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कन्यादान विवाद: हिंदुओं की कुप्रथा, या लिबरल्स का दोगलापन! || आचार्य प्रशांत (2021)
Author Acharya Prashant
Acharya Prashant
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प्रश्नकर्ता: सर, अभी 'मान्यवर' – जो कपड़े बनाने वाली कंपनी है – उनका एक विज्ञापन आया है जिसमें आलिया भट्ट नाम की अभिनेत्री हैं, और विज्ञापन में वो कह रही हैं कि, ‘मैं कोई चीज़ थोड़े ही हूँ, मैं कोई प्रॉपर्टी थोड़े ही हूँ कि मेरा दान किया जाएगा?’

तो अपने पिता से कह रहीं हैं कि ‘मेरा कन्यादान मत करिए।‘ तो इस बात पर काफ़ी विवाद हो गया है और कुछ लोग इस बात को बहुत प्रगतिशील मान रहे हैं, कुछ लोग इस बात का विरोध कर रहे हैं। सर, इस पर कुछ कहिए।

आचार्य प्रशांत: एक कहानी है पुरानी, कि एक बार सूप और छलनी चले आ रहे थे साथ में – सूप जानते हो? अगर थोड़ा पुराने समय से अभी सम्बन्ध रखते हो या गाँव कभी गए हो तो सूप देखा होगा। (सूप चलाने का इशारा करते हुए) वो इस्तेमाल होता है चावल में से, गेहूँ में से कंकड़-वंकड़ निकालने के लिए – तो महिलाएँ सूप का इस्तेमाल कर रहीं होती हैं; अब पता नहीं होता है कि नहीं। और छलनी जानते हो? – उसमें बहुत सारे छेद होते हैं, और उसमें भी दाल वगैरह रखकर उसको हिलाया जाता है, तो उसमें जो छोटे कण होते हैं वो सारे नीचे गिर जाते हैं और जो बड़े-बड़े कण होते हैं – जिस भी चीज़ के हैं – वो ऊपर रह जाते हैं।

तो सूप और छलनी जा रहे थे। तो उनको रास्ते में एक आदमी दिख गया, उस आदमी की धोती में छेद था। तो छलनी उसको देख करके ज़ोर-ज़ोर से हँसने लग गई कि ‘देखो, इसके तो छेद है, इसके तो छेद है।‘ तो पूरब की तरफ़ की कहावत है, आदमी बोलता है कि 'सुपवा बोले तो बोले, छलनिया का बोले जा में छेद-ही-छेद।'

'सुपवा बोले तो बोले, छलनिया का बोले जा में छेद-ही-छेद।'

माने सूप बोले तो बोले कि हमारी धोती में छेद है, क्योंकि सूप में कोई छेद नहीं है तो उसे बोलने का अधिकार है। पर छलनिया, तू क्या बोल रही है? तेरे तो इतने सारे छेद हैं, तू मेरे एक छेद पर क्या हँस रही है?

इशारा समझ रहे होगे। तीन पक्ष हैं यहाँ पर जो कह रहे हैं कि ‘साहब, कन्यादान की रस्म बहुत बुरी है, बहुत पिछड़ी हुई है, उसको हटाना चाहिए।‘ एक तो ये जो कपड़ा बनाने वाली कंपनी है, ये कह रही है, विज्ञापनदाता कंपनी, दूसरी वो जो अभिनेत्री हैं वो कह रहीं हैं, और तीसरा इनका जो समर्थन कर रहा है वो लिबरल (उदार) मीडिया कर रहा है। ये तीन हैं जो कह रहे हैं कि हटाओ-हटाओ।

‘सुपवा बोले तो बोले, छलनिया क्या बोले जा में छेद-ही-छेद?’ आप कह रहे हैं कि महिलाओं का, स्त्री-देह का ऑब्जेक्टिफिकेशन (वस्तुकरण) हो रहा है कन्यादान के द्वारा। जो उनको कुल आपत्ति है वो ये है कि कन्यादान की रस्म में स्त्री को एक चीज़, एक वस्तु, एक थिंग (चीज़), एक मटिरीयल (सामग्री), एक प्रॉपर्टी (संपत्ति) की तरह माना जाता है और ये बात ग़लत है। हम भी मानते हैं ये बात ग़लत है। बिलकुल मानते हैं ये बात ग़लत है कि स्त्री को देह नहीं माना जाना चाहिए। स्त्री क्या, पुरुष को भी देह नहीं माना जाना चाहिए। किसी को भी देह की तरह मानकर उससे व्यवहार करना एक तरह से उसका अपमान है। देह हम हैं, पर देह से पहले हम एक चेतना हैं। और किसी भी व्यक्ति का – चाहे स्त्री हो चाहे पुरुष – सम्मान तभी है जब उसे उसकी चेतना की तरह संबोधित किया जाए।

ठीक है न?

अब सवाल ये उठता है फिर कि स्त्री का या फीमेल बॉडी (महिला शरीर) का सबसे ज़्यादा ऑब्जेक्टिफिकेशन कौन कर रहा है? क्या धार्मिक रस्मों-रिवाज़ कर रहे हैं? कर रहे होंगे कुछ हद तक। उस पर भी बाद में आ जाएँगे, पर सबसे ज़्यादा कौन कर रहा है? – सबसे ज़्यादा तो ये कपड़े बनाने वाली कंपनियाँ ही कर रहीं हैं। सबसे ज़्यादा तो ये फ़िल्मी अभिनेत्रियाँ और अभिनेता ही कर रहे हैं। पूरी फ़िल्म इंडस्ट्री ये कर रही है, और सबसे ज़्यादा तो ये लिबरल मीडिया ही कर रहा है।

ये किस मुँह से कह रहे हैं कि कन्यादान की प्रथा ख़राब है क्योंकि इसमें स्त्री को वस्तु की तरह माना गया है? तुमने क्या किया है? जब तुम बोलते हो कि – मैं लिबरल मीडिया की बात कर रहा हूँ – कि फ़लानी इज़ सो हॉट (बहुत उत्तेजक है), ये तुम उसकी चेतना को हॉट बोल रहे हो क्या?

आप एनडीटीवी पर चले जाइए, आप रेडिफ़ पर चले जाइए – मैं इनकी वेबसाइट्स की बात कर रहा हूँ – स्क्रॉल करेंगे तो चार खबरें होंगी और चार खबरों के बाद कुछ नहीं होगा। आप अभी, अगर आप ये वीडियो देख रहे हों तो ठीक अभी आप इस तरह की जितनी भी वेबसाइट्स हैं, आप खोलकर देख लीजिए, चार खबरें होंगी और चार खबरों के नीचे कुछ नहीं होगा, सिर्फ़ नंगी स्त्री देह की नुमाइश होगी।

स्त्री-देह का ऑब्जेक्टिफिकेशन लिबरल मीडिया से ज़्यादा कौन कर रहा है? और इस लिबरल मीडिया की ये हिमाक़त कि ये कह रहे हैं कि कन्यादान ख़राब है क्योंकि उसमें स्त्री को ऑब्जेक्टिफ़ाई किया जाता है! तुमने कोई कसर छोड़ी है महिलाओं को वस्तु में बदलने में? छोटी-छोटी बच्चियों के मन में तुमने ये भावना बैठा दी है कि वो सर्वप्रथम देह मात्र हैं। उनकी मासूमियत छीन ली तुमने। उनको इंसान ही नहीं रहने दिया, उनको जिस्म बना डाला, यही प्रोपगैंडा (प्रचार) कर-करके कि जिस्म दिखाना तो बड़ी लिबरल बात है। तो ये तो बात हुई लिबरल मीडिया की जिसमें खबरों से ज़्यादा स्त्री की नंगी देह का इस्तेमाल होता है पाठकों को अपनी ओर खींचने के लिए, अपनी दुकान और धंधा चमकाने के लिए।

अब आते हैं उन अभिनेताओं पर और अभिनेत्रियों पर जो बहुत ख़िलाफ़त करते हैं धर्म की, खासतौर पर हिंदुओं के धार्मिक रीति-रिवाज़ों की – आप ईमानदारी से दिल पर हाथ रखकर बताइएगा, आप अपने ये जो फ़ोटोशूट कराती हैं, क्या वाकई आप उसमें अपनी चेतना का प्रदर्शन कर रहीं हैं? और उस फ़ोटोशूट को अपने इंस्टाग्राम पर आप ख़ुद ही कैप्शन (शीर्षक) देती हैं ' डू यू लाइक माइ हॉट बिकीनी बॉड? (क्या आपको मेरा उत्तेजक बिकनी-शरीर पसंद है)'? ये हॉट बिकिनी बॉड चेतना है आपकी, कॉन्शियस्नेस है?

आप ख़ुद अपने-आपको ऑब्जेक्टिफ़ाई करती हैं, और उसके बाद आप कह रहीं हैं कि रिलीजियस कस्टम्स (धार्मिक रीतिरिवाज़ों) ने आपको ऑब्जेक्टिफ़ाई कर दिया। आपने किस मुँह से आक्षेप कर दिया भई? अभी आपके नाम से गूगल सर्च करें तो कुछ नहीं आएगा सिवाय आपकी अधनंगी तस्वीरों के। वो अधनंगी तस्वीरें किसलिए हैं? इसीलिए हैं ताकि आप बाज़ार में अपनी नुमाइश कर सकें एक चीज़ बनकर, और पुरुष कामोत्तेजना में बहक कर आपकी ओर आकर्षित हो जाएँ और इससे आपका काम-धंधा, रोटी-पानी चलता रहे। आप और आपके जैसी अन्य अभिनेत्रियाँ, फिर पूछ रहा हूँ, किस अधिकार से, किस मॉरल राइट (नैतिक अधिकार) से, नैतिकता के कौन से मानदंड से परंपराओं पर सवाल उठाते हो?

स्त्रियों का जितना बुरा हाल आप लोगों ने किया है उससे ज़्यादा बुरा कोई क्या कर सकता था! धर्म ने स्त्रियों पर किए होंगे बहुत शोषण – जब मैं धर्म कह रहा हूँ तो मेरा आशय है धर्म के नाम पर जो कुरीतियाँ थीं उन्होंने, सच्चा धर्म किसी का शोषण नहीं करता – तो धार्मिक विकारों ने बहुतों का शोषण किया होगा, लेकिन आपने तो सबको बहुत पीछे छोड़ रखा है। आपने तो स्त्री को ख़ुद उसका अपना शोषक बना डाला। पहले हो सकता है ऐसा होता हो कि पुरुष स्त्री का शोषण करता है, पर आपने तो ऐसा कर डाला है कि स्त्री के ही मन को इतना दूषित कर दिया है कि वो ख़ुद अपनी शोषक बन गई है।

पहले ऐसा होता रहा होगा कि पुरुष स्त्री का शोषण करने के लिए उसकी देह से वस्त्र उतार लेता रहा होगा। ऐसा शहर के कुछ छोटे-छोटे हिस्सों में होता होगा, रात के अँधेरों में होता होगा, सभ्यता के कोने-कतारों में होता होगा। पर पहले किसी की ये हिम्मत नहीं होती थी कि स्त्री की देह की नुमाइश या स्त्री की देह का शोषण बीच बाज़ार में करे, चौराहे पर करे, सड़कों पर करे, मोहल्लों में करे, दुकानों में करे। आपने तो वो स्थिति पैदा कर दी है कि आज सड़कों पर निकल जाओ तो स्त्री ख़ुद को ही मटिरीयल बनाकर, पदार्थ बनाकर, भोग की वस्तु बनाकर अपनी ही नुमाइश कर रही है।

आपने जितना स्त्रियों का शोषण कर दिया, और कौन करेगा? मैं लिबरल मीडिया से बात कर रहा हूँ, मैं बॉलीवुड से बात कर रहा हूँ, मैं उन कंपनियों से बात कर रहा हूँ जो अपना माल बेचने के लिए सबसे अच्छा तरीका यही समझते हैं कि किसी भी तरीके से धर्म पर प्रहार कर दो। तुम धर्म समझते भी हो? तुम कौन होते हो धर्म पर प्रहार करने वाले? धर्म की बात उनको करने दो न जिन्होंने धर्म को समझा है, धर्म को प्रेम किया है। तुम्हें जब धर्म से कोई लेना-देना नहीं, तो तुम क्यों आवाज़ उठा रहे हो? और ये तो साधारण-सी बुद्धि की बात है न कि जिस चीज़ के खिलाफ़ बोलना हो पहले उस चीज़ को थोड़ा समझने की तो कोशिश करो। तुमने समझना भी चाहा है कि धर्म क्या होता है? तुमने सिर्फ़ धर्म की धज्जियाँ उड़ाईं हैं, तुमने आदमी को जानवर बना डाला। क्योंकि जिस इंसान के पास धर्म नहीं है, उसमें और जानवर में अंतर क्या? जानवरों के पास कोई धर्म नहीं होता। इंसान को इंसान तो धर्म ही बनाता है – मैं धार्मिक परंपराओं की बात नहीं कर रहा हूँ; अगर तुम धर्म का वास्तविक अर्थ समझते हो तो मैं असली धर्म की बात कर रहा हूँ।

और अब सुनो एक बात, कन्यादान के पक्ष में मैं भी नहीं हूँ। वेदों का ज्ञाता होने के नाते बोल रहा हूँ, वेद कन्यादान की बात नहीं करते। वेदान्त का शिक्षक होने के नाते बोल रहा हूँ, कौनसा दान, कैसा दान? दो लोगों का अगर मिलन होता है तो एक-दूसरे को सही रास्ता दिखा करके सही रास्ते के द्वारा मुक्ति पर ले जाने के लिए होता है। उसमें दान-दक्षिणा कहाँ से आ गया? पर मैं अगर कन्यादान की आलोचना करूँ तो ठीक है, तुम मत करो। ‘छलनिया का बोले जा में छेद-ही-छेद?’ पॉट कॉलिंग द केटल ब्लैक (उलटा चोर कोतवाल को डाँटे)?

अगली बार, देवीजी, जब आप जाइएगा अपने इंस्टाग्राम पर या अपनी जो आप मैगज़ीन्स (पत्रिकाओं) के कवर के लिए फ़ोटोशूट कराती हैं, वहाँ अपनी हालत को देखिएगा, अपनी नग्नता को देखिए और अपनेआप से पूछिएगा, ‘मैंने अपनेआप को यहाँ ऑब्जेक्टिफ़ाई नहीं कर रखा है तो क्या कर रखा है?’ और आप ख़ुद अपनेआप को नहीं ऑब्जेक्टिफ़ाई कर रहीं, आप रोल मॉडल (प्रेरणास्रोत) बनकर इस देश की करोड़ों लड़कियों को तबाह कर रहीं हैं।

सीधी-सादी मासूम लड़कियाँ होती हैं जो किसी भले काम में अपना मन लगाना चाहती हैं, जिनके जीवन में कोई ऊँचा लक्ष्य होता है, जो पढ़ना चाहती हैं, लिखना चाहती हैं, डॉक्टर बनना चाहती हैं, फ़ौज में जाना चाहती हैं, किसी कला में आगे बढ़ना चाहती हैं। उनके सबके मन में आपने वाइरस लगा दिया है अश्लीलता का, कामुकता का, नंगेपन का, भद्देपन का। और उस वायरस का प्रदर्शन आज देश की गली-गली में हो रहा है, चौराहों पर हो रहा है, हर घर के अंदर हो रहा है। लड़कियाँ हों, लड़के हों, सबको आपने इतना तबाह कर दिया कि कोई इन्तेहाँ नहीं। और उस पर तुर्रा ये, ज़ुर्रत ये कि आप बता रहीं हैं कि ‘वो तो धर्म ने फ़ीमेल बॉडी को ऑब्जेक्टिफ़ाई किया है।‘

देखिएगा अपनी फ़िल्मों के दृश्यों को। जब ऊपर-नीचे आप रुमाल बाँधकर नाच रही होती हैं, और आपके जो नारी अंग हैं उन पर कैमरा ज़ूम-इन करता है और फिर स्लो मोशन में उनको हिलते-डुलते उछलते दिखाया जाता है – ये आपकी कॉन्शियसनेस , आपकी चेतना को उछलते हुए दिखाया जा रहा है? आप नहीं अपने जिस्म को आब्जेक्टिफ़ाई कर रहीं, वो भी पैसे की खातिर? जो पैसे की खातिर जिस्म बेचे, जानती हैं न उसके लिए क्या शब्द होता है?

थोड़ा सुधरिए, थोड़ा अध्यात्म की ओर आइए। अभिनय बहुत ऊँची कला भी हो सकती है, पर मुझे बहुत दुख के साथ कहना पड़ रहा है कि अधिकांश अभिनेता-अभिनेत्रियाँ जो करते हैं, वो अभिनय १% भी नहीं है। वो शरीर का प्रदर्शन मात्र है, बहुत भद्दा। अभिनय करके दिखाइए न। हम भी तरस रहे हैं कि अच्छे अभिनेता हों, अच्छी अभिनेत्रियाँ हों, अच्छी फ़िल्में बनें तो सही। आप तो फ़िल्मों के नाम पर एरोटिका बना रहे हैं। कोई अंतर ही आपने अब नहीं छोड़ा है पॉर्नोग्राफी (कामोद्दीपक चित्र) में और फ़िल्मों में। पॉर्न (कामोद्दीपक चित्र) की एक्ट्रेस (अभिनेत्री) फ़िल्मों में काम कर रही है, फ़िल्मों की एक्ट्रेस पॉर्न में काम कर रही है। एकदम टू वे ट्रैफ़िक (दोतरफ़ा यातायात) हो चुका है।

अगर धर्म से उन सब तत्वों को हटाना है जो मलिन हैं, जिन्हें हम कुप्रथा कह सकते हैं, जिन्हें हम रूढ़ियाँ कह सकते हैं, तो वो काम उनको करने दीजिए जो धर्म से प्यार करते हैं, जैसा मैंने कहा, धर्म के ज्ञाता हैं। और आपको बोलने का हक़ भी इसीलिए मिल रहा है क्योंकि आज के समय में धर्म के ज्ञाता बहुत कम हैं। चूँकि कोई धर्म की सच्ची व्याख्या करने वाला उपलब्ध नहीं है इसीलिए हर राह चलते को हक़ मिल जाता है धर्म पर टीका-टिप्पणी करने का। तो ये जो हुआ है, इसका इलज़ाम थोड़ा हम अपने ऊपर भी लेते हैं। लेकिन अगर हमारा दोष है तो उस दोष की भरपाई भी हम करेंगे, धर्म में अगर कुरीतियाँ हैं तो उनको हटाने की भरसक कोशिश करेंगे, सच्ची आध्यात्मिकता क्या होती है उसको लाने का पूरा प्रयास करते रहे हैं और ज़ोर से करेंगे, हम करेंगे। और आपसे आग्रह है कि छींटाकशी करने से पहले थोड़ा समझिए, थोड़ा सोचिए। व्यर्थ मुँह चलाना, यूँ ही विज्ञापनबाज़ी करना अच्छा नहीं होता।

प्र: आचार्य जी, ये जो विज्ञापन जिसकी आज आप बात कर रहे थे, इसके अलावा इससे पहले भी बहुत से विज्ञापन रहे हैं जहाँ पर इसी तरह से किसी-न-किसी धार्मिक बात पर या प्रतीक पर टिप्पणी करके उस बात को काइंड ऑफ (एक तरह से) सेनसेशनलाइज़ (सनसनीखेज) करने की कोशिश की गई है। अब होता ये है अक्सर कि ये एक ट्विटर पर संसेशन (सनसनी) बन जाता है, इसके ऊपर बातचीत होती है, कोई सपोर्ट (समर्थन) में, कोई अगेन्स्ट (खिलाफ़) में बात करता है और उसके बाद में फिर ये बात ख़त्म हो जाती है। पर ये कब तक चलता रहेगा? कब इस पर रोक लगेगी कोई?

आचार्य: देखो, पूरब के तरफ़ कि एक कहावत से मैंने बात शुरू करी थी, एक कहावत और सुना देता हूँ – 'निर्बल बछरूआ और सत्तर रोग।'

बछड़ा अगर कमज़ोर हो तो सत्तर रोग लग जाते हैं उसे। सनातन धर्म की भी यही हालत है, बहुत कमज़ोर है। तो जैसे बछड़े को सत्तर रोग लगते हैं, इस पर, सनातन धर्म पर सत्तर लोग छींटाकशी करते रहते हैं। चाहे वो तुम्हारे देवी-देवताओं की प्रतिमाओं का अपमान हो, चाहे और न जाने कितने तरीक़ों से रोज़ की जाने वाली निंदा हो, उपहास हो, वो सब का कारण यही है कि धर्म की धारा बहुत सूख सी गई है, बड़ी दुर्बल हो गई है।

याद है न उपनिषद् हमारे क्या सिखाते हैं? – ‘नायमात्मा बलहीनेन लभ्यो’ न?

सनातन धर्म दुर्भाग्यवश बड़ा दुर्बल हो गया है, बलहीन हो गया है। और बलहीन को कहाँ से कोई ऊँची चीज़ प्राप्त हो जाएगी? बलहीन के मत्थे तो सिर्फ़ यही सब आता है – डाँट-फटकार, उपहास, भर्त्सना। तो पूरा जगत आज आपकी खिल्ली उड़ाता है और पूरा जगत उड़ाए तो उड़ाए, सबसे ज़्यादा तो हिंदुओं की खिल्ली ख़ुद हिंदु उड़ाते हैं।

जब तक धर्म में जो कुरीतियाँ हैं वो हटाई नहीं जाएँगी, जब तक सनातन धर्म के मर्म को लोगों तक नहीं लाया जाएगा – और मर्म से मेरा आशय है 'वेदान्त' – जब तक लोगों को नहीं बताया जाएगा कि तुम जिस धर्म के हो, उसकी आत्मा वेदान्त है, और वेदान्त को जब तक लोग पढ़ेंगे नहीं, उसमें दीक्षित नहीं होंगे, तब तक ऐसा ही चलता रहेगा। हिंदू दुनिया भर में, और विशेषकर हिन्दुओं के ही द्वारा उपहास का पात्र बना रहेगा। जैसा मैंने कहा, हर आता-जाता टीका-टिप्पणी करता रहेगा। 'निर्बल बछरूआ, सत्तर रोग'।

इसी को ले करके एक और कहावत है कि 'गरीब की जोरू सबकी मेहरारू', सबकी भाभी; कि गरीब की पत्नी को जो देखो वही आकर के छेड़ता रहता है, भाभी-भाभी बोलेगा, आया है छेड़ने के लिए। यहाँ भी इशारा दुर्बलता की ओर ही है। शक्ति ही जीवन है, दुर्बलता मृत्यु है। दुर्बल कोई भी हो जाए, बहुत दिन तक नहीं चलेगा। व्यक्ति बहुत दुर्बल हो जाए, मरेगा; और धर्म भी अगर दुर्बल हो जाए तो मरेगा। व्यक्ति की शक्ति है प्राण, व्यक्ति का बल है प्राण और धर्म का प्राण है वेदान्त।

वेदान्त से हम दूर-ही-दूर होते जा रहे हैं। धर्म का मतलब हमने यही सब बना लिया है – कुछ तरीके के संस्कार, कुछ ये प्रथा, कुछ ये-वो, ऐसा-वैसा, रूढ़ियाँ, अंधविश्वास। आप जितने अंधविश्वासी होते जाएँगे, उतना आप लोगों को मौका देते जाएँगे अपनी खिल्ली उड़ाने का। मज़ाक बन गए हैं आप क्योंकि आपके लिए धर्म का मतलब ही अंधविश्वास है। आपने ख़ुद ऐसा कर रखा है न? आपसे मैं पूछूँ, अगर आप एक आम हिंदू हैं, मैं आपसे पूछूँ, ‘आपका धर्म क्या है?’ तो आप मान्यताओं, धारणाओं और अंधविश्वास के अलावा कुछ गिना ही नहीं पाएँगे। तो फिर वही हो रहा है जो दिखता है सामने, लोग हँसते हैं हम पर। धर्म का असली अर्थ समझा जाए, उपनिषदों की ओर जाया जाए, गीता का मनन किया जाए, सिर्फ़ तभी हिंदू धर्म में बल की वापसी होगी। नहीं तो जो हो रहा है आप देख रहे हैं।

प्र२: आचार्य जी, औरतें जो जिस्म की नुमाइश करती दिख रही हैं, तो क्या इसमें मर्दों की उग्र कामुकता की ग़लती भी नहीं है? क्या मर्दों ने ही अपनी आउट ऑफ़ कंट्रोल (अनियंत्रित) कामुकता के कारण आसान नहीं बना दिया है कि एक औरत आसानी से अपने जिस्म की नुमाइश करे और पैसे इत्यादि जल्दी से कमा ले?

आचार्य: पूछने वाले स्त्री हैं कि पुरुष?

स्वयंसेवक: शायद पुरुष हैं।

आचार्य: मैं मानता हूँ अगर वो पुरुष हैं, ठीक है। शायद पुरुष हैं, तुमने कहा। अगर वो दस ऐसी स्त्रियों से भरे कमरे में पहुँच जाएँगे जहाँ स्त्रियाँ बहुत कामुक हैं, तो वहाँ उन स्त्रियों की कामुकता के कारण ये नंगे हो जाएँगे? ये इन्होंने क्या सवाल पूछा?

ये कह रहे हैं कि स्त्रियाँ अगर जिस्म दिखाती फिरती हैं तो इसका दोष पुरुषों का है, क्योंकि पुरुष इतने कामुक हैं कि स्त्रियों को मजबूर हो करके सड़कों पर अपना जिस्म दिखाना ही पड़ता है। तो मैं यही सवाल पलटकर इनसे पूछ रहा हूँ – साहब, आप किसी ऐसे कमरे में पहुँच जाएँ जहाँ पर दस बिलकुल सेक्शुअली हाइपर-ऐक्टिव (यौन अतिसक्रिय) स्त्रियाँ बैठी हों, जिन्हें सेक्शुअल प्रिडेटर (यौन शिकारी) कहते हैं, मादा-भेड़िया, तो चूँकि वो यहाँ बैठी हुई हैं इसीलिए आप अपने सब कपड़े उतार देंगे और कच्छे में नाचना शुरू कर देंगे? ऐसा आप करेंगे क्या? तो ये कौनसा तर्क है, ये कैसा जस्टिफ़िकेशन (औचित्य) है कि पुरुष कामुक है इसलिए स्त्रियाँ नंगी हो रही हैं?

अरे! स्त्री के पास अपनी चेतना है न, अपना दिमाग है, अपनी समझदारी है, अपना विवेक है। पुरुष होगा जैसा होगा, वो क्यों अपनी चेतना का स्तर गिराती है? वो क्यों स्वयं अपना अपमान करती है?

प्र: इस पूरी बातचीत में यदि हम मार्केट और ये बाज़ार का जो पूरा खेल है इसको अगर बाहर रख देंगे तो शायद वो ग़लत होगा। मतलब इस बारे में मैं भी कुछ पूछना चाहूँगा कि ये जो कैम्पेन्स डिज़ाइन (अभियानों की रचना) की जाती हैं, डिज़ाइन तो कुछ इस तरह से की जाती है एज़ इफ दे आर प्रमोटिंग विमिन एम्पावरमेंट (मानो वे महिला सशक्तिकरण को बढ़ावा दे रहे हों), पर क्योंकि यहाँ पर जो ब्रैन्ड है वो शादियों के लिए स्पेसिफ़िक कपड़े बनाती है, तो उसका विमिन एम्पावरमेंट भी सिर्फ़...

आचार्य: बिलकुल नहीं, एकदम सही कह रहे हो। लिबरलिज्म (उदारवाद) का विमेन एम्पावरमेंट से दूर-दूर तक कोई ताल्लुक नहीं है। यह बात मैं बिलकुल सोच समझकर कह रहा हूँ। आप देखिए तो कि आपने क्या कर दिया है, मैं विशेषकर हिंदुस्तान की बात कर रहा हूँ। आपने कौनसा एम्पावरमेंट कर दिया है स्त्रियों का, मुझे बताइएगा? स्त्री का एम्पावरमेंट इसमें है कि वो पहले कपड़े नहीं उतार पाती थी, अब कपड़े उतारकर घूम रही है?

और मैं देखिए, सहज आराम के लिए जो कपड़े उतारे जाएँ उनकी बात नहीं कर रहा हूँ। अभी गर्मियाँ हैं और उमस भी है। इस समय पर अगर कोई सहज ही अपने कम्फर्ट (आराम) के लिए कम कपड़ों में चल रहा है तो उससे मुझे क्या आपत्ति हो सकती है? मैं ख़ुद स्लीवलेस ऊपर कुछ पहन लेता हूँ, नीचे शॉर्ट्स पहन लेता हूँ, दिनभर ऐसे ही घूमता रहता हूँ। तो इसमें कुछ ग़लत तो नहीं हो गया। चाहे आदमी ऐसा हो चाहे औरत ऐसी हो, अपने कम्फर्ट के लिए आप कुछ भी पहनिए, किसी का अधिकार नहीं है कि वो उस पर आपत्ति करे।

लेकिन दूसरों का ध्यान खींचने के लिए, दूसरों के सामने अपनी देह को बेचने के लिए, अपनी देह को बेच करके कुछ मुनाफ़ा पाने के लिए अगर आप कम कपड़े पहन रहे हैं, तो आप चाहे आदमी हों, चाहे औरत हों, आप अपनेआप को ऑब्जेक्टिफ़ाई कर रहे हैं। आप अपनेआप को एक बहुत घटिया जगह पर गिरा रहे हैं, क्योंकि आदमी और जानवर में अंतर चेतना का ही होता है बस। अगर मनुष्य अपनेआप को चेतना न समझ करके शरीर ही सोचना शुरू कर दे तो वो बिलकुल जानवर हो गया है। यही मैं कह रहा हूँ कि आप अपनेआप को बहुत नीचे गिरा रहे हैं; आप अपनेआप को पशु के तल पर ला रहे हैं।

समझ रहे हो बात को?

तो देखिए, धर्म लिब्रलिज़म से बहुत आगे की बात हैं। धर्म में लिबरेशन (मुक्ति) है, लिबरेशन। और लिबरेशन लिब्रलिज़म का बहुत बड़ा वाला बाप होता है। लिबरेशन समझते हैं? मुक्ति। मुक्ति, किससे मुक्ति? अपनेआप को तुम जो कुछ भी झूठमूठ माने बैठे थे, उससे मुक्ति – ये धर्म का लक्ष्य है।

तो ये लिब्रलिज़म वगैरह तो बहुत एकदम बच्चों वाली बातें हैं लिबरेशन के सामने। लिबरेशन का मतलब होता है कि स्त्री, स्त्री नहीं। द वुमन हैज़ बीन लिबरेटेड फ्रॉम बीइंग अ वुमन, एण्ड द मैन हैज़ बीन लिबरेटेड फ्रॉम बीइंग ए मैन। ऐस लॉन्ग ऐस ए वुमन इज़ ए वुमन, शीज़ एन ऐनिमल। ऐस लॉन्ग ऐस ए मैन इज अ मैन, द मैन इज़ एन ऐनिमल। (स्त्री को स्त्री होने से मुक्त कर दिया गया है। और पुरुष को पुरुष होने से मुक्त कर दिया गया है। जब तक स्त्री एक स्त्री है, वह एक जानवर है। जब तक पुरुष पुरुष है, तब तक वह पशु है)। क्योंकि देह तो हमारी पशु की ही है। आप अगर देह से ही तादात्म्य बनाए हुए हैं तो आप पशु ही हैं।

लिबरेशन का मतलब है तुमने अपनेआप को मन में जो कुछ भी मान रखा है, तुम्हारी सारी पहचान, तुम्हारी सारी आईडेंटिटीज़ (पहचानें), उनसे लिबरेट हो जाओ, उनसे मुक्त हो जाओ, आज़ाद हो जाओ। और लिब्रलिज़म का मतलब होता है कि, भई, तुम अपनेआप को जो कुछ भी माने हुए हो, वो मानने की तुमको पूरी लिबर्टी है। ये कितनी विपरीत बातें हैं। लिब्रलिज़म कह रहा है तुम अपनेआप को जो भी कुछ मानते हो, वो मानने की तुमको पूरी लिबर्टी है। तुम अपनेआपको जो मानना है मानो, तुम्हें पूरी छूट है, पूरी आज़ादी है। अब उसी अनुसार तुम व्यवहार करो। और तुम अपनेआपको वही मानोगे जो मानने में तुम्हारे अहंकार को फ़ायदा दिखता है। जो सौदा तुम्हें सस्ता दिखता है, वही तुम अपनी पहचान बना लोगे।

लिब्रलिज़म कहता है तुम्हें जो करना है करो, पूरी छूट है। तुम अगर जानवर बनकर जीवन बिताना चाहते हो तो जानवर बनकर जीवन बिताओ, कोई तुम्हें रोकेगा नहीं – ये लिब्रलिज़म कहता है। लिब्रलिज़म कहता है कि तुम्हारा जो अहंकार है, वो जो कुछ करना चाहता है, उसे करने दो, कोई रोक-टोक नहीं होनी चाहिए।

लिबरेशन कहता है, अहंकार से मुक्ति। लिब्रलिज़म कहता है, द फ्रीडम ऑफ़ द ईगो (अहंकार को आज़ादी), और लिबरेशन , माने धर्म कहता है फ्रीडम फ्रॉम द ईगो (अहंकार से आज़ादी)। दोनों का अंतर समझो। लिब्रलिज़म कहता है, ‘ फ्रीडम ऑफ द ईगो’। ईगो को, अहंकार को पूरी आज़ादी दो, जो करना है वो करे। और धर्म कहता है, ‘ फ्रीडम फ्रॉम द ईगो’। बहुत-बहुत ऊपर की बात है वो।

तो ये जो चीज़ है जिसे तुम लिब्रलिज़म या उदारवाद के नाम से जानते हो, ये कुछ नहीं है बस इंसान को गिराने वाली चीज़ है। हाँ, झूठे धर्म से ये बेहतर है, झूठे धर्म से लिब्रलिज़म बेहतर है। पर सच्चे धर्म से लिब्रलिज़म बहुत-बहुत इन्फिरीअर है, एकदम हीन है। आज अगर इतने लोग, ख़ासतौर पर पढ़े-लिखे बुद्धिजीवी और आधुनिक लोग लिबरल होते जा रहे हैं तो उसकी वजह यह है कि धर्म का जो रूप प्रचलित है समाज में, वो बहुत अशुद्ध है और अशुद्ध धर्म से तो लिब्रलिज़म बेहतर है। इसीलिए इतने लोग लिबरल हो रहे हैं। वजह है अशुद्ध धर्म, वजह है वो लोग जिन्होंने इस अशुद्ध धर्म को ही बढ़ा रखा है।

आज के बड़े-बड़े गुरु, वो सब क्या कर रहे हैं? धर्म के नाम पर अंधविश्वास ही तो बढ़ाते हैं। नतीजा? जो भी आदमी थोड़ा समझदार है, जिसकी बुद्धि थोड़ी चलती है वो धर्म से बिलकुल दूर हो जाता है, वो लिबरल बन जाता है। उसे अपनेआप को एथीइस्ट (नास्तिक) बोलने में गौरव हो जाता है, क्योंकि वो देखता है कि धर्म के नाम पर सिर्फ़ बेवकूफियाँ चल रही हैं, आम जनता में भी और धर्मगुरुओं में भी।

तो धर्म को हम जब तक अशुद्ध बनाए रहेंगे, नतीजा यही होगा कि धर्म से टूट-टूटकर लोग लिबरल्स होते जाएँगे। लोगों को अगर सच्ची धार्मिकता में लाना है तो उसके लिए धर्म की शुद्धि आवश्यक है। धर्म शुद्ध नहीं हुआ तो ये तो मैं भी मानता हूँ कि अशुद्ध धर्म से तो लिब्रलिज़म ही बेहतर है। धर्म को शुद्ध करिए। लिबर्टी वगैरह बहुत छोटी बातें हैं, लिबरेशन जीवन का लक्ष्य है।

प्र: आचार्य जी, अभी आपने आख़िरी में जैसे कहा कि झूठे धर्म से बेहतर है लिब्रलिज़म , तो उसी विषय में पूछना चाहता था कि अगर मैं इसके विषय में सोचने की कोशिश करता हूँ तो ऐसा लगता है कि शायद गीता के पास जाना उसके लिए ज़्यादा आसान होगा जो सिर्फ़ रूढ़िवादिता की वजह से ही सही, पर कृष्ण को जानता है, या फिर उसके लिए जो अपनेआप को एथीइस्ट बोलने में एक गौरव महसूस करता है? इन दोनों में से...?

आचार्य: देखो, कुछ इसमें एक राय बनाना ज़रा मुश्किल होगा। ऐसा भी होता है कि जो लोग रूढ़िवादी होते हैं, उन्हें उनकी रूढ़ियाँ ज़्यादा प्रिय हो जाती हैं गीता की अपेक्षा। और ऐसा भी होता है कि जिन्होंने नकली धर्म को ठुकराया होता है, वो वास्तव में खोज कर रहे होते हैं असली धर्म की। असली धर्म उनको मिलता नहीं तो वो लिबरल वगैरह हो जाते हैं, अपनेआप को नास्तिक बोलने लगते हैं।

तो ऐसा कुछ नहीं कह सकते कि गीता की ओर ज़्यादा आसानी से कौन आएगा – कोई बुद्धिजीवी, उदारवादी या कोई रूढ़िवादी? मुश्किल है कहना।

प्र: आचार्य जी, इस पर एक विषय, एक पहलू के ऊपर कुछ सवाल आ रहे हैं कि लिब्रलिज़म जो है वो इकोनॉमी (अर्थव्यवस्था) को भी चला रहा है। तो इन दोनों चीज़ों को साथ-साथ में कैसे लेकर चलें? क्योंकि आजकल इंस्टाग्राम पर भी हम देखेंगे तो ये पूरा एक व्यवसाय है, इन्फ्लुएंसर मार्केटिंग का, जहाँ पर लोग देह दिखाकर ही सामान बेचते हैं और उससे इकोनॉमी चलती है। तो यंगस्टर्स (युवाओं) के लिए भी बड़ा अट्रैक्टिव (आकर्षक) करिअर ऑप्शन बनता जा रहा है। तो कहीं-न-कहीं लोगों को दिख रहा है कि ये सब तो इन सम सेंस (एक संदर्भ में) मार्केट की डिमांड (माँग) है। तो उसको...

आचार्य: देखो, अब देह दिखाकर कोई अच्छी चीज़ तो बिकेगी नहीं। तो इकोनॉमी चलती है वैल्यू (मूल्य) से।

ठीक है?

तुम्हें कैसे पता कि इस रुमाल की कीमत, मान लो सौ रुपए ही है? ये हम तय करते हैं न? कोई भी चीज़ ख़ुद चिल्लाकर तो बोलती नहीं कि ‘मेरी वैल्यू क्या है’। कोई भी चीज़ ख़ुद चिल्लाकर नहीं बोलती है। तुम तय करते हो उसकी क्या वैल्यू है।

अब सोना ले लो। सोने की क्या कीमत है? सोने की कीमत सोने में नहीं है, सोने की कीमत आपके मन में है। आपको सोना पसंद है किसी भी वजह से, वो चाहे आपकी आंतरिक कोई वजह है जिसकी वजह से आपने सोने को इतना मूल्य दे रखा है। फिर उससे अर्थव्यवस्था चलती है। तो अर्थव्यवस्था बिलकुल उलटी-पुलटी हो जाएगी, ग़लत हो जाएगी अगर इंसान को सही चीज़ को मूल्य देना ही नहीं आता।

आप बेकार की चीज़ें इकट्ठी कर लेंगे, बेकार की चीज़ों से बाज़ार भर जाएगा, बेकार की चीज़ों का ही उत्पादन होगा, बेकार की चीज़ें ही आपके मन पर छा जाएँगी बिलकुल, क्योंकि आप बेकार की चीज़ों को ही मूल्य देते हैं। और किस चीज़ को मूल्य देना है, किस चीज़ को मूल्य नहीं देना है, यह बात आपको इकोनॉमिक्स (अर्थशास्त्र) नहीं सिखा सकती। यह बात आपको अध्यात्म ही बताएगा।

तो देख रहे हो हम कहाँ पर आ गए?

इकोनॉमिक्स के मूल में है इवैल्यूएशन (मूल्याँकन) और इवैल्यूएशन ख़ुद इकोनॉमिक्स नहीं सिखा सकती। इवैल्यूएशन आपको आध्यात्म, स्पिरिचूऐलिटी बताएगा। आदमी अगर आध्यात्मिक हो जाए तो अर्थव्यवस्था बिलकुल बदल जाएगी, एकदम अलग हो जाएगी। आप आज जिन बेवकूफ़ी की चीज़ों को मूल्य देते हैं, आप उन चीज़ों को महँगा बना देते हैं; वो चीज़ें दो कौड़ी की हो जाएँगी।

अब कोई मान लीजिए होटल है। कमरा है उसमें, पच्चीस हज़ार का कमरा है। एक-एक लाख के कमरे वाले भी होटेल हैं। ठीक है? कमरा ही है, आप उसके पच्चीस हज़ार दे रहे हो क्योंकि आपके मन में एक छवि बना दी गई है कि यही गुड लाइफ़ (अच्छी ज़िंदगी) है। अगर मैं उसमें एक दिन रह आता हूँ तो न जाने कितनी बड़ी बात है। तो आप उसके लिए पच्चीस हज़ार देने को तैयार हो जाते हो। उस कमरे की कीमत पच्चीस हज़ार की नहीं थी। कोविड की पहली लहर के ठीक बाद जब लॉकडाउन वगैरह खुला था, बीस-बीस हज़ार के कमरे, डेढ़-डेढ़ हज़ार में उपलब्ध थे। मैं उदयपुर की बात कर रहा हूँ। बीस हज़ार का कमरा ढाई हज़ार में मिल रहा है। अगर कमरे की कीमत बीस हज़ार की ही होती तो ढाई हज़ार का कैसे हो गया?

कमरे की कीमत नहीं थी, उसकी कीमत आपके मन में थी। आपका मन बदल गया, उस कमरे की कीमत बदल गई। और मन को जो ठीक तरीके से बदल दे उसको अध्यात्म कहते हैं। मन अगर ठीक तरीके से बदल गया तो इकोनॉमी पूरी बदल जाएगी। जिस चीज़ का जो सही दाम होना चाहिए अब वही लगेगा। और बहुत सारी चीज़ें हैं जो लाखों की, करोड़ों की बिक रही हैं, उन्हें कोई पूछने वाला नहीं होगा अगर आदमी आध्यात्मिक हो जाए तो। और बहुत सारी चीज़ें जिन्हें आज कोई पूछने वाला नहीं है, उन्हें हर कोई फिर पाना चाहेगा, उनको अपने सर पर रखना चाहेगा। उन चीज़ों का मूल्य लगना फिर शुरू हो जाएगा।

तो जब आप कहते हो कि लिब्रल वैल्यूज़ (उदार मूल्य) पर इकोनॉमी चल रही है तो इकोनॉमी बड़ी गड़बड़ चल रही होगी, क्योंकि आपने ग़लत चीज़ों को वैल्यू दे रखी होगी। यही तो हो रहा है चारों तरफ़ देखो न। इंसान खरीदारी करता है बिना ये जाने कि वो जो खरीद रहा है वो उसके किस काम का है। इंसान रिश्ते बनाता है बिना ये जाने कि वो जो चीज़ घर ला रहा है, उसके किस काम की है।

नतीजा? दुख, जीवन ऊर्जा का क्षय, समय की बर्बादी, ज़िंदगी की ही बर्बादी।

प्र२: आचार्य जी, आज भी घरों में लड़कियों को बचपन से ही यही शिक्षा दी जा रही है कि तुम सजा-सँवरा करो, बाहर कम जाया करो, अपनी सुंदरता पर ध्यान रखो ताकि और अच्छे घर में तुम्हारी शादी हो पाए। यहाँ तक कि हमारे घर में एक लड़की को ट्यूमर होने के नाते उसका यूट्रस (गर्भाशय) निकलवाना पड़ गया, तो घर में हंगामा हो गया इस बात से कि इसकी अब शादी कैसे होगी। कृपया इस पर कुछ प्रकाश डालें।

आचार्य: वो तो है ही न। देखो, स्त्रियों के साथ ये बड़ा दुर्भाग्य रहा है कि उन्हें शरीर ही माना गया, शरीर को उनकी सबसे बड़ी संपत्ति, सबसे बड़ा एसेट माना गया और उससे बड़ा दुर्भाग्य यह रहा है कि यह बात स्त्रियों ने ख़ुद ही मान ली।

जिन्होंने प्रश्न में कहा है न कि लड़की का यूटेरस निकालना पड़ा तो अब घर में हाय-तौबा हो रही है कि इसकी शादी कैसे होगी, वो हाय-तौबा करने वाली औरतें ही होंगी। ज़्यादा शोर माँ ने, मामी ने, फूफी ने, चची ने, इन्होंने ही मचा रखा होगा। क्योंकि स्त्रियों ने ख़ुद यह मान लिया है कि वो देह मात्र ही हैं, कि उनकी ज़िंदगी उनके शरीर से ही चलनी है। और ये बड़ी निचले दर्जे की बात है न?

समझ रहे हो?

मैं सब महिलाओं से आग्रह करता हूँ, बिलकुल निवेदन – आपकी संभावना अपार है, आपकी भी सच्चाई आत्मा मात्र है। ये कहना कि आप किसी से कम नहीं, बहुत छोटी बात होगी। कम होना तो छोड़िए, अनंतता आप में विद्यमान है। जो ऊँचे-से-ऊँचा मक़ाम पाया जा सकता है ज़िंदगी में, आप उसकी अधिकारिणी हैं। लेकिन उसमें से कुछ भी आपको नहीं मिलेगा अगर आप एक देह-केंद्रित जीवन ही बिताती रह गईं तो।

देह केंद्रित जीवन बिताने में क्या-क्या आता है? एक तो वही जिसकी अभी चर्चा हो रही थी कि देह का प्रदर्शन, देह का इस्तेमाल करके लाभ पाने की इच्छा और कोशिश, और भी चीज़ें आती हैं। ये जो अत्यधिक भावुकता है, ये भी तो देह से ही उठती है न? शरीर के रसों से उठती है वो जो एक्सेसिव एमॉशनैलिटी (अत्यधिक भावुकता) होती है। मत करिए ये अपने साथ।

इसी तरीके से ये जो हार्मोनल स्विंगस (हार्मोनल परिवर्तन) होते हैं, मत होने दीजिए। इन्टेलिजेन्स (बोध), एमॉशनैलिटी (भावुकता) से कभी भी बेहतर है। और मैं इंटलेक्ट (बुद्धि) की नहीं, इन्टेलिजेन्स की बात कर रहा हूँ, बोध की। जो कुछ भी आपके मन में, तन में हो रहा है, उसकी साक्षी रहिए। जानिए न कि ‘यह सब तो शरीरगत चीज़ें हैं, केमिकल्स (रसायन) हैं, हॉर्मोन्स हैं, आंतरिक फिज़िकल सिस्टम्स (भौतिक प्रणालीयाँ) हैं, अपना काम कर रहे हैं; मैं क्यों इनमें लिप्त हो जाऊँ?’

किसी पुरुष को, सेक्शुअलिटी (लैंगिकता) को, अपने जीवन का केंद्र मत बना लीजिए। पुरुष बहुत छोटी चीज़ है, बहुत-बहुत छोटी चीज़ हैं पुरुष। आपको तो परमात्मा पाना है, बल्कि परमात्मा हो जाना है। ये कहाँ आप पुरुषों पर अटक जाती हैं? बहुत बोल चुका हूँ इसमें, बहुत बार यही आग्रह करा है।

प्र: आचार्य जी, जिन भी महिलाओं को मैं देख पा रहा हूँ कि वो कमाती हैं और अपनी चेतना को बढ़ाने पर ध्यान देती हैं, उन सभी केसेस (मामलों) में तलाक़ के हर दिन, प्रतिदिन केसेस बढ़ते जा रहे हैं। क्या लड़कियों के नग्न होने में या उन्हें स्वयं को ऑब्जेक्टिफ़ाई करने में रीति-रिवाज़ों का या समाज का दोष नहीं है, जो शादी जैसे कॉन्सेप्ट को बढ़ावा देते हैं जहाँ महिलाओं के मन में ज़बरदस्ती पुरुष-केंद्रित जीवन को बढ़ावा देने का काम करते हैं? कृपया इस पर प्रकाश डालें।

आचार्य: हाँ है, बिलकुल है, एकदम। इसमें कोई दो राय नहीं। देखो, बिलकुल ठीक बात है कि पशुता तो चाहती ही है दूसरे पर वर्चस्व। ठीक है? दूसरे पर अधिकार कर लें, किसी के शरीर पर हमारा विशेषाधिकार हो जाए – ये सब पशुओं की निशानियाँ होती हैं। ईर्ष्या तुमने पशुओं में नहीं देखी? संप्रभुता की भावना पशुओं में नहीं देखी? वर्चस्व, डोमिनेशन (प्रभुत्व), इसकी होड़ पशुओं में नहीं देखी?

तो वही सब इंसानों में भी रहती है। पुरुष स्त्री पर अधिकार करना चाहता है, स्त्री भी मौका मिलने पर पुरुष पर अधिकार करना चाहती है। तो जब समाज अध्यात्म से अछूता रहा हो तो फिर वो पशु-प्रधान हो जाता है।

आप कहते हैं न समाज पुरुष-प्रधान रहा है; मैं उसे पुरुष-प्रधान नहीं मानता, मैं उसे पशु-प्रधान मानता हूँ। उसमें पशुता चलती रही है, चाहे वो पुरुष की पशुता हो और चाहे स्त्री की पशुता हो। हमारा समाज पशु-प्रधान समाज रहा है क्योंकि उसमें पाश्विकता से ऊपर उठाने वाली चीज़ कभी बहुत आगे आ नहीं पायी। और मैं भारत की बात कर रहा हूँ जो सबसे अधिक आध्यात्मिक देश रहा है। पशुता की माया इतनी ज़बरदस्त होती है कि भारत में भी अध्यात्म वाकई बहुत गहराई तक जा नहीं पाया। दूसरे देशों की तो बात छोड़ ही दो, वो तो बहुत दूर के हैं, भारत जैसे तथाकथित आध्यात्मिक देश में भी आम-आदमी बहुत कम आध्यात्मिक है, बहुत-बहुत कम।

तो फिर आम-आदमी कैसा है? आम-आदमी पाश्विक है। संसार कैसा है? संसार पशु-प्रधान है। जब संसार पशु-प्रधान है तो पुरुष स्त्री का शोषण करना चाहता है। स्त्री भी अगर कभी ताक़त पा जाए तो पुरुष का शोषण करती है, दूसरी स्त्रियों का शोषण करती है। पुरुष और स्त्री मिलकर जानवरों का शोषण करते हैं, पर्यावरण का शोषण करते हैं। जो जिसको पाता है, उसी का शोषण करता है जैसा कि जंगल में होता है – जो जिसको पा गया, मारकर खा गया।

तो ये सब चलता रहा है। ये सबका जो इलाज है, वो आध्यात्मिकता ही है। देखो, आध्यात्मिकता का मतलब होता है कि जो कुछ भी ऊँचे-से-ऊँचा है – सोचना, विचारना, समझना, उसको मूल्य, महत्व, सम्मान दिया जाए – ये अध्यात्म है।

और पाशविकता का क्या मतलब होता है? कि जो कुछ भी तुम्हारे भीतर से चाहत उठ रही है, डिज़ायर , कामना, बस तुम वही करने निकल पड़ो – ये पाश्विक लिब्रलिज़म है। ’आई विल डू एज़ आई प्लीज़ (जो मेरा मन करेगा, मैं करूँगा, मेरी मर्ज़ी)’। और तुम्हारी मर्ज़ी आ कहाँ से रही है? वो तुम्हारे एनिमल सेंटर से आ रही है, वो तुम्हारी पाश्विकता के केंद्र से आ रही है। और वही करने तुम निकल पड़े हो। ये बहुत फूहड़ बात है!

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