Acharya Prashant is dedicated to building a brighter future for you
Articles
खाली करो, खाली करो || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग, संत रूमी पर (2015)
Author Acharya Prashant
Acharya Prashant
34 min
47 reads

Anyone can bring me gifts; give me someone who can take away

Rumi

एनीवन कैन ब्रिंग मी गिफ्ट्स; गिव मी समवन हू कैन टेक अवे

रूमी

वक्ता: मुझे ‘दे’ तो कोई भी सकता है, चाहिए कोई ऐसा जो मुझे ‘खाली’ कर दे। गिफ्ट्स शब्द का उपयोग है — भेंट, उपहार। खूब भेंटे मिली हैं, खूब उपहार मिले हैं दुनिया से; जो मिला है वो सब भेंट और उपहार है क्योंकि बहुधा जिन्होंनें दिया, उन्होंनें भी यह सोच कर दिया कि कुछ भलाई होगी।

उपहार का क्या अर्थ है?

वो जो किसी को इसलिए दिया जाए जिससे उसका भला हो सके। तो अधिकांशत: तो जिन्होंनें तुम्हें दिया, उन्होंनें इसीलिए दिया कि तुम्हारा भला हो। और जब तुमने लिया भी, स्वीकार भी किया, तो यही सोचकर किया कि इससे हमारी बेहतरी होगी।

रूमी कह रहे हैं कि ऐसा नहीं है कि जो बाहर से मिला उसमें कुछ अच्छा और कुछ बुरा था। यह तो तुमने खूब सुना होगा न कि “अच्छा-अच्छा ले लो, बुरा-बुरा छोड़ दो।” यहाँ तुम्हें एक नई ही परिभाषा दी जा रही है ‘अच्छे’ और ‘बुरे’ की। रूमी पूरी बात में एक क्रांतिकारी परिवर्तन कर रहे हैं। वो कह रहे हैं: ज्यों ही तुम्हें बाहर से मिला, भले उपहार स्वरूप मिला हो, वही बुराई है।

बुराई की परिभाषा क्या? वो जो तुम्हें बाहर से मिले, सो सब बुरा। भले ही देने वाले ने यह कहा हो कि ‘यह मेरा प्रेम है’; भले ही देने वाले ने यह कहा हो कि ‘यह शिक्षा है’; भले ही देने वाले ने यह कहा हो कि ‘यह नीति है’; भले देने वाले ने यह कहा हो कि ‘यह बुद्धि है’; पर यदि तुम्हें वो दिया गया है तो वो महत्व का नहीं हो सकता। महत्व का तो नहीं ही है तुम्हारे लिए, ज़हरीला भी है।

बुराई क्या है?

जो बाहर से आए — यही बुराई की परिभाषा।

रूमी कह रहे हैं: “अब चाहिए कोई ऐसा जो खाली कर दे, जो साफ़ कर दे।”

दुनिया ने तो खूब भरा मुझे, कोई ऐसा चाहिए जो खाली कर दे। और यह जो खाली होना है, इसी का नाम अच्छाई है। लाओ त्सू बड़ी मिलती-जुलती बात कहते हैं। वो कहते हैं कि जब असली नहीं होता, तो असली के हज़ार तरीकों के विकल्पों से तुम भर जाते हो; नकली विकल्प! छवियाँ मात्र, खोखले शब्द भर, उनसे तुम भर जाते हो। तो जब ज़िन्दगी में सच्चाई नहीं होती, तो सच्चाई के नाम पर तुम्हारे पास क्या होती हैं? किताबें होती हैं, परम्पराएं होती हैं, रूढ़ियाँ होती हैं, शब्द होते हैं, श्लोक होते हैं, आयतें होती हैं; सच्चाई नहीं होती। और जितना ज़्यादा तुम शब्दों से भरते जाओगे और सुनी-सुनाई बातों से भरते जाओगे और रूढ़ियों से भरते जाओगे, सच्चाई तुमसे उतनी दूर होती जाएगी। तो प्रार्थना है यह रूमी की कि शब्दों से खाली कर दो ताकि सत्य भर बचे, उसी के साथ जी सकूँ।

जब प्रेम नहीं होता तुम्हारे पास, तो तुम्हारे पास कल्पनाएँ खूब होती हैं प्रेम की; चाहत खूब होती है प्रेम की; मोह खूब होता है।

रूमी कह रहे हैं, “हटे वो सब, तो जीवन में प्रेम आए। हटे वो सब, तो जो प्रेम दिल में बैठा ही रहता है वो प्रकाशित हो।”

जब आनंद नहीं रहता तो ज़िन्दगी में तरह-तरह के मनोरंजन भर जाते हैं। पर ज़ाहिर-सी बात है कि जो कोई तुम्हें मनोरंजन दे रहा है, वो यही सोच कर दे रहा है कि भेंट है, उपहार है, कि कुछ अच्छाई कर रहा है तुम्हारे साथ। वो तुम से कह रहा है कि, “आ चल घूम कर आते हैं।” पर मनोरंजन की तलाश सबूत है इस बात का कि ज़िन्दगी में आनंद नहीं है। जिनकी ज़िन्दगी में आनंद होता है, उन्हें उत्तेजना की ज़रूरत नहीं पड़ती। रूमी कह रहे हैं, “हटें सारी उत्तेजनाएं ताकि शांत आनंद को अनुभव कर सकूँ।”

जब ज़िन्दगी में स्थिरता नहीं होती, शून्यता नहीं होती, मौन नहीं होता, तब ज़ाहिर है कि शब्दों से और शोर से भर जाओगे। और बाहर से जो कोई जो भी कुछ ले कर आया है वो शोर ही है एक तरह का। रूमी कह रहे हैं कि, “हटे शोर”, ताकि सुन्दर, शांत, मौन में विश्राम कर सकूँ।

तुम्हारा शुभेक्शु वो नहीं है जो तुम्हें कुछ और दे दे, वो भी नहीं है जो कुछ हटाए और उसके विकल्प में कुछ रख जाए; तुम्हारा शुभेक्शु वो है जो तुम्हें उस सब की व्यर्थता दिखा दे जो तुमने नाहक ही भर रखा है, जो तुम्हारे सर का बोझ है, जिसके कारण हल्के नहीं हो पाते हो। जिसके कारण तनाव में, उलझन में जीते हो।

हमारे तथाकथित शुभाक्शु तो ऐसे होते हैं कि जैसे किसी के सर पर पचास-किलो वज़न रखा हो, और उसका पूरा शरीर टूट रहा हो, और उसका मन बोझिल हो, और वो किसी से जाकर पूछे कि “सहायता करो मेरी”, तो वो कहे “बिल्कुल सहायता करूँगा, और मेरे पास एक अचूक नुस्खा है, और नुस्खे का वज़न है दस किलो। यह लो दस-किलो और रख लो अपने ऊपर।” हमारी जिसने भी मदद करी है ऐसे ही करी है, कि पचास-किलो वज़न हमारे ऊपर पहले ही था और उसने एक नया नुस्खा दे दिया है दस किलो का। नुस्खे के बाद कितना वज़न हो गया?

श्रोतागण: साठ किलो।

वक्ता: और जब साठ किलो वज़न बढ़ गया तो तुम्हारी तड़प भी उतनी ही बढ़ गयी। और फ़िर तुम और मदद माँगने जाते हो। (व्यंग कसते हुए) और अब तुम्हारा दर्द और ज़्यादा है, इसीलिए अब नुस्खा भी तुम्हें और बड़ा वाला मिलता है!

(श्रोतागण हँसते हैं)

अब तुम्हें मिलता है बीस किलो का नुस्खा। और यह इंसान की ज़िन्दगी है। चाहिए कोई ऐसा जो तुम्हें समझा दे, बूझा दे, और समझ-बुझ तुम में न उठे तो तुम्हें धक्का ही मार दे। ताकि गिरो तुम और तुम्हारे गिरने के साथ तुम्हारा सारा बोझ भी गिर जाए। एक बार को तुम्हें गुस्सा आएगा कि यह तो बड़ा दुश्मन निकला, हम गए थे मदद माँगने कि, ‘चला नहीं जाता, जिया नहीं जाता, बड़ा बोझ है सर पर’, और हमारी मदद करने की जगह इसने किया क्या? धक्का मार दिया! गिरा दिया! हमसे तो वैसे ही संतुलन नहीं संभाला जाता था। काँपे-काँपे से, डगमगाए-डगमगाए से चलते थे और इसने और गिरा दिया।” तुम हो सकता है उसे बुरा-भला कहो, दो-चार गालियाँ दे दो, पर जब उठोगे तो पाओगे कि पहली बार कुछ हल्का-हल्का सा लगा। अब तुम्हारा मन नहीं करेगा अपने उस पूरे बोझ को दोबारा उठाने का। एक अनुभव तो मिला कि हल्कापन होता क्या है। वो सब पड़ा होगा तुम्हारे सामने, और तुम्हारे संस्कार और तुम्हारी नैतिकता और तुम्हारी शिक्षा तुमसे कह रहे होंगे कि “उठाओ न यह सब, यह सब तो बड़ा पवित्र बोझ है, तुमने छोड़ कैसे दिया? अरे, जिम्मेदारियाँ हैं, सपने हैं, महत्वकांक्षाएं हैं, ऊँची-ऊँची बातें हैं, रूढ़ियाँ हैं, उनको छोड़ कैसे दिया? उठाओ न।” पर तुम्हें ज़रा-सा स्वाद मिल गया है, तुम कह रहे हो, “बड़ा अच्छा सा लगा।” इसका मतलब यह है कि मैं अभिशप्त नहीं हूँ सज़ा भोगने के लिए। अगर दो पल भी खुले में साँस ले सकता हूँ, तो आगे भी ले सकता हूँ। अगर अभी हल्का अनुभव कर सकता हूँ, तो पूरा जीवन ही ऐसा क्यों नहीं बीत सकता?

रूमी कह रहे हैं, “इसी धक्का देने वाले की तलाश है।”

एक बड़ी ख़ूबसूरत बात कही गयी है, किसी शायर ने कही है कि “जो दवा के नाम पर ज़हर दे, उसकी तलाश है।” सुना है? कव्वाली है, “ये इश्क-इश्क है इश्क-इश्क”, सुनी है कव्वाली? उसमें आता है बीच में: “चाहिए कोई ऐसा जो अब दवा के नाम पर ज़हर दे”। क्योंकि दवाएं तो दवाएं हैं। नुस्खे भी बीस-बीस किलो के हैं। जहाँ बीस किलो का नुस्खा हो, वहाँ दवा तो टनों, क्विंटलों में होंगी। अब ये आदमी तुम्हें बहुत पसंद तो नहीं आएगा, थोड़ा बुरा सा लगेगा, पर अगर सद्बुद्धि होगी, तो तुम भी वैसे ही गाओगे।

जब यह कहता है शायर कि, “जो दवा के नाम पर ज़हर दे, उसी की तलाश है”, तो उससे ठीक पहले यह भी कहता है कि, “अब मेरा इलाज है कोई, तो मौत है।”

और इलाज हम सब का मौत ही है। कौन सी मौत? वो मौत नहीं जो अभी शमशान पर देख कर आ रहे हो। किस मौत की बात हो रही है?

श्रोता १: जो शांत कर दे।

वक्ता: हाँ, जो मन का उछलना-कूदना, ये शांत हो जाए, उस मौत की बात हो रही है। उस मौत की बात हो रही है जिसको कबीर कहते हैं कि, “मैं कबीरा ऐसा मरा दूजा जन्म न होए।”

बचो उनसे जो तुम्हारे लिए अभी और भेंटे, गिफ्ट्स लिए ही आ रहे हैं। और ऐसे बहुत हैं, “ये लो उज्जवल भविष्य की भेंट।” मिलते हैं कि नहीं मिलते हैं? “तुम्हारी सारी तमन्नाएँ पूरी होंगी, ये हमारा आशीर्वाद है।” मिलते हैं ऐसे कि नहीं मिलते हैं? “कि हमारी दुआ है कि तुम्हारी सारी चाहतें पूरी हों”।

रूमी कह रहे हैं कि बचो इनसे।

तुम्हें यह आशीर्वाद बिल्कुल नहीं चाहिए कि तुम्हारी सारी चाहतें पूरी हों। तुम्हारे लिए तो बस एक प्रार्थना है कि तुम अपनी चाहतों से खाली हो जाओ।

श्रोता २: चाहत से जब खाली हो जाएगा तो इंसान में बचेगा क्या?

श्रोता ३: चाहतें तो बढ़ती ही जाती हैं।

वक्ता: तुम्हारी अभी यही हालत है कि तुम्हें लगता है कि “चाहत से अगर खाली हो गए तो बचेगा क्या?” मैं कह रहा हूँ इस बात को सवाल बना लो, कि “चाहत से खाली हो गए तो बचेगा क्या?”, और ये यकीन रखो, गहरी श्रद्धा कि कुछ बचेगा तो ज़रूर। क्या बचेगा? ये तुम जान लेना। पर यह अभी से मान मत लो कि कुछ नहीं बचेगा। सवाल बनाओ कि, “क्या बचेगा?” देखो, जब पूछते हो कि, “क्या बचेगा?”, तो उसमें साथ में एक श्रद्धा होती है कि कुछ बचेगा तो, तभी तो पूछ रहे हैं कि ‘क्या बचा’? हो सकता है जो बचे वो अभी तुम्हारी कल्पना में न आ रहा हो, हो सकता है जो बचे वो कुछ ऐसा हो जिसके बारे में अभी कुछ कहा न जा सकता हो। पर यह पक्का रखो कि यह मानने की कोई ज़रूरत नहीं है कि कुछ भी नहीं बचेगा, कि नष्ट ही हो जाओगे तुम, डरो मत।

तुम्हारा बड़ा गहरा डर ये है कि अगर मेरी उलझनें सुलझ गयीं तो फ़िर जीने के लिए बचा क्या? तुम्हारा बड़ा गहरा डर ये है कि अगर ये जो दिमाग में आग जलती रहती है लगातार, ये बुझ गयी तो ज़िन्दगी बड़ी ठंडी हो जाएगी। यही है न? तुम कहते हो, “एक आदमी जिसकी हसरतें नहीं, एक आदमी जिसमें बेताबियाँ नहीं, वो तो लाश समान है; यही कहते हो न? और बहुत मिले हैं तुम्हें जो यही सब पाठ पढ़ा रहे हैं, कि जब तक अरमान लेकर चल रहे हो तब तक ज़िन्दा हो तुम। इन मूर्खों की भेंट स्वीकार मत कर लेना। इन्हीं बेवकूफ़ों ने दुनिया को बड़ा सताया है; बड़ा भ्रमित किया है; बड़ी गलत राह दिखाई है। और यह बात तुम्हारे मन में बैठ गयी है कि, “अगर मेरी तड़प शांत हो गयी, अगर मेरी बिमारी शांत हो गयी, तो मैं बचूँगा कहाँ?”

सोचो न कैसा लग रहा है अभी कि डॉक्टर के सामने बैठो हो और डॉक्टर तुम्हें बता रहा है कि तुम्हें जानलेवा बीमारी है, ख़त्म हो रहे हो, और तुम कह रहे हो कि “डॉक्टर साहब, अगर आपने बिमारी हटा दी मेरी तो मैं बचूँगा कहाँ?”। वो तुमसे कह रहा है कि बिमारी चलती रही तो बचोगे नहीं, और तुम उसको पढ़ा रहे हो कि अगर बिमारी हटा दी आपने तो बचेगा क्या?

बिमारी के साथ बचोगे?

बचे हो?

पर तर्क देखो अपना कि, “अगर आपने मेरी बिमारी हटा दी तो जीने में मज़ा क्या रह जाएगा?”, अभी है जीने में मज़ा? दिन-रात तड़प उठती है। इधर से खून बहता है, उधर से मवाद बहता है; यहाँ गिरते हैं, वहाँ गिरते हैं; दिन में आठ-दस दफ़ा बेहोश होते हैं। दूसरों का खून चढ़ाया जाता है तो दो-चार साँस लेते हैं। अभी लगता है कि ज़िन्दगी में कुछ है भरा-भरा सा। साथ में दो-चार बड़े-बड़े ऑक्सीजन के सिलिंडर चलते हैं, बड़ी उपलब्धि की भावना उठती है कि हम ‘विशेष’ हैं। बॉडीगॉर्ड नहीं चलते साथ तो क्या हुआ, सिलिंडर चलते हैं! — एक दाएं, एक बाएं। तो डॉक्टर साहब अगर आपने ये सब हटा दिया तो ज़िन्दगी में बचेगा क्या?”

क्या बचेगा?

तुम बचोगे।

तुम्हार होना बचेगा, तुम्हारा साफ़, निर्मल स्वास्थ बचेगा। कोई दिक्कत है उसमें? ऐसे ही कह रहे हो कि कोई तुम्हारी बैसाखियाँ हटाए और तुम कहो कि, “यही तो मेरे पाओं हैं और ये हटा दिए तो बचेगा क्या?” क्या बचेगा? पाओं बचेंगे। तुम बचोगे, तुम्हारी ताकत बचेगी; ज़मीन बचेगी, तुम्हारा दौड़ना बचेगा। या बैशाखियों के साथ दौड़ते हो? उनके साथ तो नहीं दौड़ते।

यह इंसान के साथ गहरे से गहरा धोखा किया गया है कि उसको यह शिक्षा दे दी गयी है कि ‘बिमारी ही जीवन है’। उसकी तड़प को गौरवांवित किया गया है। उसकी विक्षिप्तता की शान में कवितायेँ लिखी गयी हैं। शान तुम्हारी विक्षिप्तता की नहीं है; शान तुम्हारे बोध की है। ज़रा उसकी शान देखो, फ़िर ये सब भूल जाओगे, उछलना-कूदना और औंधे मुँह गिर पड़ना। फ़िर तुम्हारे चलने में एक ताकत रहेगी। फ़िर तुम्हारे कदम जहाँ पड़ेंगे वो जगह तुम्हारी होगी। अभी तो क्या डरे-डरे से, सहमे-सहमे से, यूँ ही इधर-उधर फुदकते फ़िरते हो। जहाँ ही बैठते हो, तुम्हें लगता है वहाँ ही कुछ गड़बड़ है; शंकित रहते हो। जहाँ ही बैठते हो जगह रुचती नहीं, तो कहीं और को भागते हो, नहीं तो काहे कोई उछलेगा, कूदेगा?

श्रोता २: सर, आपने कहा जो भी चीज़ें बाहर से आती हैं वो सारी ‘बुराई’ होती हैं, मतलब जो भी हम लेते हैं। एक बच्चा जब जन्म लेता है, उसके बाद से जो बड़ा होता है धीरे-धीरे, तो सारी चीज़ें जो वो देखता है, उसके चारों तरफ़ जो भी लोग होते हैं उनसे सीखता है, तो वो एक तरीके से वो सब भी तो एक भेंट उस बच्चे को मिल रही है। वो सब देखते-देखते वो बड़ा होता है और वो सब चीज़ें उसकी आदत हो जाती हैं और वो उसका स्वभाव बन जाता है।

वक्ता: आदत।

श्रोता २: आदत ही तो फ़िर धीरे-धीरे आपका स्वभाव बन जाता है।

वक्ता: नहीं, आदतें स्वभाव कभी नहीं होतीं। तुम आदत कुछ भी पाल लो, वह स्वभाव नहीं बन जातीं।

श्रोता २: एक किसी महान पुरुष का वाक्य है, “आप जो लगातार करते रहते हो, वो आदत आपका स्वभाव बन जाती हैं”।

वक्ता: कभी नहीं हो सकता।

तुम कितनी आँखे बंद कर लो, अंधापन तुम्हारा स्वभाव नहीं बन सकता; तुम्हारा स्वभाव है रौशनी। बड़े अज्ञान की बात है किसी को यह कहना कि “आदत कभी तुम्हारा स्वभाव बन सकती है।” आदत कितनी भी गहरी हो जाए, आदत ही रहेगी। आदत बाहर से आई है और इसीलिए इससे छुटकारा पाया जा सकता है। स्वभाव से कभी छुटकारा नहीं पाया जा सकता है। स्वभाव माने ‘तुम’। आदत माने वो जो तुमने ग्रहण करा है। जो ग्रहण किया है वो छोड़ा जा सकता है। तुम जो हो वो छोड़ा नहीं जा सकता। आदत को कभी स्वभाव मत समझ लेना, ये बड़ी व्यर्थ की शिक्षा है कि आदत दोहराते-दोहराते स्वभाव बन जाती हैं, बन नहीं सकतीं। हाँ, स्वभाव जैसी तुम्हें लगने लग सकती है; आदत इतनी गहरी हो सकती है कि तुम्हें अपने स्वभाव की धुंधली भी स्मृति न बचे, ये हो सकता है, पर आदत स्वभाव कभी नहीं बन सकती।

श्रोता २: सर, बच्चे ने जो भी कुछ बाहर से लिया तो वो फ़िर कैसे जज करेगा कि हमने सही चीज़ें ली हैं? उसे कैसे पता चलेगा कि हमने बुराई ले ली है? जो भी कुछ लिया है, मतलब हम यह नहीं कह रहे हैं कि उसने बुरी चीज़ ले ली है, अच्छी चीज़ें भी हैं, परन्तु जब वो सभी कुछ बाहर से ले रहा है तो वह ये कैसे जज कर पाएगा कि बुरा क्या है और स्वभाव क्या है?

वक्ता: बच्चा तो कुछ भी कभी भी नहीं जान पाता। एक छोटा बच्चा होता है, उसे कुछ पता नहीं न कि तुम उसे क्या सिखाए, पढ़ाए दे रहे हो? तुम्हें पता था? तुम्हें इतनी बातें दे दी गयीं जब तुम दो साल, चार साल, और छ: साल के थे, और तुम्हारे पास विकल्प क्या था? तुमने उन सारी बातों को सोख लिया। तुम्हें कुछ पता नहीं न? तुमने अपने विवेक पर तो नहीं तोला था उन सब बातों को, कि तोला था? कि “जानेंगे, समझेंगे, फ़िर मानेंगे”, ऐसा तो नहीं किया तुमने। तुम्हें जो दिया गया वो तुम लेते गये। यही हुआ न? अब तुम यहाँ बैठे हो, और पीछे से लोग आते जाएं और तुम्हारे ऊपर कुछ रखते जाएं, किसी ने पाँच किलो गेंहूँ रख दिया, किसी ने बहुत सारे कपड़े रख दिये, कोई पत्थर रख कर चला गया, कोई मिटटी रख कर चला गया और कोई दस-बीस किलो सोना रख कर चला गया, और तुम्हारी आँखें आगे की ओर हैं और ये सब तुम्हारे ऊपर पीछे से लादा जा रहा है, किसी ने तुम्हारे ऊपर कुछ भी लादा, अन्ततः उसने किया क्या?

श्रोता २: बोझ बढ़ा दिया।

वक्ता: तुम्हारा बोझ ही तो बढ़ाया। तो अब इसमें जाँचने-परखने की क्या बात है कि क्या अच्छा और क्या बुरा? यह जो कुछ भी है, यह सब बोझ मात्र है। जब तक इससे मुक्ति नहीं पाओगे तब तक कदम भारी ही रहेंगे। समझना ध्यान से। अपने जानते-बूझते तुम कभी कुछ नहीं ग्रहण करते, क्योंकि जिसने जाना-बूझा है उसने यही जाना है कि तुम्हारा स्वभाव पूर्णता है। तुम्हें और कुछ ग्रहण करने की न आवश्यकता है, न तुम कर सकते हो; क्योंकि जो पूर्ण है वो अपने में अब जोड़ेगा क्या? तो ये कहना भी मत कि, “हमने अपने विवेक से चुन करके कोई बात स्वीकार की।” विवेक जब होता है तो वो मात्र अस्वीकार करता है। विवेक का काम है नेति-नेति; विवेक का काम है झूठे को झूठा जानना; विवेक का यह काम नहीं है कि कुछ सच्चाई मिली बाहर से और उसको सोख लिया। विवेक सिर्फ़ ठुकराता है।

सत्य तो भीतर मौजूद है, उसको ग्रहण थोड़े ही करोगे कहीं बाहर से। और सत्य की ही रौशनी है जो इधर-उधर से आते झूठों को ठुकराने में तुम्हारी मदद करती है। है कोई तुम्हारे दिल में जो तुम्हारी आँखों को रौशनी देता है। उन्हीं आँखों की रौशनी से तुम देख पाते हो। बाहर थोड़े ही रौशनी खोजोगे। कोई आँखें खोल कर के बाहर खोजे कि, “रौशनी कहाँ है?”, तो यह व्यर्थ की बात है न।

“तुम देख पा रहे हो”, यही सबूत है रौशनी का।

तो रौशनी कहाँ हुई?

श्रोतागण: अंदर।

वक्ता: अब तुम आँख खोल कर के देख कहाँ रहे हो?

श्रोतागण: बाहर।

वक्ता: और खोजने क्या निकले हो?

श्रोतागण: रौशनी।

वक्ता: और कई ऐसे भी सूरमा हैं जो बाहर आँखें खोजने निकलते हैं। उन्हें ये कौन समझाए कि अगर तुम्हारे पास आँखें नहीं हैं तो तुम आँखें खोज कैसे लोगे? वो कह रहे हैं, “नहीं, हम देख-परख कर आँखें खोजेंगे”। देख-परख कर आँखें खोजोगे! किस चीज़ से देख-परख कर खोजोगे आँखें? ये सवाल ही उन्हें नहीं उठता। वो कहते हैं, “नहीं, हम तय करेंगे कि हमें क्या स्वीकार करना है।” आँखों से आँखें खोजोगे?

जो तुम खोजने निकले हो वही तो है जो तुमसे खोजवा रहा है।

“जिन आँखों से देख रहे हो, उन्हीं आँखों से आँखें खोज रहे हो”, क्या मूर्खता है? और वाकई आँखें न होती तुम्हारे पास तो खोजने की प्रेरणा भी कहाँ से आती?

न रौशनी बाहर है न आँखें बाहर हैं। न रौशनी को खोजने की प्रेरणा बाहरी हो सकती है, न आँखें बाहरी आ सकती हैं। हो सकता है कोई बाहर से आकर तुम्हें दो-चार बातें बता दे, प्रेरित भी कर दे, कि “खोजों रौशनी को, खोजों आँखों को”, पर उसको भी यदि तुम देख पा रहे हो तो कैसे देख पा रहे हो? मैं अभी तुम्हारे सामने बैठा हूँ, मैं तुमसे आँखों की और रौशनी की बात कर रहा हूँ, और तुम यदि मुझे देख पा रहे हो तो ये किस बात को प्रमाणित करता है?

श्रोता २: कि मेरी आँखें हैं।

वक्ता: तुम्हारे आँखें हैं, कि तुम्हारे रौशनी है। मैं हद से हद तुम्हें उसकी ‘याद’ दिला सकता हूँ। मैं अभी तुम्हें आँखें दे तो नहीं सकता न? मैं तुम्हें रौशनी दे तो नहीं सकता न? मैं तुम्हें सिर्फ़ याद दिला सकता हूँ कि भाई अगर मुझे भी देख पा रहे हो तो जान लो कि आँखें और रौशनी है तुम्हारे पास। पर दुकानें बहुत हैं दुनिया में, वहाँ चश्मे ही नहीं आँखें भी बिकती हैं। और ये छोटी बात है, बड़ी बात तो यह है कि खरीदार भी हैं। बहुत बड़ी-बड़ी दुकानें हैं, और उन पर भीड़ लगी हुई है। वहाँ लोग जाँच-परख कर आँखें खरीद रहे हैं। वहाँ लोग गौर से देख-देख कर आँखें खरीद रहे हैं। वहाँ सूक्ष्म निरिक्षण कर-कर के आँखें खरीदी जा रही हैं।

(मुस्कुराते हुए) तुम कहाँ-कहाँ घूम आए? कहाँ जाते हो आँखें खरीदने?

श्रोता ३: सर, अभी आपने बताया कि जो भी कुछ बाहर से आता है वो ‘बुराई’ है, और जो ख़ुद से जज करते हैं वो ‘सही’ है। तो सर जैसे हम कक्षा में पढ़ते हैं और इंटर के बाद अगर आएँगे तो वो भी सब नई चीज़ें हैं; बहरी चीज़ें हैं। तो वो बुराई हो गयी जो कक्षा में पढ़ते हैं?

वक्ता: उतना ही कह रहा हूँ जितना कह रहा हूँ, बाकि सब वो है जो तुम पहले से सुने बैठे हो। उसे मेरी बात पर आरोपित मत करो। तुमने जो बात बोली उसमें से ९०% मैंने कही ही नहीं है।

(श्रोतागण हँसते हैं)

मैंने उतना ही कहा जितना मैंने कहा है, बाकि सुनी-सुनाई बात को मेरी बात से मत जोड़ो। मैं जो कह रहा हूँ वो तुमने पहले नहीं सुना है। तो उसे अपनी पहली वाली बातों से इकट्ठा मत करो। मैंने ये कहा क्या कि जो तुम जज कर रहे हो वो सही है? मैंने कब कहा? मैं तो ये कह रहा हूँ कि तुम जिसे ‘ख़ुद’ कह रहे हो वो भी ‘बाहरी’ है। तुमने जिसे अपनी खुदी बना रखा है, जिसे तुम अपनी आत्मता कहते हो, वो भी बाहरी है। तुम जब कहते हो कि “मैं जांचूँगा, परखूँगा”, यह मैं भी तो भेंट स्वरूप ही किसी ने बाहर से दे दिया है। तुम्हें अपना क्या पता है?

जब तुम कहते हो कि, “मैं फैसला करूँगा”, ये ‘मैं’ कौन है? ये ‘मैं’ क्या तुम हो? ये ‘मैं’ तो वही सब है। भाई ऐसा है कि तुम्हें बहुत सारा बोझ दिया जाता है, तुम बैठे हो तुम्हारे ऊपर दस चीज़ें लाकर रख दी गयीं, उसमें एक बोलने वाली मशीन भी है। वो लगातार “मैं, मैं, मैं” बोल रही है, वो तुम थोड़े ही हो, वो बोलने वाली मशीन है। वो भी पचास किलो की है। तुम्हारे ही जैसी दिखती है। तुम्हारे ऊपर तुम्हारे ही जैसे दिखने वाली एक बोलने वाली मशीन लगा दी गयी है। वो लगातार क्या बोलती रहती है? — “मैं, मैं, मैं, मैं”! वो भी तो बाहरी है, अभी वही बोली। अपना तुम्हें कहाँ पता है? तुम ख़ुद कहाँ कुछ बोलते हो? जब तुम बोलते हो तो कौन बोलता है? तुम्हारा नाम बोलता है; तुम्हारी शिक्षा बोलती है; तुम्हारी पहचान बोलती है; तुम्हारे भीतर जो पूरी दुनिया घुस कर बैठ गयी है, वो बोलती है। तुम कहाँ बोलते हो? अपनी आवाज़ सुनी है किसी ने यहाँ पर कभी?

श्रोतागण: नहीं।

वक्ता: कोई है जो दावा कर सकता है कि उसने अपना चेहरे देखा है, कि अपनी आवाज़ सुनी है? इतनी चीज़ें डाली गयी हैं तुम्हारे ऊपर, हज़ार तरीके के नकाब भी शामिल हैं उसमें। वो भी तो बोझ है तुम्हारा। जब तुम कहते हो कि, “मैं फैसला कर रहा हूँ।” तुम थोड़े ही फैसला कर रहे होते हो, वो सब दुनिया भर के नकाब हैं, वो फैसला कर रहे हैं। वो मशीन हैं, उनकी पहले की प्रोग्रामिंग है कि क्या फैसला करना है और कैसे फैसला नहीं करना है।

श्रोता ३: सर, फ़िर ‘मैं’ कौन हुआ?

वक्ता: वो तो नहीं हुआ जो अभी बोल रहा है। उसको छोड़ो पहले, और पीछे उसको रख दो फ़िर बात करें।

श्रोता ४: तो सर ऐसा तो दुनिया में कोई नहीं है, जो आपने अभी कहा न कि, “मैं तुम नही हो, बाहरी प्रभाव हो”। मतलब जो ‘मैं’ है, वो भी प्रभावित है बाहरी दुनिया से, तो सर दुनिया में कोई भी इंसान ऐसा नहीं है जो बाहरी दुनिया से प्रभावित होकर कोई भी चीज़ न करता हो।

वक्ता: हो भी सकता है और नहीं भी हो सकता है। पर अभी कौन बोल रहा है ये? बाहरी दुनिया में क्या है, क्या नहीं है, ये तुम जानोगे या वो बोलने वाली मशीन जानेगी? कौन जानेगा? तुम जान सकते हो न, वो मशीन तो नहीं जान सकती। और अभी बोल कौन रहा है?

श्रोतागण: वही बोलने वाली मशीन।

वक्ता: तो इसकी बात को मैं क्या गंभीरता से लूँ? इस मशीन को कभी कुछ पता चलेगा? जो ख़ुद नकली है, उसे कैसे कभी पता चलेगा कि दूसरा असली है कि नकली?

श्रोता ४: सर, जो बोलने वाली मशीन मिली है, वो भी तो ईश्वर की दी हुई भेंट ही है।

वक्ता: ईश्वर ने दी थी?

श्रोता ४: सर, जो हम बोलते हैं वो भी तो ईश्वर ने ही दिया है।

वक्ता: वो तुम्हें ईश्वर ने दी थी वाकई? ये जो इधर-उधर से कचरा इकट्ठा कर रहे हो, ये ईश्वर ने दिया है, वाकई?

श्रोता ४: सर, ये जो ज़बान है, ये ईश्वर ने ही तो दी है।

वक्ता: ज़बान से बोलते हो? तो सोते वक्त क्यों नहीं बोलते? जब विचार थम जाते हैं तो ज़बान क्यों थम जाती है?

श्रोता ४: सर, उस समय मन शांत रहता है।

वक्ता: तो मतलब ज़ुबान से नहीं बोला जाता न। किससे बोला जाता है? कोई नहीं है जो ज़ुबान से बोलता हो। और ज़ुबान कट भी जाए तो बोलने के तरीके होते हैं, पर मन कट जाए तो ज़ुबान शांत हो जाती है।

श्रोता २: सर, परेशानी ये होनी है न आख़िर में कि फ़िर बात यहीं पर अटक जाती है कि जो भी चीज़ सोचते हो, वो बाहर की ही है, तो फ़िर हर इंसान के साथ यही हो रहा है मतलब, पूरी दुनिया के साथ शुरुआत से ही ये हो रहा है। वो पैदा हो रहा है, बाहर से उसको सारी चीज़ें मिल रही हैं, फ़िर धीरे-धीरे वो वही सारी चीज़ें कर रहा है जो उसे अच्छा लग रहा है, फ़िर ‘मैं’ जब है ही नहीं तो फ़िर क्या ‘मैं’?

वक्ता: एक इसमें गुप्त दरवाज़ा होता है। इस पूरे खेल में जहाँ पर हम फंसे रहते हैं, इसमें बच निकलने के लिए एक दरवाज़ा होता है, वो दरवाज़ा होता है जाँच-पड़ताल का। फंसने का तरीका होता है ‘मानना’, और बचने का तरीका होता है ‘जाँचना’। अभी देखा तुमने सवाल क्या पूछा? कि “कैसे जानूं कि क्या है ‘मैं’?” ये तुम दरवाज़े के करीब पहुँचे। जहाँ फंसे हो न उसमें से निकलने का दरवाज़ा है, और जब कोई ये सवाल पूछता है और अपनी पूरी ताकत से पूछता है कि “सच्चाई क्या है?”, तब वो उस दरवाज़े के करीब पहुँच जाता है। और जो कोई दावा करता है कि मुझे सच्चाई पता है वो उस दरवाज़े से दूर होता जाता है।

जो कोई कहता है कि, “मैं जानना चाहता हूँ”, वो स्वीकार करता है कि, “मैं अज्ञानी हूँ।” और जो कोई कहता है “मुझे पहले ही पता है”, वो इसी अहंकार में है कि, “मैं ज्ञानी हूँ”। वो उस दरवाज़े से दूर होता जाता है। तो जाँचों, जाँचों; यकीनों में मत जीयो। यकीनों में मत जीयो! जिन बातों से मन भरा हुआ है उनको परखो, और एक के बाद एक पाओगे कि मन में बातें ही बातें भरी हुई हैं; धारणाएं ही धारणाएं भरी हुई हैं; फ़िज़ूल के विश्वास भरे हुए हैं, उन्हें परखो तो। जैसे अभी तुमने परखना चाहा कि, “क्या? कैसे? क्यों?”

शुरुआत एक सवाल से होगी, अंत मौन पर होगा। हो सकता है कोई जवाब न मिले, पर शांति ज़रूर मिलेगी। पूछो ज़रूर, पूछना ज़रूरी है। जवाब क्या आएगा उसकी परवाह मत करो। हो सकता है कोई जवाब न आए, पर शांति ज़रूर आएगी। बात आ रही है समझ में? देखो कितनी बातों को तुमने यूँ ही माना, बिना कोई सवाल पूछे। माना कि नहीं माना?

श्रोतागण: जी।

वक्ता: तुम कह रहे थे न जो चीजें आ रही हैं वो ईश्वर ने दी हैं। देने वाले ने तुम्हें सबसे ऊपर जो दिया है वो ‘जानने’ की ताकत दी है। तुमने उसका ही इस्तेमाल नहीं किया, ये देने वाले का अपमान है। देने वाले ने तुम्हें सबसे अहम ताकत बक्क्षी है, वो ताकत क्या है? विवेक की ताकत, बोध की ताकत, कि तुम जान सकते हो, समझ सकते हो, तुम मूर्ख नहीं हो, न तुम मशीन हो। पर हमने अपना क्या किया? हम जिन तरीकों से जीते हैं और दुनिया जैसे चल रही है, उसमें तुम्हें मूर्खता के अलावा कुछ दिखाई देता है? फ़िर हम कहते हैं कि, “हम ईश्वर की खुदाई का सम्मान करते हैं”, तुम वाकई सम्मान करते हो? तुम चले जाओ, तुम्हें जितनी प्रार्थना करनी है, जितना तुम्हें मंदिर, मस्ज़िद जाना है, तुम चले जाओ; तुम कोई सम्मान नहीं करते। उसका एक ही सम्मान है कि उसने जो दिया, उसमें तुम जीयो, उसका पूरा उपयोग करो। सिर्फ़ उसने जो भेंट दी है वो लेने लायक है; बाकि सारी भेंटें व्यर्थ हैं। और तुमने उल्टी गंगा बहाई है। उसने जो भेंट दी, उसको तो तुमने तिरस्कृत कर दिया, उसका तो तुम उपयोग ही नहीं करते, और दुनिया ने जो तुम्हें भेंटे दीं, तुमने उनका क्या किया? तुमने उनका खूब उपयोग किया। तुमने उन्हें खूब सम्मान और वर्रियता दी। दुनिया ने तुम्हें ताकत नहीं दी है होशियारी की, समझने की, बोध की। दुनिया ने तो तुम्हें मान्यताएं दी हैं। उन मान्यताओं का निरीक्षण करने की ताकत, उन्हें रौशनी में देखने की ताकत, तुम्हें ख़ुदा ने दी है। और ख़ुदा की दी हुई उस ताकत का तुम प्रयोग नहीं करते। बात समझ रहे हो?

जब जाँचते हो, मामला ऐसे खुलता चला जाता है। बोझ ही तो है न जो रखा हुआ है, कैसे पता चले कि कुछ ‘मैं हूँ’ या सिर्फ़ मेरा ‘बोझ’ है? कुछ है तुम्हारे पास, तुम्हें कैसे पता चले कि वो ‘तुम हो’ या ‘तुम्हारा बोझ है’ बाहरी? कैसे पता चले? तुम यहाँ से लेकर (ज़मीन की ओर इशारा करते हुए) वहाँ तक (आसमान की तरफ़ इशारा करते हुए) हो, और तुम्हारे पास बहुत कुछ है। तुम्हारे पास हाथ हैं, पाँव हैं, दिल है, आँखें हैं और बहुत सारी और सारी चीज़ें हैं। बक्से हैं, सोना है, पत्थर है, मिट्टी है, बहुत सारी चीज़ें हैं। और तुम बिल्कुल भूल गये हो कि इसमें ‘मैं क्या हूँ’ और बाहर से ‘मुझे क्या मिला है’? तुम बिल्कुल भूल गए हो कि ‘तुम क्या हो’ और वो सब क्या है जो ‘तुम नहीं हो’? तो कैसे जानोगे कि ‘तुम कौन हो’ और ‘कितने हो’? कैसे जानोगे? जल्दी बोलो?

श्रोता ३: सर, एक दिन के लिए सारे संसाधन को छोड़ कर देखना पड़ेगा।

वक्ता: जो छोड़ कर के भी काम चल जाए निश्चित रूप से वो तुम?

श्रोता ३: नहीं हो।

वक्ता: आँखे छोड़ कर एक दिन काम चला लोगे? जो छोड़ो और फ़िर भी जी जाओ, वो समझ जाओ कि वो तुम नहीं हो। तुम्हारी जेब में पत्थर भरे हुए थे, तुमने उनको छोड़ भी दिया, तुम क्या पा रहे हो कि तुम अभी भी मज़े में चल फ़िर रहे हो। तुरंत तुम्हें पता चल गया कि ये पत्थर तो मैं नहीं था। तो छोड़ते जाओ। जो भी छोड़ कर जी जाओ, वो समझ जाओ कि बाहरी था। जो भी छोड़ कर हल्के होते जाओ, वो समझते जाओ कि बाहरी था। यही कसौटी है, यही मन्त्र है, पकड़ लो इसको, कि “जो कुछ छोड़ कर हल्का होता जाऊं, वो मैं नहीं हूँ। जो मैं वास्तव में हूँ वो मैं छोड़ नहीं सकता।”

तो जो कुछ भी छूटता हो, उसको छोड़ने में संकोच मत करना, उसको छोड़ोगे तो अपनेआप को हल्का पाओगे। छोड़ कर तो देखो, डरते क्यों हो?

बात ईश्वर की करते हो और साथ में डरते भी हो। जो ख़ुदा की बात करता है वो तो बिल्कुल निर्भीक हो जाता है, उसको डर कैसे लग सकता है?

दिल में अगर ख़ुदा हो, तो तुम्हें और दुनिया भर की भेंटो, उपहारों और सहारों की ज़रूरत है क्या? तो क्यों उनके लालच में पड़े हो?

श्रोता २: बाहर से आई हुई चीज़ें गलत हैं तो ‘सेल्फ’ जो है वो सही है मतलब, नफ्स पर नियंत्रण करने को क्यों कहा जाता है?

वक्ता: नफ्स क्या है? नफ्स क्या है? जो बाहर से आए, वही नफ्स है। नफ्स की परिभाषा ही यही है, नफ्स कोई भीतर से थोड़े ही उठता है। दुनिया की किताबें हैं नफ्स के बारे में, पर मैं तुमको एक वाक्य में पूरी बात कहे देता हूँ: “जो बाहरी, वही नफ्स”। अहंकार को नफ्स कहते हैं। (एक श्रोता की ओर इशारा करते हुए) उसको देखो, मज़ा तो बहुत आ रहा है, “बात तो ठीक है”। अरे, जो बात सुनने में इतना मज़ा आ रहा है, उसमें ज़रा आगे बढ़ो, फ़िर देखो कितना मज़ा है। पर अभी तुम्हारी जो हँसी है, वो कर गुज़रने वाली हँसी नहीं है, वो ऐसी है बात, तो बढ़िया है, पर सुनने तक ही रहे तो ठीक है, ऐसे नहीं। सच्चाई का तकाज़ा ये है कि एक बार जान जाओ कि कुछ ठीक है तो उसको ज़िन्दगी में उतरने दो फ़िर।

श्रोता २: सर, अहंकार तो वही है जिसके बारे में हम जानते हैं, हमें विश्वास होता है तो हम उसपर अहंकार करते हैं| तो उसमें आपने कहा अभी कि बाहर से आता है अहंकार|

वक्ता: तुम जिस पर विश्वास करते हो, उसे जानते थोड़े ही हो। ‘जानना’ और ‘यकीन करना’, दो बहुत अलग-अलग बातें हैं। अहंकार बाहर से आता है, तुम्हें उसके बारे में भ्रम रहता है कि तुम्हें कुछ भी पता है; तुम्हें पता क्या होता है? अहंकार के बारे में तुम्हारा सबसे बड़ा भ्रम तो यह होता है कि “वो मैं हूँ — अहम्-कार। वो मैं हूँ — अहम्।” वो तुम हो ही नहीं। तुम जेब में पड़े हुए पत्थरों को ‘मैं’ समझ रहे हो, अपना पाओं और अपना हिस्सा समझ रहे हो, वो तुम हो ही नहीं।

अहंकार में और आत्मा में क्या अंतर है? यही अंतर है न: आत्मा माने, वो जो मैं हूँ; अहंकार माने, वो जो मैं हूँ नहीं, पर मुझे ‘लगता’ है कि मैं हूँ।

श्रोता २: तो उस पर यकीन कैसे हो?

वक्ता: यकीन ऐसे ही होता है कि तुमने कभी जाँचा नहीं, तुमने कभी परखा नहीं, निरिक्षण नहीं किया, सवाल नहीं पूछे, परीक्षा नहीं करी; यूँ ही मान लिया। (एक श्रोता की तरफ़ इशारा करते हुए) फ़िर मज़ा आया उसको “बात तो बड़ी बढ़िया बोली।”

(श्रोतागण हँसते हैं)

श्रोता ३: सर, दो-तीन साल से हमें सपने बहुत आते हैं रात में।

(श्रोतागण हँसते हैं)

श्रोता ४: दिन में भी सपने आते हैं सोने के बाद इसको।

वक्ता: देखो, बड़ी बढ़िया बात बोली है। रात के सपनों की इतनी बात क्यों करते हो? अभी दिन है, अभी जग रहे हो, यह तो पक्का कर लो कि अभी सपना नहीं देख रहे। नहीं तो “सपने में देखा सपना”, सुना है न? गाना सुना है, “सपने में देखा है एक सपना?”, ये भी तो हो सकता है कि एक सपने में सपना देख रहे हो कि सपना चल रहा है। यह तो पक्का कर लो कि अभी जगे हुए हो। रात का सपना दिन के सपने से जुड़ा हुआ होता है। जो दिन में जगे हुए होते हैं उन्हें फ़िर रात के सपनों की बहुत परवाह नहीं रह जाती। आएं तो आएं, नहीं आएं तो नहीं आएं। अभी जग जाओ, अभी तुम्हारे सामने जो कुछ भी हो रहा है उसपर पूरा ध्यान केन्द्रित करो, रातें अपनेआप ठीक हो जाएंगी।

रातें उन्हीं की व्यथित रहती हैं जिनके दिन गड़बड़ रहते हैं। वो एक आता था न “चैन से सोना है तो जाग जाओ”, वो उसने जिस भी अर्थ में बोला हो, पर बात ठीक बोली है उसने। जो जग गया है वही चैन से सोएगा। तो अगर चैन से सोना है रात में तो इंतज़ाम करना पड़ेगा पहले दिन में। दिन का ख्याल करो, रातें अपनेआप ठीक हो जाएंगी।

श्रोता ३: सर, कुछ लोग तो सपना देखते हैं लेकिन भूल जाते हैं, याद कुछ नहीं रहता।

वक्ता: हमें भी कहाँ कुछ याद है? तुम्हें याद है तुम कौन हो?

श्रोता ३: सपना तो मैं भी देखता हूँ लेकिन याद नहीं रहता सुबह तक भूल जाता हूँ।

वक्ता: सभी भूले हुए ही बैठे हैं। बड़ी हैरानी होगी तुम्हें जब तुम्हें पता चलेगा कि क्या भूले हुए थे।

शब्द-योग सत्र पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।

Have you benefited from Acharya Prashant's teachings?
Only through your contribution will this mission move forward.
Donate to spread the light
View All Articles