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कैसे लोगों से बचें? किनका साथ करें? || आचार्य प्रशांत, वेदांत पर (2021)
Author Acharya Prashant
Acharya Prashant
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नर्क क्या है? ग़लत लोगों का साथ ही नर्क है। स्वर्ग क्या है? सही लोगों का साथ ही स्वर्ग है। ~निरालंब उपनिषद्

आचार्य प्रशांत: संसार के विषयों में रचे–पचे लोगों की संगति ही नर्क है। मैं नर्क से शुरू करूँगा, ज़्यादा क़रीब की बात है। हमें उसका अनुभव ज़्यादा है, ज़्यादा आसानी से समझेंगे।

“संसार के अनुभवों में रचे–पचे लोगों के निकट होना ही नर्क है।“ जिनके पास जाओ वो यही बात शुरू कर दें, क्या—'की बाज़ार में चाय के दाम बढ़ गये हैं। फलाना खम्भा है, वो सड़क पर गिरने को तैयार है।‘ आप अभी आये हो, बातचीत ही यही हो रही है, ‘बगल के माथुर जी ने नयी गाड़ी ले ली है। शुक्ला जी का बेटा अपनी बीबी को लेकर के ज़ाम्बिया में बस रहा है।‘ बात ही घर पर यही चल रही है बिलकुल। ये श्लोक आपके दिमाग में कौंध जाना चाहिए:

“संसार के विषयों में रचे–पचे लोगों की संगति ही नर्क है”

और वो इन सब विषयों की बात इतने आत्मविश्वास से करेंगे, इतनी गंभीरता से करेंगे जैसे बिलकुल मुक्ति, मोक्ष, परमात्मा की ही बात हो रही हो। और इधर–उधर की आप उनके संदर्भ में कोई बात करिए, उनसे कहिए, ‘वेदान्त, उपनिषद्’ वो ऐसे इधर–उधर देखने लगेंगे।

और आप भोजन का ज़िक्र कर दीजिए, वो बताना शुरू कर देंगे, ‘देखो! आज मैं तुम्हें पंचमेली दाल बनाना बताता हूँ।‘ और पंचमेली दाल की विधि वो आपको इतने विस्तार से और इतनी गहराई से बताएँगे कि आपको लगेगा कि और जीवन है क्या!

ऋषि कह रहे हैं, “सांसारिक विषयों में पचे हुए लोगों के साथ हो अगर तुम, तो नर्क में हो।“ ये बात हमको थोड़ी अजीब लगेगी क्योंकि अभी दौर चल रहा है, जिसमें हमें सीख ही यही दी जा रही है कि संसार में जिस भी विषय के साथ हो तुम, उसी में गहराई से डूब जाओ, यही अध्यात्म है। कि अगर तुम एक भुख्खड़ क़िस्म के आदमी हो बिलकुल खाऊ, पेटू और दिनभर तुम्हारा यही चलता रहता है कि खाना बनाओ कि खाना मँगाओ कि खाना खाओ, तो तुम खाने में ही डूब जाओ, यही अध्यात्म है। और इस तरह की सीख हमको बहुत पसन्द आती है। गुरु लोग जब इस तरह की बातें बताते हैं न, व्हाटेवर यू आर डूइंग, डू इट वेल, दैट इज़ जॉय तुम जो कुछ भी कर रहे हो, उसको बहुत अच्छे से करो यही आनन्द है। तुम कहते हो, ‘ये, ये बढ़िया बात बोली! यही तो हम चाहते थे कि कोई बोल दे।‘

तो अगर मैं पेटू हूँ, ग्लटनस हूँ, तो बस कोई ये बोल दे कि बेटा तुम डूबकर के, अपना टिक्की, चाट-मसाला, छोला-वोला बनाया करो—ये ही आनन्द है, ये ही अध्यात्म है। तो वो ख़ुद भी यही करेंगे। आप उनके पास जाएँगे, वो आपसे भी यही बात करेंगे। आप घर आये हैं, आपको देखते ही कहेंगे, ‘अरे! तू पतला हो गया।‘ आप उनको कहिए, ‘पतला नहीं हो गया हूँ, तीन किलो बढ़ गया मेरा। तो अच्छा नहीं, अच्छा! ये तू! तेरी खाल में कुछ हो गया है क्या! तेरा रंग दब गया, साँवला हो गया है! नहीं मुझे तो ऐसा नहीं लगता।‘ ‘नहीं हमें ऐसा लग रहा है, ज़रूर तू खाना ठीक नहीं खाता, आजा अब मैं तुझे विस्तार से बताता हूँ, तुझे क्या खाना चाहिए।’

और उसके बाद जो ‘भोजनपुराण’ शुरू होगा, अन्तहीन, ‘छोलाकांड,’ तुम बताओ तो ‘राजमाध्याय’ जो चाहिए सब पूरा वही, ‘पनीर उपनिषद्’! ऐसे ही दूसरे मिलेंगे जिनके लिए सबसे आवश्यक विषय है शादियाँ, ‘के देखो! लता जी की बबली की हो गयी! तेरी कब होगी।‘ और वो इतनी गंभीरता से, आपको चर्चा में उतारेंगे कि आपको पता भी नहीं चलेगा कि आप उनके साथ कब, कितने गहरे उतर गये। ऋषि बहुत पहले आगाह कर गये थे, यही नर्क है।

जिन लोगों के पास सांसारिक कचरे के अलावा कुछ न हो बात करने के लिए, उनके निकट रहना ही ऐसा है जैसे नर्क में रहना। नर्क संक्रामक बीमारी जैसा है, सोशल डिस्टन्सिंग (सामाजिक दूरी) माँगता है। कोविड में तो कहते थे कि दो गज की दूरी से तो काम चल जाता है। ऐसों से कम–से–कम दो हज़ार गज की दूरी बनाएँ और फ़ोन में भी इनको ज़रा ब्लॉक करके रखें।

जो भी कोई आपमें सर्वाधिक रुचि और गहरी उत्सुकता यही रखता हो कि आप खा क्या रहे हैं? आप कमा कितना रहे हैं? आप पहन क्या रहे हैं? आप शादी कितनी कर रहे हैं? कब कर रहे हैं? या कब नहीं कर रहे हैं? या आप बच्चा पैदा कब कर रहे हैं? या आप मकान कब बनवा रहे हैं? या आप गाड़ी कब ख़रीद रहे हैं? जिस भी किसी का आपसे रिश्ता ही इन्हीं बातों पर आधारित हो बस, जान लीजिए यही व्यक्ति नर्क है आपके लिए। वो आपसे और कोई बात कर ही नहीं सकता। जब भी मिलेगा यही बात करेगा, ‘नयी गाड़ी कब आ रही है? ये घर कब छोड़ रहे हो? और आज खाने में क्या बना है? कुछ पैसे बढ़े कि नहीं बढ़े? शिकागो घूमकर के आये तुम कि नहीं आये अभी?’ उसके पास कोई विषय ही नहीं है, आपसे इसके अतिरिक्त बात करने का। बचिएगा!

नर्क के वासियों के मुँह पर नही लिखा रहेगा कि हम नर्क से हैं। उन्हें कोई ख़ास वर्दी नहीं दी जाती है। जैसे— जेल के बाशिंदों की होती है न, ख़ास वर्दियाँ। नर्क के वासियों को कोई विशेष वर्दी नहीं दी जाती है। आपको उनकी बातचीत, उनके व्यवहार, उनके रुझान से पहचानना होता है कि वो कौन हैं। और मुश्किल नहीं है, कितना सरल सूत्र दे गये ऋषि:

“संसार के विषयों में रचे–पचे लोगों का संसर्ग ही नर्क है”

कोई स्वर्ग, कोई नरक मृत्यु के बाद नहीं। आपने सब यहीं झेल लिया मृत्यु के बाद क्या बचा झेलने को। कोई इतना अन्याय क्या करेगा आपके साथ कि मौत के बाद भी आपको दंड दे। जितना दंड किसी को मिलना नहीं चाहिए, उससे ज़्यादा तो हम, जीवनकाल में ही झेल लेते हैं। मृत्यु के बाद आवश्यकता क्या है और सज़ा भुगतने की। समझ में आ रही है बात?

अब स्वर्ग के बारे में बोलना कोई विशेष आवश्यक नहीं। तुम नर्क से बच जाओ, यही स्वर्ग है। तुम नर्क से बच जाओ, यही स्वर्ग है। नर्क और स्वर्ग के बीच में कोई नो मैन्स लैंड (किसी की भूमि नहीं) होता है कि नर्क से तो निकल गये हैं, स्वर्ग में अभी पहुँचे नहीं। जो नर्क में नहीं है वो स्वर्ग में ही है।

तो श्लोक तो कहता है कि “सत्पुरुषों का सत्संग ही स्वर्ग है।“ मैं इस बात को थोड़ा और बढ़ाकर के कहूँगा, “सत्पुरुष नहीं भी उपलब्ध हैं, तुम बस ‘नर्क पुरुषों’ से अगर बचे हुए हो, तो भी तुम स्वर्ग में हो।“ क्योंकि ‘नर्क पुरुषों’ से अगर तुम बच गये तो तुम स्वयं ही अपने लिए “सत्पुरुष” बन गये। तुम अपनी संगति भी फिर कर लो, तो तुम स्वर्ग में ही हो। बस, तुम नर्क से बचे रहो।

इस खोज में मत पड़ जाना कि सत्पुरुष कब मिलेगा तब उसकी संगति से हमें स्वर्ग मिलेगा। तुम अपने लिए सत्पुरुष स्वयं बन सकते हो बशर्ते तुम नर्क के आकर्षण से बचे रहो। और अब इसमें से ये भी प्रकट होना चाहिए कि अगर तुम्हें ऐसा कोई मिल जाता है जीवन में, जो तुम्हें नर्क से निकालता है खींच–खींचकर के बाहर और बार–बार, तो वही तुम्हारे लिए स्वर्ग का सन्देश लाया है।

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, इसमें एक शब्द है “रचे–पचे” होना और उस चीज़ को गहरे रूप से जानना। इन दोनों चीज़ों में अन्तर क्या है? क्योंकि आपसे तो हर विषय पर बात होती है।

आचार्य: “रचे–पचे” होने का मतलब होता है, ‘अभिन्न हो जाना।‘ तुम जब खाना बनाते हो, तो वो जिसे कहते हो न, पकाना, उसके लिए दूसरा शब्द है: पचाना (पच ही)। उसमें क्या होता है? निशानी क्या होती है? तुम कब बोलते हो कि कोई चीज़ पक गयी— जब तुम पकाना शुरू करते हो, उसमें ३–४ चीज़ें सब अलग–अलग होती हैं। मान लो दाल पका रहे हो, तो दाल अलग होती है, पानी अलग होता है, हल्दी अलग होती है, नमक अलग होता है, मसाला अलग होता है। ठीक है न। और मान लो उसमें तुमने दो तरह की दाल डाल दी, तो वो भी सब अलग–अलग होती है। तुम कब कहते हो कि ये पक गया— जब वो सबकुछ एक हो जाता है।

तो रचे–पचे होने का मतलब है, दुनिया के वो लोग, जो दुनिया की चीज़ों से बिलकुल एक हो गये हैं, अब अलग हो ही नहीं सकते। उनकी अपनी कोई पहचान बची ही नहीं हैं। तुम कितना उन्हें अलग करना भी चाहो, तो बड़ी तकलीफ़ आएगी। जैसे— पके हुए खाने में अब तुम उसके जो पदार्थ थे, उनको अलग–अलग करना चाहो, बड़ा मुश्किल काम हो जाएगा, वैसे ही।

कुछ लोग उस स्थिति में पहुँच जाते हैं, जहाँ अगर तुम उनको विषयों से अब अलग करना चाहो, पृथक कि तुम अलग, विषय अलग; होने के नहीं। ऐसो को कहते हैं, “रचा–पचा होना।“ तुम उनको, उनकी ज़मीन–जायदाद से अलग कर दो, वो बचेंगे ही नहीं; कुछ हैं ही नहीं। तुम उन्हें, उनके पैसे से अलग कर दो, तुम उनके स्मृतियों से, अनुभवों से अलग कर दो, वो बचेंगे ही नहीं। आत्मा से उनका कोई सम्पर्क नहीं, बहुत दूर निकल आये हैं। उनकी अब सारी पहचान, उनकी अब पूरी अस्मिता, ज़िन्दगी अब है विषयों से। वो विषय हटा दिये तो वहीं ढेर हो जाएँगे, ख़त्म हो जाएँगे। ऐसे लोग कहे जाते हैं, “विषयों में रचे–पचे लोग।”

प्र: आचार्य जी, अभी आपने जो नर्क की परिभाषा बतायी उसके बाद एक ही तरह के प्रश्नों की झड़ी लग गयी। सब लोग पूछ रहे हैं कि आजकल तो सभी लोग संसार में डूबे हुए हैं, मतलब नर्क में ही जी रहे हैं। फिर इनसे सही रिश्ता कैसे रखें?

आचार्य: सभी लोग माने क्या? मुझ पर भी इल्ज़ाम लगा रहे हो? मैं भी ऐसा ही हूँ? सभी कहकर तुमने, मुझे भी कहीं का नहीं छोड़ा। मैंने उत्तर दे दिया, सभी नहीं होते न, सभी अगर वैसे ही होते, तो फिर ऐसा तो कोई बचता ही नहीं, जिससे कि तुम इस बारे में सवाल कर सको। पर अभी तो कोई है न, जिससे इस बारे में सवाल कर रहे हो— मैं हूँ।

मेरा होना ही बताता है कि और भी होंगे ऐसे, जो वैसे ही नहीं हैं जिनसे तुम घिरे हुए हो। एक बात और अच्छे से समझिएगा। आप कह रहे हैं कि आप चारों तरफ़ घिरे हुए हैं इन नारकीय लोगों से। आपके लिए वो नर्क हैं, उनके लिए? उनके लिए, आप नर्क हैं।

तो ये देखिए, परस्पर, म्यूचूअल (आपसी) नारकीयता है। जिसमें आप सब एक-दूसरे के नर्क बन के बैठे हुए हो। और सबने यही चुनाव किया है और ऐसा नहीं कि इससे बाहर आने का कोई रास्ता नहीं। आप सही चुनाव करना शुरू करो, विकल्प बहुत हैं, विकल्प मिलेंगे। बस ये बोलना बंद करिए की सभी ऐसे होते हैं; सभी ऐसे नहीं होते। आपने जिनको चुन रखा है, वो सभी शायद ऐसे होते हों। बात आपके चुनाव की है।

एक बात और समझिएगा। कई बार ऐसा भीपर होता है कि आपने जिनको चुन रखा है, वो आपके लिए नर्क बन गये हैं, सिर्फ़ इसीलिए क्योंकि आपने उनको चुन रखा है। अच्छे–ख़ासे इंसान को भी अगर तुम जीवन में देह बनाकर के बिठा लोगे तो वो तुम्हारे लिए नर्क ही बन जाएगा। ऋषि भी हो सकता है कोई, और ऋषियों के पीछे आज ही मुझे कहानी सुनायी जा रही थी। किसकी?

स्त्रोतागण: “कच और देवयानी” की।

आचार्य: “वो दानवों के गुरु शुक्राचार्य की सुपुत्री थीं। और ये देवों की ओर से गये थे, उनसे ज़रा अमरता का, संजीवनी का रहस्य सीखने, शुक्राचार्य से। और वो बार–बार उनसे कहें कि मुझसे विवाह कर लो, इत्यादि, इत्यादि, ये न माने।“

तो ये बहुत संभव होता है कि आपके सामने एक ऋषि भी आये, तो उसको देखो आप इसी दृष्टि से कि मेरे लिए तो पुरुष मात्र है, मेरे को तो विवाह में चाहिए, मैं तो इसको ऐसे ही वरण करूँगी। यही बात स्त्रियों पर भी लागू होती हैं। लोग बहुत बोलते हैं कि मेरी पत्नी है, वो हमेशा घर से किच–किच करती रहती है ये वो। पत्नी ही ऐसी है; या आपका रिश्ता ऐसा है। आपने उसे किस दृष्टि से चुना है, ये तो बताइए न। अगर रिश्ता ही लोभ आधारित है, देह आधारित है, मजबूरी पर आधारित है, विवशता पर और आधारित है कामुकता पर, तो वो आपके लिए नर्क बनेगी न। ऐसा नहीं कि वो और कुछ हो ही नहीं सकती। हो सकती थी, लेकिन अब आपने रिश्ता ऐसा बना लिया है कि वो आपके लिए नर्क बनेगी।

तो अगर आप कहते है, “आपके चारों ओर सब नर्क लोग जैसे ही दिखायी देते हैं, विषयों में रचे–पचे ही लोग दिखायी देते हैं।“ तो पहली बात तो ये कि आपकी एक ग़लती है कहना कि सभी ऐसे हैं, सभी ऐसे नहीं होते। और दूसरी ग़लती है, ये सोचना कि आस–पास के लोग ख़राब हैं। इस बात पर भी आप थोड़ा ग़ौर कर लीजिएगा कि हो सकता है लोग न ख़राब हों; आपने उनसे रिश्ता ऐसा बना रखा है कि वो आपके लिए ख़राब हो गये हों। हो सकता है वही लोग किसी और के लिए अच्छे भी हों। या हो सकता है वही लोग किसी और स्थिति में, किसी और रिश्ते में, अच्छे हो जायें। तो तत्काल स्थितियों पर और दूसरों पर दोष दे देना ठीक नहीं।

आपके हाथ में है (मुस्कुराते हैं) नर्क, स्वर्ग में बदल सकता है। उपनिषदों का यही तो काम है न, आपको वहाँ ले जाना, जहाँ जाने के आप अधिकारी हैं। आपको स्वर्गतुल्य आनन्द में स्थापित करना ही उपनिषदों का उद्देश्य है।

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