुत सारी बातें चल रही हैं और बड़े-बड़े बुद्धिजीवी हैं, वो टीवी पर आकर बोल रहे, वो अख़बारों में कॉलम लिख रहे हैं और भिन्न-भिन्न मिस्लेनियस मुद्दों पर बातें हो रहीं हैं, उन बातों में क्लाइमेट चेंज है ही नहीं।

सबसे सुन्दर होने की सम्भावना और भयानक कुरूपता का यथार्थ, ये है मनुष्य का चित्र। शिव हो पाने की सम्भावना लेकिन भस्मासुर हो जाने का यथार्थ, ये है मनुष्य।

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