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किसी भी नियम पर चल क्यों नहीं पाते? || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2014)
Author Acharya Prashant
Acharya Prashant
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प्रश्नकर्ता: मैं नियम तो बनाता हूँ पर उन पर चल नहीं पाता। दो-चार दिन चलता हूँ और फिर वापस वैसे ही। ऐसा क्यों?

आचार्य प्रशांत: वही, एकाग्रता जैसी ही बात है, कि "नियम तो बनता हूँ पर उनपर चल नहीं पाता।" जिनको तुम कह रहे हो कि ‘अपने’ नियम बनाता हूँ, वो भी वास्तव में तुम्हारे नियम नहीं हैं, वो बाहर से आए हुए नियम हैं, संस्कारित नियम हैं। तो उन पर तुम चलोगे तो सही, पर तभी तक चलोगे जब तक कोई और आकर के तुम्हें कुछ और नहीं दे देता। तुमने अभी कुछ देखा, कहीं गए और बहुत प्रभावित हो गए और तुमने अपने लिए एक नियम बना लिया, जो देखा सुना, उससे। और दो दिन बाद कोई दूसरा प्रभाव तुम्हारे मन पर आ गया, तो क्या होगा पहले प्रभाव का और क्या होगा उन नियमों का? वो सब तिरोहित हो जाएँगे, कुछ बचेगा नहीं उनमें से।

(बिजली चली जाती है और हॉल में शोर होता है)

अब देखो, ये जो तुम्हारे सामने था, ये बिलकुल स्पष्ट उदाहरण था कि क्या होता है एक दमित मन का, क्या होता है नियमों का। जब तक तो रौशनी रही, तब तक तो नियम कायम रहे। पर ज्यों ही एक बाहरी अवस्था बदली - रौशनी क्या है? एक बाहरी अवस्था है - बाहरी अवस्था बदली तो जितने साँप, छछूंदर छुपे हुए थे बिलों में, वो सब बाहर आ गए। कुछ कीड़े होते हैं जो मात्र अँधेरे में ही निकलते हैं और वो सब निकल पड़े थे।

तो इसलिए नियम कभी प्रभावकारी हो नहीं सकता, क्योंकि दूसरा कुछ है जो निकलने का इंतज़ार कर ही रहा है। स्थितियाँ बदलेंगी और वो निकल पड़ेगा। एक बाहरी स्थिति है रौशनी की, तुम उस पर चल पड़े। दिन है तो तुम दिन के मुताबिक कर रहे थे, पर दिन सदा नहीं रहेगा, रात आएगी। और फिर तुम कहते हो कि “अब मैं वैसे क्यों नहीं चल पा रहा?” क्योंकि वो चाल तुम्हारी थी ही नहीं, वो चाल दिन की थी, वो चाल रौशनी की थी। और रौशनी गई, तो तुम्हारी चाल भी गई।

कोई एक व्यक्ति विशेष तुम्हारे सामने बैठा है तो तुम एक प्रकार का व्यवहार कर रहे हो। वो व्यक्ति जाएगा तो साथ में वो व्यवहार भी जाएगा। फिर तुम आश्चर्य करोगे कि, "मेरा व्यवहार बदल क्यों गया?" क्योंकि वो व्यवहार तुम्हारा था ही नहीं। वो व्यवहार उस परिस्थिति का था और परिस्थिति गई, व्यवहार गया।

अभी नया साल शुरू हुआ है। और जब एक जनवरी लगती है तो बहुत सारे लोग अपने लिए नियम बनाते हैं, व्रत लेते हैं, कि इस बार ये करेंगे और वो करेंगे। और ९९% जो व्रत लिए जाते हैं वो हफ्तेभर से ज़्यादा नहीं चलते। पूछो क्यों? क्योंकि वो व्रत लिया गया था एक जनवरी को। तो एक जनवरी को वो व्रत बड़ा अच्छा लगता है कि नया साल शुरू हुआ है तो मैं भी कुछ नया शुरू करूँगा, पर एक जनवरी तो गई और आज है पाँच जनवरी। अब आज क्या करूँगा उसका? वो एक जनवरी को शोभा देता था, आज क्या करेंगे?

क्योंकि वो व्रत तुम्हारा था ही नहीं, वो एक जनवरी का व्रत था। जिसे व्रत लेना होगा वो एक जनवरी का इंतज़ार करेगा क्या? पर तुम इंतज़ार करते हो कि नया साल लगे तो कोई नियम बनाएँ।

ऐसा ही है एक प्रेम दिवस, चौदह फरवरी, और बहुत होंगे जो जा-जा कर अपना दिल खोल कर रख देंगे कि “तुम्हीं प्रेम हो, तुम्हीं जीवन हो। तुम ना हो तो हम हैं क्या, रेगिस्तान, उजाड़।” पर वो बातें हैं सारी चौदह फरवरी की, और चौदह फरवरी बीतेगी, सोलह तारीख़ आएगी और फिर सत्रह आएगी। और वो आकर पूछेगी, “क्या हुआ?” तुम कहोगे, “जो हुआ चौदह फरवरी को हुआ और आज थोड़े ही चौदह फरवरी है। बीत गया दिन!”

(सभी श्रोता हँसते हैं)

“अपनी मर्ज़ी से कहाँ अपने सफ़र के हम हैं, रुख हवाओं का जिधर है उधर के हम हैं।”

अब हवाओं का रुख बदल गया तो हम भी बदल गए। तो ऐसे टूटे हुए पत्ते सी जब हालत है, तो तुम्हारा नियम कोई भी तुम्हारा अपना है कहाँ?

पढ़ने बैठते हो और कोई दोस्त आता है और बोलता है कि, "बाहर चलते हैं!" तो तुम चल देते हो। प्रभाव बदला, बाहर को चल दिए। अब बाहर घूम रहे हो तो पिता का फ़ोन आ गया और पिता ने कहा कि “खेत बेच कर पढ़ने भेजा है और तुम वहाँ मटरगश्ती कर रहे हो!" तो तुम वापस चले जाते हो। कुछ भी तुम्हारा कहाँ है?

फिर वापस गए तो रास्ते में किसी ने पकड़ लिया कि, "देख मैंने लैपटॉप पर क्या खोल रखा है", तो तुम उधर को चल दिए। फुटबॉल जैसी तो हालत है कि जो जिधर को लात मारे उधर को चल देंगे। और क्योंकि विपरीत दिशाओं से लातें पड़ रही हैं तो साठ मिनट, अस्सी मिनट लात खा-खा कर गोल में एक-आध बार ही पहुँचते हो। फुटबॉल की दशा देखी है? उसको हर तरफ से लात पड़ती है, घण्टों लात खाती है तब भी गोल में कभी-कभार ही घुस पाती है। वो भी कब? जब गोलकीपर थोड़ा सा बेहोश हो, चकमा खा जाए। नहीं तो कभी ना घुस पाए वो गोल में।

ऐसे तुम्हें भी कभी गोल नहीं मिलते क्योंकि तुम हर दिशा से मारे जा रहे हो। तुम्हारा अपना कुछ नहीं है, जैसे फुटबॉल की अपनी कोई मर्ज़ी नहीं है। कोई फुटबॉल आज तक खड़ी नहीं हुई कि, "ख़बरदार अगर लात मारी तो! हमारी कोई ग़ैरत है कि नहीं? और अभी हमारी मर्ज़ी नहीं है! और उस टीम के लोग हमें बड़े बेहूदे लग रहे हैं, हम तो इसी गोल में घुसेंगे!" और घुस कर बैठ ही जाए और बाहर ना निकले।

(श्रोतागण हँसते हैं)

जैसे फुटबॉल की अपनी कोई मर्ज़ी नहीं होती, वैसे ही हमारी कहाँ कोई अपनी मर्ज़ी होती है? कोई आकर डरा दे, हम डर जाएँगे। कोई आकर थोड़ा लालच दिखा दे, हम में लालच आ जाएगा। सड़क पर चल रहे होंगे और हमें कोई होर्डिंग दिख जाए, हमारा मन अस्थिर हो जाएगा, काँप जाएगा। मोबाइल पर कोई खबर आ जाए, संदेश आ जाए तो हमारे मन का पूरा मौसम बदल जाएगा, और ये बड़ी दुर्भाग्य की बात है।

इसका अर्थ ये है कि हम ज़िन्दा ही नहीं हैं। ये तो एक मृत गेंद की हालत होती है, ये झड़े हुए पत्ते की हालत होती है। जीवन कहाँ है फिर? अगर वास्तव में कोई युवा होगा तो उसको बड़ा क्रोध आएगा, बड़ी आग उठेगी अपनी इस स्थिति पर। वो कहेगा “मैंने ये क्या दुर्बलता पाल रखी है!” वो शर्मसार हो जाएगा। अपने ही ऊपर उसे बड़ी ग्लानि उठेगी। पर हम में तो शर्म भी नहीं उठती।

जब तक नियम बाहर से आएँगे, तब तक उनमें कोई ताक़त नहीं रहेगी, क्योंकि बाहर वाला अगर तुम्हें नियम दे सकता है तो नियम तुड़वा भी सकता है। अपनी आन्तरिक व्यवस्था से अगर तुम्हारी अपनी चाल हो तो तुम्हें किसी नियम की आवश्यकता भी नहीं पड़ेगी। खुद जानो, खुद समझो और फिर उससे एक सुंदर व्यवस्था निकलेगी, उस पर जियो।

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