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कौन है प्रेम के काबिल?
Author Acharya Prashant
Acharya Prashant
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प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, जैसे कबीर साहब ने कहा है कि ढाई अक्षर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय। तो क्या ये इंसान से प्रेम करने की बात कह रहे हैं? मुझे लगता है कि ये इंसान से प्रेम करने की बात कह रहे हैं क्योंकि वो देखते हैं कि जग में ऐसा है नहीं, तो जिसने इंसान से प्रेम करना सीख लिया वो सबसे बड़ा ज्ञानी है। हम अपनी फिल्मों में भी देखते हैं कि हर कोई प्रेम की भगवान से तुलना करता है — लव इज गॉड (प्रेम ही भगवान है)। यदि प्रेम इतना महत्वपूर्ण है तो एक इंसान का दूसरे इंसान से प्रेम कर पाना इतना मुश्किल क्यों है?

आचार्य प्रशांत: कौन करेगा प्रेम इंसान से?

प्र: हम ही करेंगे।

आचार्य: हम माने कौन? कौन हो तुम?

प्र: मैं अपने लिए भी बताता हूँ तो मेरे लिए भी बहुत मुश्किल है।

आचार्य: कौन हो तुम? उसी से पता चलेगा न प्रेम क्या होगा तुम्हारा?

आज हमने शुरुआत करी थी, हमने कहा था एक ही चीज़ है जिसको हम जानते हैं कि ‘हम हैं’। ठीक? ' आई एम ' (मैं हूँ) और हमने कहा था ये जो आई एम है, ये जो मेरा होना है, ये अपने होने का एहसास कराता है किसके द्वारा?

हाउ डज़ दिस 'आय एम' मेक इटसेल्फ फेल्ट? (ये 'मैं हूँ' अपने होने का आभास कैसे कराता है?)

प्र: सफरिंग (दुःख) के द्वारा।

आचार्य: ठीक? तो कौन हो तुम?

प्र: पीड़ा में है।

आचार्य: व्यथित है, परेशान है, उलझा हुआ है: वो हो तुम। ठीक?

कदम-दर-कदम चलना। कौन हूँ मैं?

वो जो परेशान है, व्यथित है, उलझा हुआ है।

प्रेम का अर्थ है — एक आकर्षण, खिंचाव। अगर एक परेशानी हूँ मैं, एक उलझाव हूँ मैं, एक चिंता हूँ मैं, एक समस्या हूँ मैं, तो ज़ाहिर है कि मेरा आकर्षण, मेरा प्रेम किधर को होगा? शांति की ओर, मुक्ति की ओर, सत्य की ओर। ठीक? तो ये होता है प्रेम — कि जब तुम शांति की ओर आकर्षित हो, बंधनों में जी रहे हो मुक्ति की ओर आकर्षित हो। दूसरे व्यक्ति की ओर आकर्षित होने को प्रेम थोड़े ही कहते हैं। खुद परेशान हो, अपनी परेशानी ले जा कर दूसरे के भी गले डाल दी, दो और दो चार हो गए, ये प्रेम कहाँ से हो गया भईया? हाँ, पिक्चरों में ऐसा होता है। इसी तरीके से ये जो मंत्र तुमने बताया कि लव इज़ गॉड ये कोई शास्त्र नहीं बताता। प्रेम सत्य के प्रति हो सकता है; लव (प्रेम) अपने आप में गॉड (भगवान)कैसे हो गया? पर ये बात खूब सुनी है। बहुत बड़े-बड़े लोग भी बोल गए लव इज़ गॉड और ये सब। तो मन में भ्रांति आ गई है कि यही होता होगा।

अब रही बात दूसरे व्यक्ति से रिश्ते कि तो भूलो नहीं कि तुम्हें मूलतः क्या चाहिए? तुम्हें चाहिए शांति क्योंकि अशांत हो तुम। तुम्हें चाहिए मुक्ति क्योंकि बंधन में फँसे हो तुम। तुम्हें चाहिए सच्चाई क्योंकि भ्रमों में जी रहे हो तुम तो अगर दूसरे व्यक्ति की तरफ आकर्षित होना भी है तो किसकी तरफ आकर्षित होना है? जो तुमको सच्चाई दे सके, जो तुम्हारे भ्रम और बंधन काट सके, ये हुआ प्रेम। अब तुम बताओ कि जब तुम किसी की ओर आकर्षित होते हो तो क्या इसलिए होते हो कि वो तुम्हारे भ्रम और बंधन काटेगा? ये दुनिया में जो लोग घूम रहे हैं, एक-दूसरे का हाथ पकड़कर प्रेम के नाम पर, ये एक-दूसरे की ओर इसलिए आकर्षित हैं क्योंकि एक-दूसरे को ये सत्य देते हैं? तो ये प्रेम कहाँ से हो गया?

सत्य के प्रति जो प्रेम होता है, वही प्रेम झलकता है व्यक्तियों के आपसी रिश्ते में भी। तो व्यक्तियों के आपसी रिश्ते में जो प्रेम होता है वो क्या है, साफ समझ लेना। वो है या तो ये कि मैं उसके साथ हो लूँ जो मेरे बंधन काट दे या अगर मुझ में ताकत है तो उसके साथ हो लूँ जिसके बंधन मैं काट सकूँ, यही प्रेम है। इसके अलावा किसी और वजह से तुम किसी की संगति कर रहे हो तो वो प्रेम नहीं है, वो कुछ और हो सकता है — कामवासना हो सकती है, तन्हाई हो सकती है, सामाजिक दबाव हो सकता है, किसी और तरह की कोई वजह या कोई आकर्षण हो सकता है पर प्रेम नहीं है वो।

प्रेम मात्र तब है कि जब या तो उसकी संगति करो जो तुम्हारे बंधन काटता हो या उसकी संगति करो जिसके बंधन तुम काट सकते हो, तब प्रेम है। बाकी सब संगतियाँ यूँ ही हैं। वो तुम्हारी परेशानी को और बढ़ाएँगी ही, घटाएँगी नहीं।

तो पूछ रहे हो कि इतना विरल क्यों है? रेयर (दुर्लभ) क्यों है प्रेम? क्योंकि हम बड़े अद्भुत लोग हैं। वास्तव में हमें चाहिए शांति, लेकिन साथ उसका कर लेते हैं जो अशांति और ले आता है जीवन में।

जो जीवन को उत्तेजना से, और शोर से भर दे उसका हम साथ कर लेते हैं। ये मूलभूत शिक्षा हमें कभी दी ही नहीं गई कि हम हैं कौन। अगर ये पता होता, तो फिर हम अपनी हस्ती के अनुसार जीवन के सारे निर्णय करते।

अपने रोज़मर्रा के जीवन में, अपने छोटे-बड़े निर्णय करते हुए, हमें ये बिलकुल याद ही नहीं रहता कि हम एक बेचैन चेतना हैं जिसको अपने सारे कर्मों और निर्णयों के माध्यम से चैन चाहिए। हम ये भूल ही जाते हैं कि हमें जो कुछ भी करना है वो शांति के लिए करना है क्योंकि अशांति हमारी पहचान है।

अगर मैं जल रहा हूँ, तो मैं पानी तलाशू या पिज़्ज़ा? पर मैंने कहा हम अद्भुत लोग हैं। हम जल रहे होते हैं और पानी को अनदेखा करके पिज़्ज़ा की ओर बढ़ जाते हैं। हम भूल ही जाते हैं कि हमें जो कुछ भी पाना है, जिधर को भी जाना है — शांति के लिए। हर निर्णय के केंद्र में शांति और मुक्ति होने चाहिए।

पर निर्णयों के केंद्र में शांति और मुक्ति तब होंगे जब हमें लगातार ये याद रहे कि हम कौन हैं। हम अशांत हैं! हम परेशान हैं! हम बंधन में हैं! अगर हम इस बात को याद ही नहीं रखेंगे तो फिर अपनी जलती हालत में भी हम पानी की उपेक्षा करके पिज़्ज़ा तलाशते रहेंगे।

आप सब यहाँ शरीर नहीं बैठे हो। आप सब यहाँ पर अतृप्त चेतनाएँ बैठे हो। हंगरी इनकंप्लीट लॉनगिंग कॉन्शियसनेसेज़ (भूखी अधूरी अभिलाषित चेतना), वही इंसान की पहचान है। अपना नाम, अपनी पहचान हमेशा याद रखा करो।

हरिशरण या राघव नाम नहीं है तुम्हारा। क्या नाम है?

अतृप्त चेतना।

जब ये याद रखोगे तो सब निर्णय अपने आप ठीक करोगे। जब ये याद रखोगे तो प्रति पल सही कर्म करोगे। भूलो नहीं कि ये आँखें क्यों बाहर को देखती रहती हैं, क्योंकि इन्हें शांति चाहिए। भूलो नहीं कि साँस क्यों आ जा रही है, क्योंकि वो किसी का इंतजार कर रही है। भूलो नहीं कि मन क्यों लगातार चल रहा है, क्योंकि उसे कहीं पहुँचना है।

हम रास्ते में हैं, हम अधूरे हैं, हम प्यासे हैं, हम भूखे हैं, हमें किसी की प्रतीक्षा है: ये हमारी स्थिति है। यही हमारा नाम और हमारी पहचान है। इसी के अनुसार जिया करो!

प्र: आचार्य जी, हम दुःखी हैं लेकिन हम अपने दुःखों को दुःख नहीं मानते हैं। हम जान नहीं पाते हैं। हमें छोटी-छोटी चीज़ों से आशा रहती है कि क्या पता इनसे हमें कुछ मिल जाए। तो ये झूठी आशा क्यों बनती है? जब इतनी आग लगी है तो हमें खुद ही क्यों नहीं पता चल जाता जिनसे हमें आशा है, उदाहरण के लिए कि मुझे ऐसा लगता है कि मुझे ये मिल जाए तो मुझे शांति मिल जाएगी लेकिन ऐसा नहीं होता है। तो क्या मैं जल्दी-जल्दी सब की परीक्षा करके देखूँ? ताकि मेरे को निराशा मिल जाए, मैं फिर आगे बढ़ सकूँ।

आचार्य: ये जो शरीर है तुम्हारा और जो मस्तिष्क है तुम्हारा ये तुम्हें दुनिया से मिला है। ये बाहर से आया है। ठीक? तो इसलिए तुम्हारे जो मत होते हैं, राय होती है, ओपिनियन्स होते हैं वो भी आसानी से बाहर से आ जाते हैं। तुम निर्मित ही कुछ इस तरीके से हो कि तुम बाहर से जल्दी-जल्दी बहुत चीज़ें सोखते हो। साँस को देखो वो लगातार क्या कर रही है? वो बाहर से ऑक्सीजन सोख रही है न? आँखें लगातार क्या कर रही हैं? वो बाहर से दृश्य सोख रही हैं न? कान लगातार क्या कर रहे हैं? संसार से ध्वनियाँ सोख रहे हैं न?

इसी तरीके से ये जो मस्तिष्क है और जो मन है ये भी बाहर से ही विचार और गतियाँ और तौर-तरीके सोखते रहते हैं। तो जब ये देखते हैं कि बाहर बहुत लोग हैं जो दुःख को दुःख नहीं मानते। तो तुम्हें भी लगता है कि क्या पता दुःख, दुःख हो ही न कुछ और हो। ये संगति का असर है। हम संगति के जीव हैं। तुम पचास ऐसे लोगों की संगति कर लो जो दुःख में हो पर दुःख को उन्होंने बड़े सुंदर नाम दे दिए हो और दुःख का ही मज़ा मनाते हों तो तुम भी वैसे ही हो जाओगे।

जिस माहौल में रह रहे हो, जिन लोगों के साथ रह रहे हो, अगर वो ऐसे ही हैं कि दुःख पाते हुए भी लजाते नहीं कि दुःख पाते हैं और अपने-आपसे खूब झूठ बोलते हैं कि हम तो आनंदित हैं तो तुम भी यही सीख जाओगे क्योंकि हमारी आदत ही है सबकुछ बाहर से ही ग्रहण करने की।

हवा, पानी, भोजन, दृश्य, सारी जीवन शिक्षा, हमने कहाँ से ग्रहण करी? (बाहर से) तो ये सीख भी तुमने बाहर से ही ले ली कि दुःखी जियो दुःखी मरो, यही जीवन का क़ायदा है। पर सीख तुम कितनी भी बाहर से ले लो भीतर कोई बैठा है जो दुःख से सहमत नहीं होता। तुम अपने आपको कितना भी सिखा-पढ़ा लो कि दुःख ठीक है, कितनी भी तुम सम्मति दे लो दुःख को; भीतर तुम्हारे एक बिंदु है जो दुःख से कभी सहमत नहीं होगा। उस बिंदु का नाम है — मैं। वो आनंद स्वरूप है। सच्चिदानंद उसका स्वभाव है। वो दुःख को कभी मान्यता दे ही नहीं सकता। तो अब तुम्हारी हालत अजीब हो जाती है — बाहर से तुम दुःख सोखे जाते हो, सोखे जाते हो, सोखे जाते हो और भीतर-भीतर तुम दुःख से राजी नहीं हो पाते हो।

नतीजा?

एक आंतरिक दरार, द्वंद।

तुम अपने आपको बताना चाहते हो कि मैं मस्त हूँ और ज़ोर-ज़ोर से बताते भी हो, आईने के सामने चिल्लाते हो, और दुनिया के सामने यही प्रदर्शित करते हो कि मैं तो आनंदित हूँ। सबको कहते हो कि आई एम हैप्पी (मैं ख़ुश हूँ) लेकिन फिर भी भीतर कुछ होता है जो रो ही रहा होता है। यही है न सबकी अवस्था? और तुम्हें चिढ़ भी होती है। तुम कहते हो, "सब कुछ तो ठीक है फिर भी मैं भीतर से परेशान क्यों हूँ?" तुम कहते हो, "सब कुछ तो पा लिया फिर भी विह्वल क्यों हूँ?" वो इसलिए क्योंकि जो पा लिया, सुनी-सीखी-पढ़ी चीज़ है। उसका तुम्हारे आंतरिक सत्य से कोई सामंजस्य नहीं है।

और जैसे कुसंगति तुम को व्यर्थ धारणाओं में, दुःख-समर्थक धारणाओं में ढकेल देती है वैसे ही सुसंगति तुमको दुःख से बाहर ले आ देगी। तुमने ऐसों की बहुत संगति कर ली जो दुःखवादी ही हैं, ऐसों की संगति भी करो जो दुःख का निषेध जानते हैं, जो दुःख के ग्राहक नहीं हैं।

प्र: आचार्य जी, बेशर्त प्रेम होता भी है?

आचार्य: हमारे लिए नहीं है। तुम तो इसी कंडीशन (शर्त) पर आधारित रखो अपने प्रेम को, यही शर्त रखो — इसकी संगत में मुझे रौशनी और शांति और मुक्ति मिल रही है या नहीं मिल रही है? मेरे सामने बैठे हो। क्या बेशर्त, अनकंडीशनली बैठे हो?

एक शर्त है न? क्या है शर्त? शांति पानी है, सच्चाई पानी है इसलिए बैठे हो, यही शर्त रखो। और वो शर्त पूरी न हो रही हो तो उठ कर चले जाओ।

प्र: इसकी जो विपरीत स्थिति थी कि या फिर आप दूसरे की अशांति को दूर कर सकते हैं तो उस स्थिति में तो बेशर्त प्रेम की संभावना हो ही सकती है?

आचार्य: कर पा रहे हो क्या?

प्र: अभी उतनी सामर्थ्य है नहीं।

आचार्य: तो लग गई न कंडीशन ! ये कंडीशन है कि — तुम उसका दर्द दूर भी कर पा रहे हो? अगर स्वयं मुक्त नहीं हो तो क्या संभावना है इस बात की कि दूसरे को मुक्ति दोगे?

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